

प्रो. निर्मला जैन
आज सुबह प्रोफेसर निर्मला जैन का निधन हो गया। आलोचना के क्षेत्र में पुरुष- वर्चस्व को चुनौती देने वाली वे अपने समय की अकेली महिला थीं। दिल्ली के एक व्यवसायी परिवार में 28 अक्टूबर 1932 को जन्मीं, दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी. और डी.लिट् करने वाली और दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर और अध्यक्ष रह चुकीं निर्मला जैन हिन्दी की पहली महिला आलोचक हैं जिन्होंने आलोचना को अपना प्रमुख कर्मक्षेत्र चुना। यद्यपि एक स्त्री के रूप में उन्होंने महसूस किया है कि, “आलोचना मुश्किल डगर है और उसपर अगर स्त्री हो तो रास्ता अधिक कठिन हो जाता है।” ( विशाल कुमार सिंह द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार से)। इसके बावजूद वे हमेशा आलोचना को स्त्रीवादी नजरिए से देखने के खिलाफ रहीं।
निर्मला जैन की प्रमुख आलोचनात्मक पुस्तकें हैं, ‘रस सिद्धांत और सौन्दर्यशास्त्र’, ‘हिन्दी आलोचना की बीसवीं सदी’, ‘आधुनिक साहित्य : मूल्य और मूल्यांकन’, ‘आधुनिक हिन्दी काव्य में रूप-विधाएं’, ‘प्लेटो के काव्य सिद्धांत’, ‘पाश्चात्य साहित्य चिन्तन’, ‘कविता का प्रति-संसार’, ‘कथासमय में तीन हमसफर’, ‘कथा- प्रसंग यथा- प्रसंग’, ‘डॉ। नगेन्द्र’, ‘काव्य चिन्तन की पश्चिमी परंपरा’, ‘हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ’, ‘प्रेमचंद : भारतीय साहित्य संदर्भ’, ‘आधुनिक हिन्दी समीक्षा’ आदि। ‘अंतस्तल का पूरा विप्लव : अँधेरे में’, ‘महादेवी साहित्य (4 खण्ड )’ ‘जैनेन्द्र रचनावली (12 खंड)’, ‘रामचंद्र शुक्ल : प्रतिनिधि संकलन’, ‘नई समीक्षा के प्रतिमान’, साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतन’ तथा ‘निबंधों की दुनिया’ का उन्होंने संपादन किया है। ‘उदात्त के विषय में’, ‘बंगला साहित्य का इतिहास’, ‘समाजवादी साहित्य : विकास की समस्याएं’, ‘एडविना और नेहरू’, ‘सच, प्यार और थोड़ी-सी शरारत ( खुशवंत सिंह की आत्मकथा )’, ‘भारत की खोज’ आदि का उन्होंने अनुवाद किया है। ‘दिल्ली : शहर दर शहर’ उनके संस्मरण का बेहतरीन उदाहरण है। उनकी आत्मकथा ‘जमाने में हम’ भी खासी चर्चित हुई।
निर्मला जैन की आलोचना सैद्धांतिक भी है और व्यावहारिक भी। एक ओर उन्होंने आधुनिक मनोविज्ञान के आलोक में रस सिद्धांत की व्याख्या की है तो दूसरी ओर छायावाद से लेकर नयी कविता और समकालीन कथा साहित्य का मूल्यांकन किया है। उन्होंने अनुसंधान, सिद्धांत निरूपण, इतिहास आदि को साहित्य के मूल्यांकन के लिए जरूरी मानते हुए भी आलोचना को इनसे अलग रखने पर जोर दिया है। उन्होंने लिखा है, “ऐसे सर्व संग्रही प्रयत्नों से हिन्दी आलोचना चाहे जितनी समृद्ध दिखती हो, वास्तविक आलोचना के विकास की रेखा धुंधली होती है। “(हिन्दी आलोचना की बीसवीं सदी, भूमिका भाग)। निर्मला जी सिद्धांत निरूपण को उपयोगी मानते हुए ठेठ आलोचना की बात करती हैं और रचना प्रक्रिया को समझने पर जोर देती है। ठेठ आलोचना के तात्पर्य को समझाते हुए वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल की आलोचना का उदाहरण देती हैं और कहती हैं, “उन्होंने कैसे भक्तिकाल के तीन बड़े कवियों (तुलसी, सूर, जायसी) को चुना। उसमें भी उनका आग्रह बहुत साफ़ और स्पष्ट है। एक वरीयता क्रम उनकी दृष्टि में गोचर होता है साथ ही साथ बहुत सारी चीजें उनकी आलोचना से सिद्धांत के रूप में निकल कर सामने आती हैं। जैसे उन्होंने मुक्तक की तुलना में प्रबंध को बेहतर समझा, तत्पश्चात उन्होंने लोकमंगल की सिद्धावस्था और साधनावस्था की बात कही। उसमें भी साधनावस्था की जो कर्म का सौन्दर्य है उसे उन्होंने सबसे महत्वपूर्ण अवस्था माना है। इस तरह से ठेठ आलोचना मैं इसको कहती हूँ।” ( विशाल कुमार सिंह द्वारा निर्मला जैन से लिए गए साक्षात्कार से )
आज के स्त्री विमर्श पर अपनी प्रतिक्रिया देती हुई निर्मला जी कहती हैं, “मैं इस तथाकथित स्त्रीवादी आंदोंलन से बिल्कुल प्रभावित नहीं हूँ, क्योंकि जहाँ मूल समस्याएँ हैं वहाँ ये आंदोलन तो होते ही नहीं। कुछ सीमित समस्याओं को लेकर लिखने को मैं स्त्री विमर्श नहीं मानती। विमर्शों के नाम पर ये बस अपनी पहचान बनाने की कोशिश है। जिनको कलम चलाने की तमीज नहीं है वे आज स्त्री विमर्शों के सरोकार बन बैठे हैं और जो संपन्न परिवार से आती हैं उनकी अलग समस्याएँ हैं। हर घर की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं। असलियत से कोशों दूर रहकर और रचनाओं में अन्याय -अत्याचार के विरूद्ध लिख देने से स्त्री विमर्श नहीं होता। असली विमर्श वहाँ होता है जब कोई नीचे तबके के लोगों की समस्याओं को समझते हैं। छोटी-छोटी लड़कियों के साथ हो रहे हिंसक व्यवहार बहुत गहरी समस्याएँ हैं। इन समस्याओं को ऐसे नहीं आंका जा सकता, ये सब जानते हैं। जहाँ तक आपका सवाल है, प्रचलित ‘स्त्रीवादी दृष्टिकोण’ जिसको कहते हैं, वह सिर्फ उसी साहित्य का ठीक-ठीक मूल्यांकन कर सकता है जो स्त्रीवादी दृष्टिकोण से रचा गया हो। ये लोग तो स्त्री हैं ही। एक सीमा तक स्त्री का दृष्टिकोण उसमें आयेगा। अनायास आयेगा। लेकिन जिसे स्त्रीवाद कहते हैं यह जो वाद है इससे बड़े खतरे पैदा होते हैं। दुराग्रह पूर्वक जो नहीं है, उसे निकालने की कोशिश करते हैं। जैसे मान लीजिए प्रगतिवाद, और आपने प्रगतिवादी दृष्टिकोण लागू की अगर वह वाद प्रतिफलित नहीं हो रहा है रचना में तो आप उसका अवमूल्यन करेंगे। तो जब भी किसी वाद से बंधकर रचना को देखेंगे तो वहाँ गड़बड़ है। तो स्त्रीवादी दृष्टिकोण से न इन्होंने लिखा और न ही उन्हें देखा जाना चाहिए। बाद के लोगों में बहुत ऐसे हैं जिन्होंने स्त्रीवादी दृष्टिकोण से लिखा।” ( उक्त साक्षात्कार से)
‘कथा समय में तीन हमसफर’ में निर्मला जी ने कृष्णा सोबती, मन्नु भंडारी तथा ऊषा प्रियंवदा के साथ के अपने निजी संबंधों के साथ ही उनके कथा संसार का भी विश्लेषण किया है। उनके विषय में निर्मला जी कहती हैं, “इन तीनों महिलाओं ने न किसी प्रचार माध्यम का सहारा लिया और न ही किसी आंदोलन में हिस्सेदारी की। मैं उनके इस साहस को दाद देती हूँ। वैसे भी हम तीनों में काफी मित्रता है, और मित्रता से ज्यादा समझदारी। इसलिए जब मैं उनकी आलोचना करती हूँ तो ये पक्षपात का भाव भी नहीं रहता कि किसी के बारे में कम लिखूँ या ज्यादा। जो भी लिखती हूँ मुक्त भाव से लिखती हूँ। कोई नहीं कहता कि मेरे साथ कोई दुराग्रह हुआ है और दूसरे के साथ कोई फेवॉराईटीजिम हुआ है। तीनों बहुत मैच्योर, प्रौढ़, व्यक्तिगत सम्बन्धों को महत्व देने वाली लेखिकाएँ हैं। मैंने व्यक्तिगत और व्यावसायिक संबंधों को कभी नहीं मिलाया। अर्थात् मित्रता एक जगह और लेखक-आलोचक का सम्बन्ध एक जगह“ (उक्त साक्षात्कार से)
दलित विमर्श पर निर्मला जैन की टिप्पणी है, “ दलित विमर्श की मूल संकल्पना की सबसे बड़ी सीमा यही है कि वह दलित –सवर्ण संघर्ष को मूल्य रूप में प्रस्तावित करता है। …. प्रतिरोध, आक्रोश, संघर्ष, समाज की वास्तविकता तो हो सकते हैं, उन्हें रचनाओं की पहचान भी बनाया जा सकता है, पर मूल्यांकन के लिए प्रतिमान का दर्जा देने में व्यावहारिक कठिनाई पैदा होती है। इसलिए और भी कि ये सीमा-पार के दूसरे आलोचकों की नीयत और क्षमता दोनो को संदेह की दृष्टि से देखते हैं। ऐसी स्थिति में यह एक सीमित आरक्षित क्षेत्र के रचनाकारों के बीच रचने और सराहने का मामला होकर रह जाता है। इस साहित्य से जो नया बोध और युक्तियां सामने आईं उन्होंने क्रमश: रूढ़ियां विकसित कर लीं और ऐसी ब्रांडधर्मिता पैदा हो गई जिसके कारण दोहराव और आपसी टकराव की संभावना बढ़ने लगी।
‘स्त्री’ और ‘दलित’ प्रश्न पर केन्द्रित सरोकारों ने पिछली सदी के अंतिम दशक में जिस रचनाधर्मिता को प्रेरित और सवंर्धित किया था, उसके पीछे गंभीर सामाजिक चिन्ता थी। पर क्रमशः उसका स्खलन ब्रांडधर्मी लेखन में होने लगा। ऐसी रचनाओं का अम्बार लग गया जिनका ‘उत्पादन’ इस ‘ठप्पे’ के सहारे साहित्य की दुनिया में मान्यता प्राप्त करने की लालसा से लगभग ‘उद्योग’ की तरह किया जा रहा था। इस तथाकथित साहित्य की अपनी रूढ़ियाँ और मार्केटिंग के अपने तौर-तरीके विकसित हो गए। ‘सामाजिक न्याय’ की गंभीर चिंता से प्रेरित रचनाओं के बीच ‘असल’ और ‘नकल’ की पहचान दुष्कर और श्रमसाध्य हो चली। इस कठिनाई ने निश्चित रूप से पाठकों की संख्या को प्रभावित किया है। “(उद्धृत, मुक्तांचल, जनवरी-मार्च 2019, पृष्ठ- 32)
छायावाद को निर्मला जी ने ‘स्वच्छंदता का स्वाभाविक पथ’ माना है। लम्बी छायावादी कविताओं में ‘प्रलय की छाया’ और ‘राम की शक्तिपूजा’ पर उन्होंने स्वतंत्र रूप से विचार किया है। ‘राम की शक्तिपूजा’ को वे निराला की काव्य- शक्ति का प्रमाण ही नहीं मानतीं बल्कि हिन्दी के शक्ति- काव्य का प्रतिमान घोषित करती हैं। प्रेमचंद, निराला, जैनेन्द्र, इलाचंद्र जोशी जैसे रचनाकारों पर उन्होंने विस्तार से लिखा है।
आलोचकों का मूल्यांकन करते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल की तरह निर्मला जी सूत्रवाक्यों का इस्तेमाल करती हैं और बाद में उन सूत्रवाक्यों की व्याख्या करती रहती हैं। उदाहरणार्थ “मिश्रबंधुओं की आलोचना दृष्टि मुख्यरूप से कृतिनिष्ठ थी।” “शुक्ल जी के विवेचन की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे किसी भी सिद्धांत में उसके रूढ़ रूप को छोड़कर मूल मंतव्य तक पहुंचने का प्रयास किया करते थे।” “सुमित्रानंदन पंत की देन मुख्यत: काव्यभाषा और शिल्प के क्षेत्र में दिखाई पड़ती है।” “गद्य को जीवन- संग्राम की भाषा मानने वाले निराला की आलोचनाएं प्राय: विवादात्मक हैं।” “प्रसाद ने अपने विचार-क्रम में जिन प्रश्नों को उठाया है उनके सूत्र आचार्य शुक्ल की आलोचना में निहित हैं।” “हजारीप्रसाद द्विवेदी साहित्य की हर प्रवृत्ति और व्यक्ति को देश काल व्यापी सांस्कृतिक संदर्भ में रखकर देखने -समझने के आग्रही थे।” “आज के हिन्दी पाठक में और विशेषकर विद्वत्समाज में काव्यशास्त्रीय अध्ययन के प्रति रुचि जगाने और सजगता उत्पन्न करने में डॉ।नगेन्द्र का विशेष योगदान है।” “रामविलास शर्मा ने मार्क्सवादी दृष्टि से समूचे हिन्दी साहित्य की परंपरा की नई व्याख्या प्रस्तुत करके मार्क्सवादी आलोचना का सामर्थ्य स्थापित कर दिखाया।” “मुक्तिबोध ने मार्क्सवादी आलोचना को सतहीपन से उबारकर गहराई तक ले जाने का प्रयास किया है।” “हिन्दी के आधुनिक आलोचकों में नामवर सिंह का स्थान इस दृष्टि से विशिष्ट है कि वे समाजवादी जीवन-दृष्टि और नई कविता की भाव भूमि के समवेत बोध को लेकर आलोचना में प्रवृत्त हुए।” आदि।
निर्मला जी के अनुसार आलोचना बहुत धीरज का काम है। आलोचक को बहुत पढ़ना पड़ता है। जबकि, “आजकल लोग लिखना बहुत बाद में चाहते हैं पर प्रशस्ति उसकी पहले चाहते हैं। व्यक्ति में आत्म निरीक्षण और आत्मालोचन जैसी प्रवृत्ति की कमी होती जा रही है। किंतु एक अच्छे लेखक होने के लिए जरूरी है कि आप आत्मालोचन करें। आप जब अपने खामियों के बारे में स्वयं सहज-सतर्क नहीं होंगे तब अच्छा कैसे लिखेंगे।।“ ( विशाल कुमार सिंह द्वारा लिए गए साक्षात्कार से )
समकालीन आलोचना के पतन की दशा देखकर निर्मला जी अत्यंत दुखी किन्तु बेबस हैं। वे लिखती हैं, “ जीवन में मूल्यबोध और विचारधारात्मक चिन्तन का जिस हद तक क्षरण हुआ है, उसका प्रभाव साहित्यिक गतिविधि में सबसे अधिक आलोचना कर्म पर पड़ा है। उसके मुख्य दायित्व –प्रतिमानों का कमोबेश निर्धारण, पूर्ववर्ती रचनाओं का पुन: पाठ, नई कृतियों की विवेक –सम्मत व्याख्या और अन्तत: उनका मूल्यांकन, गौण हो चले हैं। बचा है प्रायोजित विवरणधर्मी प्रशंसात्मक समीक्षाओं का अम्बार। ऐसा करना या फिर आलोचना-कर्म से विरत हो जाना गंभीर आलोचक की विवशता हो गई है। क्योंकि वस्तुनिष्ठ आलोचना का आग्रह तो बहुत है पर उसे सहने की ताब नहीं के बराबर। अगर आलोचना अनुकूल नहीं है तो वह बदनियती या नासमझी से प्रेरित मानी जाएगी। यानी, आलोचना के राजमार्ग पर वही चले जिसने बचाव के रास्ते पहले खोज रखे हों। वरना करिए लोकार्पण / विमोचन, पाइए पुष्प गुच्छ, दीजिए आशीर्वाद-पाने वाला प्रसन्न और देने वाला निरापद। और लिखने –छपने का व्यापार यूँ ही फलता –फूलता रहे -घालमेली, ब्रांडधर्मी रचनाओं से।
ऐसे माहौल में आलोचना अकाल-ग्रस्त होने के लिए अभिशप्त है। पर दूर- दूर तक फैले इस रेगिस्तान में हरियाली के जो कुछ द्वीप नजर आ रहे हैं, उन्हें चीन्हते और उनकी उपस्थिति दर्ज करते रहना भी उतना ही जरूरी है क्योंकि भविष्य तो आखिर इन्हीं में निहित है।“ ( हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ, भूमिका से पृष्ठ-9)
निर्मला जैन किसी खास विचारधारा की आग्रही नहीं हैं। उनकी आलोचना में उनका अध्यापक व्यक्तित्व निखरा हुआ दिखाई देता है। हिन्दी आलोचना को सैद्धांतिक दृष्टि से समृद्ध करने का उन्होंने महान कार्य किया है। अपनी आत्मकथा ‘जमाने में हम’ के लिए भी वे खासा चर्चित रही हैं। इस तरह उनकी आलोचना दृष्टि व्यापक और संतुलित है।
निर्मला जी एक प्रतिष्ठित नृत्यांगना भी थीं। उन्होंने नृत्य की शिक्षा कत्थक गुरु अच्छन महाराज ( बिरजू महाराज के पिता) से ग्रहण किया था।
वे बेहद निर्भीक और ईमानदार थीं। लगभग एक दशक पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक संगोष्ठी में जब मैंने मैत्रेयी पुष्पा की पुस्तक ‘चाक’ पर बोलते हुए कुछ प्रतिकूल टिप्पणियाँ कर दीं थीं और उसपर अन्य वक्ता मौन थे तो अध्यक्ष के रूप में निर्मला जी ने मेरी स्थापनाओं का भरपूर समर्थन किया था।
मैं निर्मला जी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
(साभार- प्रोफ़ेसर अमरनाथ की वाल से )

हिंदी साहित्य जगत की एक दीपशिखा बुझ गई है, लेकिन उसकी लौ अनंत तक हमारे हृदय और विचारों को आलोकित करती रहेगी। डॉ. निर्मला जैन, केवल एक आलोचक या शिक्षिका नहीं थीं — वे एक विचार थीं, एक प्रतिबद्धता थीं, और एक ऐसी सृजनात्मक ऊर्जा थीं जिसने हिंदी साहित्य की आलोचना परंपरा को नया विस्तार और नई ऊँचाई दी।
उनका लेखन गहराई, स्पष्टता और विवेकपूर्ण संवेदना का अद्भुत संगम था। चाहे ‘हिंदी आलोचना का विकास’ जैसी गहन आलोचना पुस्तक हो या ‘स्त्री और समाज’ जैसे वैचारिक विमर्श — डॉ. जैन ने हर बार अपने पाठकों को चिंतन की एक नई दिशा दी।
वे हिंदी की स्त्री आलोचना परंपरा की अग्रदूतों में से थीं, जिन्होंने नारी लेखन को न केवल गंभीरता से लिया, बल्कि उसमें छुपी सामाजिक चेतना और वैचारिक ऊर्जा को भी रेखांकित किया।
वैश्विक हिंदी परिवार की ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि 🙏🙏