गाँव की गोरी

अनुसूया साहू

           फूलों से मुझे विशेष प्रेम है, और तितलियाँ भी मेरे मन को बहुत भाती हैं। जैसे वे रंग-बिरंगे पंखों के साथ आकाश में स्वच्छंद उड़ान भरती हैं, वैसे ही मैं भी अपने जीवन में स्वतंत्रता की उड़ान भरना चाहती हूँ। तरह-तरह के व्यंजन बनाने में मेरी रुचि विशेष है, और मेरी माँ का कहना है कि मैं स्वादिष्ट और लाजवाब खाना बनाती हूँ।

          माँ-पिता जी गाँव में रहते हैं, और मैं अपने छोटे से क़स्बे कब्रई में। मेरे साथ मेरे भाई-बहन भी रहते हैं। हर सुबह मैं अपने परिवार के लिए भोजन पकाती हूँ, और उसके बाद ही विद्यालय के लिए प्रस्थान करती हूँ। मेरे पिता मुझ पर अत्यधिक विश्वास करते हैं; घर के सभी खर्चों का उत्तरदायित्व मेरे कंधों पर है। घर की बड़ी बेटी होने के नाते मैं अपने परिवार के प्रति पूर्णतः समर्पित और जिम्मेदार हूँ। विद्यालय से लौटकर मैं अपने भाई-बहनों के लिए रात्रि भोजन की भी व्यवस्था करती हूँ।

          मेरे दो चाचा-चाची पास ही रहते हैं, किंतु उनके साथ रहने का कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि यदि वे हमारे लिए भोजन बनाएंगे, तो उनका समय व्यर्थ होगा। वैसे भी, मेरे पिता और उनके छोटे भाई के बीच संबंध अत्यंत कटु हैं। यद्यपि मेरे पिता घर के बड़े भाई हैं, फिर भी चाचा-चाची उनका उचित सम्मान नहीं करते। इसका कारण वर्षों पुरानी किसी मनमुटाव की छाया हो सकती है, जो अब भी उनके संबंधों पर हावी है।

          ऐसे विषम परिस्थितियों में, मैं परिवार का सहारा बनकर अपने कर्तव्यों का पालन करती हूँ, क्योंकि मुझे ज्ञात है कि मेरे कंधों पर मेरे परिवार की सुरक्षा, सम्मान, और भविष्य की नींव टिकी हुई है।

         चाचा-चाची सदैव हमारी त्रुटियाँ खोजने में व्यस्त रहते हैं, और हर छोटी-बड़ी बात पापा को बताने से नहीं चूकते। पापा अक्सर मुझसे कहते हैं, “अब तुम बड़ी हो गई हो, अपने भाई-बहनों को भी देख-भाल सकती हो और पढ़ाई में भी आगे बढ़ सकती हो।” अकेलेपन का डर कभी-कभी मन को विचलित करता है, परंतु अब इस जीवनशैली की आदत हो गई है। पापा हर हफ्ते मिलने आ जाते हैं, जिससे दिल को कुछ सुकून मिल जाता है।

         मेरे चाचा के बच्चे भी उसी विद्यालय में पढ़ते हैं जहाँ मैं और मेरे भाई-बहन शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। आते-जाते वे हमें निहारते रहते हैं, जैसे निगरानी रखने का कोई अदृश्य भार हो। परीक्षा के परिणाम घोषित होते ही सबकी निगाहें हमारे अंकों पर गड़ी रहती हैं, मानो हम बच्चे किसी रेल के इंजन की गति का मुकाबला कर रहे हों। “किसके अंक अधिक हैं? कौन किससे आगे है?” — यह प्रश्न सभी के मुख पर मंडराता है।

          यदि मेरे अंक अधिक आ जाएँ, तो कोई विशेष चर्चा नहीं होती, परंतु ख़ुदा ना खास्ता अगर चाचा जी के बच्चों के अंक अधिक हों, तो फिर उनके गर्वित शब्दों का कोई अंत नहीं होता। सीना तानकर वे कहते हैं, “देखो मेरे बेटे को, इससे कुछ सीखो। मुझे अपने बेटे पर बड़ा नाज़ है।” भले ही उनका बेटा अपने पिता का सम्मान न करता हो, मगर चाचा जी की डींगें कम नहीं होतीं। उनके लिए तो बस उनका बेटा सर्वश्रेष्ठ है, बाकी सब नगण्य।

            इन परिस्थितियों में, मुझे अक्सर यह महसूस होता है कि समाज का यह मापदंड, जिसमें केवल अंकों के आधार पर ही व्यक्ति का मूल्यांकन किया जाता है, कितना संकीर्ण और सीमित है। परंतु मैं जानती हूँ, मेरा जीवन इससे कहीं अधिक गहन और महत्वपूर्ण है।

          मेरी दादी हैं, जो अब छोटे चाचा के साथ रहती हैं। कभी-कभी वह हमारे घर का रास्ता भूल जाती थीं, क्योंकि कहीं न कहीं उनके हृदय में हमारे प्रति प्रेम की गहरी भावना थी। जब हम गाँव में रहते थे, दादा-दादी हमारे ही साथ रहते थे। पापा और मम्मी पूरे खेत-खलिहान की देखरेख करते थे, और हम गाँव के स्कूल में ही पढ़ाई करते थे।

           गर्मी की छुट्टियों में जब ताऊ और आगरा वाले चाचा का परिवार आता, तो गाँव का घर मानो किसी उत्सव की चहल-पहल से भर जाता। दादी की तब की व्यस्तता देखते ही बनती थी। परंतु वह व्यस्तता मात्र बाहरी थी, अंदरूनी विभाजन की दीवारें बहुत गहरी थीं। शहर से आए ताऊ और चाचा के बच्चों के लिए घी से भरी रोटियाँ और पेड़े बनते, जबकि हमारे लिए तेल और सत्तू ही नसीब होते। मन अंदर ही अंदर कचोटता, परंतु हम बच्चों ने कभी यह दर्द अपने चेहरों पर नहीं आने दिया।

             ताऊ और चाचा हमेशा कहते, “जैसे हम रह रहे हैं, वैसे ही तुम लोग भी रहोगे।” मेरे पापा पूरे परिवार की खेती-बाड़ी सँभालते थे, इसलिए ताऊ जी ने पापा से कहा कि पप्पू, हमारा बड़ा भाई, उनके साथ मुंबई जाकर पढ़ेगा। पप्पू उस समय केवल पाँच वर्ष का था। वह रोता, ज़िद करता कि वह नहीं जाना चाहता, परंतु पापा ज़बरदस्ती उसे भेज ही देते। कभी यह कहकर मनाते कि “हम सब एक ही तो हैं,” तो कभी यह कहकर कि “बड़ी मम्मी तुम्हें अपने बच्चों की तरह रखती हैं।”

           मगर यह तो केवल पप्पू ही जानता था कि वहाँ उसे कैसी-कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था। पाँच साल की छोटी उम्र में ही उसे भूख, दर्द और अकेलेपन के लंबे दौर से गुजरना पड़ा। चोटें तो बाहरी थीं, लेकिन जो घाव उसके नन्हें मन में लगे, वे कहीं अधिक गहरे और स्थायी थे। धीरे-धीरे, उसने उन घावों को सहते-सहते अपने मन को कठोर और ज़िद्दी बना लिया था।

           परंतु उसके ये घाव ना माँ को दिखते, ना पापा को। पापा अपने भाई प्रेम में जैसे अंधे हो गए थे, और परिवार को एकजुट रखने की उनकी अदम्य इच्छा ने हमें कितने बलिदान करने पर मजबूर कर दिया, यह केवल हम ही समझ सकते थे।

           हमने बचपन से ही एक ऐसी जिम्मेदारी का बोझ उठाया था, जिसका कोई अंत नहीं दिखता था। भाई मोह और परिवार की एकता बनाए रखने की पापा की चाहत ने हमें हमारे अपने सपनों और इच्छाओं से दूर कर दिया था। पप्पू का बचपन मानो कहीं खो गया था, और उसकी जगह एक कठोर और अंदर से टूट चुका इंसान खड़ा था, जो अपनों के बीच होते हुए भी अकेलापन महसूस करता था।

           इस सारे संघर्ष के बीच, हम सबने एक बात तो समझ ली थी – परिवार का बोझ और जिम्मेदारियाँ बहुत भारी होती हैं, और कभी-कभी इन्हें उठाने के लिए हमें अपनी खुशियों और इच्छाओं की बलि देनी पड़ती है।

           हर साल गर्मियों की छुट्टियों में, मुंबई से बड़े पापा का परिवार और आगरा से छोटे चाचा का परिवार हमारे गाँव छुट्टियाँ बिताने आते। पहले दिन तो हम सब उन्हें देखकर बहुत खुश होते, मानो कोई बड़ा उत्सव हो। लेकिन दूसरे ही दिन से यह एहसास धीरे-धीरे दिल में घर करने लगता कि शहर वाले न केवल सुविधाओं से सम्पन्न थे, बल्कि उनकी जीवनशैली भी हमारे मुकाबले कहीं अधिक आरामदायक थी। जबकि हम गाँव वाले, जिनकी मेहनत दिन-रात जारी रहती थी, हर काम का बोझ अपने कंधों पर महसूस करते थे।

            शहर से आए ताऊ और चाचा के बच्चे जब चाहें, खेलते, और जब मन न होता, तो किसी और काम में व्यस्त हो जाते। हम गाँव के बच्चों की आँखों में उनके साथ खेलने की चाहत थी, पर हम बस उनके पीछे-पीछे घूमते रहते कि शायद उनके मन में बदलाव आए और वे हमारे साथ खेलने लगें। हमें ऐसा लगता जैसे वे हमारे मूड से अनजान होते, और हमारे आनंद का केंद्र बस उनका साथ होता। लेकिन अक्सर ऐसा होता कि शाम ढल जाती, और खेलने का मौका कभी हाथ नहीं आता।

           शाम होते ही जब ब्यारी का समय आ जाता, हम सभी भागते हुए घर की ओर लौटते। हाथ-मुँह धोकर खाना खाते, और फिर छत पर पापा के साथ इकट्ठा होते। पापा हमें कहानियाँ सुनाते—रामायण, महाभारत, अल्लाह उदल, राजा चंद्रगुप्त की गाथाएँ। इन कहानियों की धारा में बहते-बहते हमें नींद आ जाती और कब सो जाते, इसका एहसास भी नहीं होता।

            सुबह भोर में सूरज सिर पर होता, सब उठकर नीचे चले जाते, और मैं अपनी मम्मी के साथ सभी बिस्तरों को समेटकर नीचे ले जाती, मानो हमारे हिस्से में बस यही काम था। पापा खटोली तीखंडे से उतारते, उन्हें अटारी के भीतर रखते। घर की समूची जिम्मेदारी और काम का बोझ जैसे हमारी किस्मत में लिख दिया गया था।

            मम्मी राख का टोकरा लेकर बैयरा (जानवरों का स्थान) चली जातीं, और उसी समय दादी और बड़ी मम्मी उनकी चुगली करने में व्यस्त हो जातीं। उन्हें लगता कि मम्मी कुछ नहीं समझतीं, लेकिन मैं सब समझ रही थी। मुझे साफ दिख रहा था कि इस घर के भीतर क्या चल रहा है। मम्मी और पापा चाहे जितनी मेहनत करते, दादी कभी संतुष्ट नहीं होतीं, क्योंकि पापा अपने भाइयों की तरह शहर से पैसे नहीं कमाकर लाते थे। पापा को तो अपने गाँव, अपने खेत, अपने घर, और अपने जानवरों से इतना लगाव था कि वह उन्हें छोड़कर जाने की सोच भी नहीं सकते थे। खेती की देखभाल और घर का काम भी कोई करना था, और पापा इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार थे।

             जब सभी भाई इकट्ठा होते, तो अपने-अपने हिस्से की बात करते। पापा, जो सभी भाइयों की खेती की देखरेख करते थे, उन्हें सिर्फ एक हिस्सा ही मिलता। बेचारे चुपचाप देखते रहते जब बड़ी मम्मी और चाची अपने हिस्से का अनाज बाँधकर ले जातीं, और दादी उन्हें खुशी-खुशी विदा करतीं। यह देख मैं सोचती, “यह कैसा न्याय है?” यह दरअसल हमारे घर का ऐसा न्याय था जिसमें छिपा अन्याय कोई देख ही नहीं पाता था, जैसे मेरे मन की पीड़ा भी किसी को समझ नहीं आती थी।

              १३ साल की उम्र में, मैं माँ की भूमिका और एक विद्यार्थी की भूमिका दोनों निभा रही थी। घर के कामों और पढ़ाई के बीच संतुलन बनाना मेरे लिए किसी चुनौती से कम नहीं था। हर दिन सुबह से लेकर रात तक एक दौड़ चलती रहती, जिसमें मुझे अपने ही समय की बलि देनी पड़ती थी।

              मेरे बड़े भाई, जो बड़े पापा के साथ मुंबई में रहते थे, उनका पढ़ाई में मन नहीं लगता था। छुट्टियों के समय चाचा जी उन्हें अपने व्यापार में लगा देते थे। मौसम दर मौसम, वे दिन भर दुकान पर काम करते और रात को थक कर घर लौटते। इस दिनचर्या में पढ़ाई का समय कहां से मिलता? पढ़ाई की तैयारी और परीक्षा में सफल होना तो एक सपना ही था। आखिरकार, पापा ने बहुत सोच-विचार के बाद उन्हें भी गाँव वापस बुला लिया और मेरे ही स्कूल में दाखिला करवा दिया। अब एक और सदस्य घर में आ गया, जिसकी देखभाल और खाना बनाना मेरी जिम्मेदारी बन गई।

                इस नए सदस्य के आगमन से मेरे कंधों पर एक और भार आ गया, लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। मुझे अपनी जिम्मेदारियों का बोध था, और मैं जानती थी कि यह सब करना मेरे जीवन का हिस्सा बन गया था। लेकिन इस कठिनाई और संघर्ष के बीच मैंने यह भी महसूस किया कि गाँव की जिंदगी में जो संघर्ष और त्याग था, वह हमें असल में मजबूत बना रहा था। शायद यह जीवन की सबसे बड़ी सीख थी, जो मुझे इतने कम उम्र में मिल रही थी।

                मुझे इस बात की खुशी थी कि भाई हमारे पास आ गए हैं, लेकिन घर के कामों के बढ़ते बोझ ने कहीं न कहीं मेरी उस खुशी के वजन को हल्का कर दिया था। हर सुबह जल्दी उठकर घर का सारा काम निपटाना, खाना बनाना, सबके टिफिन तैयार करना, बहनों के बाल बनाना, और फिर जल्दी-जल्दी स्कूल का बस्ता लेकर दौड़ते-दौड़ते स्कूल पहुँचना, यही मेरी दिनचर्या बन गई थी।

                 दो साल इसी भागदौड़ में बीत गए। हम सब जैसे-तैसे पास होते रहे और आगे की कक्षाओं में पहुँचते गए। अब मैं दसवीं कक्षा में थी, और मुझे कोचिंग की जरूरत महसूस होने लगी थी। मैंने पापा से कोचिंग के लिए कहा, लेकिन उनका उत्तर वही पुराना था, “थोड़ा और रुक जाओ, अभी पैसों की तंगी है। तुम्हारे भाई की बारहवीं की पढ़ाई ज़्यादा महत्वपूर्ण है, उसे कोचिंग करवाना ज़रूरी है।”

            मेरे मन में गहरी उदासी छा गई, पर यह पहली बार नहीं था जब मेरा मन टूटा था। बचपन से ही लड़का-लड़की का फर्क हमारे घर में खुलकर देखा जाता था। मैंने यह भेदभाव बहुत करीब से देखा और महसूस किया। जैसे-जैसे मैं बड़ी होती गई, मुझे समझ आने लगा कि मेरे परिवार में यह असमानता कितनी गहरी जड़ें जमा चुकी थी।

              एक घटना तो मुझे हमेशा याद रहेगी। जब मैं पैदा हुई थी, उस समय मेरे एक चाचा की शादी भी थी। मम्मी ने उनकी शादी के सारे कामकाज अपनी डिलीवरी से पहले तक खुद संभाले थे। उन्होंने बिना किसी शिकायत के पूरे परिवार का साथ दिया था। लेकिन जैसे ही मैं पैदा हुई और घरवालों को पता चला कि लड़की हुई है, मम्मी को आराम करने का भी पूरा मौका नहीं दिया गया। उन्हें जल्द ही फिर से काम में जुटने के लिए कहा गया। यह दर्दनाक हकीकत मैंने तब भी नहीं समझी थी, लेकिन बड़े होते-होते मुझे एहसास हुआ कि मम्मी को किस तरह हर दिन समझौते करने पड़ते थे।

               हमारे घर में एक अनोखी परंपरा थी—अगर घर में लड़का पैदा होता, तो पूरे गाँव में ढोल-नगाड़े बजाए जाते, मिठाइयाँ बाँटी जातीं, और खुशी का ऐसा माहौल होता, जैसे घर में कोई देवता अवतरित हुआ हो। पर जब कोई लड़की पैदा होती, तो यह खबर धीरे से, बिना किसी उल्लास के, परिवार के कानों में फुसफुसाकर दी जाती। एक-दो बधाइयाँ तो ज़रूर मिलतीं, लेकिन उनका उत्साह बहुत ही कम होता। कोई ढोल नहीं बजते, कोई मिठाइयाँ नहीं बँटतीं। जैसे लड़की का जन्म एक साधारण घटना भर हो, कोई खास उपलब्धि नहीं।

                 मुझे यह फर्क बचपन से ही खटकता था, लेकिन मैंने कभी इसे चुनौती देने की हिम्मत नहीं की। शायद इसलिए क्योंकि मेरे मन में एक डर था, एक असहायता का भाव जो मुझे हर दिन दबाता चला गया। पापा की बातों से, उनकी प्राथमिकताओं से यह साफ हो गया था कि लड़का होना अधिक महत्वपूर्ण था। यही कारण था कि जब भाई की कोचिंग की बात आई, तो उसे मेरे कोचिंग से ज्यादा जरूरी समझा गया।

                  लेकिन मेरे अंदर धीरे-धीरे एक जिद्द पनप रही थी। मैंने ठान लिया था कि भले ही मुझे किसी भी तरह की मदद न मिले, मैं अपनी पढ़ाई पूरी करके दिखाऊँगी। मैंने मन ही मन खुद को तैयार कर लिया था कि चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, मैं हार नहीं मानूंगी।

               मैंने खुद से पढ़ाई शुरू की। किताबों में डूब गई। दिन-रात एक कर दिया। हर मुश्किल सवाल को हल करने के लिए मैं अपने सारे प्रयास झोंक देती। गाँव में जब लड़कियाँ घर के काम में डूबी होतीं, मैं किताबों में डूबी रहती। कई बार थकान से आँखें बोझिल हो जातीं, लेकिन मैं खुद को रोकने नहीं देती।

               इस बीच, मम्मी ने भी मेरी मेहनत को देखा। वो भले ही कभी खुलकर मेरे सपनों का समर्थन नहीं कर पाईं, लेकिन उन्होंने मेरी मदद के लिए छोटे-छोटे काम अपने ऊपर ले लिए। अब वे सुबह जल्दी उठकर कुछ काम खुद कर देतीं, ताकि मुझे थोड़ा समय मिल सके। उन्होंने मुझसे कभी कुछ नहीं कहा, लेकिन उनके इस छोटे से कदम ने मेरे दिल को छू लिया था।

              गाँव में हमारे परिवार की पहचान हमेशा से खेती और पारंपरिक कामकाज तक सीमित रही थी। लेकिन मैं इस परंपरा को तोड़ना चाहती थी। मैं एक दिन कुछ बनकर दिखाना चाहती थी, ताकि इस लड़का-लड़की के फर्क को हमेशा के लिए मिटा सकूं। मेरे मन में एक सपना था, और उस सपने को सच करने के लिए मैं पूरी मेहनत और लगन से जुटी रही।

               आखिरकार, वो दिन भी आया जब मेरे दसवीं के परीक्षा परिणाम घोषित हुए। मैंने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया था। मेरे अंक पूरे गाँव में चर्चा का विषय बन गए। यहाँ तक कि उन लोगों ने भी मेरी तारीफ की, जिन्होंने हमेशा से लड़का-लड़की में फर्क किया था। पापा के चेहरे पर गर्व की चमक थी, और मम्मी की आँखों में राहत के आँसू। यह मेरी जिंदगी का सबसे खूबसूरत पल था। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि अपने सपनों के लिए लड़ी गई हर लड़ाई वाकई में मायने रखती है।

                   और शायद, उस दिन पहली बार मुझे लगा कि मैं सिर्फ एक लड़की नहीं, बल्कि इस परिवार की एक महत्वपूर्ण सदस्य हूँ, जिसे अब किसी के अनुमोदन की जरूरत नहीं है।

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