वैश्विक हिंदी परिवार, विश्व हिंदी सचिवालय, केंद्रीय हिंदी संस्थान, अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद्, वातायन तथा भारतीय भाषा मंच के तत्वावधान में 03 अगस्त 2025, संध्या 6 बजे भाषा विवाद: सद्भावना की दिशा” विषय पर ऑनलाइन संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इस संगोष्ठी का मुख्य उद्देश्य भारत की भाषाई विविधता के संदर्भ में उत्पन्न होने वाले विवादों के मूल कारणों की पड़ताल करना तथा विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच आपसी संवाद, सम्मान और सौहार्द स्थापित करने हेतु एक सकारात्मक वैचारिक मंच प्रदान करना था।

इस कार्यक्रम में अध्यक्ष के तौर पर प्रो.टी.वी.कट्टीमानी, शिक्षाविद्, पूर्व कुलपति जनजातीय विश्वविद्यालय, विशाखापट्टनम,  मुख्य अतिथि श्री लक्ष्मणराव गायकवाड़, प्रसिद्ध मराठी साहित्यकार, बीज वक्ता प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति अंतरराष्ट्रीय महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, वर्धा, विशिष्ट अतिथि डॉ. जयेंद्र सिंह जाधव, महासचिव साहित्य अकादमी, गुजरात, तमिलनाडु से डॉ. राजलक्ष्मी कृष्णन, विदुषी, एवं वैश्विक हिंदी परिवार के अध्यक्ष श्री अनिल जोशी, कवि एवं लेखक के साथ-साथ देश-विदेश से कई गणमान्य लोग उपस्थित थे।

कार्यक्रम का आरंभ श्रीमती नर्मदा कुमारी के स्वागत उद्बोधन से हुआ। उन्होंने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए कार्यक्रम की रूपरेखा प्रस्तुत की और विषय की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला।

प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने अपने बीज वक्तव्य में भारत को ‘भाषाओं की प्रयोगशाला’ बताते हुए कहा कि भाषा का मूल चरित्र जोड़ने का है, तोड़ने का नहीं। उन्होंने ‘भाषिक उदारता’ की आवश्यकता पर बल दिया, जिसके अंतर्गत हिंदी भाषियों द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने की पहल भी शामिल हो।

 डॉ. राजलक्ष्मी कृष्णन ने स्पष्ट किया कि तमिलनाडु में आम जनमानस में हिंदी के प्रति कोई विरोध नहीं है और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के माध्यम से लाखों लोग हिंदी सीख रहे हैं। उन्होंने उत्तर भारत में भी दक्षिण की भाषाएँ सिखाने के लिए केंद्र स्थापित करने का महत्वपूर्ण सुझाव दिया।

 विमर्श सत्र के दौरान डॉ. वेंकटेश्वर राव ने कहा कि भाषा विवाद आम जनता के बीच नहीं है; बल्कि यह कुछ राजनीतिक वर्गों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए उत्पन्न किया जाता है। आम व्यक्ति अपनी आवश्यकतानुसार भाषा सीखता है और उसमें कोई भेदभाव नहीं करता है।

​डॉ. किरण खन्ना (पंजाब) ने कहा कि कोई भी भाषा दूसरी भाषा की दुश्मन नहीं होती; बल्कि वे एक-दूसरे को समृद्ध करती हैं। उन्होंने सवाल उठाया कि हिंदी का विरोध करने से किसी राज्य को क्या लाभ होगा? उन्होंने ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की भावना के साथ सभी भाषाओं को सम्मान देने की बात कही। पद्मश्री प्रो. तोमियो मिजोकामी (जापान) ने संक्षिप्त और सारगर्भित संदेश में कहा कि व्यक्ति जितनी अधिक भाषाएँ सीखता है, उसके मन में उन भाषाओं के प्रति उतना ही प्रेम बढ़ता है और लड़ाई की भावना समाप्त हो जाती है। श्री विजय नगरकर ने हिंदी के विकास में हिंदीतर भाषी लेखकों के योगदान को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि अनुवाद के माध्यम से भारत की विविध संस्कृतियों और साहित्य को एक-दूसरे तक पहुँचाकर भाषाई भेद को कम किया जा सकता है। ​प्रो. रवींद्र सिंह ने भक्ति आंदोलन का उदाहरण देते हुए बताया कि यह पूरे भारत में भाषाई सौहार्द का सबसे बड़ा प्रतीक था, जहाँ उत्तर से लेकर दक्षिण तक के संतों ने बिना किसी भाषाई विवाद के अपने विचारों का आदान-प्रदान किया। उन्होंने उसी सूत्र को फिर से अपनाने पर जोर दिया।

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित मराठी के प्रख्यात लेखक श्री लक्ष्मणराव गायकवाड़ ने अपने प्रभावशाली वक्तव्य में कहा कि भाषा संवाद के लिए होती है, टकराव के लिए नहीं। उन्होंने अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए बताया कि कैसे तकनीकी समस्या (अंग्रेजी के कारण) से उन्हें जुड़ने में देरी हुई, जो भाषाई बाधा का प्रतीक है। उन्होंने देश की प्रगति के लिए चीन का उदाहरण देते हुए एक राष्ट्रभाषा (हिंदी) की आवश्यकता पर बल दिया, साथ ही सभी क्षेत्रीय भाषाओं के सम्मान की भी वकालत की। उन्होंने सुझाव दिया कि एक ऐसा राष्ट्रीय गीत बनाया जाए जिसमें भारत की सभी प्रमुख भाषाओं के शब्द शामिल हों, ताकि हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाने में सबकी सहमति और सम्मान का भाव निहित हो।

 वैश्विक हिंदी परिवार के अध्यक्ष श्री अनिल जोशी ने कहा कि भारत में भाषा के प्रश्न की एक पृष्ठभूमि है। भाषा का प्रश्न एकाएक पैदा नहीं हो गया। स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने के पहले महात्मा गांधी ने महसूस किया कि बिना एक राष्ट्रभाषा के आजादी की लड़ाई  नहीं लड़ी जा सकती है। इसलिए उन्होंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के वक्तव्यों के दौरान पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण को जोड़ने के लिए एक सर्वमान्य भाषा की वकालत की। आज के भाषा विवाद के मूल में उपनिवेशवादी मानसिकता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि भारत में हिंदी- तमिल, हिंदी-कन्नड़, कन्नड़- तमिल आदि भाषाओं के बीच विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है; लेकिन अंग्रेजी को लेकर कोई विवाद नहीं होता। तो हमें इन बारीक पहलूओं को समझना होगा। क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षा देने वाले सरकारी स्कूलों का धीरे-धीरे निष्क्रिय होता जाना किसी गहरे षड्यंत्र का संकेत है। इसलिए यदि हमें अपनी प्रतिभाओं को बचाना है तो इन उपनिवेशवादी षड्यंत्रों को समझना होगा। चीन के विकास के मूल में उनकी अपनी भाषा में ज्ञान का उपलब्ध होना है। आज भारत में आईआईटी, आईआईएम जैसे उच्च शिक्षण-संस्थानों में भारतीय भाषाओं में शिक्षा नहीं दी जाती है। उपनिवेशवाद के कारण ही भारतीय भाषाओं की स्थिति दयनीय है ।इसे हम सभी को समझना होगा।

​ इस कार्यक्रम के अध्यक्ष, केंद्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो.टी.वी. कट्टीमानी  ने भाषा विवादों को सीधे तौर पर राजनीतिक और चुनावी एजेंडे से जोड़ा। उन्होंने कहा कि चुनाव आते ही भाषा के मुद्दे उठाकर विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे वास्तविक मुद्दों से ध्यान भटकाया जाता है। उन्होंने अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही कि हिंदी का विरोध तभी कम होगा जब हिंदी भाषा को रोजगार से जोड़ा जाएगा। यदि हिंदी पढ़ने से युवाओं को नौकरी और स्वरोजगार के अवसर मिलेंगे, तो वे इसे स्वाभाविक रूप से अपनाएंगे। उन्होंने उत्तर भारत के लोगों द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने की आवश्यकता को भी दोहराया।

डॉ. रवीन्द्र कात्यायन ने इस कार्यक्रम का सफल संचालन किया। कार्यक्रम के अंत में श्री उमेश कुमार प्रजापति ने सभी आयोजक संस्थाओं, अध्यक्ष, मुख्य अतिथि वक्ताओं, संचालक, तकनीकी टीम और देश-विदेश से जुड़े सभी श्रोताओं का विधिवत धन्यवाद ज्ञापन किया।

रिपोर्ट- डॉ. मनोज कुमार सिंह

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