फ़ादर कामिल बुल्के

-रजनीकांत शुक्ला

प्रख्यात हिन्दी सेवी फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म 1 सितम्बर, 1909 को बेल्जियम के पश्चिमी फ्लैंडर्स स्टेट के रम्सकपैले नामक गाँव में हुआ था। उनके पास सिविल इंजीनियरिंग में बी.एस.सी डिग्री थी, जो उन्होंने लोवैन विश्वविद्यालय से प्राप्त की थी।

1934 में उन्होंने भारत का संक्षिप्त दौरा किया और कुछ समय वे दार्जीलिंग में रुके। उन्होंने गुमला (वर्तमान में झारखंड में) में 5 वर्षों तक गणित का अध्यापन किया। यहीं पर उनके मन में हिन्दी भाषा सीखने की ललक पैदा हो गई, जिसके लिए वे बाद में प्रसिद्ध हुए।

उन्होंने लिखा है- “मैं जब 1935 में भारत आया तो अचंभित और दु:खी हुआ। मैंने महसूस किया कि यहाँ पर बहुत से पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परंपराओं के प्रति जागरूक नहीं हैं। यह भी देखा कि लोग अंग्रेज़ी बोलकर गर्व का अनुभव करते हैं। तब मैंने निश्चय किया कि आम लोगों की इस भाषा में महारत हासिल करूँगा।”

‘कामिल’ शब्द के दो अर्थ माने जाते हैं। एक अर्थ है- ‘वेदी-सेवक’ और दूसरा अर्थ है- ‘एक पुष्प का नाम।’ फ़ादर कामिल बुल्के दोनों ही अर्थों को चरितार्थ करते थे। वे जेसुइट संघ में दीक्षित संन्यासी के रूप में ‘वेदी-संन्यासी’ थे और एक व्यक्ति के रूप में महकते हुए पुष्प। ऐसे पुष्प, जिसकी उपस्थिति सभी के मनों को खुशबू से भर देती है। मलिक मुहम्मद जायसी ने ‘पद्मावत’ में लिखा है- “फूल मरै पर मरै न बासू।” यह पंक्ति फ़ादर कामिल बुल्के पर पूरी तरह सटीक बैठती है।

फादर कामिल बुल्के भारत आकर मृत्युपर्यन्त हिंदी, तुलसी और वाल्मीकि के भक्त रहे। वे कहते थे कि संस्कृत महारानी है, हिन्दी बहूरानी और अंग्रेजी को नौकरानी। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

उनका बनाया शब्दकोश आज भी मानक है। उनसे प्रेरणा लेते हुए अब हिन्दी सेवियों को एक नया परिवर्धित शब्दकोश बना लेना चाहिए।

17 अगस्त 1982 में गैंगरीन के कारण एम्स, दिल्ली में इलाज के दौरान मृत्यु हो गयी।

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