कालिदास की कला और सौन्दर्य दृष्टि

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

किसी गीत की लय का, दीप्तिमान लौ में ढलना स्वयं कला का कालिदास हो जाना है। कालिदास इसी अलौकिक चमत्कार के सर्जक हैं। रघुवंश की इंदुमती वह सजीव गीत थी जिसे कालिदास ने संचरण करती दीपशिखा में ढाल दिया और उनका उपनाम ही दीपशिखा हो गया। इंदुमती जब स्वयंवर के लिए जाती है तो उसकी उपमा कालिदास थिरकती दीपशिखा से करते हैं,

श्लोक है,

`संचारिणी दीपशिखेव रात्रौ यं यं व्यतीयाय पतिंवरा सा।

नरेन्द्रमार्गाट्ट इव प्रपेदे विवर्णभावं स स भूमिपालः।।

रात्रि में चलती हुई दीपशिखा के समान जब राजकुमारी इंदुमती अपने लिए वर चुनती हुई जिस-जिस राजा के पास से गुज़र जाती थी, वह-वह राजा उसी तरह निस्तेज हो जाता था, जैसे दीपशिखा के आगे चले जाने के बाद राजमार्ग की अट्टालिकाएँ फीकी पड़ जाती हैं।

कालिदास भारतीय कला की आरती में वे प्रज्वलित दीप हैं जिनके आलोक से युग जगमगाते हैं और जिनके सृजन की गंगा अपने तटों पर कला के तीर्थ रचती हैं।

कालिदास हमारी वांग्मय परंपरा के ऐसे इकलौते सर्जक हैं जिनके कृतित्व में भारतीय कला की अवधारणा के बिंब भी हैं और हमारी चित्रांकन परंपरा के साक्ष्य भी।

कालिदास के कृतित्व की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें प्रखर साधना भी है और माधुर्य से परिपूर्ण आराधना भी, यदि सार रूप में भारतीय कला अवधारणा को कालिदास के साहित्य के आलोक में देखा जाए तो यह स्पष्ट होता है कि कालिदास के कृतित्व में सर्वत्र भारतीय कला की इस अवधारणा का उदघोष है कि वह समग्रता को अंगीकार करती है और निजता से पूरी तरह मुक्त है।

कालिदास के साहित्य में किए उल्लेखानुसार कालिदास के समय में चित्रांकन बहुत महत्वपूर्ण था। प्रेमी अपने वियोग को कम करने के लिए एक दूसरे के चित्र बनाते थे और चित्रों से घर, पूजागृह, प्रासाद सज्जित रहते थे।

कालिदास को कला की समृद्ध विरासत भी मिली थी तथा चित्रांकन के विपुल संदर्भ उनके साहित्य में हैं और भाषा इतनी बिंबात्मक है कि दृश्य कब शब्द हो जाते हैं और शब्द कब दृश्य हमें ज्ञात नहीं होता।

व्याख्यान में कालिदास के साहित्य में उल्लिखित ऐसे अनेक प्रसंगों का उल्लेख किया गया।

इनमें से एक बिम्ब में कुमारसम्भव में संध्या का चित्र वे खींचते हुए कहते हैं कि पूर्व की ओर से अंधकार बढ़ता चला आ रहा है, पश्चिम में लाली है, जैसे गेरू की नदी के किनारे तमाल के वृक्षों की पंक्ति खड़ी हो।

मेघदूत के एक प्रसंग का स्मरण करते हुए वे कहते हैं कि बादल सुन्दर हैं इसका प्रमाण बादल स्वयं नहीं है बल्कि इसका प्रमाण है उसके विरह में दुबली हुई नदी। नदी का दुबलापन बादल के सौभाग्य का सूचक है।

कालिदास ने चालीस पुष्पों और सत्रह पशुओं का उल्लेख अपने ग्रंथों में किया है तथा अधिकांश का मानवीकरण किया है। कालिदास ने चित्र के लिए प्रतिकृति तथा ब्रश के लिए वर्तिका का उल्लेख किया है।

यह भी विशेष रूप से कहा कि हमारे दृष्टिपथ से लघुचित्रांकन की वह परंपरा प्रायः छूट गई है जिसमें कालिदास के साहित्य के आधार पर चित्र बने। उनके संदर्भ भी दिए गए।

यहां कालिदास साहित्य पर आधारित कुछ लघुचित्र, गुप्तकालीन विष्णु तथा शिव के कुछ उन शिल्पों के अंकन की छवियां प्रस्तुत हैं जो कालिदास की कला अवधारणा के आधार पर निर्मित हैं साथ ही समारोह के चित्र जिनमें प्रख्यात संस्कृत मनीषी डॉक्टर राधावल्लभ त्रिपाठी सहित देश के प्रतिष्ठित संस्कृत मनीषी, सम्राट विक्रमादित्य विश्वविद्यालय के प्रभारी कुलगुरु डॉक्टर शैलेन्द्र शर्मा तथा पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलगुरु डॉक्टर शिवशंकर मिश्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष डॉक्टर मनुलता शर्मा तथा प्रख्यात पुराविद डॉक्टर नारायण व्यास हैं।

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