वाह! द्वारका एक्सप्रेस

डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम

वाह द्वारका एक्सप्रेस मार्ग!
तेरा भी जवाब नहीं!!
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपने नाटक अँधेर नगरी में आज से 150 वर्ष पहले ही लिख गए थे —
मानहु राजा रहत बिदेसा।
मानो राजा विदेश में रहता हो।
आज भी भारतीयों का राजा विदेश में है। वही अँधेर नगरी है। द्वारका एक्सप्रेस वे के बोर्ड देखिए। अंग्रेजी के सभी बोर्ड ठीक हैं। कोई गलती नहीं। आखिर हो कैसे? राजा विदेश जो बैठे हैं। मजाल कि उनकी शान में, बात में, भाषा में कोई गुस्ताखी हो जाए! ठीक अंग्रेजी के शब्दकोश की तरह, हर शब्द वहीं मिलेगा, उसी क्रम में। कोई चाहकर भी उसे हिला नहीं सकता। उसे जो सीट नंबर दे दिया, वही रहेगा। चाहे और सब उलट- पुलट हो जाए, अंग्रेजी वर्णों का शब्दकोश में स्थान वहीं रहेगा।
पर हिन्दी! इसका भी कोई चरित्र है! गरीब की जोरू, सबकी भाभी! कोई भी उसे कहीं छेड़ दे। उसे छेड़ने का सभी को अधिकार है। हमारे हिन्दी के वो, जिन्हें लज्जा आई होती तो ट्रम्प को भी सड़क पर घसीट लाते, उन्होंने हिन्दी से नाता ही तोड़ लिया है। कहते हैं — यह मेरी भाषा है ही नहीं। मैं तो गोरी मेम की संतान हूँ। मैंने कभी हिन्दी बोली ही नहीं। ये हिन्दी वाले होते ही गँवार हैं। इन्हें तो बस भोजाई कह दो एक बार। इतने पर ही फ़िदा होकर तुम पर लट्टू हो जाएँगे। गुलाम जो ठहरे!

मन किया कि आत्महत्या कर लूँ! जिसकी कोख से ऐसे नालायक बेटे पैदा हुए हों, उसमें रेत भरवा देता तो अच्छा होता!

अरे, क्या हुआ सर ! फिर किसी सिरफिरे ने छेड़ दिया आपकी प्रिया को ।
मैं बोला — छेड़ा ही नहीं, सरेराह छेड़ दिया।
— तो फिर रिपोर्ट लिखवाओ!
— किसे लिखवाऊँ! जिसे लिखवाऊँ, वही हँसता है। कहता है, इस रिपोर्ट को गोल गोल बना लो…

— वैसे हुआ क्या?
— मैंने कहा — देखो! एक अच्छी बात है कि द्वारका एक्सप्रेस वे पर जगह- जगह हिन्दी में साइनबोर्ड लिखे हैं, जो रास्ता बता रहे हैं। वे सिर्फ अंग्रेजी में भी लिख देते तो मैं उनका क्या उखाड़ लेता!
— आपको तो इससे खुश होना चाहिए।
— गुस्से में मैंने कहा — यदि बरसों बाद आपका बेटा घर आए और आपको यू स्टुपिड कहकर आपकी इज्जत नीलाम कर दे, सरेआम लज्जित कर दे तो क्या बेटे को धन्यवाद दोगे कि वह घर तो आया।
— नहीं, मैं कहूँगी कि ऐसा बेटा पैदा ही न होता तो ठीक था। और पैदा हो ही गया है तो आँखों से दूर ही रहे।
— तो फिर! ऐसी हिन्दी लिखने से क्या लाभ, जिसे पढ़कर और सुनकर रोना आए।
— हुआ क्या? यह बताओ!
मैंने ठंडे होकर कहा — देखो! हिन्दी में लिखना था — इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा। अंग्रेजी में इसे लिखा — IGI Airport.

मुझे इन दोनों से कोई आपत्ति नहीं है। आपत्ति है तो इस बात से कि
यह बोर्ड बीस जगह लिखा है, लेकिन वर्तनी बदल-बदल कर। भाई, क्या तुम्हें एक जैसा लिखना नहीं आता? कोई कैसा भी लिख दे? अनपढ़ हो क्या?
बताओ, लिखा है — ईं गाँ अँ हवाई अड्डा।
पहली बात तो यह कि इसका उच्चारण करके दिखाओ। बोलो — ईंगाँअँ हवाई अड्डा। जिसने भी लिखवाया है, उसने यह नहीं सोचा कि लोग बोलेंगे कैसे? यह लोगों की जुबान पर कैसे चढ़ेगा? अगर नहीं चढ़ सकता, तो लिखते क्यों हो? क्या अपनी मज़ाक उड़वाने के लिए?
लिखवाने वाला (कम्बख्त) यह भी नहीं जानता कि हिन्दी वर्णमाला शुद्धतम साक्षात रूप है, जो पारदर्शी है। इसका एक- एक वर्ण अर्थ बदलने की क्षमता रखता है। अंग्रेजी की वर्णमाला नकली चेहरा सामने आए, असली सूरत छिपी रहे वाली है। उसमें ab का कोई अर्थ नहीं है, किंतु हिन्दी में अ ब पास-पास आ जाएँ तो अब यानी अर्थवान हो जाते हैं। इसीलिए काशी नाथ सिंह का. ना. सिंह या कानासिंह हो जाएँगे। बताइए, छोटा लिखने के चक़्कर में काना कौन बनना चाहेगा? इसीलिए तो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री को कभी लघु वर्णों में नहीं लिखा गया। आप लिखकर देखिए। लिखने की सोचना छोड़ देंगे।
सच बात तो यह है कि विदेशियों का हुक्का भरने वाले हमारे ये लज्जाप्रूफ मित्र यह सोचते हैं कि हिन्दी की बर्बादी पर कुछ सोचना भी समय नष्ट करना है। तभी तो इसे सब्ज़ीमंडी में घूमते आवारा पशुओं की तरह खुला छोड़ दिया गया। यह आवारा जानवर है। इससे बचो बस! यह कहीं बैठे, कहीं मुड़े, कैसे भी उकडू बैठ जाए, इस पर ध्यान न दो। यह कोई अंग्रेजी या फ्रेंच का मसला थोड़ी है जिसकी नज़ाकत बरकरार रखने के लिए किसी फ्रेंचकट विद्वान को लाखों क्या करोड़ों दिए जाएँगे। और हिन्दी के विद्वानों पर कौड़ी भी खर्च करना अमृत धन को नाले में बहाना है।

अच्छा, इतना ही कर लेते कि इंदिरा के लिए इं ही लिख देते सब जगह। नहीं, कहीं इं, कहीं ईं तो कहीं इ। गाँधी का लघु रूप भी कहीं गाँ, कहीं गां, तो कहीं गा। अंतरराष्ट्रीय तो शुक्र है, लिखा ही नहीं, नहीं तो अंतर्राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय का जिन्न निकल कर तुम्हें निगल जाता।
अंतरराष्ट्रीय को कहीं अ लिखा है, कहीं अं तो कहीं अँ। अब बताओ! लिखने वाले को यह ज्ञान नहीं है कि हिन्दी में लघु रूप की परम्परा नहीं है। कारण यह है कि ये लघु रूप हिन्दी की प्रकृति में नहीं हैं। ये हिन्दी के स्वभाव के विरुद्ध हैं। इस चक़्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए। परन्तु!
हिन्दी तो बनाना स्टेट है। कुछ भी बोलो, लिखो! वह केवल खाया जाने के लिए बना है। केले में हड्डी तो होती नहीं। वह हाथ लगाते ही पिघल जाता है।
आप देखें ध्यान से! इस नाम की कितनी वर्तनियाँ हैं, कितने रूप हैं! कोई रूप टिकता ही नहीं। मज़े की बात यह है कि किसी को दिखता नहीं। और जिसे दिखता है, उसे चुभता नहीं। वे संन्यासी हो गए हैं — सुख दुख से परे, मान -अपमान से परे! या धोबी के गधे, जिसे चाहो लात मारो, चाहे डंडा, उसे धोबी का भार उठाना है।
हिन्दी के लोग कहते हैं — हमारे यहाँ हिन्दी और हिंदी की तरह अड्डा और अड् डा –मिश्रित और अलग दो-दो रूप प्रचलित हैं। ये दोनों रूप ठीक हैं, मानक हैं। बस रूपाकार या फैशन का अंतर है। हिन्दी लिखो या हिंदी — दोनों मानक हैं। परन्तु ध्यान रहे, एक लेख में एक ही वर्तनी रहे। यह नहीं कि कहीं हिन्दी, कहीं हिंदी। इससे चेतना बँटती है। विश्वास को धक्का लगता है। देखिए — हवाई अड्डा भी कहीं हवाई अड्डा है, कहीं हवाई अड् डा है तो कहीं हवाईअड्डा। तीन-तीन रूप। सभी के 3-3 रूप चल रहे हैं। भाई, किसी एक रूप को मानक मानकर अपनाओ!

परन्तु यह करे कौन! हमारे मन का राजा तो बिदेस में है। तन इंडिया में मन लंदन में। जब वो चाहेगा तो हम मानक बनेंगे। वरना छोड़ दो छुट्टे सांड की तरह इसे। करने दो जुगाली और वो, जिससे कभी-कभी आपकी जूतियाँ गन्दी हो जाती हैं। विदेशी मानसिकता ने ही यह नेरेटिव सेट किया है पिछले चार दशकों से — भाषा मत पढ़ाओ, व्याकरण मत पढ़ाओ! क्या फर्क पड़ता है अगर कोई हिंदी को हीन्दी लिख दे। है तो हिंदी ही। वह विदेशी जानता है कि जब यह सर्वसुंदरी हिंदी अपनी व्याकरण- सम्मत मस्त मानक साड़ी में सजधज कर निकलेगी तो ट्रम्प भी हिंडी नहीं हिन्दी बोलने के लिए कोचिंग लेंगे। पर वो ऐसा करेंगे क्यों??
बस एक ही संभावना है! हो सकता है,
कभी हमारी गोरी संतानों को लज्जा आए, शर्म आए। नहीं, लज्जा नहीं, कोई मिस ब्रिटेनिका उसे शेम शेम कहे कि चल दुष्ट! भाग मेरे यहाँ से। जो अपनी माँ का नहीं हुआ, वह मेरा कैसे होगा!!

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