अंधभक्त इतने बुरे क्यों लगते हैं

डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम 

कृष्ण खुली आँख है। राधा बंद आँख। कृष्ण जानते हैं — मेरा जन्म क्यों हुआ है!

यदा यदा हि धर्मस्य……वे संकल्पबद्ध हैं। राम भी भुजा उठाकर कहते हैं — निशिचर हीन करूँगा जग! वे एक-एक राक्षस का ठिकाना, करतूत  और उससे निपटने के सूत्र जानते हैं। राम के कर्म  ऐसे  हैं कि भरोसा होता है! वे सजग हैं, दायित्ववान हैं, भरोसेमंद हैं। और योगिराज कृष्ण भी। इसलिए उन पर मुग्ध कोई गोपी उनकी आराधिका हो जाती है, राधिका हो जाती है। राधा हो जाती है।

राधा को कोई जरूरत नहीं, आँख खोलने की। वह तो भक्त हो गई है। उसने संसार से आँख मूँद ली है। अब भक्त कहो या अन्धभक्त — एक ही बात है। जब भरोसा हो गया, प्रेम हो गया तो आँख क्या खोलना और क्यों खोलना! कबीर की प्रेमिका भी अंधा प्रेम करती है —

नैनाँ अंतर आँव तू, त्यों ही नैन झँपेऊँ।
न मैं देखों और को, न तुझ देखन देऊँ।

और जानते हैं, अंधे की पकड़ जितनी मज़बूत होती है, उतनी आँख वाले की भी नहीं होती। उसका भरोसा या भक्ति ही उसका प्राणाधार होती है। यही कारण है कि राक्षसों को अंधभक्तों से बहुत डर लगता है। जटायु अंधभक्त था राम का। राम की वधू को कोई हानि पहुँचाए तो वह उसे नोच लेगा या खुद नुच जाएगा। पर दुष्ट को नहीं छोड़ेगा। इसलिए लंका का एक-एक राक्षस हनुमान से भयभीत रहता है। जिसे ऐसे भक्त (अंधभक्त ) मिल जाएँ, वह जग जीत सकता है। कंस या रावण लाख अंधभक्त या बंदर कहकर चिढ़ाते रहें, भक्त हनुमानचालीसा पूरा करके मानता है। इसलिए आजकल कुछ कंस अंधभक्तों पर बहुत कुपित हैं। वे बात – बात पर अंधभक्त की लपट लगाते रहते हैं — शायद कोई हनुमान जिसकी पूँछ में आग लगी हो, दुत्कार सुनकर भाग जाए ; पर हनुमान तो अपनी पूँछ को और ऊँचे, और विकराल बनाकर ललकार रहा है। ये भक्त होते ही इतने अंधे हैं। उनकी आँख अपने आराध्य के पास गिरवी होती है। वे अपनी दृष्टि भी आराध्य को दान कर चुके होते हैं।

खीझ के मारे दुष्ट राक्षस बिलबिलाते रह जाते हैं और तुच्छ-से-तुच्छ वानर भी लंका की मुँडेरों पर चढ़ जाते हैं — उन्हें बत्तीसी दिखाते हुए, पटकने की घुड़की देते हुए!

वे महादेहधारी राक्षस — जब कुछ नहीं कर पाते, तो लौट आते हैं अपने उस अदने स्वरूप पर — यह जानते हुए कि दरअसल हैं तो वे भी कुछ नहीं। वे भी हैं इतने-ही तुच्छ और अदने — जितने कि ये वानर! फर्क इतना भर है कि उन्हें राक्षसराज की गोद मिली थी कभी, जिसने उन्हें पिला-पिलाकर, धुत्त कर करके किसी खरदूषण -सा, मारीच -सा, या कि ताड़का- सा बना डाला था। और मुफ्त में मिली मांस-मदिरा के लालच में वे सचमुच स्वयं को राक्षस समझ बैठे थे।

 इतनी अंतर्दृष्टि भी कितनों को नसीब हो पाती है! अधिकतर तो अपनी निर्मित छवि में डूबे-डूबे स्वयं को सचमुच के मारीच समझ बैठे हैं।

जाने कब मुक्ति मिलेगी उन्हें अपने मारीचत्व से कि वे गाढ़ा काला चश्मा उतार कर देख सकें कि कोई नया मन्वंतर शुरू होने वाला है!

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