चार लघु कथाएं

अंजू मेहता

1. सामान

दौड़ते-दौड़ते जल्दी से स्कूल की बस पकड़ी चलती बस में चढ़कर बैठना सचमुच किसी रोमांच से कम नहीं होता है ऐसे में हृदय की धौंकनी का धक-धक राग कितने ऊँचे स्वर तक लगता है यह तो बस वो ही जान सकता जिसने कभी स्वर साधे हों।

आवाज़ आती है मेम अपनी सीट पर बैठ जाइए तब वास्तविकता का ज्ञान होता है और सीट पर विराजमान हो जाती हूँ।

आज सुबह ही सुबह अनायास राजेश खन्ना की फ़िल्म इजाज़त का गाना ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है’ याद आ गया। ऐसे तो यह गाना ज़्यादातर मुझे सुनना पसंद है लेकिन आज इस तरह बार-बार हृदय पटल अंकित होना समझ से बाहर था।

अचानक स्कूल बस एक झटके के साथ रूकती है, बाहर कुछ चेकिंग चल रही है बस की कंडेक्टर राधा बताती है। यहाँ यूएई में रहना सचमुच कमाल है सुरक्षा सम्बंधी चीजों को काफ़ी गहनता के साथ लिया जाता है। शायद उसी से सम्बंधित कुछ जाँच पड़ताल चल रही थी।

यल्ला हबीबी अरबी भाषा जिसका अर्थ होता है- ‘प्रिय इधर आओ’ मेरा ध्यान भंग होता है और उधर जाता है जहाँ से यह वाक्य बहुत ही शालीनता के साथ बोला जा रहा था, मेरी उत्सुकता को बढा रहा था मैं जानने को अधीर हो उठी। बस की खिड़की से उस नौजवान के दर्शन होते हैं। शायद वह अपने मोबाइल में कुछ ढूँढने की कोशिश में व्यस्त था। गठीला कसरती शरीर, सौम्य, शालीन और ज्योत्सनावर्णी।

फिर से बस स्कूल समय पर पहुँचने के लिए गति पकड़ती है और उस ज्योत्सनावर्णी से चक्षु टकराव होता है उसकी मोहिनी स्मित मेरे हृदय को झंकृत कर जाती है।

रह-रहकर मन में सारे दिन उस ज्योत्सनावर्णी के विचार और दुबारा देखने की लालसा को बढ़ा रहे थे। बार-बार लगता था कि कुछ तो उस स्मित में था शायद कुछ तो मैं वहाँ छोड़ आई थी। मोबाइल में स्कूल से लौटते समय ‘मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है’ गाना सुनते-सुनते घर आ गया, पता ही नहीं  चला।

आवाज़ आती है मेम-मेम आज घर नहीं जाना आपका डेस्टिनेशन आ गया है। एक सुंदर स्वप्न से बाहर निकल वास्तविकता की ज़मीन पर पैर रखती हूँ।

*****

2. आइशल

उफ़——– यह अलार्म ट्रिंन-ट्रिंन

उफ़ अभी तो सोई थी तो यह अलार्म कैसे बज गया। सुप्तावस्था में दिमाग़ और अधिक सोने का समय ढूँढने के लिए तर्क-वितर्क करने लगा था। हृदय की धड़कनें भी अलार्म की ट्रिंन-ट्रिंन के साथ प्रतियोगिता करने लगी थीं।

थोड़ा संयत होने पर सजीव होने का प्रतीत हुआ। घड़ी और समय दोंनो ही सही थे सुबह के साढ़े चार बजे थे। रोज़ाना उठने का समय- जल्दी से रसोई में जाकर खाना पकाकर सबके टिफ़िन बना कर नियमित समय पर विद्यालय पहुँचना यही तो जीवन बन गया था।

यहाँ शारजाह (यूएई) में यह मेरे लिए ब्रिटिश पाठ्यक्रम ओ लेबल का नया विद्यालय था। सभी तरह की सामग्री से सुसज्जित, आकर्षक दिखावा वाला। भिन्न-भिन्न सभ्यताओं वाले विद्यार्थी सचमुच एक अनौखा अनुभव था।

विद्यालय का प्रांगण रंग-बिरंगे कोमल पुष्पों जैसे बच्चों से खिल रहा था। बच्चों को देखकर हृदय प्रफुल्लित और उतावला हो रहा था।

कक्षा में जाने का समय आ गया था। कक्षा में नई अध्यापिका की उपस्थिति देख, बच्चों की कानाफूसी शुरू हो गई। कक्षा अध्यापिका मेरा परिचय बच्चों से करवाती हैं।

कितने प्यारे, नाज़ुक, कोमल बच्चे ———— ख़ुशी अपरंपार और चुनौतिपूर्ण भी। पढ़ाने सिखाने के साथ-साथ अनुशासित करने की भी।

कक्षारंभ होती है। पाठ पढ़ते समय बच्चों का ध्यान अध्यापिका पर होता है या जो वह सुन और समझ रहे होते हैं उसपर। इसी बीच एक बच्ची जो थोड़ी सी बैचेन और अपनी ओर ध्यान खींचने की कोशिश कर रही थी या तो वह नई अध्यापिका से पढ़ना नहीं  चाहती थी या उसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी। कुछ ज़रूरी निर्देश दे उसको उसकी जगह पर बैठने को कहती हूँ। अगले दिन के पाठ्यक्रम के लिए कला से सम्बंधित ज़रूरी सामान लाने का निर्देश दे कक्षा समाप्ति की घोषणा करती हूँ और घंटी बज जाती है। घर आकर मैं उस बच्ची में उलझी रही उसके अंतर को समझने की कोशिश करती रही।

अगले दिन कक्षा आरम्भ होने पर वह निर्देशित सामग्री नहीं लाती है और दूसरे विद्यार्थियों से  माँग-माँगकर कक्षा का अनुशासन भंग कर रही थी जो काफ़ी खींझ भरा था। मैं उसके पास जाकर उसके सिर पर हाथ रखती हूँ, वह संतोषित महसूस करती है। अपना नाम और पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देती है।

नाम – आइशल

निर्देशित सामग्री क्यों नहीं लाई?

माँ नहीं है, पिता व्यस्त हैं, छोटी बहन है और आया देखभाल करती है। उसके पनीले नेत्र, मासूम गुलाबी चेहरा बहुत कुछ बयान कर रहे थे, नन्ही आँखों ने बहुत कुछ देखा है। स्तब्ध हो जाती हूँ अपने व्यवहार से उसकी पीड़ा को कम करने की कोशिश करती हूँ। उसे हँसती, खेलती दूसरे विद्यार्थियों जैसा सहज करने की कोशिश करती हूँ।

वाह रे ऊपर वाले कुछ भी न दे परंतु माँ का साया और साथ कभी न छीने —

अगले दिन कक्षा में आँखें आइशल को ढूँढती हैं पता चलता है की वह अभी विद्यालय नहीं पहुँची है, हृदय धक-धक करने लगता है। मानव मन कितनी आसानी से किसी अनहोनी को लेकर आशंकित हो जाता है। अपना ध्यान दूसरे विद्यार्थियों पर केंद्रित करने कोशिश तभी – May I come in miss? जानी पहचानी आवाज़! ओह! आइशल उसकी ओर लपकती हूँ! एक अनजाना रिश्ता जो बन गया था उसके साथ।

उसका प्रेमपूर्ण आचरण शांत जोश भरा चेहरा आज कुछ अलग था। जल्दी से वह कक्षा के लिए मँगाई गई सामग्री का थैला दिखाती है। उसकी चमकीली नन्ही आँखों में मैंने एक नए जीवन की झलक पाई थी। उसका आनंदित चेहरा और उत्साह जैसे बग़ीचे में एक साथ अनगिनत फूल खिले हों। मेरे हृदय को रह-रहकर सुकून दे रहे थे।

*****

3. रंग

केनवास पर आकृति उकेरने के बाद मेज़ पर बिखरे पड़े रंगों की तरफ़ रुख किया। पीछी लेकर बार-बार आकृति में रंगों से ख़ूबसूरती देने का असफल प्रयास कर रही थी। न जाने क्यों आज मनचाहा रंग-रूप देने में नाकामयाब हो रही थी ——–

शायद रंग आज रूठ गए थे। रंगों की दुनिया एक अजूबा है। रंगों से दोस्ती कर पाना भी सहज नहीं  है। आजीवन परीक्षा लेते रहते हैं साहब, पूरा ध्यान अपनी ओर चाहते हैं, ज़रा सा भी ध्यान भटकने पर नाराज़ हो जाते हैं। मैंने भी कुछ दिनों से उनकी ख़बर ही नहीं ली थी, उसी का नतीजा मुझे भुगतना पड रहा था।

मैं भी कोई कम ज़िद्दी नहीं थी! अगर उनका हठ है तो मैं भी कम नहीं! बस सोच लिया, आज मनमुटाव ख़त्म करके ही सोऊँगी। पीछी लेकर फिर नई कोशिश की तभी आवाज़ कुछ जानी पहचानी आती है मुड़कर देखती हूँ – सफ़ेद रंग मुझे घूर कर देख रहा था -क्या ग़लती हुई है मुझसे? सबके साथ मिश्रित कर देती हो। मैं निरुत्तर थी तभी प्रश्नों की झड़ी लग जाती है। पीताम्बरी पीला कृष्ण स्वरूप को शोभने वाला बोला मुझे भी नीलादारी नील में बिठाकर मेरी आभा को नुक़सान पहुँचाती हो। लाल रक्त वर्णी अपना रोद्र रूप दिखाता हुआ पीले और नीले के साथ अपना गठबंधन पर अस्वीकृति की मोहर लगा रहा था। काला सियाह तो कड़क स्वर में बोल रहा था।

कुछ भी सुनने और समझने की अपनी सोच शून्य लग रही थी। एक भीमकाय प्रश्न कैसे सामंजस्य बिठाऊँ? सबकी उम्मीदों पर खरी कैसे उतरुँ? प्रश्नों की शृंखला को अश्रृंखलित करना एक चुनौती बन गया था।

एक नई उम्मीद से सबके साथ तालमेल बिठाने की चेष्टा करती हूँ।

श्वेत को सियाह के संयोजन कर कड़वाहट की स्याही को धुँधला पाती हूँ। दोनों का नया रूप- अरे वाह —- प्रयत्न सही दिशा में जाते देख हिम्मत को बढ़ावा मिलने लगा।

नीलादारी और पीताम्बरी दोनों के साथ-साथ चलते हुए नई मित्रता के अंकुर फूटने लगे थे और नए स्वरूप हरीतिमा में परिवर्तित होने लगे थे। मैं गद-गद हो रही थी तभी, रक्त वर्णी लाल टस से मस होने तैयार नहीं हो रहा था। मैंने भी स्वस्थ अन्दाज़ में पीछे से दोनों की गरिमा का ध्यान रखते हुए संतुलित ताल मेल बिठाया। रक्त वर्णी लाल पीताम्बरी के साथ अपना स्वरूप एक कर नारंगी आभा पा रहा था साथ-साथ नीलदारी भी कहाँ पीछे रहने वाला था- रक्त वर्णी लाल के साथ अपनी भाई-बंधुता का परिचय जामुनी बन दे रहा था।

सब कुछ अदभुत, आश्चर्यचकित और अचम्भित था। उपर वाले को शत-शत प्रणाम कर थी। उकेरी हुई आकृति कुछ विशिष्ट सृजित हुई।

घड़ी पर निगाह जाती है सुबह के पाँच बज गए थे। रात्रि जागरण और परिश्रम के बाद भी नई स्फूर्ति थी।

सभी रंग मिलकर उत्सव माना रहे थे। आकृति से निकल-निकल कर अपनी अभिव्यक्ति को व्यक्त कर रहे थे और मैं मूक दर्शक बन रंगों से अपनी दोस्ती और उनके समर्पण पर गर्वित हो रही थी। उनके नेह की वर्षा से अपने रोए–रोए को भीगा हुआ पा रही थी।

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4. मौजें

गाड़ी सरपट दौड़ रही थी। बाहर सूर्य प्रकाश से नहाया हुआ सेतु, रोज़ ही अपनी गर्जना से निमंत्रण देता था परंतु समय की कमी, भौतिकता, ज़रूरतें पूरी करने के लिए भागती जिंदगी सब कुछ क्षणिक कर देती है। कितनी ही भावनाओं, इच्छाओं का समर्पण करना पड़ता है।

समुद्र और आती-जाती स्वछंद लहरें हमेशा से मेरा आकर्षण रही है। रोज़ ही समुद्र को देखकर कुछ वादा अपने आप से करती रोज़ ही शाम तक पहुँचते-पहुँचते थकान उसे तोड़ देती।

सब कुछ अपने आस-पास होते हुए भी अपने स्वयं बनाए बंधनों, ज़िम्मेदारियों से निकल कर उन्हें अनुभव करने का समय ही नहीं निकाल पाते हैं। यह कैसी विडम्बना है।

उद्विग्न, उचाट और अपने आप में उलझा हुआ मन कुछ भी सोच पाने की स्थिति में नहीं था। कुछ तो था जिसे मैं टटोल पाने में असमर्थ थी। बहुत कुछ हृदय की तहों में जम गया था उसे निकाल फेंकने का प्रयास कर रही थी। मुक्त होना चाहती थी मैं—-

अनायास ही समुद्र की ओर क़दम चलने लगे थे। समुद्र का सानिध्य और उसके शांत किनारे मुझे पुकार रहे थे। मैं दौड़कर उसको स्पर्श कर अशांत मन को शांत करना चाहती थी।

नीरवता, स्तब्धता और एकटक आती- जाती तरंगित लहरों को  निहार रही थी। दूर- सुदूर अनंत जहाँ आकाश धरती को आर्लिंगन करता प्रतीत हो रहा था। समुद्र ने अपना आँचल वहाँ तक फैला लिया था। कहीं हरा कहीं नीला तो कहीं कंचन जैसा नीर, मस्त हिलोरें लेती मौजें बार-बार पाँव को छूकर दूर भागती फिर पास आने की होड़ करती मौजें। प्रकृति तेरे कितने रूप। कभी आकाश तो कभी समुद्र को पास से अनुभव करने का मौक़ा नहीं  जाने देना चाहती थी मैं —-साथ- साथ कितनी उधेड़बुन और असुलझे  प्रश्नों के उत्तर निरंतर पा रही थी—

समुद्र के किनारे का सामीप्य उछलती-कूदती, उत्साहित लहरों को और भी आकर्षित बना रहे थे। लहरें भी ख़ुशी के साथ अपना अस्तित्व विलीनकर वापस उसी उत्साह और ख़ुशी से लौटती थी। लहरों का अथक, अनवरत प्रयास कुछ सीख दे रहे थे। यही जीवन है।

समुद्र की विशालता का परिचय मिल रहा था। न जाने कितनी नदियाँ हज़ारों किलोमीटर की यात्रा हँसती-खेलती करते हुए अंत में थककर समुद्र में सुकून पाती हैं एकाकार हो जाती हैं।

मैं अपने आप को शांत और स्थिर पा रही थी। ढेर सारी उलझनों और अबूझ प्रश्नों के बोझ से राहत पा रही थी। दुबारा समुद्र और उसकी मौजों से मिलने की प्रतीज्ञा कर क़दमों को घर की ओर मोड़ देती हूँ।

आती-जाती मौजें मुझे मुस्कराकर-मुस्कराकर अपनी मौज में रहो का संदेश दे रही थी।

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