
निर्मल वर्मा एक महान साहित्यकार
निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल 1929 को शिमला में हुआ था। दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कालेज से इतिहास में एम ए करने के बाद कुछ दिनों तक उन्होंने अध्यापन किया। इन्हें वर्ष 1949 से 1972 तक यूरोप में प्रवास करने का अवसर मिला था और इस दौरान उन्होंने लगभग समूचे यूरोप की यात्रा करके वहाँ की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों का नजदीक से परिचय प्राप्त किया था। 1959 से प्राग (चेकोस्लोवाकिया) के प्राच्य विद्या संस्थान में सात वर्ष तक रहे। उसके बाद लंदन में रहते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया के लिये सांस्कृतिक रिपोर्टिंग की। 1972 में स्वदेश लौटे। 1977 में आयोवा विश्व विद्यालय (अमरीका) के इंटरनेशनल राइटर्स प्रोग्राम में हिस्सेदारी की। उनकी कहानी माया दर्पण पर फिल्म बनी जिसे 1973 का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी फिल्म का पुरस्कार प्राप्त हुआ। वे इंडियन इंस्टीटयूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ (शिमला) के फेलो रहे (1973) और मिथक-चेतना पर कार्य किया। निराला सृजनपीठ भोपाल (1981-83) और यशपाल सृजनपीठ, शिमला (1989) के अध्यक्ष रहे । फेफड़े की बीमारी से जूझने के बाद 76 वर्ष की अवस्था में 26 अक्तूबर, 2005 को दिल्ली में उनका निधन हो गया।

अपनी गंभीर, भावपूर्ण भरी कहानियों के लिए जाने-जाने वाले निर्मल वर्मा को आधुनिक हिंदी कहानी के सबसे प्रतिष्ठित नामों में गिना जाता रहा है, उनके लेखन की शैली सबसे अलग और पूरी तरह निजी थी। निर्मल वर्मा के लेखन में व्यक्ति अपने या दूसरे के साथ के संबंधों को टटोलता हुआ दिखाई पड़ता है। व्यक्ति के स्वयं के साथ के संबंध में कुछ न कुछ ऐसा अवश्य होता है जिसमें ‘जो है’ और ‘हो जाने की चाह’ है के बीच एक दूरी होती है। ‘हो जाने की चाह’ के बीच ‘होने की मजबूरी’ और उसकी अनिवार्यता निर्मल वर्मा लेखन में प्रमुखता से स्थान पाती है। निर्मल वर्मा के लेखन में व्यक्ति के भीतर दूसरे के साथ जुड़ने की उत्कट चाह देखी जा सकती है। दूसरों के साथ जुड़ने की उत्कट तत्परता होते हुए भी व्यक्ति अपने भीतर दूसरों से कटा, सूखा और अतृप्त दिखाई देता है। एक ओर व्यक्ति की आस है, दूसरी ओर उसकी नियति है—इन दोनों के बीच व्यक्ति का जो जीवन है— निर्मल वर्मा का लेखन, उसी को दर्ज करता है और इसे निर्मल वर्मा जादुई भाषा में दर्ज करते हैं।


उनके लेखन में उनकी भाषा की उपस्थिति बहुत महत्त्वपूर्ण है। शायद ही कोई ऐसा पाठक होगा, जिसे निर्मल वर्मा के साहित्य को पढ़ते हुए हिंदी गद्य साहित्य की भाषा के बदले हुए मिजाज़ के प्रति ध्यान नहीं गया हो। शब्द वही हैं, जो अन्य रचनाकारों की रचनाओं में भी पाए जाते हैं, लेकिन निर्मल वर्मा के हाथों में पड़कर वही शब्द बहुत नाजुक, धुले हुए और पवित्र नज़र आते हैं- पारदर्शी, काँच के बने हुए, इतने नाजुक कि छूते ही टूट जाएँ; इतने साफ़, इतने उज्ज्वल कि छूते ही मैले हो जाएँ! निर्मल वर्मा की भाषा में ही कोमलता नहीं है, बल्कि रचना के पूरे विन्यास में भी वही कोमलता है। बल्कि कहना यह चाहिए कि रचनाओं में बिखरी हुई जो कोमलता है, इस वजह से भाषा और भी कोमल हो जाती है। ऐसा इसलिए भी होता है क्योंकि वहाँ वह संवेदना है जो बहुत कोमल है। ऐसा नहीं है कि निर्मल वर्मा किसी छुई-मुई संवेदनाओं के लेखक हैं जो पहला प्रेम जैसे रोमानी भावों को अपने लेखन का विषय बनाते हों; बल्कि उनके लेखन में उन मूल भावों को उकेरा जाता है, जो जीवन से लेकर मृत्यु तक को अपने में समेटे रहते हैं। वे संवेदनाएं जो जीवन के मूल में हैं—घर, प्रेम, रिश्ते, जीवन और मृत्यु की कश-म-कश, संबंधों की समझ, व्यक्ति की नियति — ऐसे कुछ विषय हैं जो निर्मल वर्मा के लेखन के केन्द्र में हैं। वे अपनी रचनाओं में जीवन को पूरी संश्लिष्टता से उकेरते हैं।

निर्मल वर्मा को भारत में साहित्य का शीर्ष सम्मान ज्ञानपीठ 1999 में दिया गया।’वे दिन’, ‘लाल टीन की छत’, ‘रात का रिपोर्टर’, ‘एक चिथड़ा सुख’, और ‘अंतिम अरण्य’ उनके बहुचर्चित उपन्यास हैं। उनका अंतिम उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ में 2000 प्रकाशित हुआ था। उनकी पचास के लगभग कहानियाँ कई संग्रहों में प्रकाशित हुई हैं, जिनमें ‘परिंदे’, ‘जलती झाड़ी’, ‘बीच बहस में’, ‘कौवे और काला पानी’, ‘’आदि प्रमुख हैं। ‘चीड़ों पर चाँदनी’, ‘हर बारिश में’ और ‘धुंध से उठती धुन’ उनके यात्रा वृतांत हैं जिन्होंने लेखन की इस विधा को नए मायने दिए हैं। उनका निबंध साहित्य, जिसमें उन्होंने साहित्य एवं संस्कृति विषयक गहन चिंतन किया है— भी अमूल्य देन है। निर्मल वर्मा को सन 2002 में भारत सरकार द्वारा साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।
अपने निधन के समय निर्मल वर्मा भारत सरकार द्वारा औपचारिक रूप से नोबेल पुरस्कार के लिए नामित थे।
प्रस्तुति – नवीन कुमार नीरज