राजेंद्र शाह आधुनिक गुजराती कविता में नवीन प्रवाह के अन्वेषक कवि माने जाते हैं। उनसे दो वर्ष की आयु में पिता की छत्रछाया छिन गई, लेकिन माता की ममता और दृढ़ता ने मार्ग प्रशस्त किया। माता और पुत्र दोनों स्वाधीनता संग्राम में सक्रिय रहे। 1930 की एक घटना उनके राष्ट्र प्रेम और दृढ़ता का उदाहरण है ।कपड़वंज (शहर ) के टावर पर भारत का राष्ट्रध्वज लहरा रहा था। उसे उतारने के लिए जब ब्रिटिश पुलिस चढ़ रही थी । राजेंद्र शाह उससे पहले फुर्ती से टावर पर पहुंच गए और राष्ट्रध्वज को सीने से लगाकर वहां से नीचे छलांग लगा दी।।
परिवार की आर्थिक स्थिति के कारण उन्हें शिक्षा के साथ अर्थोपार्जन भी करना पड़ा इसलिए वे स्नातक तब की ही शिक्षा ले पाए। कई तरह के व्यवसाय करते हुए अंत में उन्होंने प्रिंटिंग प्रेस स्थापित किया। अहमदाबाद में उनका साहित्यिक क्षेत्र में पदार्पण हुआ।
प्रथम काव्य संग्रह ‘ध्वनि’ (1951) उनकी सर्जनात्मक शक्ति का मील का पत्थर प्रमाणित हुआ। इसके सानेट, गीत और लयात्मकता ने उन्हें प्रसिद्ध कर दिया। उन्होंने अधिकतर गेय काव्य लिखे हैं। ‘आ गगन’ (2004) उनका चौबीसवां काव्य संग्रह है। आंदोलन (1951), श्रुति (1957), शांत कोलाहल (1962), क्षण जे चिरंतन (1968), विषाद ने साद (1968), उद्गीति (1978) , पंच प्रवाह (1983), विभाजन (1983), स्मृति संवेदना (1998), विरह माधुरी (1998), प्रेम नो पर्याय (2004) उनके उल्लेखनीय काव्य संग्रह हैं । राजेंद्र शाह ने कुछ एकांकी और कहानियां भी लिखी हैं। इसके अतिरिक्त डिवाइन कॉमेडी का दिव्य आनंद (1990) नाम से , रविंद्रनाथ टैगोर की बलाका, ईशावास्य उपनिषद एवं गीतगोविंद का अनुवाद किया है। राजेंद्र शाह की कविता में प्रेम, प्रकृति और ईश्वर मुख्य विषय रहे हैं।उनके गीत गुजराती समाज में लोकप्रिय हैं। ‘ईधणा वीणवा गैती’ एवं ‘वायरे उड़ी उड़ी जाय’ जैसे गीत गुजराती समाज में लोकप्रिय हैं। वे गुजराती के कुमार चंद्रक, रणजीतराम स्वर्णचंद्रक, नर्मद चंद्रक, साहित्य अकादमी, दिल्ली का पुरस्कार एवं वर्ष 2000 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हुए हैं।

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