
किराये की साइकिल . .!

©डॉ महादेव एस कोलूर
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पहले (1970-80) हम लोग गर्मियों में किराए की छोटी साईकिल लेते थे, अधिकांस लाल रंग की होती थी जिसमें पीछे कैरियर नहीं होता। जिससे आप किसी को डबल न बैठाकर घूमे। किराया शायद 25-50 पैसे प्रति घंटा होता था किराया पहले लगता था ओर दुकानदार नाम पता नोट कर लेता थाा
किराये के नियम कड़े होते थे .. जैसे की पंचर होने पर सुधारने के पैसे, टूट फूट होने पर आप की जिम्मेदारी, खैर ! हम खटारा छोटी सी किराए की साईकिल पर सवार उन गलियों के युवराज होते थे, पूरी ताकत से पैडल मारते, कभी हाथ छोड़कर चलाते और बैलेंस करते, तो कभी गिरकर उठते और फिर चल देते।
अपनी गली में आकर सारे दोस्त, बारी बारी से, साईकिल चलाने मांगते किराये की टाइम की लिमिट न निकल जाए, इसलिए तीन-चार बार साइकिल लेकर दूकान के सामने से निकलते।
तब किराए पर साइकिल लेना ही अपनी रईसी होती। खुद की अपनी छोटी साइकिल रखने वाले तब रईसी झाड़ते।
वैसे हमारे घरों में बड़ी काली साइकिलें ही होती थी। जिसे स्टैंड से उतारने और लगाने में पसीने छूट जाते। जिसे हाथ में लेकर दौड़ते, तो एक पैड़ल पर पैर जमाकर बैलेंस करते।
ऐसा करके फिर कैंची चलाना सीखें। बाद मेबाद में डंडे को पार करने का कीर्तिमान बनाया, इसके बाद सीट तक पहुंचने का सफर एक नई ऊंचाई था। फिर सिंगल, डबल, हाथ छोड़कर, कैरियर पर बैठकर साइकिल के खेल किए।
ख़ैर जिंदगी की साइकिल अभी भी चल रही है। बस वो दौर वो आनंद नही है।
क्योंकि कोई माने न माने पर जवानी से कहीं अच्छा वो खूबसूरत बचपन ही हुआ करता था .. जिसमें दुश्मनी की जगह सिर्फ एक कट्टी हुआ करती थी और सिर्फ दो उंगलिया जुडने से दोस्ती फिर शुरू हो जाया करती थी। अंततः बचपन एक बार निकल जाने पर सिर्फ यादें ही शेष रह जाती है और रह रह कर याद आकर सताती है।
परंतु आज के बच्चो का बचपन को एक मोबाईल चुराकर ले गया है।😊
निष्कर्ष : बच्चों द्वारा साइकिल चलाना एक बहुत ही प्रेरणादायक और ऊर्जा से भरी गतिविधि होती है, जिसमें बच्चे स्वास्थ्य, आनंद और स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं। चित्रण में आमतौर पर बच्चे समूह में या अकेले, खुले स्थान या पार्क में साइकिल चलाते नजर आते हैं, और उनके चेहरों पर मुस्कान तथा उत्साह देखा जा सकता है। ऐसे दृश्य बच्चों के स्वस्थ जीवन और खेलने-कूदने की संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं।