धन्वंतरि

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

वास्तव में अमृत देह की अनश्वरता से नहीं देह के आरोग्य से जुड़ा है। जब तक देह रहे आरोग्यवान रहे। वास्तव में आरोग्य ही अमृत है, इस सत्य को हमारे पुरखों ने बहुत पहिले जान लिया जिसकी परिणति आयुर्वेद जैसी महान निवारक और उपचारात्मक चिकित्सा प्रणाली के जन्म के रूप में हुई जिसका श्रेय देवताओं के चिकित्सक धन्वंतरि को दिया जाता है।

यह मान्यता है कि इसे उन्होंने ब्रह्मा से प्राप्त किया था। उन्हें भगवान विष्णु का सांसारिक अवतार भी माना जाता है। भगवान विष्णु की चार भुजाएं हैं जिनमें ऊपर की दोनों भुजाओं में वे शंख और चक्र धारण किए हुए हैं तथा दो अन्य भुजाओं में से एक में जलूका और औषध तथा दूसरे में अमृत कलश लिए हुए हैं। उनकी प्रिय धातु पीतल मानी गई है इसलिए धनतेरस के दिन पीतल के कलश क्रय करना शुभ माना जाता है।

आयुर्वेद में मुख्य दो परंपराएं हैं, एक है आत्रेय परंपरा तथा दूसरी धन्वंतरि परंपरा। आत्रेय, अत्रि ऋषि के पुत्र थे उनका दूसरा नाम पुनर्वसु आत्रेय अथवा कृष्णत्रेय भी है।

दूसरी शाखा के प्रवर्तक धन्वंतरि हैं। सुश्रुत के टीकाकार डल्हण का मानना है कि शल्यशास्त्र के पारंगत विद्वान को धन्वंतरि कहते हैं। धन्वंतरि नाम के तीन आचार्यों का वर्णन मिलता है। इनमें दिवोदास धन्वंतरि को अधिकाँश विद्वान प्रमाणिक मानते हैं जिनके शिष्य सुश्रुत थे तथा जिनका काल विद्वान १००० से १५०० ईसा पूर्व का माना जाता है .

सुश्रुत का मत है कि ब्रह्मा ने पहली बार आयुर्वेद के एक लाख श्लोक प्रकाशित किए जिनमें एक सहस्त्र अध्याय थे। इन्हें प्रजापति ने पढ़ा और फिर अश्विनीकुमारों ने। उनसे इंद्र ने पढ़ा और इंद्र से धन्वंतरि ने पढ़ा तथा धन्वंतरि से सुनकर सुश्रुत ने आयुर्वेद की रचना की।

आयुर्वेद के काल को तीन कालखंडों में विभक्त किया गया है ये हैं : संहिताकाल, व्याख्याकाल तथा विवृत्तिकाल जिसका समय चौदहवीं सदी से अभी तक के काल का माना जाता है।

सुश्रुत एक निष्णात शल्य चिकित्सक थे तथा वे धन्वंतरि के शिष्य थे। काशी में पहला शल्य चिकित्सालय स्थापित किया गया तथा सुश्रुत उसके पहले प्राचार्य के रूप में नियुक्त हुए। चूंकि धन्वंतरि का अवतरण दीपावली के दो दिन पूर्व त्रयोदशी को हुआ इसलिए धनतेरस का पर्व उनकी स्मृति में मनाया जाता है।

धनवंतरी की आराधना करने वाले मंत्र का आशय है “उन भगवान को नमन है जिन्हें सुदर्शन वासुदेव धनवंतरी कहते हैं, जो अमृतकलश लिए हैं, सर्वभय नाशक हैं, सर्व रोग नाश करते हैं, तीनों लोकों के स्वामी और उनका निर्वाह करने वाले हैं।”

आयुर्वेद के जनक धन्वंतरि की परंपरा का आगामी युगों में बहुत विकास हुआ तथा सुश्रुत, चरक और वागभट्ट से लेकर सोलहवीं सदी के भावमिश्र जैसे महान वैद्य इस परंपरा में हुए।

वस्तुत: धन्वंतरि की ऐतिहासिकता कितनी है यह आज प्रासंगिक नहीं है बल्कि प्रासंगिक यह है कि उनके नाम के माध्यम से जो कुछ मनुष्यता को मिला है और मिलता रहेगा उसके प्रति हम कितने कृतज्ञ हैं क्योंकि यही कृतज्ञता वह जिजीविषा है जो आरोग्य के रूप में मानव के लिए अमृत है।

यहाँ काठमांडू स्थित धन्वन्तरी मंदिर, गुलेर कलम के प्रख्यात चित्रकार मानकू के द्वारा १८ वीं सदी में बनायी गयी धन्वन्तरी के लघुचित्र की छवि, केरल जहाँ आयुर्वेद का सर्वाधिक प्रचार है में निर्मित धन्वन्तरी के भित्तिचित्र की तथा जयपुर कलम में १९ वीं सदी में निर्मित अंकन की छवियाँ प्रस्तुत हैं :

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