हिडिम्बा प्रदेश मनाली

डॉ वरुण कुमार
अपना देश प्राकृतिक विविधता की दृष्टि से विलक्षण है। यहाँ एक ही समय में एक जगह लू चलती है तो दूसरी जगह बर्फ पड़ती होती है। एक ही समय में कहीं सूखा पड़ता होता है तो कहीं बाढ़ आई हुई होती है। कहीं सूखा रेगिस्तान है तो कहीं सबसे गीला, दुनिया का सबसे अधिक वर्षा का स्थान। ऐसे में अगर इतिहास-पुराण के संदर्भों से लदे स्थानों को छोड़कर केवल प्राकृतिक सुषमा के अवलोकन के लिए निकल पड़ने का मन करे तो क्या आश्चर्य! मैंने सोच लिया था कि इस बार केवल घूमने और आनंद लेने के खयाल से निकलना है। किसी दोस्त-रिश्तेदार को साथ नहीं लेना है, बस हल्के-फुल्के मिजाज से मुक्त मन यात्रा करनी है। इस बार मेरा अन्वेषक मन नहीं, सीधा-सादा पर्यटक मन साथ होगा। लेकिन यात्रा में ठहरने-खाने-वाहन करने आदि की चिंता से मुक्त रहूँ इसका खयाल करके एक अपरिचित पर्यटकों के दल में शामिल हो गया।
हावड़ा से कालका मेल से अम्बाला और वहाँ से बस से मनाली। २६ मई २०१४, दिन सोमवार। जब भारतीय राजनैतिक फलक पर नई इबारतें लिखी जा रही थीं, जननायक नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार का शपथ ग्रहण समारोह चल रहा था था, उस वक्त इन बातों से बेखबर हमारी बस चंडीगढ़ से कुल्लू-मनाली की खूबसूरत वादियों की ओर चली जा रही थी। दूर क्षितिज पर बर्फ ढकी चोटियाँ नजर आ रही थीं और पास में ऊँचे वृक्षों से लदे पहाड़, ऊँची-नीची खूबसूरत घाटियाँ, पहाड़ों की गोद में बने मकान। दो भू-दृश्य मुझे बेहद लुभाते हैं – सागर और पहाड़। सागर अगर मन को विस्तार देता है तो पहाड़ मन को ऊँचाई –
पहाड़ पर चढ़ने के लिए
चाहिए होते हैं
पहाड़-से पैर
और
समंदर लाँघने के लिए
समंदर-सी आँखें
आकाश नापने के लिए
आकाश-सी बाँहें
सचमुच पहाड़ पर चढ़ने के लिए पहाड़-से पैर चाहिए होते हैं, लेकिन उसके लिए पर्वतारोही होना पड़ेगा, बस के चक्कों पर सवार पर्यटक तो बस इसकी कल्पना ही कर सकता है। बस की द्रुत गति में पहाड़ी रास्ते पर तेजी से आ रहे थे ऊँचे-नीचे घुमावदार रास्ते और रहस्य खोलते मोड़। लो देखो, एक नई घाटी प्रकट हो गई, कई झरने पेड़ों के बीच से छिपते छिपाते हठात ही दिख गए। साथ में चलती नदी भी हर मोड़ पर नया रूप दिखा रही थी। ऊँचाई बढ़ने के साथ साथ तापमान भी गिरता गया और चंडीगढ़ से तीन सौ किलोमीटर दूर मनाली तक पहुँचते–पहुँचते हमें मई के महीने में भी जैकेट निकालना पड़ा।
हमारा शिविर मनाली मुख्य बाजार से दो किलोमीटर दूर मनालसु नाला के पास लगा था – चीड़, देवदार आदि से घिरे जंगल के बीच एक थोड़ी समतल जमीन पर – हरी चादर पर डैने फैलाए बैठी बड़ी तितली-सा बैठा। व्यास नदी मुश्किल से पचास कदम दूर थी। पेड़ों के बीच से झाँकते पहाड़, शिखरों पर अठखेलियाँ करते बादलों के झुंड, बादलों के बीच जब-तब झाँकता गहरा नीला आसमान। मन प्रसन्न था लेकिन हथेलियाँ ठंड से सुन्न हो रही थीं। बर्फीली हवा चलने लगी थी। हमने गरम कपड़े पहने और खा-पी कर स्लीपिंग बैग में घुस गए।
आदत के अनुसार पौ फटने से पहले मेरी नींद खुल गई। ऑंखें मलता बाहर निकला तो प्रकृति अपनी पूरी सज-धज के साथ मचल रही थी। थोड़ी दूर पर बहती व्यास नदी की लहरों का शोर मुझे अपनी ओर खींच रहा था। थर्मस से निकालकर मैंने गरम पानी पिया और साथियों को सोता छोड़ अकेले नदी की ओर चल पडा। संकरे और मुश्किल रास्ते से उतरता लहरों की आवाज का अनुसरण करता मैं दस मिनट में मैं नदी के तट पर था।
बड़े-बड़े विशालकाय पत्थरों से टकराती वेगवान दूधिया धारा। प्रातःकालीन निर्जनता के बीच चारों तरफ निश्चल पहाड़ों के बीच नदी की मचलती-उछलती-गरजती धारा जीवन और ऊर्जा का एहसास करा रही थी। लगा जैसे जिंदगी तभी है जब गति है, ऊर्जा है। रुक जाना तो मृत्यु है। नदी की जलप्रपात जैसी तेज धारा मानों आह्वान कर रही थी – उठो, छलांग मारकर बढ़ चलो। मेरा मन एक अज्ञात श्रद्धा से भर गया। नीचे उतरकर नदी के पानी से आचमन करने के लिए हाथ बढ़ाया किंतु उँगलियों से पानी का स्पर्श होते ही जैसे करेंट लग गया। बर्फ से भी ठंढा पानी। झट से हाथ खींच लिया। बाहर के तापक्रम से धारा के तापक्रम का कोई तालमेल ही नहीं था। गर्म पानी पीकर चला था और कठिन डगर पर उतरने के परिश्रम ने ‘प्रकृति की पुकार’ (nature’s call) तीव्र कर दी थी किंतु पानी के तापक्रम ने यहाँ संयम बरतने पर विवश कर दिया, हालाँकि प्रधानमंत्री मोदी जी की स्वच्छता की पुकारें अभी उस वक्त शुरू नहीं हुई थीं।
पानी के प्रवाह में बहकर घिस-घिसकर चिकने हो गए चमकदार और आकर्षक छोटे-छोटे पत्थरों को चुनता, पानी की धारा को अंजुरियों से उछालता मैं लहरों के नर्तन के चलायमान सौंदर्य को अपने भीतर समेट लेने की कोशिश कर रहा था। पत्थर बहुमूल्य नहीं थे, वे क्षण बहुमूल्य थे। मैंने उन बहुरंगी क्षणों के प्रतीक कुछ काले, उजले, लाल, हरे, धूसर विभिन्न रंग के पत्थर चुने और शिविर की ओर लौट पड़ा।
पहाड़ों का बदलता मौसम – पल में धूप, पल में छाया। दूर दिखते पर्वत शिखरों का रंग कभी सुनहला, कभी श्वेत, कभी धूसर। दूर-दूर तक फैली नीरवता। कैम्प की गतिविधियों से निरपेक्ष मैं विशाल पहाड़ों के बीच खड़ा अद्भुत दृश्य के सम्मोहन में डूबा था। काश, पक्षी की तरह उड़कर इन घाटियों के सौंदर्य निरखता हिमालय के उत्तुंग शिखर तक पहुँच जाता। शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की पंक्तियाँ याद आ गईं :
“होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा–होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता, या तनती साँसों की डोरी।”
उत्तर से लेकर पूर्वोत्तर तक वही हिमालय की पर्वत श्रृंखला फैली है, लेकिन पूर्वोत्तर में, जैसे अरुणाचल, सिक्किम, शिलॉङ, दार्जिलिंग आदि के पहाड़ों में मिट्टी के अंश बहुत अधिक हैं, वे मिट्टी के पहाड़ हैं। लेकिन उत्तर तरफ के पहाड़, हिमाचल, कश्मीर के पहाड़ उनकी अपेक्षा पत्थरों के पहाड़ हैं। इसलिए भू-दृश्य भी थोड़े अलग होते हैं। पूर्वोत्तर ज्यादा हरा-भरा और वर्षा वाले पहाड़ों का क्षेत्र है। उधर बाँस ज्यादा दिखते हैं जबकि उत्तर की तरफ चीड़ देवदार।
हमारी टोली प्रसिद्ध हिडिंबा मंदिर जाने के लिए तैयार हो रही थी। मैंने भी नाश्ता किया, पाँव में स्पोर्ट्स् जूते डाले और आँखों पर काला धूप चश्मा, सिर पर हिमाचली टोपी, पीठ पर छोटा बैग लादकर सबके साथ उत्साहपूर्वक निकल पड़ा। मनालसु पुल पर कई सैलानी कमर में रस्सी बाँधकर नदी की बीच धारा में झूलने का आनंद ले रहे थे। किनारे खड़ी उनकी स्त्रियाँ किलकारियाँ मार रही थीं। स्त्री के सान्निध्य में पुरुष का उत्साह दूना हो जाता है। उस अरण्य में लक्ष्मण की तरह स्त्रीविहीन मैं भला क्यों यह सब करता। मैंने उनके झूलने को तनिक ईर्ष्या और उपेक्षा से देखा और आगे बढ़ गया – मुझे क्या!
मनालसु पुल पार करने के बाद चढ़ाई शुरू हो गई थी। एक पहाड़ी अपने काले झबरे याक के साथ खड़ा था। हम सैलानियों को देखकर कमाई की आशा में उसके चेहरे पर चमक आ गई। लेकिन हमें यूँ ही गुजर जाते देखकर उसका चेहरा जिस तरह बुझ गया उसे देखकर मेरा मन कचोट गया। रोजी-रोटी की मजबूरी। कहाँ पहाड़ों की भव्यता, कहाँ यह दैन्यभरा जीवन संघर्ष। हमलोग सीढियाँ चढ़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। रास्ता संकरा था। जगह-जगह ठहरने के होटल बने थे। ऊपर हिडिंबा मंदिर आकाश में अपनी नुकीली शिखर चुभोता पूरी भव्यता के साथ खड़ा था। मेरु शैली के चार छतों वाले इस मंदिर की ऊँचाई ८० फीट है। इसके तीन ओर बरामदे हैं। बरामदे की छत खम्भों पर खड़ी है। इस मंदिर का निर्माण राजा बहादुर सिंह ने १५५३ ई० में कराया था। महाभारत में हिडिंबा का वर्णन आता है। अपने वनवास काल में जब पांड्व यहाँ आए तो महाबली भीम से उसका विवाह हुआ था। भीम और हिडिंबा के पुत्र घटोत्कच ने महाभारत में वीरतापूर्ण लड़ाई की थी। पहाड़ी स्त्रियों के सौंदर्य को देखते हुए हिडिम्बा का राक्षसी होना अटपटा-सा लगता है। लेकिन हिडिम्बा देवत्व प्राप्त कर मंदिर में देवी स्थान पाने की अधिकारिणी बनी। मंदिर के अंदर एक चट्टान है। ऐसा विश्वास है कि इसी शिला पर तप करके हिडिंबा ने देवत्व की प्राप्ति की थी। इसी चट्टान के कारण इस मंदिर को ढुंगरी मंदिर भी कहा जाता है, स्थानीय बोली में ‘ढुंगर’ का अर्थ चट्टान होता है।
ढुंगरी मंदिर से आगे और ऊपर जाते हुए गाँव कुछ कम घने और पुराने समय के दिखने लगे। पत्थर एवं लकड़ी से बने घर, मवेशियों को चारा देती महिलाएँ दिखीं। घरों में पुरुष कम ही दिखे। शायद वे नीचे कमाने चले गए थे। एक छोटे से स्कूल के प्रांगण में छोटे छोटे बच्चे खेल रहे थे। गोरे-गोरे,प्यारे-प्यारे मासूम बच्चे। हमलोगों ने उन्हें हाथ हिलाया तो वे सब भी टा-टा करके हाथ हिलाकर मुस्करा दिये। पहाडों की सुंदरता बदस्तूर जारी थी – चीड़, देवदार, आदि वृक्षों के घने जंगल, पेड़ों के बीच से दिखती गहरी घाटी। हवा में ठंडक थी। बादल नहीं थे और पत्तों से सुनहली धूप छनकर आ रही थी। रास्ता कठिन जरूर था, पर उतना दुर्गम नहीं। फिर समूह का एक अपना आनंद, अपना जोश होता है। पहाड़ों पर चलना भी एक तरह से समुद्र में नाव खेने जैसा होता है, जैसे समुद्र में चप्पू चलाकर एक एक कदम आगे बढ़ते हैं वैसे ही पहाड़ पर दम लगाकर एक एक कदम आगे बढ़ना होता है। एक दूसरे को हिम्मत दिलाते, हाँफते, बतियाते आखिर हमलोग लगभग ७००० फीट और ऊपर पहुँच गए। चारों ओर वृक्षों से घिरे एक ढ़लान पर बैठकर हमने विश्राम किया। नीचे तराई का पूरा दृश्य एक तिलस्मी दुनियाँ-सा लग रहा था। मन कर रहा था यहीं प्रकृति देवी की गोद में सिर रखकर पडा रहूँ, उसके अनंत सौंदर्य को पीता हुआ। काश की दुनिया के झमेले न होते –
बैठा रहूँ चमन में यूँ ही पर खुला
काश कि होता कफ़स का दर खुला। – गालिब
पहाड़ पर चढ़ना आसान है, उतरना कठिन। बार बार संतुलन खोने का डर लगा रहता है। उतरने का रास्ता दूसरी ओर से था। फिर से नये गाँव मिलने लगे थे। अजीब-अजीब नामोंवाले गाँव – “कोथा पद्दर”, नुसुगी गाँव, अलि गाँव आदि। आगे महादेव मंदिर था। यहाँ लकडियों पर बेहद सुंदर और महीन कलाकारी थी। आगे सियाली गाँव के महादेव मंदिर में भी ऐसी ही लकड़ी की अद्भुत कलाकारी मिली। कितने दिन, कितनी मेहनत लगी होगी इसे बनाने में। लेकिन मंदिर के किसी भी कोने में उसे बनाने वाले कलाकारों का नाम नहीं। कैसा रहा होगा कला के प्रति समर्पण का वह निर्वैयक्तिक युग – कलाकर का सम्पूर्ण अस्तित्व उसकी कला में ही समाहित। मंदिर के चारों तरफ पेड़ों पर कौए गुंजार कर रहे थे। मंदिर के शांत परिवेश में कौओं का गुंजार एक विचित्र-सा एहसास जगा रहा था। पता नहीं, कौए मनुष्य की किस आदिम स्मृति से जुड़े हैं। हिंदी के प्रसिद्ध कथाकार निर्मल वर्मा ने ‘कौए और काला पानी’ लिखकर मनुष्य की मुक्ति की कथा ही कह डाली। उनके अंतिम उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ में भी कौए मुख्य पात्र के तर्पण का भोग खाने आते हैं और उसके मुक्त होने का रूपक पूरा होता है।
हमारी यात्रा किलोमीटर की दूरी में शायद दस-बारह किलोमीटर से अधिक की नहीं रही होगी लेकिन पहाड़ की कठिन चढ़ाई-उतराई में यह मैदानों की पचीस किलोमीटर की यात्रा से भी भारी थी। मध्यान्ह भोजन के समय तक हमारी टोली कैम्प लौटी तो सब पस्त हो चुके थे। खा-पीकर ऐसे सोए कि चाय के लिए जगाने पर भी किसी ने उठने का नाम न लिया।
उस शाम बारिश हुई और फिर निकलना नहीं हो पाया। झमाझम पानी बरस रहा था। तम्बू पर टप-टप गिरती बूंदें, दूर से आती व्यास नदी के लहरों का शोर। इस वातावरण में प्रकृति का संगीत वगैरह तो ठीक है लेकिन मन में डर का भाव भी उत्पन्न हो रहा था। मुझे निर्मल वर्मा की पंक्तियाँ याद आ रही थीं – “ऐसी ही रातों में पैंथर आता होगा, गटगट पानी पीता हुआ।” अस्तित्व के संदर्भ में भय के भाव को यह पंक्ति इस निर्जन पहाड़ी प्रदेश में धारासार वर्षा के संदर्भ में व्यक्त कर रही थी।
अगली सुबह वही ऊबड़-खाबड़ थका देनेवाला रास्ता और पूर्व की ही तरह छोटे-छोटे गाँव। सफर कठिन और खतरनाक था, मगर इसी का तो रोमांच था। खतरा न हो तो रोमांच कहाँ। कभी झुककर, कभी पत्थरों, कभी पेड़ की जड़ों को पकड़कर सावधानीपूर्वक चलते हुए हम जुगनी जलप्रपात पहुँचे। यही हमारा गन्तव्य था। हैरान कर देनेवाला सौंदर्य चारों ओर बिखरा पड़ा था। एक जगह पहाड़ की दरार में झील बन गई थी जहाँ से नीचे झरना गिर रहा था। नीचे हरीतिमा से ढँकी घाटियाँ पहाड़ों के बीच खो रही थीं। सीढ़ीनुमा खेत, पर्वत शिखरों पर दिखते छोटे-छोटे मंदिर, उनपर लहराती पताकाएँ। ऊपर खुला फैला बेहद नीला आकाश, जिसमें कहीं-कहीं बादल के टुकड़े। हम चाहे कितने भी मोहभंग और अनास्था से ग्रसित हों, ऐसे स्थलों पर मन एक अव्यक्त श्रद्धा से भर ही जाता है। अज्ञेय की विलक्षण पंक्तियाँ जैसे पन्नों से निकल सामने खड़ी हो गईं –
नीचे शिखर शिखर पर देवल
ऊपर निराकार तुम केवल
वशिष्ठ कुण्ड यहाँ से चार किलोमीटर दूर था। थकान के मारे हालत खराब थी पर प्रकृति का सौंदर्य हमें प्रेरित किए जा रहा था। रास्ते में कुछ स्त्रियाँ मवेशियों के चारे के लिए चीड़, देवदार आदि के सूखे पत्ते बटोर रही थीं। उनकी पीठ पर शंकु के आकार के टोकरे थे। कुछ की पीठ पर बंधी टोकरी में उनके बच्चे थे। सौंदर्य चाहे जितना भी स्वर्गिक हो, जिंदा रहने की जद्दोजह्द करनी ही पड़ती है। पहाड़ हों या मैदान गरीबों का संघर्ष एक जैसा ही है। लेकिन इन सुंदर श्रम-साधिकाओं के मुखमंडल पर दैन्य का कोई भाव नहीं था। वे हँसती हुई अपने काम में मशगूल थीं। मेरे एक युवा सहयात्री ने सकुचाते-सकुचाते उन्हें सुनाकर कहा –“यहाँ की लड़कियाँ कितनी सुंदर होती हैं।” उनमें से एक ने मुस्कराते हुए कहा—“तो ले जाओ इन लड़कियों को दुल्हन बना कर और सभी खिलखिलाकर हँस पड़ीं। पहाड़ी झरने की ही तरह स्वच्छ कल-कल हँसी। किंतु उस हँसी के पीछे मैं उनके दिल में मैदानों के सुखद आरामदेह जीवन की चाह की कसक महसूस किए बिना नहीं रहा सका। एक दूसरे साथी ने हँसते हुए कहा – अगर यही बात अपने बिहार, उत्तर प्रदेश में गाँव की औरतों से कही होती तो पहले वे दो चार गाँववालों को बुलवाकर हमारी धुलाई करवातीं, फिर पूछतीं – “कहो बाबू, अब कैसी लग रही हैं यहाँ की औरतें?”
वशिष्ठ कुण्ड एक मंदिर परिसर में स्थित है जिसे वशिष्ठ मंदिर ही कहते हैं। कहानी है कि लक्ष्मण जी ने गुरू वशिष्ठ जी को स्नान के लिए चलकर काफी दूर जाने के कष्ट से बचाने के लिए यहीं धरती पर बाण चलाकर गर्म जल की धारा निकाल दी। शायद जमीन के नीचे कैल्शियम, गंधक तथा सिलिका के स्रोत होंगे जिस कारण कुंड से गरम जल निकलता है। बर्फीले ठंडे प्रदेश में गरम पानी का स्रोत राहत देनेवाला है। हालाँकि पानी बेहद गरम था, फिर भी कुछ सहयात्रियों ने नहाने की हिम्मत कर ही ली। यह पानी चर्म रोगों में गुणकारी माना जाता है।
अगले दिन हमें सोलांङ घाटी जाना था, जहाँ बर्फ मिलने की उम्मीद थी। यह यात्रा पिछले दिनों की अपेक्षा लंबी थी — तेरह किमी जाना और तेरह किमी आना और वह भी पैदल। कुछ साथी शिविर में ही रुक गए। रास्ते में हमें फौजी छावनियाँ मिलीं जहाँ जैतूनी रंग की गाड़ियाँ बता रही थीं कि घर-परिवार से दूर फौजी देश की रक्षा के लिए इस कठिन प्रदेश में डटे हुए हैं। आगे और चढ़ने के बाद हिमालय और उसकी चोटियों पर फैली बर्फ साफ दिखने लगी। एक बड़ा गोल दरवाजा आया जिसपर लिखा था–‘अंजनी महादेव, हिम शिवलिंग, मार्ग-२ किमी, श्री श्री१०८ बाबा प्रकाशपुरी महाराज।’ हमने वहाँ बैठकर थोड़ा दम लिया। चलते-चलते पैर दुखने लगे थे। निर्मल वर्मा की पंक्तियों ने रात में डराया था, यहाँ दिनकर की पंक्तियाँ दिलासा दे रही थी –‘थककर बैठ गए क्यों भाई, मंजिल दूर नहीं है।’
पहाड़ की तलहटी में फैले बर्फ तक पहुँचते ही लोग उत्साह से भर गए। कोई बर्फ पर दौड़ने, कोई उछलने, कोई सरकने लगा। कोई-कोई तो बर्फ पर लेट ही गया। कुछ तो जूते खोलकर बर्फ पर खाली पैर ही शिवलिंग तक दौड़ गए। लगभग दो घंटे की धमाचौकड़ी के बाद फिर उसी रास्ते से हमलोग वापस लौटे। आज का सफर लंबा था इसलिए दोपहर का भोजन का इंतजाम सोलांङ घाटी के पास ही किया गया था। लौटते लौटते शाम हो गई।
कई लोग दिनभर प्रकृति की कठिन और मानवरहित सुंदरता के बाद मानवीय हलचल की रंगीनियों के लिए तरसने लगते। वे शाम को वह मॉल (स्थानीय बाजार) चले जाते। मैं उनका साथ देता। यहाँ रास्ते में कोयले के चूल्हे पर पकते भुट्टों की खुशबू थी। मुख्य मार्ग को छोड़कर थोड़ा अंदर जाने पर नेचर पार्क था। चीड़ तथा देवदार के विशालकाय वृक्षों से आच्छादित इस वन में प्रेमी युगल आलाप करते थे। यातायात और भीड़ भरे रास्तों को छोड़कर इस वन्य रास्ते से गुजरना हमें अच्छा लगता। मॉल पहुँचने के बाद चारों तरफ सजी दुकानें, बिजली का जगमगाता प्रकाश, भव्य भवन, बड़े-बड़े होटल देखकर कहीं से लगता ही नहीं था कि भारत में गरीबी नाम की भी कोई चीज है। दो व्यक्ति चार्ली चैपलिन और बतख की वेश-भूषा बनाकर यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। लोग उनके साथ बड़े शौक से दस रूपये चुकाकर फोटो खिंचवा रहे थे। कुछ विदेशी महिलाएँ एवं पुरूष गेरुए वस्त्र धारण किए कंठ में तुलसी की माला डाले हार्मोनियम, ढोल, मंजीरे, करताल के साथ रामधुन गा रहे थे। एक स्थान पर लाल चोंगा पहने सत्तर बहत्तर साल का बूढा खुली टोकरी में बैठे नाग को बीन पर ‘मन डोले रे, तन डोले रे’ की धुन सुना रहा था। पुराने गीतों की मधुरता आज भी मन को छू जाती है। मैंने कुछ गीत की मधुरता और कुछ उस बूढ़े बाबा की झुर्रियों पर मुग्ध होते हुए चादर पर कुछ पैसे अर्पित किए। मालिश करने वाले बोतलों में कई प्रकार के तेल लिए घूम रहे थे। वे यात्रियों के पास जा-जाकर मालिश कराने को पूछते। एक आदमी और उसके साथ तेरह-चौदह साल का लड़का हमारे पास आकर मालिश के लिए पूछने लगे। लंबी पैदल यात्रा के कारण पैर तो दुख ही रहे थे। मैं और मेरे साथी ने पाँव आगे बढा दिए। सचमुच पिंडलियों पर तेल लगाकर उसने इतनी अच्छी मालिश की पैरों की थकान मिट गई। बातचीत के दौरान पता चला कि वे दोनों बाप-बेटे थे। मैंने लड़के के पिता से पूछा – “इसे पढ़ने क्यों नहीं भेजते?” कुछ क्षण की चुप्पी के बाद उसका परिचित सा जवाब मिला – “पेट का सवाल है साहब।” सुनकर हम मित्रों के बीच कुछ क्षण चुप्पी छाई रही। उत्तर कितना भी प्रत्याशित-परिचित क्यों न हो, सामने प्रत्यक्ष भुक्तभोगी उसकी व्यथा का नए सिरे से एहसास करा ही देता है। पहाड़ सिर्फ सौंदर्य नहीं है, काठिन्य और संघर्ष भी है।
बाजार की चहल-पहल, उसमें भारत के विभिन्न प्रांतों से आये पर्यटकों की भीड़ और चीजों की दुगुनी-तिगुनी कीमतें यह एहसास कराती थीं कि इस महंगी जगह में गरीब व्यक्ति घूमने नहीं आ सकते। यहाँ सम्पन्नता की दुनियाँ थी। ठिठुरा देनेवाली सर्दी में गर्म कपड़ों में सजे नवविवाहित जोड़े यहाँ अपने घर-परिवार-सामाज के लिहाजों को छोड़ हाथों में हाथ डाले घूम रहे थे। कुछ दुकानों में लकड़ी की समतल चिकनी पट्टियों पर स्थानीय कलाकार बड़ी खूबसूरती से किसी का नाम, ‘आई लव यू डैडी’, ‘आई लव यू मम्मी’, ‘हैपी बर्थडे’ आदि लिख दे रहे थे। ठंडी हवा बह रही थी। बहुत के दुकानों में स्त्रियाँ चमकदार मोतियों तथा पत्थर के आकर्षक जेवरात बेच रही थीं। मैंने उनसे कुछ मोतियों के हार, कानों के कुंडल, एक चमड़े का जैकेट और स्लीपिंग बैग खरीदा। शिविर में दस बजे तक ही खाना मिलता था, सो बाकी साथी शिविर लौट गए। मैंने सोचा रोज कैम्प का खाना खा रहा हूँ, आज होटल का खाना खाया जाये। खाकर मैंने एक जगह एक गिलास गरम दूध पिया और तरोताजा प्रसन्न चित्त अकेले पैदल चलता शिविर की ओर लौट पड़ा।
लौटते हुए मुझे याद आ रही थी उस मालिशवाले पिता-पुत्र की जे इस वक्त कड़कड़ाती ठंड में अंधेरे रास्ते में टॉर्च जलाते अपने पाँच किलोमीटर दूर गाँव जा रहे होंगे। रौशनी की चकाचौंध के पीछे अंधेरे का सच!
उस वक्त रात के ग्यारह बज रहे थे। रास्ता सुनसान हो गया था। मैं कैम्प के दरवाजे पर पहुँचने ही वाला था कि दो झबरे पहाड़ी कुत्ते भौंकते हुए मेरी ओर झपट पडे। घबराहट के मारे प्राण सूखने लगे। फिर भी ऊपर से साहस दिखाता मैं कुत्तों को हट, चौप कहकर डाँटता रहा। शायद उन दोनों ने भी ताड़ लिया कि प्रतिद्वंदी वीर पुरुष है। भौंकना तो उन्होंने कम कर दिंया, लेकिन मेरा पीछा करना नहीं छोड़ा। जब मैं ठहरता, वे भी ठहर जाते। कुछ देर तक यह सिलसिला चलने के बाद वे शायद आश्वस्त हो गए कि ये कोई चोर उचक्का नहीं बल्कि भला आदमी है, तब कहीं रुके। उनके रुकते ही मैं दौड़कर भागा और टेंट में सोए अपने दोस्त सहयात्री के शरीर पर गिर पड़ा। वे हड़बड़ाकर क्या हुआ, क्या हुआ करते जागे। मैंने कहा कुछ नहीं हुआ, सो जाइए। वे नींद से बोझिल पलकें लिए सो गए। देर तक कलेजा धड़कता रहा। उन यमदूतों ने मनाली यात्रा में ही मेरी अंतिम यात्रा करा देने की ठानी थी। जीवन के लिए संघर्ष की कहानियाँ प्रायः शेर बाघ रीछ से भिड़ंत की मिलती है, कुत्ते से भिड़ंत की नहीं। सोचता हूँ, बाद में हिंदी साहित्य के इस छूट गए पक्ष को पूरा करूंगा। मैं बहुत देर तक जागता रहा। नींद में भी सपने में वे मुझे भौंकते-दौड़ाते रहे।
सुबह बूढा चौकीदार सबको बता रहा था कि रात में कुत्ते बहुत भौंक रहे थे, लगता है कोई चोर आया था। मैंने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। उस वक्त मेरे मित्र सहयात्री मेरी तरफ देखकर मुसकरा रहे थे।
अगले दिन मनु मंदिर का घूमना पुनः उन्हीं मनोरम दृश्यों की पुनरावृत्ति था। सफर भी उतना कठिन नहीं था। शिविर से मात्र डेढ-दो किमी की दूरी पर ही मनु मंदिर था। हमलोग पुराने मनाली गाँव से होकर जा रहे थे जहाँ अधिकतर लकडियों से बने घर थे। इधर सभ्यता का ‘असर’ अधिक था — जगह-जगह नगरपालिका द्वारा पानी की टंकियाँ बनी थी जहाँ गाँव की स्त्रियाँ कपड़े धो रहीं थीं। आबादी से दूर एक नीची पर्वत की चोटी पर एक खूबसूरत घर बना था जहाँ पर्यटकों को ठहरने तथा खुद से खाना बनाने की भी सुविधा थी। चारों तरफ गर्व से सिर उठाए ऊँचे पर्वत शिखरों के बीच में यह सौम्यता का द्वीप किसी तपस्वी की तपस्थली-सा लग रहा था। चारों ओर दिव्य शांति। किसी लेखक के लिखने के लिए यह एकांत प्रवास का उत्तम स्थल था।
मंदिर के कंगूरे दूर से ही दिखने लगे थे। कहा जाता है मनु महाराज ने मनुस्मृति यहीं बैठकर लिखी थी। यहाँ धौनी-चौनी वंश के गौरी नाम के व्यक्ति के आँगन में मनु महाराज की मूर्ति दबी मिली थी। उसी स्थान पर मंदिर बना दिया गया है। यहाँ सैलानियों की अच्छी चहल-पहल थी। पास ही एक छोटा सा बाजार भी था। चीजों के दाम वैसे ही अनाप-शनाप थे। मैंने मोल-भाव कर दो सौ रुपये वाली डिब्बियाँ मात्र पचास रूपये में खरीदी और साथियों की प्रशंसा एवं ईर्ष्या का पात्र बना, क्योंकि यही केसर और शिलाजीत वे मनाली बाजार में सौ-सौ रुपये में खरीद चुके थे। ये केसर और शिलाजीत भी असली थे या नकली, क्या पता। पर्यटन स्थलों पर लोग ठगते बहुत हैं।
हिडिम्बा मंदिर, जुगनी फॉल, वशिष्ठ कुंड, सोलंग घाटी, नेचर पार्क, मनाली बाजार – मनाली के प्रमुख दर्शनीय स्थलों को देखने के बाद हमने नेशनल एड्वेंचर फाउंडेशन, मनाली की देख-रेख में पर्वतारोहण का भी आनंद उठाया था। कसक रह गई थी तो केवल एक – कि सोलांङ घाटी में मौसम खराब होने के कारण पैराग्लाईडिंग खेल के लिए उड़ान न भर सका। उड़ते पंछी की तरह घाटियों को देखना कितना रोमांचकारी अनुभव होता!
देखते ही देखते विदाई की बेला आ पहुंची। गाड़ी में सामान लादे जा रहे थे। गाइड जीवन, राधे और सतपाल; रसोईया रघु, जो हमें पानी गरम करके देता था; देर से पहुँचने पर मेरे लिए खाना बचाकर रखनेवाला बूढा दरबान; उसका आठ-नौ साल का प्यारा पोता सोहन, जिसने मुझे अपने बगीचे से ताजे, मीठे लाल-गुलाबी चेरी(फल) खिलाई थी; बूढी अम्मा, जो अपनी पारंपरिक वेष-भूषा में किसी पुरानी कहानी के पात्र की याद दिलाती थी, जिसके साथ मैंने अलग से कुछ तसवीरें खिंचवाई थी, इस संक्षिप्त प्रवास के ये सारे स्थानीय सहयोगी उदास खामोश खड़े थे। इन छः-सात दिनों में इनसे लगाव हो गया था। मैंने एक दृष्टि चारों ओर डाली। पहाड़, झरने, वादियाँ सब मानों उदास खड़े नम आँखों से विदा कह रहे थे।
अंतिम क्षणों में मन मनाली के इस अल्पप्रवास के अनुभवों को दुहरा रहा था – हिडिम्बा की यह तपोभूमि, नास्तिक को भी श्रद्धानत कर देनेवाला भू-दृश्य, विराट प्रकृति के सम्मुख अपनी शिशुवत लघुता का एहसास, काठिन्य और जीवट से भरा जीवन, स्थानीय बाजार की रंगीनियाँ, पर्यटकों की भीड़, सीधे-साधे लोग, ठगते दुकानदार, मैदानों के आरामदेह जीवन की लालसा और सबके ऊपर व्यास नदी की कलकल बहती धारा का शोर – कि चलना ही जीवन है, सब कुछ को दार्शनिक भाव से लेकर आगे बढ़ते रहो, चलते रहो। चरैवेति चरैवेति।
हमें चलना ही था। देवी हिडिम्बा की इस स्वर्गिक स्थली को मैंने प्रणाम किया और गाड़ी में बैठ गया।
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