इंद्रदेव प्रसाद, अधिवक्ता पटना, उच्च न्यायालय

बिहार की धरती से एक ऐतिहासिक पहल सामने आई है। पटना उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री इंद्रदेव प्रसाद ने लंबे संघर्ष के बाद यह सफलता हासिल की है कि उनके मामले में बार काउंसिल ऑफ इंडिया (BCI) अनुशासन समिति में सुनवाई हिंदी में हुई। इससे यह स्पष्ट होता है कि न्यायालयों में हिंदी में भी हो सकती है। यह निर्णय भारतीय न्यायपालिका में मातृभाषा के सम्मान की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। यह मामला परिवाद पत्र संख्या 1/2025 – महाधिवक्ता कार्यालय, बिहार बनाम इंद्रदेव प्रसाद से जुड़ा है। इसकी सुनवाई 30 अक्टूबर 2025 को हुई थी। प्रारंभ में कार्यवाही अंग्रेजी में शुरू हुई, लेकिन अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद ने आपत्ति जताई और कहा – इस प्रकरण से जुड़े कुछ मुवक्किल अंग्रेजी नहीं समझते। इसलिए न्याय की सच्ची भावना के लिए सुनवाई हिंदी में की जानी चाहिए।

उनके इस संवेदनशील तर्क से प्रभावित होकर अनुशासन समिति के अध्यक्ष श्री वेद प्रकाश शर्मा ने तुरंत कहा- मैं आपके आग्रह को स्वीकार करता हूँ। मैं हिंदी बोलता और

समझता हूँ, और विरोधी पक्ष की अधिवक्ता श्रीमती सूर्या नीलमबरी भी हिंदी में सहज हैं, अतः आगे की कार्यवाही हिंदी में की जाएगी। इस निर्णय को अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद अपने जीवन की बड़ी उपलब्धि मानते हैं। वे बताते हैं कि साल 1998 से (अधिवक्ता अनुज्ञप्ति संख्या 315/98) वे लगातार पटना उच्च न्यायालय में हिंदी में आवेदन दाखिल करते रहे हैं और अंग्रेजी वर्चस्व के विरोध में संवैधानिक तरीके से संघर्ष करते आए हैं।

इसी क्रम में उन्होंने CWJC संख्या 435/2015, कृष्ण यादव बनाम बिहार राज्य में भी याचिका दायर की थी, जिसके आधार पर 30 अप्रैल

2019 को पटना उच्च न्यायालय की पूर्णपीठ ने यह ऐतिहासिक निर्णय दिया था कि हिंदी में आवेदन या तर्क रखने पर कोई विधिक प्रतिबंध नहीं है।

इंद्रदेव प्रसाद का मानना है कि जब पटना उच्च न्यायालय और BCI अनुशासन समिति में हिंदी को स्वीकार किया जा सकता है, तो सर्वोच्च न्यायालय में भी हिंदी न्यायिक भाषा बन सकती है। उन्होंने कहा- देश आजाद है, लेकिन न्यायपालिका की भाषा अभी भी अंग्रेजी की गुलामी में है। हमें अपनी भाषा को न्याय के मंदिर में स्थापित करना होगा।

वे बताते हैं कि इस मिशन के लिए वे हर तरह का त्याग करने को तैयार हैं। वे प्रति माह लगभग 1,20,000 रुपये का त्याग इस आंदोलन के लिए कर रहे हैं। अगर जरूरत पड़ी, तो हिंदी के लिए प्राणों की आहुति देने से भी पीछे नहीं हटूंगा, ताकि आगे आने वाले समय में हिंदी को आधिकारिक रूप से संवैधानिक रूप से राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया जा सके उन्होंने दृढ़ स्वर में कहा। उनका सपना है कि- भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हिंदी को न्यायिक कार्यवाहियों की आधिकारिक भाषा बनाया जाए। यह पहल न केवल एक अधिवक्ता का व्यक्तिगत संघर्ष है,

बल्कि भारत की न्याय व्यवस्था में भाषाई स्वाभिमान की पुनर्स्थापना का भी प्रतीक बन चुकी है।

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