
हिन्दी, जनपदीय-भाषाएं और भारतीय-साहित्य
राजेंद्र रंजन चतुर्वेदी
डा रामविलास शर्मा ने हिन्दी-जनपद और हिन्दी-जाति की बात कही थी। हिन्दी-प्रदेश के सभी लोग अपने घर-परिवार में अपने-अपने अंचलों की बोली भी बोलते हैं और पढने-लिखने का काम हिन्दी में करते हैं, जब किसी दूसरे अंचल का जन मिलता है, अथवा सभा-सोसाइटी में बोलते हैं तो मानक-हिन्दी में वार्तालाप करते हैं, हिन्दी का अखबार पढ़ते हैं, वे सभी अनिवार्य रूप से हिन्दी-जन हैं। जनपदीय-भाषा अथवा लोकभाषा हिन्दी से अविच्छिन्न हैं। हाँ, राजनैतिक -दृष्टि अपने-अपने हक की माँग करती है, जहाँ हक लेने का सवाल आता है तब वे लोग लोकभाषाओं को हिन्दी के समानान्तर खड़ा करने की माँग उठा देते हैं। हरियाणा के एक मेरे परिचित साहित्यिक थे, खूब प्यार करते थे लेकिन मुझसे कहते थे कि हरियाणवी के लिए अलग से लिपि का सवाल उठाओ। कितनी अव्यावहारिक बात थी ! लेकिन जिनकी दृष्टि में अपनी जनपदीय-भाषा के प्रति अतिरेकी-दृष्टि है, वे उस बिन्दु को देख नहीं पाते। यही अतिरेक उन आधुनिक-हिन्दी के प्रतिपादकों का है, जो हिन्दी को अलग मानते हैं और लोकभाषाओं को अलग मानते हैं। जनपद-आन्दोलन ने इन प्रश्नों पर गहरा विचार किया था। आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल ने कहा था – हिन्दी को बोलियों से अलग समझने वाले अन्तत: हिन्दी की प्राण शक्ति को ही हिन्दी से छीन लेंगे। यदि हिन्दी और लोकजीवन के बीच दूरी बढ़ गयी तो यह हिन्दी को वर्ग-भाषा बनाने जैसी बात होगी, सभी की नहीं, कुछ पढे-लिखे लोगों की भाषा।
जहाँ तक लोकभाषाओं के साहित्यिक-पुरस्कार की माँग है तो अब प्रत्येक प्रदेश में साहित्य-अकादमियाँ बन गयी हैं और राष्ट्रीय-साहित्य अकादमी के कर्त्ता-धर्त्ताओं की कल्पनाशीलता से भी रास्ता निकल सकता है। लोकसाहित्य और लोकसंस्कृति की धारा तो उत्तरोत्तर तीव्र होनी ही है। उसके लिए लोकभाषाओं के बिना काम चल नहीं सकेगा।
हिन्दी के आचार्यों के लिए अब भारतीय-भाषाओं के साथ हिन्दी पढाने का समय आ गया है। हिन्दी का भक्तिकाल समस्त भारतीय-भाषाओं के भक्तिकाल से जुड़ा हुआ है। इसी प्रकार से हिन्दी का आधुनिक-काल भारतीय-भाषाओं के आधुनिक-काल से जुड़ा हुआ है। स्वतंत्रता -आन्दोलन के भारतीय- साहित्य का स्वर एक ही है। हिन्दी के पाठ्यक्रम में एक पर्चा भारतीय-साहित्य का भी होना चाहिए।
आधुनिक-हिन्दी की बात अवश्य करें लेकिन हिन्दी की निरन्तरता और अविच्छिन्नता को अक्षुण्ण रखें।