हिंदी और डच : विकसित होता आपसी संवाद

रामा तक्षक, नीदरलैंड्स 


वर्ष 2019, नीदरलैंड्स में भारतीय राजदूत श्री वेणु राजामणि द्वारा एक पुस्तक लिखी गई थी। यह पुस्तक अंग्रेजी भाषा में लिखी गई है। नीदरलैंड्स में इस पुस्तक के विमोचन के आयोजन में मुझे भी आमंत्रित किया गया था। इस पुस्तक का शीर्षक है ‘What we can learn from the Dutch’ अर्थात ‘डच से हम क्या सीख सकते हैं’। यह पुस्तक, एक उदाहरण है कि किस तरह से मानव एक दूसरे की समझ से जीवन को संवार और समाज का पोषण कर सकता है। एक दूसरे के अनुभवों की समझ, विश्व के एक सिरे से विश्व के दूसरे छोर पर काम आ सकती है। यह सीख की भावना हर किसी के मन में रहती है। ऐसी ही भावना भारतीयता के प्रति डच लोगों में भी देखी जाती है।
भारत से डच लोगों का सम्बंध भी बहुत पुराना है। व्यापार की ललक में, अंग्रेजों की भांति डच व्यापारी कोर्नेलिस द हार्टमैन का नाम भारत के इतिहास में मिलता है।
डच भाषा में लिखी पुस्तक De Verborgen wereld में इस पुस्तक के लेखक Jos Gommans लिखते हैं कि 1550 से भारत और नीदरलैंड्स के सम्बंध रहे हैं। वे आगे लिखते हैं ” 17वीं शताब्दी में भारत और डच के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बंध अपने चरम पर थे। इस काल में, भारत के केसुदास और कूंची के धनी डच चित्रकार रेमब्रांट वान राइन के चित्रों में एक गहन कलात्मक संवाद भी देखने को मिलता है।
एक अन्य पुस्तक का उल्लेख करना भी आवश्यक है। इस पुस्तक का नाम ‘Tot koelie gemakten’ है। यह डच भाषा में लिखी गई है। इस पुस्तक के लेखक भारतीय मूल के आर भगवान बली हैं। वे बहुत अच्छी हिंदी भी बोलते हैं। इस पुस्तक के विमोचन व विमर्श के अवसर पर पुस्तक के लेखक को सुनने का मौका मिला। यूं तो गिरमिटिया जीवन पर बहुत पुस्तकें लिखी गई हैं। इसी दिशा में यह एक नयी पुस्तक है। जो गिरमिटिया जीवन की शुरुआत के नये राज खोलती है। आर भगवान बली इस De tot koelie gemaakten पुस्तक में, आर्काइव के पन्नों तक पहुंच बनाकर, अंग्रेज और डच सरकार की मिलीभगत का रहस्य खोलते हैं। यह पुस्तक भारतीय मजदूरों के सूरीनाम आगमन का कच्चा चिट्ठा पढ़ने और इन मजदूरों के जीवन के इतिहास को जानने का सुंदर स्त्रोत है। इस पुस्तक का आधार डच और अंग्रेज सरकार की आर्काइव से मिली तथ्यगत जानकारी है। भारतीय मजदूरों के भारत से प्रस्थान के समय पंजीकरण की जानकारियां आंख खोलने वाली हैं। इन भारतीय मजदूरों के पंजीकरण में लिखा है कि सभी रोजगारशुदा हैं। कोई अध्यापक है। कोई नर्स है। कोई पटवारी है। यानी इन मजदूरों में कोई भी ऐसा नहीं है जो भारत से सूरीनाम जाते समय बेरोजगार हो।
गिरमिटिया मजदूर पाँच बरस बाद भारत न लौटें, इसके लिए डच सरकार ने मजदूरों को छोटे छोटे जमीन के टुकड़े देकर मालिक बना दिया।
यह सब जानकारी मुझे 28 मार्च 2021 को सरनामी हाऊस की पार्टी में मिली। मैं भी सपत्नी आमंत्रित था। मुझे भी मंच पर बोलने का मौका दिया गया। मैंनें कहा “डच में बोलूं और गड़बड़ हो जाए तो बुरा मत मानना।”
“मेरा उच्चारण कहीं बेतरतीब हो सकता है।”
“आप हिन्दी में बोलो” आयोजक से उत्तर मिला। मैंने संक्षिप्त वक्तव्य हिन्दी में ही दिया।
इस आयोजन की थीम का हिस्सा सोद्देश्य भारत यात्रा भी था। सूरीनाम से नीदरलैंड्स में आ बसे भारतवंशी  अपने पुरखों के गांव, परिवार, जमीन की लताश में कितने सक्रिय और आतुर हैं। इस तथ्य की झलक इस आयोजन में मिली।
इस आयोजन में कुछ ऐसे लोगों से व्यक्तिगत रूप से भी मिलना और बातचीत करना सम्भव हुआ। इस बातचीत में कई तथ्य सामने आये। जिनमें से एक तथ्य यह है कि जिन गिरमिटिया मजदूरों की चौथे पांचवीं पीढ़ी का जन्म सूरीनाम में हुआ है। जबकि वे नीदरलैंड में आ बसे हैं। ये भारतवंशी जब पहली बार भारत की धरती पर हवाई जहाज से उतरते हैं। भारत की धरती पर पैर टिकाने पर, उन्हें आत्मीयता का एक अविस्मरणीय अनुभव होता है। भारत यात्रा का आयोजन करने वाली एक महिला ने बताया कि जब मैं
पहली बार भारत की धरती पर उतरी तो मेरे कन्धे ढ़ीले हो गये।
एक दूसरे भारतवंशी ने कहा कि मुझे इतना शुकून मिला। मुझे लगा “मैं अपने घर आ गया हूँ।”
इस आयोजन से पहले सूरीनाम में जन्मे भारतवंशी राजमोहन व उनकी पत्नी मालती मेरे घर पर आये थे। उन्होंने भी बातचीत के दौरान यही सब कहा था। राजमोहन भोजपुरी के संगीतज्ञ हैं। सूरीनाम में उनकी लोकप्रियता स्वाभाविक है लेकिन भारत में भी उनकी लोकप्रियता कमतर नहीं है।
इस पुस्तक विमोचन के समय एक युवक असित शिवमंगल से भी मेरा परिचय हुआ। इनका जन्म भी सूरीनाम में हुआ है। वे इस समय नीदरलैंड्स में रहते हैं। उनसे बातचीत करने पर पता चला कि वे अपने पड़दादा के जन्म स्थान को भारत में ढ़ूढ़ना चाहते हैं।
एक अन्य पुस्तक है Terug naar  mijn roti लेखक Ramon Beuk शीर्षक है ‘रोटी की ओर वापसी’।
यहां यह बता देना आवश्यक है कि यह पुस्तक एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लिखी गई है। जिसका हिंदी से कोई लेना देना नहीं है। वह केवल सूरीनामी है। भारतवंशी भी नहीं है लेकिन एक सतत और गहन जिज्ञासा इस पुस्तक के शीर्षक से ही लग जाती है।
यहां अमृता शेरगिल की जीवनी पर लिख देना भी तर्कसंगत है। वे हंगरी में पैदा हुई थी। पेरिस फ्रांस में पली बढ़ी थी। अमृता शेरगिल ने अपने दोस्तों को कहा “मेरा जन्म कहीं भी हुआ हो। मैं कहीं भी पली बढ़ी हूँ। देश तो मेरा भारत ही है।” यह सुन सब दोस्त चौंक पड़े थे।
इन विभिन्न स्तरों पर बने सम्बधों से ही एक भाषा के शब्दों की आवाजाही दूसरी भाषा में होती है। शब्दों की आवाजाही जितनी अधिक होगी उतना ही अधिक भाषाओं का आपसी अंतर सम्बंध होगा।
डच भारोपीय परिवार की जर्मन शाखा से जन्मी और जर्मन और अंग्रेजी भाषा से पल्लवित भाषा है। नीदरलैंड के अतिरिक्त डच भाषा बेल्जियम के उत्तरी आधे भाग में, फ्रांस के नार्ड ज़िले के ऊपरी हिस्से में व इसके अतिरिक्त यूरोप के बाहर डच सूरीनाम, न्यूगिनी आदि क्षेत्रों में भी बोली जाती है। संयुक्त राज्य अमरीका तथा कनाडा में रहनेवाले डच नागरिक भी अभी तक अपनी डच मातृभाषा को अपनाये हुए हैं। दक्षिण अफ़्रीकी यूनियन राज्य में भी बहुत से डच मूल के नागरिक रहते हैं और उनकी भाषा भी डच भाषा से बहुलांश में मिलती-जुलती है। यद्यपि डच एक स्वतंत्र भाषा के रूप में विकसित हो गई है।
जैसा कि पहले लिखा डच पश्चिमी जर्मनिक भाषा समूह का हिस्सा है, जिसमें अंग्रेजी, स्कॉट्स , फ़्रिसियाई , लो जर्मन (ओल्ड सैक्सन) और हाई जर्मन भी शामिल हैं । इसकी विशेषता कई ध्वन्यात्मक और रूपात्मक नवाचार हैं जो उत्तर या पूर्वी जर्मनिक में नहीं पाए जाते हैं।
यहाँ डच और हिंदी भाषाई स्तर पर डच भाषा के कुछ शब्दों को रेखांकित करना बहुत समीचीन और उचित  जान पड़ता है। सबसे पहले डच गिनती के कुछ अंकों हम देखें तो वे उच्चारण और अर्थ की दृष्टि से संस्कृत व हिंदी के बहुत निकट प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ :
डच शब्द          उच्चारण                संस्कृत          हिंदी
Een                  ऐन                       एक:           एक
Twee               ट्वे                        द्व               दो
Drie                  द्री                        त्रि              तीन
Zes                 जेस                      षष्ठ             छ: 
Zeven            जेवन                    सप्तम         सात 
Acht               आख्ट                   अष्ट             आठ 
Negen             नेघन                    नवम            नौ 
Zestig             जेस्टिख                 षष्ठी            साठ 
Eenentwintig ऐनएनट्वींटख      एकाविंशति     इक्कीस
Tweeentwintig ट्वेएनट्वींटख    द्वाविंशति।      बाईस
Negenentwintig नेघनएनवींटख                       उनतीस
Negenennegentig नेघन एननेघंटख नवनवति   निन्नानवे

संक्षेप में यह बताना भी आवश्यक है कि गिनती के क्रम में इक्कीस से उनतीस, इकत्तीस से उनतालीस तक और इसी तरह से इकतालीस से उनचास से लेकर, इक्यावन से उनसठ से आगे, इकानवे से निन्नानवे तक इसी क्रम में बोला और लिखा जाता है। गिनती के इस क्रम में लिखे जाने से डच भाषा पर परोक्षतः संस्कृत भाषा का प्रभाव स्पष्टतः दिखाई पड़ता है। दूसरे शब्दों में यह स्पष्ट है कि भारोपीय परिवार की यह भाषा जर्मन भाषा से प्रभावित है और जर्मन भाषा संस्कृत भाषा से प्रभावित रही है। 

कुछ अन्य शब्द :

डच शब्द              उच्चारण          संस्कृत      हिंदी

Deken              डेकन                              ओढने की वस्तु /रजाई                
Dekken            डेक्कन                             ढकना     
(tafel dekken टाफल डेक्कन                    मेज पर मेजपोश बिछाना)
Naam                 नाम               नाम:        नाम
Man                    मान                            मानव       
(Mannen बहुवचन)
Man                   मान                             पति
Ga                        खा            गमन          जाना
Kamer                 कामर         कक्ष       कमरा    
Pyzama              पिजामा                      पायजामा
Oog                      ओख           अक्षु         आंख 
Tand                     तांद            दंत           दांत 
Moed                   मूढ  (साहस) मुष्टि         मुट्ठी     
Nagels                नाखल्स       नख           नाखून 
Nee                       ने               ना              नहीं 
Neus                    न्ओज       नाशिका         नाक 
Suiker                  साउकर      शर्करा           शक्कर 
Pad                      पाद             पथ             पथ , मार्ग
Wagen                वाखन          वाहनं          वाहन
Takken                टाक्कन       शाखा         टहनी 
Maat                    माट            मापन          माप
Nieuwe                 न्यूव          नव               नया 
Bond                     बोंड          बंधन            बांदना
Sweet                   स्वेट          स्वेद             पसीना 
Deur                      ड्यूर         द्वार              दरवाजा 
Staan                    स्तान         स्था               ठहरना, खड़े होना। 
Weduwe               वेडुवे       वैधव्य / विधवा  विधवा
Zit                          जिट         तिष्ठ               बैठना 

डच भाषा में हिंदी के कुछ प्रचलित शब्द :
Guroe गुरू 
Karma कर्मा
Bhagwan भगवान 
Mandir  मंदिर 
Poeja पूजा 
Yoga योखा योग 
Yogi योखी योगी
डच भाषा में, Roepen उच्चरित रूपन शब्द का अर्थ है पुकारना यानि स्वरूप को पुकारने, मूलतः व्यक्ति रूप को पुकारने के लिए उपयोग में लाया जाता है। डच भाषा में Kut कुट या क्युट उच्चारण के साथ, यह शब्द ‘योनि’ सम्बोधन के लिए उपयोग में लिया जाता है। जो कि जर्मन कंट या कुंट तथा संस्कृत के कुण्ड शब्द का समानार्थी है।
डच लोग बतियाते समय अपनी मां या किसी अन्य की मां का सम्बोधन ‘मुदर’ शब्द से करते हैं। जबकि यदि वे अपनी मां को कुछ कहना या ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं तो अनौपचारिक रूप से ‘मा’ शब्द से सम्बोधित करते हैं। ठीक इसी प्रकार फादर (V वर्ण का डच भाषा में उच्चारण अंग्रेजी के वर्ण ‘एफ’ की भांति करते हैं) औपचारिक सम्बोधन फादर और घर पर, व्यक्तिगत संवाद में, अनौपचारिक सम्बोधन ‘पा’ कहकर करते हैं। डच ‘मा और पा’ हिंदी के मां और पिता शब्द के उच्चारण व सम्बंध सम्बोधन, दोनों ही बहुत निकट व समानार्थी हैं।
डच भाषा का Oma ओमा शब्द, दादी व नानी के सम्बोधन के लिए प्रयुक्त होता है। O’ ma शब्द की ओ ध्वनि यहाँ गुरुतर की ओर संकेत है। ठीक इसी तरह डच भाषा में Opa ओपा सम्बोधन में ओ गुरुतर की ओर संकेत है। ओपा शब्द दादा व नाना को सम्बोधित करते समय उपयोग में लाया जाता है।

डच भाषियों का भारत आगमन
इतिहास को देखें तो हमें पता चलता है कि सर्वप्रथम मछलीपट्टनम में 1602 में डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना हुई। भारत में डच उपस्थिति 1605 से लेकर 1825 तक उपस्थिति रही। इस काल में भारत और डच के बीच बहुत कुछ घटा।
ऐतिहासिक घटनाओं को देखें तो 1658 में कोलम 1663 में कोच्चि को पुर्तगालियों से हथियाया। बाद के वर्षों में, 1741 में, कोलाचेल युद्ध में, दक्षिण भारत के राजा मार्तण्ड वर्मा के हाथों डच ईस्ट इंडिया कंपनी को हार का मुंह देखना पड़ा।
अंग्रेजों का अनुकरण कर, 20 मार्च 1602 में डच ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना के समय एम्सटर्डम व्यापारिक केंद्र था। भारत से मूलतः सूती व रेशम के कपड़ो, मसालों, नील व बारूद आदि का व्यापार होता था। 17 वीं शताब्दी में , भारतीय मसालों के व्यापार मामलों में डच का एकाधिकार था।
यह व्यापार समुद्र मार्ग से होता था। जिन जहाजों से डच ईस्ट इंडिया कंपनी भारत से व्यापार करती थी। उन जहाजों का नाम आद्रीकेम हुआ करता था।
सर्वप्रथम पीटर आद्रीकेम डच ईस्ट इंडिया कम्पनी के सर्वोच्च अधिकारी नियुक्त होकर भारत पहुंचे थे। डच लोग लम्बी योजना बनाने और उन योजनाओं की क्रियान्विति में दक्ष रहे हैं। आद्रीकेम आगरा भी आए थे। आगरा आगमन पर अफजल ने आद्रीकेम से कहा था कि मुगल शासक से यदि बात करनी है तो आपको हिंदुस्तानी में बात करनी पड़ेगी। कहते हैं यह सुनकर, आद्रीकेम ने मुगल शासक से हिंदुस्तानी में ही बात की थी। डच अपने साथ सदैव दुभाषिया भी रखते थे।

हिंदुस्तानी का पहला व्याकरण 
आद्रीकेम के बाद जोशुआ केटलर भारत में डच ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रतिनिधि बनकर आया। यह घटना आद्रीकेम के कोई पचास वर्ष बाद घटी। इस समय बहादुर शाह जफर का शासन था। केटलार एक ऐसा विद्वान था जिसने हिन्दी भाषा का यानि हिन्दुस्तानी भाषा का पहला व्याकरण लिखा था। यह 1658 में लिखा गया था। इस व्याकरण के लिखे जाने का एकमात्र उद्देश्य डच ईस्ट इंडिया कंपनी में काम करने वालों और भारत से व्यापार करने वालों डच व्यापारियों के लिए था। ताकि व्यावसायिक कार्य अबाधित चलते रहे।
आपको यह भी पता होगा कि नीदरलैंड बहुत लंबे समय तक स्पेन के कब्जे में था। यहां पर कैथोलिक धर्म प्रचलित था। स्पेन का यहां पर सीधा शासन नहीं था। बल्कि बेल्जियम में एक प्रतिनिधि स्पेन के शासक का  होता था। बेल्जियम से ही डच भूभाग पर सत्ता का नियंत्रण होता था। नीदरलैंड्स में कैथोलिक धर्म के चलते। डेसीडेरियस एरासमुस के प्रयासों से प्रोटेस्टेंट धर्म का उदय हुआ। इस परिवर्तन से मुक्त व्यापार को बहुत बढावा मिला।
केटलार के बाद एक अन्य व्याकरण लिखा गया। जिसे फ्रांकोइस मेरी ने 1704 में लेटिन भाषा में लिखा था। केटलार के पहले हरबर्ट द यागर का वर्णन भी पढ़ने को मिलता है। वे भी डच ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी थे। उन्हें कोरोमंडल भेजा गया था। उन्होंने संस्कृत तो सीखी ही और साथ ही तमिल, तेलुगू भी सीखी। हरबर्ट द यागर का कहना रहा है कि संस्कृत एक वर्ग विशेष की भाषा है। ब्राह्मणों की भाषा है। वे छत्रपति शिवाजी से भी मिले थे। यह मिलन 1677 में बीजापुर में हुआ था।
हरबर्ट द यागर के भी पहले अब्राहम रोड्रिग्स (1630-1667) एक पादरी थे। वे भारत में लगभग सोलह सत्रह बरस रहे। इन वर्षों के दौरान उन्होंने संस्कृत का अध्ययन किया। उन्होंने न केवल संस्कृत का बल्कि भारतीय संस्कृति व भारतीय ज्ञान परंपरा को समझने के लिए भी गहरी रुचि दिखाई। उन्होंने भारतीय रीति-रिवाजों सहित धर्म, पूजा पद्धति आदि का भी अध्ययन किया।
उन्होंने वापस यूरोप जाकर संस्कृत का बढ़-चढ़कर प्रचार प्रसार किया। वह पहले ऐसे विद्वान थे। जिन्होंने चारों वेदों के बारे में भी यूरोप के लोगों को जानकारी दी। उन्होंने भृतहरि के बैरागी और नीति का भी डच भाषा में अनुवाद किया।
आपको ज्ञात  होगा कि हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में 1764 में बक्सर का युद्ध हुआ था। मीर कासिम मुगल शासक शाह आलम का सेनानायक था। इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय हुई थी। इस विजय के बाद 1784 में कोलकाता में, एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की गई थी। इसका श्रेय विलियम जोंस को जाता है।
इस सोसाइटी का उद्देश्य प्राच्य विद्या को केन्द्र में रखकर किया गया था। एशियाटिक सोसाइटी की पत्रिका भी प्रकाशित होने लगी। इस पत्रिका के छपने से एक बहुत बड़ा लाभ हुआ। इस पत्रिका में, संस्कृत भाषा का और संस्कृत साहित्य का उल्लेख हुआ। संस्कृत साहित्य के इस उल्लेख ने, संस्कृत भाषा के लिए, संस्कृत साहित्य के लिए जिज्ञासा का एक नया सोपान खोला। यूरोप के विश्वविद्यालयों के विद्वानों तक संस्कृत साहित्य की बात पहुंची। विलियम जोंस ने अभिज्ञान शाकुंतलम् का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया।
एशियाटिक सोसाइटी की पत्रिका में छपे आलेखों पर, खासकर संस्कृत के विश्लेषणात्मक आलेखों में जर्मनी के मैक्समूलर ने बहुत गहरी जिज्ञासा दिखाई थी। उन्होंने वेदों पर तथा धर्म ग्रन्थों की समझ को समेटते हुए ‘द सेक्रेड बुक ऑफ ईस्ट’ लिखी। साथ ही मैक्समूलर ने ऋग्वेद का संस्करण भी प्रकाशित किया। यह सब संस्कृत के प्रचार प्रसार में पश्चिम की एक बहुत बड़ी देन मानी जाती है। 

यूरोपीय भाषा में संस्कृत का पहला व्याकरण
विलियम जोंस व विल्किन्स को इण्डोलोजी का, भारतीय विद्या का  जनक माना जाता है। हेक्सलेडेन का योगदान भी अनुकरणीय है। उन्होंने संस्कृत का यूरोपीय भाषा में पहला व्याकरण लिखा था।
संस्कृत भाषा एवम् साहित्य के प्रचार प्रसार में हेन्दरिक कास्पर केर्न का योगदान भी उल्लेखनीय है। वे एक  वर्ष के लिए भारत भी आए थे। उन्हें लाइडेन विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया था। उन्हें संस्कृत के साथ-साथ पाली भाषा का भी ज्ञान था। प्रोफेसर केर्न ने डच संसद में, इस बात के लिए भी पुरजोर मांगकर प्रस्ताव रखा था कि लाइडन विश्वविद्यालय में संस्कृत पीठ की स्थापना हो। 
एलब्रेक्ट वेबर केर्न के गुरू थे। उन्होंने वाराहमित्र की वृहत संहिता पर भी काम किया था। इसके साथ साथ प्रोफेसर जोहन हाउसिंगा भी बनारस आये थे। उन्होंने संस्कृत नाटकों पर गहन काम किया था।
प्रोफेसर केर्न जब लाइडेन यूनिवर्सिटी में संस्कृत पढ़ा रहे थे। उस समय जैकोब सेमुअल भी उनके छात्र थे। जैकोब समुअल की बौद्ध धर्म समेत भारतीय दर्शन में गहरी रुचि थी।
इस तरह धीरे धीरे लायडन विश्वविद्यालय में संस्कृत का प्रचार प्रसार हुआ और यही प्रचार-प्रसार यूरोप के अन्य विश्वविद्यालय में भी फैला।
जैकोब सेमुअल के बाद आगे चलकर जे पी वोगल एम्स्टर्डम विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्राध्यापक बने। 1930 के दशक में लायडेन विश्वविद्यालय में हिंदी भी पढ़ाई जाने लगी। जे पी वोगल ने प्रेमचंद की ‘सप्त सरोज’ का भी डच में अनुवाद किया। उपरोक्त सभी तथ्यों ने हिंदी भाषा के लिए आधार बनाया।
नीदरलैंड्स में लायडेन विवि बहुत पुराना है। आइंस्टाइन भी यहां पढ़े हैं। यह जानकारी रुचिकर है कि लायडेन विवि में पढ़े करीब दस विद्वानों को नोबेल पुरस्कार मिला है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना अस्सी बरस के युद्ध के ठीक बाद हुई थी। युद्ध की जीत की खुशी में, 1575 में लायडेन विश्वविद्यालय की स्थापना हुई थी। यहाँ, जैसा कि मैंने पहले बताया और यह भी वर्णनीय है कि भारत के डॉ प्रोफेसर मोहन कांत गौतम ने इस विश्वविद्यालय में छठे दशक से एन्थ्रोपोलोजी विषय को पढ़ाया है। वे भारतीय संस्कृति, साहित्य और यूरोप की जानकारी के जीते जागते पुस्तकालय हैं। अभी हाल ही में मेरे मित्र देवदीप के बेटे मृगांक मुखोपाध्याय ने इसी विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य शुरू किया है।

पाठ्यक्रमों में शामिल हुई भारत विद्या
एम्स्टर्डम, उटरेक्खट, ग्रोनिंगन, लायडेन इन चारों  विश्वविद्यालयों में भारतीय विद्या (इण्डोलोजी) पढ़ाई जाने लगी थी। अब आर्थिक कारणों से भारतीय विद्या की पढ़ाई इन चारों विश्वविद्यालयों में बंद कर दी गई है।
आज से 100 वर्ष से भी पहले रविंद्रनाथ टैगोर सितंबर 1920 में नीदरलैंड्स में आये थे। भारतीयता के प्रति गहरी रूचि के कारण उनको सुनने के लिए लोग दूर दूर से साइकिलों से आते थे।

महर्षि महेश योगी भी सत्तर के दशक में नीदरलैंड्स आये। व्लोद्रोप गांव में आकर भारतीय ज्ञान परम्परा को बांटना आरम्भ किया। उन्होंने लोगों को जीवन में सजगता के लिए ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन सिखाया व संस्था की स्थापना की।

इससे पूर्व आजाद हिंद फौज के तीन हजार सिपाही नीदरलैंड के पश्चिमी तट पर 1943 में रहकर गए हैं।
आजाद हिंद फौज के इन सिपाहियों की कहानियां बड़ी रोचक हैं। यह सब जानकारी एक पुस्तक में दर्ज है। इस पुस्तक का शीर्षक है ‘फॉर फ्री इंडिया’। यह करीब  चार सौ पचास पृष्ठ की पुस्तक है। इसमें मय तारीख आजाद हिन्द फौज की यूरोप में उपस्थिति का पूरा विवरण है। इसके लेखक हैं मार्टिन बाम्बर। इस पुस्तक का सम्पादन किया है आड नावेन ने। नावेन डच नागरिक हैं। इस पुस्तक को प्राप्त करने के लिए मेरी आड नेवन से लम्बी बात भी हुई। उन्होंने इस पुस्तक की जानकारी के आधार पर बनी डोक्यूमेंट्री फिल्म ‘आंदर टाइडन्स’ के बारे में भी बताया।
इस पुस्तक में आजाद हिंद फौज की तथ्यगत बातें दर्ज हैं। आजाद हिंद फौज के सैनिकों की फोटो हैं।
सैनिक बैरियर लगाकर खड़े हैं। यहां तक की किसी सैनिक की मृत्यु हो गई तो उसके दाह संस्कार की फोटो भी है। अन्य कुछ बहुत रोचक तथ्य हैं। भारतीय सैनिकों से जुड़ी प्रेम की कहानियों को ‘आंदर टाइडंस’ एक टीवी सीरियल में भी शामिल किया है। जिसमें आजाद हिंद फौज के सरदार सुभाष चंद्र बोस की बेटी का साक्षात्कार भी साथ-साथ दिखाया है। 
ये सैनिक नीदरलैंड के पश्चिमी तट पर आकर रहे। इनके यहां आने का मुख्य कारण था भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्र करवाना। सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजो के खिलाफ हिटलर की मदद लेना चाहता था। इसलिए ये सैनिक हिटलर की मदद के लिए आए थे। उस समय की स्थिति यह थी कि पूरे विश्व में अंग्रेजों का राज्य था। जापान, जर्मनी और इटली के अलावा विश्व में कोई अन्य सशक्त राष्ट्र न थे। विश्व में सभी जगह अंग्रेजों का राज्य था। जैसा कि आपको पता है कि उनके राज में विश्व में सूर्यास्त नहीं होता था।
आजाद हिंद सैनिकों को नाजियों ने नीदरलैंड्स के पश्चिमी तट की निगरानी का जिम्मा सौंपा था। इससे पश्चिमी तट के किनारे बसे गांव और शहरों में लोग सतर्क हो गए थे। एक खास बात जो फिल्म में दिखाई गई है कि भारतीय सैनिकों के प्रति स्थानीय लोगों का व्यवहार सामान्य था। मेरी सास ने भी मुझे बताया था कि सैनिकों के पास जाने की सख्त मनाही थी, खासकर लड़कियों पर। कहीं लड़कियाँ भारतीय सैनिकों के प्रेम में ना पड़ जाए।
हर माता-पिता ने अपनी बेटियों को भारतीय सैनिकों के इलाके में न जाने की सलाह दी थी। मैंने आड नावेन की सलाह पर ‘आंदर टाइडंस’ टीवी प्रोग्राम देखा। मिस्सड ए प्रोग्राम की तकनीकी के माद्यम से यह देखना सम्भव हुआ। उसमें दो महिलाएं जो लगभग अस्सी बरस की आयु पाने को  हैं। वे अपने पिता से कभी नहीं मिल पाई। आज भी अपने पिता से मिलने का सपना उनकी आंखों के सामने खड़ा हुआ है। शायद ये दोनों महिलाएं अभी भी जीवित हैं। ये दोनों महिलाएं भारतीय सैनिकों की बेटियां हैं। जो 1943 में यहां नीदरलैंड में आये थे।
25 नवम्बर 1975 में सूरीनाम के स्वतंत्र होने पर लगभग तीन लाख सूरीनामी नीदरलैंड्स आकर रहने लगे। यह संख्या सूरीनाम की लगभग आधी जनसंख्या का हिस्सा था। इनमें से चालीस प्रतिशत हिंदुस्तान सूरीनाम लोग थे यानि भारतीय मूल के लोग थे। इस चालीस प्रतिशत का एक तिहाई द हेग में बस गया। शेष लोग मूलतः एम्स्टर्डम, रोटरडैम और उटरेख्ट में बस गये। हिंदुस्तान सूरीनाम के लोगों की इस सघन बसावट का कारण, भारतीय सूरीनाम का इतिहास, भारतीयों का पारिवारिक जीवन, उनकी भोजपुरी हिंदी भाषा और हिंदू संस्कृति है। द हेग जिले का ट्रांसवाल क्षेत्र ‘लघु भारत’ के नाम से जाना जाता है। हिंदुस्तान सूरीनाम के इस समूह ने अपनी भाषा, धर्म, संगीत, नृत्य, फिल्म, पहनावा, भोजन और हिंदू त्योहारों के माध्यम से  नीदरलैंड्स में भारतीयता की अमिट छाप छोड़ी है। इस कारण प्रतिवर्ष भारतीय संस्कृति के प्रति मीडिया का ध्यान भी बढ़ता जा रहा है। 

नीदरलैंड्स में भारतीयों का आगमन
दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारतीय नागरिकों का नीदरलैंड्स आना शुरू हुआ। इन भारतीय लोगों के आप्रवासन का कारण आर्थिक व पारिवारिक दोनों ही रहा है।
नीदरलैंड्स में इन दो धाराओं में भारतवंशियों का आगमन एक बड़ी घटना है। इन दो धाराओं को एक साथ कई अवसरों पर देखा गया है। चर्चिललान एम्सटर्डम में महात्मा गांधी की मूर्ति की स्थापना के लिए चंदा इकट्ठा करने के लिए सभी भारतवंशियों ने एकजुट होकर, बढ़चढक़र हिस्सा लिया। 
जैसा कि विदित है कि नीदरलैंड्स में इस समय हिन्दी भाषा की दो धाराएं हैं यानि भारतीयता की दो धाराएं हैं। नीदरलैंड में हिंदी का विकास क्रम कुछ एक ऐसी घटना है कि इस विकास क्रम में सूरीनामी भारतवंशियों का बहुत बड़ा योगदान है। उनकी हिन्दी में रूचि आज भी हिंदी की रीढ है। होली, दीवाली पर राष्ट्रीय टीवी नेटवर्क पर भी हिन्दी का संगीत सुनाई पड़ता है।
हिंदी परिषद नीदरलैंड ने हिन्दी भाषा के लिए बहुत ठोस काम किया है। यह संस्था 1983 से राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के पाठ्यक्रम को नीदरलैंड्स में पढ़ाती रही है। इस संस्था से कई हजार छात्रों ने प्रमाण पत्र प्राप्त किये हैं। इस संस्था के अध्यक्ष हैं नारायण मथुरा। मुझे ठीक से याद है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2017 में नीदरलैंड् आये थे। उस समय नारायण मथुरा भारतीय तिरंगा लिए हुए होटल के बाहर खड़े थे।
हिन्दी दिवस पर उन्होंने मुझे लिखा था “मुझे खुशी तब होगी जब हर भारतवंशी हिन्दी में बोलेगा।”
पिछले वर्ष 2021 में भारतीय महिला विश्व सुन्दरी बनी तो एक सूरीनाम हिन्दुस्तानी मित्र ने अपने फेसबुक पर लिखा “भारत माता की जय।”
इसके अतिरिक्त हिंदी प्रचार संस्था नीदरलैंड्स और हिंदी भाषा समिति की स्थापना  क्रमशः 1997 और 2012 में और  हुई थी। ओम टी वी भी पच्चीस साल के बाद 2015 में बंद हो गया। ओम टीवी का प्रसारण हर रविवार को होता था। मूलतः इसमें सरनामी भारतवंशियों का योगदान था। डॉ मोहन गौतम भी इससे जुड़े रहे हैं।
उजाला रेडियो पर हिन्दी अभी भी जारी है। साथ ही राबिन बलदेव सिंह सक्रिय राजनीतिज्ञ हैं। उन्होंने भोजपुरी यानी सरनामी में काव्य संग्रह लिखे हैं। वे सरनामी भाषा का रोमन में व्याकरण भी लिख रहे हैं।
यह तथ्य बहुत ध्यान देने योग्य है कि नीदरलैंड में द हेग स्थित इण्डिया हाऊस, भारतीय राजदूत के आवास पर, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर सूरीनामी भारतवंशियों की उपस्थिति बहुतायत में होती है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने नीदरलैंड प्रवास के दौरान सूरीनामी भारतवंशियों को जोड़ने के लिए बहुत ठोस कदम उठाया था। उन्होंने सभी सूरीनामी भारतवंशियों को ‘ओवरसीज सिटीजन ऑफ इण्डिया’ का दर्जा दिये जाने की घोषणा की थी।

हिंदी भाषा और साहित्य का बढ़ता कारवाँ
नीदरलैंड में काफी मंदिर हैं। इनकी संख्या लगभग पचास है। यहां मंदिरों में हिंदी पढ़ाई जाती है। विवाह समारोहों का आयोजन मंदिर में होता है। सत्संग होते हैं। मंदिरों में योग और ध्यान की कक्षाएँ निरंतर चलती रहती हैं। यहाँ हिंदी और डच का मिलाजुला रूप सुनने को मिलता है।
यहां भारत से आये बहुत सारे पंडित हैं। जिन्होंने हिंदी भाषा के साथ-साथ संस्कृत का अलख भी जगा रखा है। सूर्य प्रसाद बीरे भी सूरीनाम में जन्मे हैं। वे द हेग में आसन मन्दिर के प्रबंधक रहे हैं। उन्होंने जेएनयू दिल्ली में शिक्षा पाई है। उनका प्रयास रहा कि उनकी संतान भारत में गुरुकुल में पढ़े।
हमें संस्कृत पर बहुत संवाद करने की आवश्यकता है। संस्कृत साहित्य के प्रति, भारतीय ज्ञान परम्परा के प्रति पश्चिम का बहुत रूझान है।
भारतवंशियों के घर में भी जब भी कोई धार्मिक अनुष्ठान। विवाह कर्मकांड होता है। गृह प्रवेश होता है। हम पंडित के पीछे पीछे। पंडित जी को मंत्रोच्चारण के लिए बुलाते हैं। आसन बिछाते हैं। मण्डप सजाते हैं। मंत्रोच्चारण सुन विवाह बंधन में बंध जाते हैं। लेकिन संस्कृत की बदहाली ये है कि पंडित जब घर से मंत्रोच्चारण कर, पूजा पाठ के बाद घर से निकल जाए तो हम संस्कृत को भी झाड़ू मार कर घर से बाहर निकाल देते हैं। मैं संस्कृत का पक्षधर इसलिए हूं क्योंकि संस्कृत में, आज भी और कल भी व्यक्ति में, प्राण फूंकने की क्षमता है। इसमें मानव की और हिंदी भाषा की रीड को सुदृढ़ करने का पूरा साजो सामान है।
नीदरलैंड्स में रहते हुए पिछले कुछ बरसों से साझा संसार मंच के माध्यम से हिन्दी भाषा के पिरामिड को वृहत बनाने के लिए मैं भी सक्रिय रहा हूं। मुझसे जो बन पड़ा मैं कर रहा हूं। मेरा प्रयास है। प्रवासी भारतीय साहित्य और भारतीय साहित्य की धाराएं, पास पास आ मिल जायें। इस हेतु भारतीय ज्ञानपीठ, वनमाली सृजन पीठ दिल्ली के निदेशक लीलाधर मंडलोई और विश्वरंग के निदेशक संतोष चौबे का अभूतपूर्व सहयोग सस्नेह मिल रहा है। अब तक लगभग चार -पांच सौ प्रवासी साहित्यकारों को जोड़ा जा सका है।
पिछले वर्ष से ‘प्रवास मेरा नया जन्म’ और ‘संस्कृत की वैश्विक विरासत’ विषयों पर भी अन्तर्राष्ट्रीय वेबीनारों का आयोजन किया है। साथ ही ‘हिंदी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है’ तथ्यों पर  डॉक्टर जयंती प्रसाद नौटियाल की शोध पर भी आयोजन भी किया।
विगत वर्षों में गर्भनाल पत्रिका ने नीदरलैंड्स में रह रहे हिन्दी के रचनाकारों की रचनाएं भी प्रकाशित होती रही हैं। इस समय हिंदी लेखन में रामा तक्षक, पुष्पिता अवस्थी, विश्वास दुबे, ऋतु शर्मा, सोनी वर्मा, आलोक पाण्डेय, जिज्ञेश कार्णिक, आस्था दीक्षित, प्रियंका सिंह, राकेश पाण्डेय, महेश वल्लभ पाण्डेय, शिवांतिका श्रीवास्तव, आशीष कपूर, हर्षिता वाजपेयी, शिवांगी शुक्ला, इन्द्रेश कुमार,संतोष कुमार, सुशांत जैन, ममता मिश्रा, शिखा झा आदि सक्रिय  हैं।
द हेग स्थित गांधी केंद्र के निदेशक शिवमोहन सिंह भारतीय संस्कृति के प्रचार प्रसार हेतु सक्रिय रहे हैं। वे स्वयं भी गजल गायक हैं। इस समय गांधी केन्द्र के निदेशक कृष गुप्ता भारतीय संस्कृति और हिंदी भाषा व साहित्य की पताका अपने हाथों मेंं थामे हैं। गांधी केन्द्र में आज भी हिन्दी पढ़ाई जा रही है। इस समय हेम वत्स के बाद डॉ सोनी वर्मा हिन्दी व संस्कृत विषय की अध्यापिका हैं। गांधी केन्द्र में इस समय बीस से अधिक छात्र हैं। यह संख्या बढ़ती घटती रहती है।

आम जन-जीवन में भारतीय संस्कृति : सरनामी भाषा की देशी छटा 
नीदरलैंड्स में सूरीनामी भारतवंशियों द्वारा भोजपुरी यानी सरनामी भाषा का घर में बहुतायत में उपयोग होता है। बोलचाल में देशज भाषा के ऐसे शब्द को सुना। ऐसा शब्द कानों में पड़ तो मैं चकित रहा गया था।
मेरी पत्नी और मैं आस्त्रिद व इन्दरसिंह के घर एम्स्टर्डम पहुंचे थे। मई का महीना था। दोपहर के बाद का समय था। हम सब बाहर बैठे थे । साथ ही अंग्रेजी में बात कर रहे थे ताकि सब समझ सकें।
अचानक बादल छंटे तो सूरज चमका। सूरज का चमका देख आस्त्रिद बोली “अरे घाम आ गया!”
‘घाम’ शब्द सुनकर, मेरा सिर घूम गया।
यह शब्द आज भी नीदरलैंड में उपयोग में है। राजस्थान में मेरे गाँव में भी धूप को ‘घाम’ ही कहते हैं। घाम शब्द 1873 के गिरमिटिया लोगों के भारत से प्रस्थान के समय देश से बाहर गया था। जहाँ जहाँ भी लोग गये। उनके साथ उनकी बोली भाषा भी साथ गई।
हर भारतवंशी सुरीनामी ने अपनी दादी। अपने दादा। अपने नाना और अपनी नानी से हिंदी में कहानियां सुनी हैं। नीदरलैंड में हिंदी भाषा का भोजपुरी स्वरूप उनकी दादा दादी और नाना नानी है। यूरोप में जन्मी भारवंशियों की नयी पीढ़ी के लिए भी यही उक्ति लागू होती है।
सूरीनाम में भी डच राष्ट्रीय भाषा है। वहाँ के पूर्व राष्ट्रपति श्री संतोखी जी ने राष्ट्रपति चुने जाने पर राष्ट्रपति पद की शपथ संस्कृत में ली थी।
गिरमिटिया गाथा के 150 वर्ष पूरे होने के अवसर पर, सूरीनाम देश द्वारा आयोजित कार्यक्रम भारत की राष्ट्रपति माननीया द्रौपदी मुर्मू जी मुख्य आतिथ्य में सम्पन्न हुआ।
हमारे पूर्वज (गिरमिटिया लोग) अपने साथ ‘राम नाम’ को ले गये थे। इस आस्था को अपने साथ ले गये थे। इस राम नाम के साथ एक पूरी संस्कृति को बहुत ही दयनीय परिस्थितियों में रहते हुए भी उन्होंने जीवित रखा। उन्होंने देवनागरी के उच्चारण को भी अपने साथ संघर्षों में भी जीवित रखा। भारतीय संस्कृति को जीवित ही नहीं बल्कि पाला पोषा। 1975 में सूरीनाम की स्वतंत्रता के पश्चात, भोजपुरी हिंदी भाषा हिंदुस्तानी सरनामी बनकर , सूरीनाम की राष्ट्रीय भाषा बनी। यही हिंदुस्तानी सरनामी भाषा भारतवंशियों के साथ नीदरलैंड्स में आई। इस तरह भारतीय संस्कृति एक मूल प्रवाह के रूप में नीदरलैंड्स देश पहुंची और इस देश के समाज का महत्वपूर्ण अंग या घटक बनी। इसी कारण ‘राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा 22 जनवरी 2024’ दिवस के अवसर पर नीदरलैंड्स सरकार ने दो डाक टिकट जारी किये हैं। एक डाक टिकट राष्ट्रीय पत्र-व्यवहार के उपयोग के लिए है तथा दूसरा डाक टिकट अंतरराष्ट्रीय पत्रों के लिए। इस अवसर पर नीदरलैंड्स में इन दो डाक टिकट का जारी किया जाना, डच लोगों का भारतीय संस्कृति के प्रति लगाव का बहुत सुंदर उदाहरण है।
मोहन गौतम का उद्धरण रेखांकित करने योग्य है। वे भारत से 1960 में नीदरलैंड आए थे। वे लायडन विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं। उनसे अक्सर बातें होती रहती हैं। वे सूचनाओं के जीते जागते भंडार हैं।
संतोष चौबे एवं लीलाधर मंडलोई द्वारा सम्पादित ‘प्रवासी समकालीन साहित्य’ पुस्तक में मोहन गौतम ने लिखा है “नीदरलैंड्स के विश्वविद्यालयों में, भारतीय संस्कृति संकाय, कटौती के कारण बंद हो गए हैं पर भारतीय मूल्य और मान्यताओं को समझने के लिए संस्कृत, हिंदी भाषा, बुद्ध और हिंदू धर्म के ग्रंथों को अवश्य पढ़ाया जाता है।” एक अन्य जगह मोहन गौतम लिखते हैं “जोसुआ केटलार ने 1711 -13 में सूरत से लाहौर की यात्रा की थी। इन्होंने 1698 में हिंदुस्तानी भाषा का पहला व्याकरण लिखा था, जिसकी पांडुलिपि मेरे पास है।”

दीवाली पर्व को मनाने के लिए भारतवंशी उत्सव का आयोजन का करते हैं। विगत वर्ष 2023 को टाटा कन्सलटेंसी और कई अन्य डच कम्पनियों ने दीवाली उत्सव को एम्स्टलवेन में प्रायोजित किया था। एम्स्टलवेन नगरपालिका की इसमें अहम भूमिका रही। इस उत्सव के दौरान स्टेज पर हिंदी फिल्मी धुनों को उच्चरित करती, थिरकती हुई डच युवतियों ने भी भाग लिया। दीवाली पर ऐसे आयोजन मुख्य शहरों जैसे एण्डहोवन, ग्रोनिंगन, दे हेग और रोटरडम में भी आयोजित किये जाते हैं। इन आयजनों में भारतवंशी कई हजारों की संख्या में उपस्थित होते हैं। आसपास के डच लोग भी आयोजन की झलक लेने अवश्य आते हैं। 

नीदरलैंड्स से हिंदी भाषा में प्रकाशित पुस्तकों का विवरण भी आपसे साझा है।

रामा तक्षक : काव्य संग्रह : जब माँ कुछ कहती मैं चुप रह सुनता। 
                  उपन्यास : हीर हम्मो (राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा प्रभा खेतान पुरस्कार से पुरुस्कृत)
                  अनुवाद : भारतीय पत्र (1583-1588) फिल्लिपो सास्सेती द्वारा लिखित Letters Indiane
                                का इटालियन से हिंदी में अनुवाद पुस्तक प्रकाशनाधीन है।
                   सम्पादन : नीदरलैंड्स की चयनित रचनाएँ, भारतीय मातृभाषाओं का भविष्य
                   सम्पादन : ‘साहित्य का विश्वरंग’ त्रैमासिक पत्रिका।
                   संस्थापक व अध्यक्ष : साझा संसार फाउण्डेशन, नीदरलैंड्स।  
पुष्पिता अवस्थी वरिष्ठ प्रवासी साहित्यकार हैं और उन्होंने बहुत सारी पुस्तकें लिखी हैं और हालैंड से एम्स्टल गंगा पत्रिका की सम्पादक हैं। साथ ही वे विश्व हिंदी फाउंडेशन की संस्थापक भी हैं।  
विश्वास दुबे : प्रेम और वाणी  : कविता व कहानी संयुक्त संग्रह
                  सम्पादन : दो काव्य संग्रह : सरहदों के पार खिलते हैं गुल यहाँ और सरहदों के पार सोपान।  
ऋतु शर्मा : सह अनुवाद : बंद रास्ते (ज्यां पाल सार्त्र के नाटक नो एक्जिट)
                अनुवाद : जानवरों का जानी दुश्मन।  
महेश वल्लभ पाण्डेय :  काव्य-संग्रह : ‘वाह! ये डायरियाँ’                            
सम्पादन : कलम, जिंदगी और मुस्कुराहट’   
निधि खरे : काव्य- संग्रह : खामोश लफ्जों का शौर                 संस्मरण : आघात                 जीवनी : सुनहरी देवी   


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