मूर्तिकार अर्जुन प्रजापति

रजनीकांत शुक्ल

विगत वर्ष आज के ही दिन देश के प्रसिद्ध मूर्तिकार अर्जुन प्रजापति का कोरोना के चलते पैसठ वर्ष की अवस्था में निधन हो गया था।

वे जयपुर राजस्थान के ऐसे कलाकार थे जिन्होंने मूर्ति बनाने की कला को विश्व में पहचान दी।

मेरी उनसे पच्चीस वर्ष पहले दिल्ली में त्रिवेणी कला संगम में लगी उनकी एक प्रदर्शनी में मुलाकात हुई थी। तब अत्यंत उत्साह से भरे अर्जुन ने अपनी कला साधना के बारे में मुझे बहुत कुछ बताया था।

उनकी बनाई मूर्तियों में राजस्थान के ग्रामीण संस्कृति की झलक अपनी पूर्णता के साथ मिलती रही।

पाँच भाइयों में सबसे छोटे रहे अर्जुन तब पढ़ाई बीच में छोड़कर मूर्ति कला की साधना में जुनून की तरह जुट गए थे। सबसे पहले उनकी बनाई भगवान गणेश की एक मूर्ति को लोगों ने बेहद सराहा।

जब विघ्नविनाशक का आशीष मिला तो उनका हौसला बढ़ गया और वे लगन के साथ लग गए मूर्तियां बनाने में। उन्होंने तब मुझे बताया था कि उनकी बनाई जिस मूर्ति को सबसे ज्यादा सराहना मिली वह किसनगढ़ की तर्ज पर बनाई गई ‘बनीठनी’ की मूर्ति थी।

‘बनी’ राजस्थानी में औरत को कहते हैं और ठनी का मतलब सज धज के साथ।

कहते हैं कि महाराजा किसनगढ़ ने अपनी दासी की खूबसूरती से प्रभावित होकर उसकी याद में यह कृति बनवाई थी। वह बेहद लोकप्रिय हुई थी। अर्जुन ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और फिर उसकी ऐसी मूर्ति बनाई कि क्या कहने। इस कृति ने अर्जुन को न केवल देश में बल्कि सारी दुनिया में प्रसिद्धि दिलाई। इसके इतने चित्र प्रकाशित हुए जितने शायद ही किसी कृति के प्रकाशित हुए होंगे।

उन्हीं दिनों सितम्बर 1996 में जयपुर में हुए पोलो क्लब के एम्बेसडर कप के प्रतीक चिह्न को भी अर्जुन ने बनाया था। ऐसा उन्होंने मुझे बताया था।

राजस्थान ललित कला अकादेमी से अमूर्त शिल्प में पुरस्कार पाए अर्जुन प्रजापति की मूर्तियों में प्रेम क्रोध भय आक्रोश आदि भाव बड़ी स्पष्टता से परिलक्षित होते थे। ऐसा उनके सधे हुए हाथों का कमाल था। जिसका जादू चेहरे की एक एक रेखा को उभारकर उसमें ऐसे भाव भर देता था।

अपने शुरुआती दिनों में उन्होंने महेन्द्र दास से इस कला की बारीकियां सीखीं थीं। उन्होंने द्वारिका प्रसाद शर्मा से शरीर विज्ञान की जानकारी लेकर शिल्प निर्माण को सही अनुपात में रचकर चित्ताकर्षक बनाया।

अपने उस इंटरव्यू में उन्होंने मुझसे कहा था कि मैं अभी सीख रहा हूँ और सीखते रहना चाहता हूँ। बेहतर और बेहतर करना चाहता हूँ।

सचमुच बाद के दिनों में उनकी कला में दिनोंदिन निखार आता गया। कालीदास सम्मान, राष्ट्रपति पुरस्कार और बाद के समय में 2010 में उन्हें पद्मश्री पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

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