एक और इंडिया हाउस जहां छुपा है भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास

प्रदीप गुप्ता

सामान्यत: लन्दन में रहने वाले भारतीय मूल के लोग जिस इंडिया हाउस को जानते हैं वह अल्डीच के व्यस्ततम और अभिजात्य इलाक़े में बी बी सी के हेडक्वार्टर  बुश हाउस के क़रीब अवस्थित है। इस भवन में  ब्रिटेन में भारत सरकार का उच्चायोग है। मुझे यहाँ कई कार्यक्रमों में शामिल होने का अवसर मिला है। भवन स्थापत्य और भव्यता की दृष्टि से प्रथम दृश्यत: आकर्षित करता है। लेकिन लन्दन के अपेक्षाकृत शांत इलाक़े हाईगेट में एक और इंडिया हाउस भी है जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी और इसके जनक श्यामजी  कृष्ण वर्मा थे।

इस बार मैंने तय किया कि हाईगेट जा कर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इस महत्वपूर्ण लैंडमार्क को देखूँ। मेट्रोपोलिटन अंडरग्राउंड के स्टेशन यूस्टन स्क्वायर के बाहर निकल कर मैंने 134 नम्बर की बस पकड़ी और लैंगडन पार्क स्टॉप पर उतर गया, इस स्टॉप से 65, क्रोमवेल एवेन्यू  की दूरी पाँच मिनट की है। इमारत बने हुए एक सौ बीस वर्ष से भी अधिक हो चुके हैं लेकिन यह देखने में लन्दन की रिहाइश के हिसाब से काफ़ी बड़ी लगती है। 

इसे श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इसे 1900 में ख़रीदा था, वर्मा यूँ तो गुजरात के मांडवी इलाक़े के बहुत ही साधारण परिवार में जन्मे थे, लेकिन विवाह के बाद पत्नी के परिवार से मिली संपत्ति और अपने व्यावसायिक चातुर्य से उन्होंने कई कॉटन प्रेस मशीन ख़रीद ली थीं, लन्दन आ कर क़ानून की पढ़ाई की, लन्दन, पैरिस, जेनेवा के स्टॉक एक्सचेंज में निवेश करके अच्छी संपत्ति अर्जित की थी। अपनी लन्दन से अर्जित क़ानून की डिग्री के कारण वे जूनागढ़ की रियासत के दीवान भी रहे, रियासत में नियुक्त  ब्रिटिश प्रतिनिधि के व्यवहार से असंतुष्ट हो कर उन्होंने यह पद छोड़ दिया और वापस लन्दन जाने का निर्णय लिया। इस बीच वे आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद के संपर्क में भी आए थे और उन्हीं की प्रेरणा से बम्बई में आर्य समाज की भी स्थापना की थी।

श्यामजी जब 1900 में वापस लन्दन पहुँचे और यहाँ आ कर क्रोमवेल एवेन्यू में एक विशाल  मेन्शन ख़रीद लिया। यही घर इंडिया हाउस के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्यामजी वर्मा के मन में भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराने की लगन लगी हुई थी। इसलिए   यह घर भारत में स्व-शासन की अवधारणा से प्रभावित लोगों के लिए विचार विमर्श और संघर्ष की युक्तियों को तैयार करने  का केंद्र बन गया। 

फ़रवरी  1905 में श्याम जी वर्मा ने इसी घर में  भीखाजी कामा, लाला लाजपत राय, एस आर राना के साथ मिल कर इंडियन होम रूल सोसाइटी बनाई जिसने भारत में होम रूल के विचार को मूर्त रूप देना शुरू किया। भारत को अंग्रेजों से मुक्त करने के इन प्रयासों में वी एन चटर्जी, लाला हर दयाल, वी वी एस अय्यर, एम पी टी आचार्या, पी एम बापट, मोहन दास  करम चंद गांधी समय समय पर आये और जुड़ते गए। उस समय जो लोग इंडिया हाउस के संपर्क में आ रहे थे उनकी राजनीतिक विचारधारा भिन्न भिन्न थीं लेकिन लक्ष्य भारत को अंग्रेज़ी राज्य से मुक्त कराना था। इनमें से लाला हर दयाल बाद में ग़दर पार्टी  का हिस्सा बने। ग़दर पार्टी 1913 me अमेरिका के ऑरेगन राज्य के एस्टोरिया नगर में स्थापित हुई थी। एम पी टी आचार्या कम्युनिस्ट थे और उन्होंने इस पार्टी के लिए यूरोप में काफ़ी काम किया। पी एम बापट ने बाद में गांधी जी की विचारधारा से जुड़ गए और उन के साथ मिल कर काम किया।

 श्याम जी वर्मा ने  ब्रिटेन ही नहीं  अन्य यूरोपीय देशों में आम नागरिक के जीवन को क़रीब से देखा था और उन देशों में आम आदमी को मिलने वाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता और बेहतर जीवन स्तर से प्रभावित हो कर समाजवाद की अवधारणा पर ज़ोर दिया। अपने पक्ष को प्रभावशाली तरीक़े  से लोगों तक पहुँचाने के लिए इंडिया हाउस से इण्डियन सोशलिस्ट समाचार पत्र भी निकालना शुरू किया।

क्रोमवेल एवेन्यू  के इस मेन्शन में रहने की काफ़ी जगह थी। श्यामज़ी कृष्ण वर्मा अनुभव कर रहे थे कि  भारत से लन्दन आ कर पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों को आसानी से रहने की जगह नहीं मिलती थी, कई बार तो उन्हें नस्लीय भेदभाव का सामना भी करना पड़ता था  इसलिए उन्होंने यहाँ 1, जुलाई  1905 में ऐसे विद्यार्थियों के लिए हॉस्टल शुरू किया। इस हॉस्टल का शुभारंभ सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक फ़ेडरेशन के अध्यक्ष एच एम हाइंडमैन के हाथों हुआ, हाइंडमैन लंबे समय से समाजवादी आंदोलन से जुड़े हुए थे, इस अवसर पर तीन और महत्वपूर्ण व्यक्ति उपस्थित थे। दादा भाई नारौजी जो एक दशक पूर्व फिंसबरी से लिबरल पार्टी की ओर से ब्रिटेन के हाउस ऑफ़ कॉमन्स के लिए निर्वाचित हुए थे और वे अपनी पहचान प्रखर राष्ट्रवादी के रूप में बना चुके थे। दो महिलाएँ, जिन में आयरिश रिपब्लिकन की  चार्ले डेस्पर और पेरिस में रह रही मैडम कामा जो यूरोप के समाजवादियों और भारत के राष्ट्रवादियों के बीच महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में कार्यरत थीं, इस अवसर पर विशेष रूप से आई थीं। श्यामजी वर्मा ने इस हॉस्टल में भारत से पढ़ने आये विद्यार्थियों को प्रवेश देने के लिए नियम बनाया था, अभ्यर्थी को लिख कर देना पड़ता था कि वह पढ़ाई के बाद ब्रिटिश सरकार की सेवा नहीं करेगा। 

इंडिया हाउस में नियमित रूप राजनीतिक चर्चा चलती रहती थीं। उसमें हॉस्टल के विद्यार्थी भी सक्रिय रूप से भाग लिया करते थे। इनमें से  कई  विद्यार्थी महसूस करने लगे कि भारत को  अंग्रेजों के शासन से मुक्त कराना है तो उसके लिए हिंसा का रास्ता अपनाना पड़ेगा और इसके लिए उन्होंने गुपचुप तैयारी भी शुरू कर दी थी। इस गर्म दल में प्रमुख विनायक दामोदर सावरकर थे जो लन्दन में क़ानून की पढ़ाई करने आये थे। भारत से इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने आये  मदन लाल धींगरा ने 1 जुलाई  1909 को लन्दन के इम्पीरियल इंस्टीट्यूट की सीढ़ियों पर सर विलियम कर्ज़न वाइली पर सात गोलियाँ चला कर दिन दहाड़े क्रांति की धमक पैदा कर दी  जिसकी गूंज लंबे समय तक ब्रिटिश संसद, सरकार और प्रेस में रही। वाइली ब्रिटिश सरकार के भारतीय मामलों के तत्कालीन सचिव जॉन मारले के राजनीतिक सहायक थे। 

इधर इंडिया हाउस से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र  इण्डियन सोशलिस्ट में जिस क़िस्म की राजनीतिक सामग्री प्रकाशित हो रही थी उससे ब्रिटिश सत्ता के कान खड़े होने शुरू हो गये थे, स्काटलैंड यार्ड ने अपने ख़ुफ़िया तंत्र को इंडिया हाउस की निगरानी में लगा दिया था। अंतोगत्वा श्याम जी वर्मा लन्दन छोड़ कर पहले पेरिस गए, उन दिनों फ़्रांस के  ब्रिटेन से संबंध प्रगाढ़ होने लगे थे इसलिए वे स्विट्ज़रलैंड में जा कर बस गए, क्योंकि यह यूरोप केबल मात्र उभय देश था। वहाँ जा कर भी वे देश विदेश के क्रांतिकारियों और उनकी गतिविधियों में एक पुल की तरह काम करते रहे । बाद में, कुछ दिनों तक विनायक दामोदर सावरकर इंडिया हाउस में सक्रिय रहे लेकिन ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारी गतिविधियों का पता लगने पर यह हॉस्टल बंद करा दिया। इसके साथ इंडिया हाउस की क्रांतिकारी गतिविधियों पर ब्रेक लग गया। लेकिन जो अलख  श्याम जी वर्मा ने जगाई  थी उसने आगे जा कर कितने ही क्रांतिकारियों को प्रेरित किया और भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया। 

उत्तरी लंदन के हाई गेट के शांत क्रोमवेल  एवेन्यू  स्थित इंडिया हाउस की इमारत अब आवासीय भवन में बदल चुकी है लेकिन यह याद दिलाती है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई केवल देश में ही नहीं ब्रिटिश सरज़मीं पर भी लड़ी गई थी। 

(साभार – परत दर परत लंदन)

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