गीता जयंती पर विशेष
गीता सुगीता

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।।

अर्थात धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया?

यह प्रश्न धृतराष्ट्र ने संजय से पूछा था। यही प्रश्न श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम श्लोक भी है।

18 अध्यायों में विभक्त श्रीमद्भगवद्गीता 700 श्लोकों के माध्यम से जीवन के विभिन्न आयामों का दिव्य मार्गदर्शन है। यह मार्गदर्शन विषाद योग, सांख्य योग, कर्म योग, ज्ञानकर्म-संन्यास योग, कर्म-संन्यास योग, आत्मसंयम योग, ज्ञान-विज्ञान योग, अक्षरब्रह्म योग, राजविद्याराजगुह्य योग, विभूति योग, विश्वरूपदर्शन योग, भक्ति योग, क्षेत्रक्षेत्रज्ञ विभाग योग, गुणत्रयविभाग योग, पुरुषोत्तम योग, दैवासुरसंपद्विभाग योग, श्रद्धात्रय विभाग योग, मोक्षसंन्यास योग द्वारा अभिव्यक्त हुआ है।

योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी को गीता का ज्ञान दिया था। गीता जयंती इसी ज्ञानपुंज के प्रस्फुटन का दिन है। इस प्रस्फुटन की कुछ बानगियाँ देखिए-

1) यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन।
न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचराम्।।

अर्थात, हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणियों का जो बीज है, वह मैं ही हूँ। मेरे बिना कोई भी चर-अचर प्राणी नहीं है।

इस श्लोक से स्पष्ट है कि हर जीव, परमात्मा का अंश है।

2) यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

अर्थात जो सबमें मुझे देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

3) न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।

अर्थात न ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं था अथवा ये सारे राजा नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

इसे समझने के लिए मृत्यु का उदाहरण लें। मृत्यु अर्थात देह से चेतन तत्व का विलुप्त होना। आँखों दिखता सत्य है कि किसी एक पार्थिव के विलुप्त होने पर एक अथवा एकाधिक निकटवर्ती उसका प्रतिबिम्ब -सा बन जाता है।

विज्ञान इसे डीएनए का प्रभाव जानता है, अध्यात्म इसे अमरता का सिद्धांत मानता है। अमरता है, सो स्वाभाविक है कि अनादि है, अनंत है।

4) या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

सब प्राणियोंके लिए जो रात्रि के समान है, उसमें स्थितप्रज्ञ संयमी जागता है और जिन विषयों में सब प्राणी जाग्रत होते हैं, वह मुनिके लिए रात्रि के समान है।

इसके लिए मुनि शब्द का अर्थ समझना आवश्यक है। मुनि अर्थात मनन करनेवाला, मननशील। मननशील कोई भी हो सकता है। साधु-संत से लेकर साधारण गृहस्थ तक।

मनन से ही विवेक उत्पन्न होता है। दिवस एवं रात्रि की अवस्था में भेद देख पाने का नाम है विवेक। विवेक से जीवन में चेतना का प्रादुर्भाव होता है। फिर चेतना तो साक्षात ईश्वर है। ..और यह किसी संजय का नहीं स्वयं योगेश्वर का उवाच है। इसकी प्रतीति देखिए-

5) वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः। इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना॥

मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में इंद्र हूँ, इंद्रियों में मन हूँ और प्राणियों की चेतना हूँ।

जिसने भीतर की चेतना को जगा लिया, वह शाश्वत जागृति के पथ पर चल पड़ा। जाग्रत व्यक्ति ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का अनुयायी होता है।

6) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।

अर्थात कर्म करने मात्र का तुम्हारा अधिकार है, तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।

मनुष्य को सतत निष्काम कर्मरत रहने की प्रेरणा देनेवाला यह श्लोक जीवन का स्वर्णिम सूत्र है। सदियों से इस सूत्र ने असंख्य लोगों के जीवन को दिव्यपथ का अनुगामी किया है।

श्रीमद्भगवद्गीता के ईश्वर उवाच का शब्द-शब्द जीवन के पथिक के लिए दीपस्तंभ है। इसकी महत्ता का वर्णन करते हुए भगवान वेदव्यास कहते हैं,

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रसंग्रहै:।
या स्वंय पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिः सृता ।।
( महा. भीष्म 43/1)

श्रीमद्भगवद्गीता का ही भली प्रकार से श्रवण, कीर्तन, पठन, पाठन, मनन एवं धारण करना चाहिए क्योंकि यह साक्षात पद्मनाभ भगवान के मुख कमल से निकली है।

आज गीता जयंती है। इस अवसर पर श्रीमद्भगवद्गीता के नियमित पठन का संकल्प लें। अक्षरों के माध्यम से अक्षरब्रह्य को जानें, सृष्टि के प्रति स्थितप्रज्ञ दृष्टि उत्पन्न करें। शुभं अस्तु।

प्रस्तुति : डॉ. जयशंकर यादव, वैश्विक हिंदी परिवार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate This Website »