
एक खाली सिंहासन का दुःख
डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’
जनहित महासेवा सद्भाव समिति, जिसका नाम सुनते ही किसी के भी मन में ‘जनसेवा’ से अधिक ‘महा’ शब्द की विराटता का बोध होता था, अपनी जर्जर काया, टूटी खिड़कियों और उन दीवारों के साथ अस्तित्व में थी, जिन पर कभी सुनहरे अक्षरों में ‘अहिंसा परमो धर्मः’ लिखा था और अब बस ‘हींसा’ का ‘सा’ ही मुश्किल से बचा था। समिति की मासिक बैठक थी। माहौल इतना गंभीर था कि हवा में भी धूल के कण एक विशेष प्रकार की गंभीरता धारण कर लेते थे। अध्यक्ष महोदय, जिनका नाम तो श्रीमान् ‘धर्मेन्द्र’ था, पर वे ‘मौनेंद्र’ के नाम से अधिक विख्यात थे, अपनी कुर्सी पर इस प्रकार आसीन थे, जैसे किसी प्राचीन खंडहर में कोई सदियों पुराना बुत, जिसे हिलाने की जुर्रत हवा भी न कर सके। सहसा, उस नीरवता को चीरते हुए, एक नहीं, दो नहीं, बल्कि पूरे आठ गले एक साथ फटे। “संस्था का काम असंतोषजनक चल रहा है! इसमें बहुत सुधार होना चाहिए! संस्था बर्बाद हो रही है! इसे डूबने से बचाना चाहिए! इसको या तो सुधारना चाहिए, या भंग कर देना चाहिए!” यह आवाज़ें नहीं थीं, ये तो ज्वालामुखी के ठीक पहले की भूगर्भीय गड़गड़ाहट थी, जो बता रही थी कि सतह पर भले ही शांति हो, भीतर भयंकर खिचड़ी पक रही है। एक सज्जन तो इतने भावुक हो गए कि उनके होंठों पर ‘डूबने से बचाओ’ का नारा किसी विलाप की तरह कंपन कर रहा था, जबकि उनके दाहिने हाथ की उंगलियाँ जेब में रखे फोन पर किसी नई व्यापारिक डील की तलाश में बेचैन थीं। दूसरे ने, जो खुद को चाणक्य का चौदहवाँ अवतार मानते थे, अपनी आँखों में देशभक्ति की नहीं, बल्कि किसी नई कुर्सी की चमक भरकर, पूरे हॉल को स्कैन किया, मानो यह देख रहे हों कि उनकी आवाज़ से कितने लोग प्रभावित हुए। उनकी आँखों में पानी नहीं, पद का पानी चमक रहा था। वे सब ऐसे चिल्ला रहे थे जैसे संस्था नहीं, उनका अपना पर्स डूब रहा हो, और उसे बचाना परम धर्म हो।
अध्यक्ष महोदय, जिन्होंने वर्षों तक इस संस्था को ‘गहरी नींद’ में चलाने का कीर्तिमान स्थापित किया था, अपनी निंद्रा भंग होने पर पहले तो थोड़ा असहज हुए, फिर उनके चेहरे पर वही चिर-परिचित ‘सर्व-ज्ञानी-शांत-बुद्ध’ वाला भाव आ गया। उन्होंने अपनी आँखों को धीरे से खोला, मानो कोई सदियों पुरानी पोटली खोल रहे हों, और एक ऐसी आवाज़ में पूछा, जो किसी प्राचीन कुएँ की गूँज जैसी थी, “किन-किन सदस्यों को असंतोष है?” यह प्रश्न नहीं था, यह तो एक चुनौती थी, एक अप्रत्यक्ष आमंत्रण था कि आओ, और अपनी ‘असंतोष-भीड़’ में शामिल हो जाओ। हॉल में पिन-ड्रॉप साइलेंस छा गया। हर नज़र एक-दूसरे को तौल रही थी। यह देखने के लिए कि कौन पहले ‘आत्महत्या’ करने का साहस करता है। फिर, धीमे-धीमे, एक-एक करके, दस सिर उठे। फिर दस हाथ उठे। फिर दस पूरी कायाएँ अपने-अपने आसन से उठ खड़ी हुईं, मानो दस योद्धा किसी अदृश्य युद्ध के लिए तैयार हों। उनके चेहरों पर असंतोष कम, और एक ‘विशेष-महत्व’ का भाव अधिक झलक रहा था। उनमें एक श्री ‘कुर्सीदास’ थे, जो पिछले दस सालों से किसी न किसी पद की तलाश में थे। दूसरे ‘पदलोभी’ थे, जो हर प्रस्ताव में अपना चेहरा सबसे आगे रखते थे। उनकी आँखें नहीं, उनकी महत्वाकांक्षाएँ बोल रही थीं। वे दस ऐसे लग रहे थे, जैसे दस भूखे शेर, जिन्हें जंगल की नहीं, बल्कि संस्था की कुर्सी की भूख लगी हो। उनकी चुप्पी में भी एक शोर था, वह शोर जो ‘मुझे भी कुछ चाहिए’ की धुन बजा रहा था, और यह दृश्य इतना हास्यास्पद था कि दीवारों पर टंगी संस्थापकों की तस्वीरें भी मुस्कुरा रही थीं, मानो कह रही हों, “हमने क्या सोचकर संस्था बनाई थी, और ये क्या कर रहे हैं!”
अध्यक्ष महोदय ने उन दस ‘असंतोषियों’ को देखा, और उनके चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान तैर गई, जो किसी अनुभवी राजनेता की मुस्कान जैसी थी – थोड़ी रहस्यमयी, थोड़ी तिरछी। उन्होंने अपनी आवाज़ में शहद घोलते हुए कहा, “हमें सब लोगों का सहयोग चाहिए। सबको संतोष हो, इसी तरह हम काम करना चाहते हैं। आप दस सज्जन क्या सुधार चाहते हैं, कृपा कर बतलावें।” यह बात नहीं थी, यह तो एक ‘मंत्र’ था, जिसे सुनकर दस ‘योद्धाओं’ के चेहरे खिल गए। उन्हें लगा, अध्यक्ष महोदय ने उनके ‘असंतोष’ को ‘दूरदर्शिता’ समझ लिया है। उनकी आँखों में चमक आ गई, और उन्होंने एक-दूसरे को ऐसे देखा, जैसे किसी गुप्त मिशन पर निकले जासूस एक-दूसरे को ‘ऑल इज वेल’ का सिग्नल दे रहे हों। उन्हें लग रहा था कि वे ही तो वे महान आत्माएँ हैं, जो संस्था को ‘बर्बादी के गर्त’ से निकालेंगी, और इस महान कार्य के लिए उन्हें ‘विशेष सम्मान’ और ‘विशेष पद’ मिलना तो स्वाभाविक ही था। वे ऐसे भावुक हो गए, मानो सदियों के बिछड़े प्रेमी मिल गए हों, और उनका मिलन किसी बड़ी त्रासदी को टालने वाला हो। उनके दिमाग में संस्था का भला कम, और अपनी ‘पदोन्नति’ का विचार अधिक चल रहा था। एक ने तो मन ही मन अपनी नई नेमप्लेट का डिज़ाइन भी बना लिया, जिस पर उनके नए पद का नाम बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा होगा, और उसके नीचे उनका ‘कमीना’ सा नाम बहुत छोटे अक्षरों में। वे अपने आप को ‘असंतोष’ के ‘महान प्रतीक’ मान रहे थे, जिनकी वजह से संस्था में ‘क्रांति’ आने वाली थी, और इस क्रांति का पहला फल ‘पद’ ही तो था!
उन दस ‘असंतोषी’ सदस्यों ने, जिन्हें अब ‘संस्था-सुधारक’ का नया तमगा मिल चुका था, एक गुप्त कक्ष की ओर प्रस्थान किया। यह कक्ष इतना गुप्त था कि वहां केवल धूल और मकड़जाल ही निवास करते थे, लेकिन आज यह ‘बौद्धिक मंथन’ का केंद्र बनने वाला था। उन्होंने दरवाज़े पर ‘कृपया भीतर न झांकें, गहन विचार-मंथन जारी है’ का एक हाथ से लिखा नोट चिपका दिया, मानो वे किसी न्यूक्लियर फिजिक्स की गुत्थी सुलझा रहे हों। भीतर पहुँचते ही, सबसे पहले ‘चाय-पानी’ का इंतज़ाम हुआ। आखिर विचार मंथन के लिए ईंधन तो चाहिए ही। एक सदस्य, श्री ‘ज्ञानचंद’, जिनके ज्ञान का एकमात्र स्रोत टीवी पर आने वाले सीरियल थे, ने गंभीर मुद्रा में कहा, “देखिए बंधुओं, समस्या बहुत गहरी है। संस्था में नेतृत्व का अभाव है।” दूसरे, श्री ‘पदप्यारे’, ने तुरंत लपकते हुए कहा, “बिल्कुल! अध्यक्ष महोदय अकेले पड़ जाते हैं। हमें उनके कंधों को मज़बूत करना होगा।” फिर शुरू हुआ पदों का बंटवारा, मानो वे कोई प्रॉपर्टी डील कर रहे हों। “भाई, चार सभापति चाहिए, कम से कम। एक दक्षिण भारत के लिए, एक उत्तर के लिए, एक पूर्व के लिए, और एक पश्चिम के लिए। तभी तो ‘अखंड भारत’ की संस्था बनेगी!” किसी ने मज़ाक में कहा। पर तुरंत ही गंभीर स्वर में जवाब मिला, “मज़ाक नहीं, ये भविष्य का सवाल है।” तीन उप-सभापति के लिए भी यही भौगोलिक विभाजन तय हुआ, और तीन मंत्री, जो ‘चाय, नाश्ता और बैठकों का समय’ तय करने के लिए समर्पित होंगे। उनका चिंतन इस बात पर नहीं था कि संस्था का काम कैसे सुधरे, बल्कि इस बात पर था कि कितने नए पद सृजित हों ताकि हर किसी को एक कुर्सी मिल सके, क्योंकि वे जानते थे, ‘सेवा’ बाद में होती है, ‘कुर्सी’ पहले मिलती है। उनकी बातें सुनकर अगर दीवारें बोल सकतीं, तो शायद वे भी अपने ऊपर लटकी पेंटिंग्स को देखकर कहतीं, “भला हो तुम्हारा जो तुम पेंटिंग हो, वरना ऐसे ‘विचार’ सुन कर तो कान भी सन्न रह जाते!”
और फिर वो ऐतिहासिक क्षण आया, जब वे दस ‘ज्ञानियों’ की टोली, अपने ‘युग-परिवर्तक’ विचारों से सुसज्जित होकर, वापस बैठक हॉल में दाखिल हुई। उनके कदम ऐसे पड़ रहे थे, जैसे वे किसी रणभूमि से विजय पताका फहरा कर लौट रहे हों। हर चेहरे पर आत्म-संतुष्टि का अर्क छलक रहा था, मानो उन्होंने मानव जाति के इतिहास की सबसे बड़ी गुत्थी सुलझा ली हो। अध्यक्ष महोदय ने उत्सुकता से उन्हें देखा, और उनके माथे पर चिंता की एक हल्की सी रेखा उभरी – क्या पता ये लोग सचमुच कोई ‘क्रांतिकारी’ सुझाव ले आए हों! लेकिन जैसे ही मुख्य ‘विचारक’ श्री ‘कुर्सीचंद’ ने अपना गला साफ़ किया और पूरी भव्यता के साथ ऐलान किया, “अध्यक्ष महोदय, हमारे गहन विचार-मंथन के बाद, हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि संस्था में तत्काल प्रभाव से चार नए सभापति, तीन नए उप-सभापति, और तीन नए मंत्री और होने चाहिए!” हॉल में सन्नाटा पसर गया। इतना गहरा सन्नाटा कि अगर कोई मच्छर भी उड़ता, तो उसकी उड़ने की आवाज़ किसी हवाई जहाज़ जैसी लगती। बाकी सदस्य एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे, मानो किसी ने उन्हें गलत फिल्म का टिकट दे दिया हो। एक बुजुर्ग सदस्य, जो संस्था में अपनी जवानी से बुढ़ापे तक की सेवा दे चुके थे, ने धीरे से अपनी चश्मा उतारा और अपने कानों को सहलाया, मानो उन्हें लगा हो कि उनके कान खराब हो गए हैं। “क्या? चार सभापति? तीन उप-सभापति? और तीन मंत्री?” उनकी आवाज़ में आश्चर्य कम, और एक गहरी पीड़ा अधिक थी। यह सुझाव नहीं था, यह तो संस्था की ‘फांसी की सजा’ का ऐलान था, जिस पर ‘पद-प्रेम’ की मुहर लगी थी। किसी ने फुसफुसा कर कहा, “ये असंतोष नहीं था, ये तो पदोन्नति का गुप्त एजेंडा था!”
इस ‘क्रांतिकारी’ सुझाव की घोषणा के साथ ही, संस्था की पुरानी ‘अव्यवस्था’ को ‘नई अव्यवस्था’ में बदलने का शिलान्यास हो गया। चार नए सभापति, तीन नए उप-सभापति और तीन नए मंत्री, कुल मिलाकर दस नई कुर्सियाँ, जिनके लिए अब नए ऑफिस और नए असिस्टेंट की भी मांग उठने लगी। संस्था का बजट, जो पहले ही राम भरोसे चल रहा था, अब ‘खुदा हाफ़िज़’ कहने लगा। इन नए पदों के आते ही, हर छोटे काम के लिए दस अलग-अलग ‘उच्चाधिकारियों’ की अनुमति की आवश्यकता पड़ने लगी। एक हस्ताक्षर के लिए पहले एक अधिकारी का पता लगाना पड़ता था, अब दस अधिकारियों के ‘अनुग्रह’ का इंतज़ार करना पड़ता था। फाइलें एक मेज़ से दूसरे मेज़ पर ‘परिक्रमा’ करने लगीं, कभी-कभी तो अपनी यात्रा के दौरान इतनी धूल बटोर लेती थीं कि उनका मूल विषय ही लुप्त हो जाता था। जनता, जिसकी सेवा के लिए यह संस्था बनी थी, अब पूरी तरह से ठगा हुआ महसूस कर रही थी। पहले उन्हें सिर्फ ‘असंतोष’ था, अब उन्हें ‘परम-असंतोष’ था, क्योंकि अब तो उनका काम और भी नहीं हो रहा था। हर मीटिंग में, नए पदाधिकारी अपनी-अपनी ‘शक्तियों’ का प्रदर्शन करते, और दूसरों की ‘शक्तियों’ को कम करने में लगे रहते। संस्था ‘जनसेवा’ से ‘पदसेवा’ में बदल गई थी, जहाँ हर व्यक्ति अपनी कुर्सी से चिपका हुआ था, और उसे हटाने के लिए ‘फेविकोल’ भी कम पड़ जाता। यह देखकर किसी को भी ‘नॉन-सेंस’ की ‘नस्टोलॉजी’ (Nonsense Nostology) हो सकती थी, क्योंकि पुराना असंतोष भी कितना भोला-भाला था, जहाँ कम से कम ‘असंतोष’ तो एक ही जगह केंद्रित था, अब तो वह दस दिशाओं में फैल गया था!
परिणाम वही हुआ, जो होना था। संस्था, जिसे ‘बर्बाद होने से बचाना’ था, अब दोगुनी गति से ‘बर्बाद’ होने लगी। जो ‘डूबने से बचाओ’ का नारा लगा रहे थे, वे ही अब संस्था की नाव में छेद कर रहे थे, और छेद करने के बाद, उसमें अपनी-अपनी कुर्सियाँ टिका रहे थे। जनहित का काम पूरी तरह से ठप्प हो गया। गरीब और ज़रूरतमंद लोग, जो कभी इस संस्था की ओर आशा की किरण बनकर देखते थे, अब सिर पीटकर वापस लौट जाते थे। दफ्तरों में अब ‘काम की बातें’ नहीं, ‘पद की बातें’ होती थीं। कौन किसकी कुर्सी के कितने करीब है, कौन किसकी ‘पसंद’ का व्यक्ति है, बस यही चर्चाएँ होती थीं। संस्था के पुराने कर्मचारी, जो वाकई ईमानदारी से काम करना चाहते थे, अब हताशा में डूबे रहते थे। उनकी आत्मा कराह उठती थी, जब वे देखते थे कि कैसे एक नेक उद्देश्य वाली संस्था को कुछ लोगों की महत्वाकांक्षाओं ने निगल लिया। बाहर से यह एक संस्था लगती थी, पर भीतर से यह ‘अराजकता’ का एक म्यूज़ियम बन गई थी। हर ‘सभापति’ अपनी अलग मीटिंग बुलाता, हर ‘उप-सभापति’ अपनी अलग सलाह देता, और हर ‘मंत्री’ अपने अलग ‘निर्देश’ जारी करता। ऐसा लगता था जैसे संस्था एक बड़े अस्पताल में बदल गई हो, जहाँ हर डॉक्टर अपनी-अपनी बीमारी का इलाज कर रहा हो, और मरीज को पता ही न चले कि उसका इलाज कौन करेगा। यह सब देखकर किसी को भी ‘फ्यूचर शॉक्स’ नहीं, बल्कि ‘पास्ट शॉक’ लग सकता था, कि कभी तो यह संस्था कुछ अच्छा करती होगी।
अंततः, उस जनहित महासेवा सद्भाव समिति का वही हुआ, जो ‘पद-प्रेम’ और ‘असंतोष की राजनीति’ के मकड़जाल में फंसी हर संस्था का होता है। एक दिन, जब किसी को यह याद ही नहीं रहा कि इस संस्था का असली उद्देश्य क्या था, तब सरकार ने एक छोटा सा गजट नोटिस जारी कर उसे ‘निष्क्रिय’ घोषित कर दिया। कोई भव्य समारोह नहीं हुआ, कोई आंसू नहीं बहाए गए। क्योंकि अब तो किसी को याद भी नहीं था कि यह संस्था कभी ‘सक्रिय’ भी थी। दस ‘असंतोषी’ सदस्य, जिन्होंने कभी संस्था को ‘डूबने से बचाने’ का बीड़ा उठाया था, अब नई संस्थाओं की तलाश में निकल पड़े थे, जहाँ वे अपने ‘असंतोष’ को फिर से भुना सकें, और कुछ नई कुर्सियाँ हासिल कर सकें। उनकी आँखों में अब भी वही चमक थी, वही महत्वाकांक्षा। वे अब भी ‘असंतोष’ के ‘महान ध्वजवाहक’ थे, जो हर डूबती नाव को और तेज़ी से डुबाने का ‘नेक काम’ कर रहे थे।
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