राधा जी

डॉ. नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

इतिहास में ऐसे क्षण भी आते हैं, जब ऐतिहासिकता चाहे वह कितनी ही प्रामाणिक क्यों न हो, अनैतिहासिकता के सामने पराजित हो जाती है। ऐसे ही एक क्षण का नाम राधा है जो जन्मा और अमर हो गया। जो कभी बीता ही नहीं बल्कि सदैव वर्तमान रहा और भविष्य बन गया। अतीत के पन्नों में साधारण मानव जन्में, असाधारण महापुरूष जन्में और ईश्वर के अवतार भी जन्में लेकिन जिस क्षण राधा जन्मीं वह क्षण ही राधा हो गया, अजर-अमर और स्निग्ध प्रेम की महान धरोहर।

राधा ऐसा नाम है, जिसे सुनते ही मधु के मेघ बरसने लगते हैं। लगता है जैसे मन के मानसरोवर की नीली सतह पर तैरते हुए किसी हंस के जोड़े ने हलचल उत्पन्न कर दी हो, अपनी उजली आंखों में काले बादलों का काजल आँजकर कोई बिजली कौंधी हो, कोई दीप ज्योति हौले से जगी हो और उससे फूटते आलोक ने एक क्षण में ही गहरे अंधकार को विलुप्त कर दिया हो, राग जागे हों, स्वर लहराए हों, सौरभ अपने पूरे उन्माद में फूट पड़ा हो और मन के कालीन के हर कोने पर जैसे किसी ने जूही की महकती लड़ियों को बिखेर दिया हो।

राधा इसी अनुभव, आलोक, स्वर, संगीत, और सुगंध की पर्याय हैं।

सच तो यह है कि राधा रूप भी हैं, रसायन भी। ऐसा रूप जो घुलकर रसायन हो जाए और ऐसा रसायन जो मूर्त होकर रूप में ढल जाए। संज्ञा और भाव यदि साथ-साथ देखें जाने हों तो राधा के रूप रसायन को देखना होगा।

जहाँ तक ’राधा’ शब्द का प्रश्न है, इसका उल्लेख ऋग्वेद से ही मिलता है। उसे विशाला नक्षत्र, कार्य सिद्ध करने वाली, वैशाख पूर्णिमा, वृषभानुगोप की कन्या, कृष्णप्रेयसी, विष्णुकांता, विद्युतइतिमेदिनी आदि भी कहा गया है। यास्क ने अपने निरूक्त में वैदिक शब्दों की व्याख्या करते हुए ’राधः’ शब्द का अर्थ धन दिया है। ’श्रीमद्भागवत’ में राधा का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है, केवल एक पंक्ति है –

’अनया राधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वरः।’

ब्रह्यमवैवर्त्त पुराण में राधा के सोलह नाम दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं –

‘‘राधा, रासेश्वरी, रासवासिनी, रसिकेश्वरी, कृष्णप्राणाधिका, कृष्णाप्रिया, कृष्णास्वरूपिणी, कृष्णावामाङ्गसम्भूता, परमानन्दरूपिणी, कृष्णा, वृन्दावनी, वृन्दा, वृन्दावन विनोदिनी, चन्द्रावली, चन्द्रकांता और शरणच्चन्द्रप्रभानना’’

राधा की एक व्युत्पत्ति यह मानी जाती है जिसके अनुसार रा का अर्थ खोना और धा का अर्थ पाना है। इस प्रकार राधा में खोना ओर पाना दोनों समाए हुए हैं।

वेदों, उपनिषदों और पुराणों से लेकर आज तक के अनेक ग्रन्थ राधा के इतिहास और उनकी महिमा से भरपूर हैं किंतु जयदेव के ’गीतगोविन्द’ ने बारहवीं सदी में राधा और माधव की जो छवि स्थापित की वही छवि आज हमारे मन मानस में विद्यमान है।

’गीतगोविन्द’ में प्रकट हुई राधा इतनी भावमय थी कि उन्होंने अपने वाले हर युग को अपने भाव से आपूरित कर दिया। भारतीय मानस ज्यों-ज्यों भावमय हुआ, त्यों-त्यों राधा और रूपमय, रसमय, प्राणमय, अर्चनामय तथा आनंदमय होती चली गईं। राधा का यह भावस्वरूप ही भारतीय मानस को स्वीकार्य है।

राधा को शब्दों में बांधना असंभव है। राधा नामक यह छोटा सा शब्द अपनी अपरिमित व्यंजना के कारण अछोर क्षितिज की तरह है जिसे आंखें अपनी परिधि में और हृदय अपने अनुभव में नहीं समेट सकता। हम भगवान श्रीकृष्ण के तो सखा हो सकते हैं किन्तु राधारानी के तो हमें सदैव सेवक ही बने रहना है। भारतेन्दु इस भाव को इन शब्दों में बड़ी सुंदरता के साथ बांध गए हैं,

चाहिबे की चाह काहू की न परवाह,

नेही नेह के दिवाने सदा सूरत निवानी के।

सरबस रसिक के सुदास-दास प्रेमिन के……

सखा प्यारे कृष्ण के गुलाम राधा रानी के।

यहाँ राधा नागरी की स्तुति करते बिहारी, अपनी विलक्षण मुद्राओं में सजी किशोरी, कहीं मानिनी बन कर बैठी,कहीं कृष्ण स्त्री वेश में उनके सम्मुख खड़े तो कहीं कृष्ण बनकर राधा वेश में कृष्ण के साथ खड़ी,कहीं वासकसज्जा बनी बैठी और कहीं अलग अलग मुद्राओं में कृष्ण के साथ किशोरीजी की मनभावन भंगिमाओं को मध्यकाल की विभिन्न चित्र शैलियों में अभिव्यक्त करती छवियाँ प्रस्तुत हैं।

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