अंतिम उम्मीद का आखिरी टिकट

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

पुराने शहर के उस कोने में, जहाँ सूरज की किरणें भी सरकारी फाइलों की तरह देर से पहुँचती थीं, एक जर्जर मकान में ‘मास्टरजी’ रहते थे। मास्टरजी, जिनका असली नाम तो कोई याद नहीं रखता था, बस इतना पता था कि उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी सरकारी स्कूल में बच्चों को ‘क, ख, ग’ और ‘ए, बी, सी’ सिखाने में खपा दी थी। अब रिटायरमेंट के बाद, उनकी ज़िंदगी एक पुरानी रील की तरह चल रही थी, जिसमें हर फ्रेम धुंधला और हर आवाज़ धीमी थी। उनकी सबसे बड़ी समस्या थी, उनके घर के सामने वाला वो गड्ढा। नहीं, वो कोई साधारण गड्ढा नहीं था, वो तो ‘विकास’ का जीता-जागता प्रमाण था, जो हर मॉनसून में एक छोटी झील में बदल जाता और गर्मियों में धूल का रेगिस्तान बन जाता। लोग कहते थे, “मास्टरजी, ये गड्ढा नहीं, ये तो हमारे शहर की आत्मा है, जो हर चुनाव में वादों के पानी से भर जाती है और फिर सूख जाती है।” मास्टरजी हर सुबह उस गड्ढे को देखते और सोचते, “काश, ये गड्ढा मेरी पेंशन की तरह होता, जो हर महीने थोड़ा-थोड़ा बढ़ता रहता।” उनकी पत्नी, जो अब सिर्फ़ यादों में थीं, अक्सर कहती थीं, “मास्टरजी, ये गड्ढा एक दिन आपको निगल जाएगा।” और मास्टरजी हँसते हुए कहते, “नहीं रे पगली, ये गड्ढा तो मुझे मोक्ष देगा, सीधा स्वर्ग का रास्ता!” लेकिन स्वर्ग का रास्ता इतना आसान कहाँ होता है? उस गड्ढे में हर रोज़ कोई न कोई गिरता, कोई साइकिल वाला, कोई स्कूटर वाला, कभी-कभी तो बेचारे रिक्शे वाले भी, और हर बार मास्टरजी अपनी पुरानी खाट से उठकर उन्हें निकालने में मदद करते। लोग उन्हें ‘गड्ढा-उद्धारक’ कहने लगे थे। एक दिन तो हद ही हो गई, एक नेताजी की चमचमाती गाड़ी का टायर उस गड्ढे में फँस गया। नेताजी, जो अभी-अभी ‘जनता का सेवक’ बनने का भाषण देकर आ रहे थे, गड्ढे में फँसते ही ‘जनता के सेवक’ से ‘जनता के शिकारी’ बन गए। उनकी ज़ुबान से निकले अपशब्दों की बौछार से तो गड्ढा भी शर्म से पानी-पानी हो गया। मास्टरजी ने सोचा, “चलो, अब तो गड्ढा भर जाएगा।” लेकिन नेताजी तो बस एक नया ‘जुमला’ फेंककर चले गए, “इस गड्ढे को हम ‘स्मार्ट सिटी’ का प्रवेश द्वार बनाएंगे!” मास्टरजी ने सिर खुजाया, “स्मार्ट सिटी? ये तो ‘स्मार्ट गड्ढा’ बन गया है!” और उस दिन से, उस गड्ढे का नाम ‘स्मार्ट गड्ढा’ पड़ गया।

स्मार्ट गड्ढे की ख्याति अब सिर्फ़ मोहल्ले तक सीमित नहीं थी, बल्कि पूरे शहर में फैल चुकी थी। लोग दूर-दूर से उसे देखने आते थे, जैसे कोई प्राचीन स्मारक हो। बच्चे उसमें कागज़ की नावें तैराते, युवा उसमें सेल्फी लेते और बुज़ुर्ग अपनी पुरानी कहानियों को गड्ढे के साथ जोड़कर सुनाते। “अरे भैया, ये गड्ढा तो तब से है जब मैं जवान था, तब तो इसमें सिर्फ़ मेंढक रहते थे, अब तो इसमें ‘सरकारी वादे’ तैरते हैं!” एक दिन मास्टरजी के पास उनके पुराने छात्र, अब एक ‘प्रभावशाली’ पत्रकार, बबुआ आए। बबुआ ने अपने कैमरे का फ्लैश गड्ढे पर चमकाया और नाटकीय अंदाज़ में बोले, “मास्टरजी, ये गड्ढा नहीं, ये तो ‘सिस्टम’ का प्रतीक है! मैं इस पर एक ‘एक्सक्लूसिव रिपोर्ट’ बनाऊँगा, जिससे पूरे देश में तहलका मच जाएगा!” मास्टरजी ने ठंडी आह भरी, “बबुआ, तहलका तो तब मचेगा जब इसमें कोई ‘मंत्री’ गिरेगा, वरना तो ये गड्ढा अपनी जगह अटल है, जैसे हमारी गरीबी।” बबुआ ने मास्टरजी की बात अनसुनी कर दी और अपनी रिपोर्ट में गड्ढे को ‘विकास की विडंबना’, ‘शासन की लापरवाही’ और ‘जनता के दर्द का मूक गवाह’ बताया। रिपोर्ट टीवी पर चली, सोशल मीडिया पर वायरल हुई, और कुछ दिनों के लिए गड्ढा ‘राष्ट्रीय मुद्दा’ बन गया। हर शाम न्यूज़ चैनलों पर ‘गड्ढा डिबेट’ होने लगी, जिसमें विशेषज्ञ चिल्ला-चिल्लाकर एक-दूसरे पर इल्ज़ाम लगाते, लेकिन गड्ढा जस का तस रहता। मास्टरजी ने देखा कि कैसे उनके घर के सामने वाला गड्ढा अब ‘टीआरपी’ का गड्ढा बन गया था, जिसमें हर चैनल अपनी रेटिंग डुबो रहा था। एक दिन एक नेताजी, जो अपनी ‘जन-सेवा’ के लिए मशहूर थे, गड्ढे के पास आए। उनके साथ कैमरों का एक झुंड था और उनके चेहरे पर ‘करुणा’ का भाव ऐसा था, जैसे उन्होंने अभी-अभी किसी गरीब को अपनी आधी संपत्ति दान कर दी हो। उन्होंने गड्ढे में झाँका, फिर कैमरे की तरफ़ देखकर बोले, “यह गड्ढा नहीं, यह तो हमारे ‘सपनों का भारत’ है, जिसे हम जल्द ही ‘स्वर्णिम सड़क’ में बदल देंगे!” मास्टरजी ने सोचा, “अरे नेताजी, सपने तो मेरे भी थे, जो इस गड्ढे में दफ़न हो गए।” नेताजी ने एक फावड़ा उठाया, उसमें थोड़ी मिट्टी डाली, और फिर तुरंत अपने समर्थकों से घिर गए, जो ‘नेताजी ज़िंदाबाद’ के नारे लगाने लगे। मास्टरजी ने देखा, मिट्टी का एक कण भी गड्ढे में नहीं गिरा, सब हवा में उड़ गया। उन्हें लगा, “ये तो ‘डिजिटल मिट्टी’ थी, जो सिर्फ़ कैमरे में दिखती है!”

मास्टरजी ने सोचा, अब बहुत हो गया। उन्होंने तय किया कि वे खुद इस गड्ढे को भरवाएंगे। लेकिन कैसे? उनकी पेंशन तो सिर्फ़ दाल-रोटी के लिए ही काफ़ी थी। उन्होंने अपनी पुरानी साइकिल उठाई और नगर निगम के दफ़्तर की ओर चल पड़े। नगर निगम का दफ़्तर, जहाँ समय भी फाइलों की तरह धीरे चलता था, एक ऐसी जगह थी जहाँ ‘आशा’ दम तोड़ देती थी और ‘निराशा’ नया जीवन पाती थी। मास्टरजी ने वहाँ ‘गड्ढा-भरवाने’ का फॉर्म माँगा। क्लर्क ने उन्हें ऐसे देखा, जैसे उन्होंने चाँद-तारे तोड़ने का फॉर्म माँग लिया हो। “गड्ढा? कौन सा गड्ढा? यहाँ तो कोई गड्ढा है ही नहीं!” क्लर्क ने अपने चश्मे के ऊपर से देखते हुए कहा। मास्टरजी ने ज़ोर देकर कहा, “अरे वही, जो मेरे घर के सामने है, जहाँ हर रोज़ लोग गिरते हैं!” क्लर्क ने एक गहरी साँस ली, “ओह, वो वाला! वो तो ‘प्रोजेक्ट एक्स’ में शामिल है, अभी उस पर ‘अध्ययन’ चल रहा है।” मास्टरजी ने पूछा, “अध्ययन? क्या अध्ययन? लोग मर रहे हैं वहाँ!” क्लर्क मुस्कुराया, “मास्टरजी, ये ‘सरकारी अध्ययन’ है, इसमें गड्ढे की ‘सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक स्थिति’ का विश्लेषण होता है। फिर ‘टेंडर’ निकलेगा, ‘ठेकेदार’ आएगा, और तब तक तो आप स्वर्ग सिधार चुके होंगे!” मास्टरजी का माथा ठनका। उन्होंने हार नहीं मानी। वे रोज़ दफ़्तर के चक्कर काटने लगे, कभी इस बाबू के पास, कभी उस साहब के पास। हर कोई उन्हें एक नई फाइल, एक नया नियम, एक नया बहाना बताता। एक बाबू ने तो यहाँ तक कह दिया, “मास्टरजी, ये गड्ढा तो ‘पर्यटन’ का केंद्र बन गया है, इसे क्यों भरवाना चाहते हैं आप?” मास्टरजी ने सोचा, “ये तो ‘गड्ढा-माफिया’ हैं, जो गड्ढे से भी पैसा कमा रहे हैं!” एक दिन एक साहब ने उन्हें ‘प्रोजेक्ट रिपोर्ट’ बनाने को कहा। मास्टरजी, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी में सिर्फ़ बच्चों की कॉपी जाँची थी, अब गड्ढे पर रिपोर्ट लिखने लगे। उन्होंने गड्ढे की गहराई, चौड़ाई, उसमें गिरने वालों की संख्या, और उससे होने वाले ‘सामाजिक प्रभाव’ पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार की। जब वे रिपोर्ट लेकर गए, तो साहब ने कहा, “मास्टरजी, इसमें ‘तकनीकी शब्दावली’ की कमी है। इसे ‘अंतर्राष्ट्रीय मानकों’ के अनुरूप बनाइए।” मास्टरजी ने सोचा, “अब गड्ढा भी ‘ग्लोबल’ हो गया!”

मास्टरजी की ‘गड्ढा-मुक्ति’ की मुहिम अब शहर में एक मज़ाक बन चुकी थी। लोग उन्हें देखकर मुस्कुराते, कुछ चुटकी लेते, “मास्टरजी, गड्ढा तो नहीं भरा, लेकिन आपकी उम्र ज़रूर बढ़ गई, दफ़्तरों के चक्कर काटते-काटते!” सोशल मीडिया पर भी उनकी तस्वीरें वायरल होने लगी थीं, जहाँ वे कभी किसी बाबू के सामने हाथ जोड़े खड़े होते, तो कभी किसी साहब के पैरों में गिरे होते। कैप्शन में लिखा होता, “एक आम आदमी की ‘गड्ढे’ से जंग!” एक लोकल कॉमेडी शो में तो उन पर एक स्केच भी बन गया, जिसमें एक बूढ़ा आदमी गड्ढे को भरने के लिए ‘धरना’ दे रहा होता है और नेताजी उसे ‘विकास विरोधी’ बताकर जेल में डाल देते हैं। मास्टरजी ने वो शो देखा और उनकी आँखों में आँसू आ गए। उन्हें लगा, “मेरी ज़िंदगी तो खुद एक कॉमेडी शो बन गई है!” मीडिया, जो कुछ दिन पहले गड्ढे पर ‘एक्सक्लूसिव रिपोर्ट’ चला रहा था, अब मास्टरजी की ‘पागलपन’ पर खबरें चलाने लगा। एक न्यूज़ एंकर ने तो यहाँ तक कह दिया, “मास्टरजी को ‘मानसिक अस्पताल’ में भर्ती कराना चाहिए, क्योंकि वे ‘विकास’ में बाधा डाल रहे हैं!” मास्टरजी ने सोचा, “विकास? ये तो ‘विनाश’ है!” उनकी पेंशन का एक बड़ा हिस्सा अब ‘दफ़्तरी खर्चों’ में जा रहा था – कभी चाय-पानी, कभी फोटोकॉपी, कभी ‘साहब’ के लिए मिठाई। उनके घर में राशन कम होने लगा था, लेकिन ‘गड्ढा-फाइल’ मोटी होती जा रही थी। उनके पड़ोसी, जो पहले उन्हें ‘गड्ढा-उद्धारक’ कहते थे, अब उन्हें ‘गड्ढा-सनकी’ कहने लगे थे। एक दिन एक पड़ोसी ने उनसे कहा, “मास्टरजी, छोड़िए ना ये सब। गड्ढा तो अपनी जगह रहेगा, आप क्यों अपनी जान दे रहे हैं?” मास्टरजी ने ठंडी साँस भरी, “क्या करूँ भाई, ये गड्ढा अब सिर्फ़ गड्ढा नहीं रहा, ये तो मेरी ‘पहचान’ बन गया है। जब तक ये रहेगा, मैं भी रहूँगा।” उन्हें लगा, जैसे वे किसी ‘अदृश्य दुश्मन’ से लड़ रहे थे, जो दिखता तो था, लेकिन पकड़ में नहीं आता था। हर बार जब वे सोचते कि अब जीत नज़दीक है, तो एक नया ‘सरकारी नियम’ या एक नया ‘अधिकारी’ उनके रास्ते में आ जाता, और वे फिर से वहीं खड़े हो जाते, जहाँ से उन्होंने शुरुआत की थी।

मास्टरजी ने अब अपनी सारी जमा-पूंजी, यहाँ तक कि अपनी पत्नी के गहने भी बेच दिए, ताकि वे गड्ढे को भरवा सकें। उन्होंने एक ठेकेदार से बात की, जिसने उन्हें ‘कम दाम’ में काम करने का भरोसा दिया। ठेकेदार, जिसका नाम ‘जुगाड़चंद’ था, ने कहा, “मास्टरजी, आप चिंता मत कीजिए, मैं आपका गड्ढा ऐसा भरूँगा कि किसी को पता भी नहीं चलेगा कि यहाँ कभी गड्ढा था।” मास्टरजी ने सोचा, “काश, ये ठेकेदार मेरी ज़िंदगी के गड्ढे भी भर पाता।” जुगाड़चंद ने काम शुरू किया। उसने गड्ढे में कूड़ा-करकट, पुरानी ईंटें और मिट्टी डालना शुरू किया। मास्टरजी ने देखा कि गड्ढा भरने की बजाय, और भी बदबूदार होता जा रहा था। उन्होंने जुगाड़चंद से पूछा, “ये क्या कर रहे हो भाई? ये तो गड्ढे को और गंदा कर रहे हो!” जुगाड़चंद ने मुस्कुराते हुए कहा, “मास्टरजी, यही तो ‘सरकारी काम’ का तरीक़ा है। पहले गड्ढे को इतना गंदा कर दो कि लोग उसे देखना ही न चाहें, फिर उस पर थोड़ी मिट्टी डाल दो, और कहो ‘विकास’ हो गया!” मास्टरजी को लगा, जैसे किसी ने उनके दिल पर हथौड़ा मार दिया हो। उन्हें अपनी सारी मेहनत, सारा बलिदान व्यर्थ लगने लगा। एक दिन बारिश हुई, और जुगाड़चंद का भरा हुआ गड्ढा फिर से खाली हो गया, बल्कि पहले से भी बड़ा और गहरा हो गया। मास्टरजी ने देखा कि गड्ढे में अब सिर्फ़ कूड़ा-करकट तैर रहा था, और उसकी बदबू से पूरा मोहल्ला परेशान था। जुगाड़चंद ग़ायब हो चुका था, जैसे कभी था ही नहीं। मास्टरजी को लगा, “ये तो ‘जुगाड़’ नहीं, ये तो ‘बर्बादी’ थी!” उन्होंने अपनी आँखों में आँसू लिए उस गड्ढे को देखा, जो अब एक ‘विशालकाय राक्षस’ की तरह लग रहा था, जिसने उनकी सारी उम्मीदें निगल ली थीं। उन्हें याद आया, उनकी पत्नी ने कहा था, “ये गड्ढा एक दिन आपको निगल जाएगा।” और उन्हें लगा, शायद वो दिन आ गया था।

मास्टरजी की तबियत अब बिगड़ने लगी थी। वे कमज़ोर हो गए थे, और उनकी आँखों में एक अजीब सी उदासी छा गई थी। उन्हें अब रात को नींद नहीं आती थी, बस गड्ढा ही गड्ढा दिखाई देता था। वे सोचते, “काश, मैं इस गड्ढे में कूदकर अपनी ज़िंदगी ख़त्म कर लूँ।” लेकिन फिर उन्हें याद आता, “नहीं, मैं ऐसे हार नहीं मानूँगा। मुझे इस गड्ढे को भरना है, चाहे कुछ भी हो जाए।” एक दिन, शहर के मेयर का दौरा हुआ। मेयर, जो अपनी ‘जन-सेवा’ के लिए ‘पुरस्कार’ जीत चुके थे, गड्ढे के पास आए। उन्होंने गड्ढे को देखा, फिर अपने पी.ए. से कहा, “इस गड्ढे को ‘राष्ट्रीय धरोहर’ घोषित कर दो। ये हमारी ‘संघर्ष गाथा’ का प्रतीक है!” मास्टरजी, जो वहीं खड़े थे, ये सुनकर सन्न रह गए। उन्होंने सोचा, “राष्ट्रीय धरोहर? ये तो ‘राष्ट्रीय शर्म’ है!” मेयर ने मास्टरजी को देखा, और मुस्कुराते हुए कहा, “मास्टरजी, आप तो ‘गड्ढे के मसीहा’ हैं! हम आपको ‘गड्ढा-रत्न’ पुरस्कार देंगे!” मास्टरजी ने सोचा, “पुरस्कार? मुझे तो बस गड्ढा भरवाना है!” मेयर ने एक बड़ा सा चेक मास्टरजी की तरफ़ बढ़ाया, जिस पर लिखा था, ‘गड्ढा-रत्न पुरस्कार: एक लाख रुपये’। मास्टरजी ने चेक देखा, और उनकी आँखों में चमक आ गई। उन्हें लगा, “चलो, अब तो गड्ढा भर जाएगा!” लेकिन तभी मेयर के पी.ए. ने कहा, “मास्टरजी, ये चेक अभी ‘प्रोसेस’ में है। इसमें थोड़ा समय लगेगा।” मास्टरजी ने पूछा, “कितना समय?” पी.ए. ने मुस्कुराते हुए कहा, “बस, जब तक ये गड्ढा भर नहीं जाता!” मास्टरजी को लगा, जैसे किसी ने उनके साथ एक और ‘मज़ाक’ कर दिया हो। उन्हें समझ आ गया था कि ये चेक कभी कैश नहीं होगा, और ये गड्ढा कभी भरेगा नहीं। उन्हें लगा, वे एक ऐसे दलदल में फँस गए थे, जहाँ से निकलना नामुमकिन था।

मास्टरजी ने अब खाना-पीना छोड़ दिया था। वे बस अपने घर के सामने वाले उस गड्ढे को देखते रहते, जो अब उनकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सच बन चुका था। उन्हें लगा, जैसे गड्ढा उन्हें बुला रहा था, अपनी गहराई में समा जाने के लिए। उनके पुराने छात्र बबुआ, पत्रकार, फिर से आए। उन्होंने मास्टरजी की हालत देखी और उनके चेहरे पर ‘करुणा’ का भाव ऐसा था, जैसे उन्होंने अभी-अभी कोई ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ खो दी हो। बबुआ ने कहा, “मास्टरजी, मैंने आपके लिए एक ‘अंतिम रिपोर्ट’ बनाई है। इसमें मैंने आपकी ‘गड्ढे से जंग’ और आपकी ‘बर्बादी’ का पूरा ब्यौरा दिया है। ये ‘पुलित्ज़र’ जीतने वाली रिपोर्ट होगी!” मास्टरजी ने ठंडी साँस भरी, “बबुआ, पुलित्ज़र तो मुझे तब मिलता, जब ये गड्ढा भर जाता।” बबुआ ने मास्टरजी की बात अनसुनी कर दी और अपनी रिपोर्ट में मास्टरजी को ‘व्यवस्था का शिकार’, ‘जनता की आवाज़’ और ‘एक शहीद’ बताया। रिपोर्ट टीवी पर चली, सोशल मीडिया पर फिर से वायरल हुई, लेकिन इस बार लोगों की आँखों में आँसू थे। मास्टरजी ने देखा कि कैसे उनकी ज़िंदगी अब ‘टीआरपी’ का एक और ज़रिया बन गई थी। एक दिन, उनके पास एक सरकारी अधिकारी आया। अधिकारी ने मास्टरजी को एक लिफ़ाफ़ा दिया, जिस पर लिखा था, ‘गड्ढा-मुक्ति योजना’। मास्टरजी ने लिफ़ाफ़ा खोला, उसमें एक कागज़ था, जिस पर लिखा था, “आपको सूचित किया जाता है कि आपके घर के सामने वाला गड्ढा अब ‘राष्ट्रीय स्मारक’ घोषित कर दिया गया है, और इसे ‘मास्टरजी की याद में’ नाम दिया जाएगा।” मास्टरजी ने कागज़ पढ़ा, और उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। उन्हें लगा, “ये तो मेरी ‘मौत की ख़बर’ थी!” उन्हें समझ आ गया था कि उनका संघर्ष अब ख़त्म हो गया था, और गड्ढा जीत गया था।

मास्टरजी की साँसें अब धीमी पड़ने लगी थीं। वे अपने बिस्तर पर लेटे थे, और उनकी नज़रें उस खिड़की पर टिकी थीं, जहाँ से गड्ढा दिखाई देता था। उन्हें लगा, जैसे गड्ढा मुस्कुरा रहा था, उनकी हार पर। उनके दिमाग़ में उनकी पत्नी की आवाज़ गूँज रही थी, “ये गड्ढा एक दिन आपको निगल जाएगा।” और उन्हें लगा, वो सच हो रहा था। उनके पास कोई नहीं था, सिवाय उस गड्ढे के, जो उनकी ज़िंदगी का एकमात्र साथी बन गया था। उन्हें याद आया, कैसे उन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी दूसरों को ‘ज्ञान’ दिया था, लेकिन खुद ‘सरकारी सिस्टम’ के सामने हार गए थे। उन्हें लगा, वे एक ‘अकेले योद्धा’ थे, जिसने एक ‘अदृश्य दुश्मन’ से लड़ाई लड़ी थी, और हार गया था। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे, जो अब सिर्फ़ गड्ढे के लिए नहीं थे, बल्कि उस ‘व्यवस्था’ के लिए थे, जिसने उन्हें और उनके जैसे लाखों लोगों को निगल लिया था। उन्हें लगा, जैसे वे एक ‘अंतिम साँस’ ले रहे थे, और उस साँस में सिर्फ़ ‘गड्ढे की गंध’ थी। उनके होंठ हिले, और उन्होंने फुसफुसाया, “ये गड्ढा… ये गड्ढा… ये तो ‘भारत’ है!” और उनकी साँस थम गई। उनकी मौत की ख़बर पूरे शहर में फैल गई। लोग उनके घर के सामने इकट्ठा हुए, लेकिन गड्ढे के पास जाने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। बबुआ, पत्रकार, फिर से आए। उन्होंने मास्टरजी की अंतिम यात्रा पर एक और ‘लाइव रिपोर्ट’ की। उन्होंने कहा, “मास्टरजी ने अपनी ज़िंदगी एक ‘गड्ढे’ के लिए कुर्बान कर दी। वे ‘शहीद’ हो गए!” लोग रो रहे थे, उनकी आँखों में आँसू थे, लेकिन गड्ढा जस का तस था।

मास्टरजी की अंतिम यात्रा में भीड़ तो बहुत थी, लेकिन हर चेहरा एक सवाल पूछ रहा था – क्या मास्टरजी की मौत से गड्ढा भर जाएगा? नहीं। गड्ढा तो वहीं था, पहले से भी ज़्यादा गहरा, ज़्यादा बदबूदार, और अब तो उस पर ‘मास्टरजी की याद में’ एक छोटा सा बोर्ड भी लगा दिया गया था। उस बोर्ड पर लिखा था, “यहाँ एक महान आत्मा ने ‘विकास’ के लिए अपनी जान दी।” लोग उस बोर्ड को देखते, और फिर गड्ढे में झाँकते, जैसे कोई ‘तीर्थस्थल’ हो। बच्चे अब भी उसमें कागज़ की नावें तैराते, लेकिन अब उन नावों पर ‘मास्टरजी अमर रहें’ लिखा होता। युवा अब भी उसमें सेल्फी लेते, लेकिन अब उनके चेहरे पर ‘गंभीरता’ का भाव होता, जैसे वे किसी ‘शहीद’ की समाधि पर खड़े हों। और बुज़ुर्ग अब भी अपनी पुरानी कहानियों को गड्ढे के साथ जोड़कर सुनाते, “अरे भैया, ये गड्ढा तो तब से है जब मास्टरजी जवान थे, तब तो इसमें सिर्फ़ मेंढक रहते थे, अब तो इसमें ‘मास्टरजी की आत्मा’ तैरती है!” एक दिन, एक नया नेताजी आए। उन्होंने गड्ढे के पास आकर एक भाषण दिया, “हम मास्टरजी के सपने को पूरा करेंगे! हम इस गड्ढे को ‘स्वर्णिम सड़क’ में बदलेंगे!” लोग तालियाँ बजाने लगे, लेकिन मास्टरजी की आत्मा, जो शायद उस गड्ढे में ही भटक रही थी, मुस्कुरा रही थी। उन्हें पता था, ये सब ‘जुमले’ थे, जो हर चुनाव में फेंके जाते थे। उन्हें पता था, ये गड्ढा कभी नहीं भरेगा, क्योंकि ये सिर्फ़ एक गड्ढा नहीं था, ये तो ‘सिस्टम’ था, जो हमेशा रहेगा। और मास्टरजी की आत्मा ने एक गहरी साँस ली, जो अब सिर्फ़ गड्ढे की बदबू से भरी थी, और वे हमेशा के लिए उस गड्ढे में समा गए, जहाँ उनकी उम्मीदें, उनके सपने, और उनकी पूरी ज़िंदगी दफ़न हो गई थी।

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