
(प्रस्तावना – अनीता वर्मा; प्रस्तुति – प्रो.किरण खन्ना, अमृतसर; डॉ. चरनजीत सिंह, दिल्ली; डॉ रमा पूर्णिमा शर्मा, टोक्यो, जापान; डॉ.पूर्णिमा, अमृतसर, पंजाब; परमजीत कुमार, हनुमानगढ़, राजस्थान; डॉ ऋतु शर्मा (नंनन पांडे), नीदरलैंड; डॉ. अतुला भास्कर, एस. एन. कालेज, अमृतसर; डॉ० सरोज बाला, डी.ए.वी. कॉलेज, बटाला; नीता त्रिपाठी “परिणीता”, दिल्ली; अनिता सुरभि, चंडीगढ़ एवं डॉ सीमा अरोड़ा, डीएवी कॉलेज, फिरोजपुर कैंट की रचनाएं सम्मिलित)
प्रस्तावना
अनीता वर्मा

“वे जट्टा आई विसाखी“
पूस और चैत की लम्बी रातों में अलाव जलाकर रातों को किस्सागोई करना, इंतजार करना फसलों के तैयार होने का और फिर बैसाख का आना- किसान उल्लास से भर जाता है। ढोल, भांगड़ा, गिददा ,बोलियाँ और लोक गीतों के बीच गेहूँ की बालियों की सुगंध से भरपूर ये पर्व आम जनमानस के भीतर आशा की किरण बन कर आता है।
विसाखी या बैसाखी वो पर्व है जो घर में अन्न व धन की समृद्धि से हर्षित होता हुआ किसान सामूहिक रूप से मनाता है; वहीं दूसरी तरफ़ गुरु गोबिंद सिंह जी के खालसा पंथ की स्थापना को भी विशेष रूप से याद करता है। बुल्ले शाह की एक लोक प्रसिद्ध सूक्ति जो गुरू गोविन्द सिंह के प्रति सम्मान व्यक्त करती है-
ना कहूँ जब की, ना कहूँ तब की,
बात कहूँ मैं अब की,
अगर ना होते गुरु गोबिंद सिंह,
सुन्नत होती सभ की।
बैसाखी से एक दिन पहले ही लोक गीत गूँजने लगते हैं-
अम्मियाँ ते बूटियाँ ते आ गया नूर नी
रूत ए मिलापां वाली चन्न मेरा दूर वे
या फिर-
तेरे खेतां दी रखवाली हुण मैं नहियों बैंणा ।
जिस किसी के घर में बच्चा पैदा होता है बैसाखी पर उसको नए कपड़े (चोला) पहनाये जाते हैं और फिर गुलाब के फूल से उसे जल (अमृत) चखाया जाता है, जो प्रतीक है खालसा पंथ का जब गुरु गोबिंद सिंह जी ने अमृत चखा कर (पाँच प्यारे) खालसा पंथ की स्थापना की थी।
बैसाखी के ऐतिहासिक संदर्भ की बात करें तो जलियाँवाला कांड की विभीषिका को भी याद किया जाता है। लोक गीतों में जनरल डायर को गालियाँ दी जाती हैं।
हमारा आज का विशेष पृष्ठ भी इसी तरह की मिश्रित भावों वाली मिली-जुली रचनाओं से सजा है। उम्मीद करती हूँ कि आप का स्नेह सबको मिलेगा।

प्रस्तुति
प्रो.किरण खन्ना, डीएवी कॉलेज, अमृतसर

करो एक और नरसंहार
(भारत माता और जनरल डायर की भेंट)
गद्य गीत
कौन? चीरता धारदार सन्नाटे करे
उभरा मां भारती का व्यथित स्वर;
भ…भा…भारती म्…म….मैं…. डायर!
जनरल डायर? विस्फारित नयनों में….उभरा आक्रोश ..
क्यों आये हो आज
बीत चले 104 वर्ष
रिसते हुए मेरे घावों को;
नासूर बन चुके अब मेरे जखम,
कुरेदने आए हो उन्हें?
या देने घाव नए?
गर्क हो जाओ डायर…हत्यारे….
फुफकारी गरजी सिंहनी भारती।
“भारती… मुझे माफ कर दो!
क्षमा कर दो.. मेरे गुनाह को,
मैं भटक रहा वर्षों से …
नहीं सो सका सौ सालो से…l
कोंचती है मुझे…
नोचती है मुझे लाशें….
चीखें …चीत्कारें….सिसकिंयां…. रूदन…. आहे… बद्दुआएं!
वो बेकसूर मासूम रुकती सांसों
डूबती पुतलियों की नफरत
आख़री दम तक घूरती मुझे निर्दोष आंखे..
बाग में फैले चिथड़े…. खून… मांस के लोथड़े..
कुंए में समाती रूहे…
वो पवित्र निर्दोष रूहे..
मंडराती हैं मेरे आस पास… सर्द-जर्द..
ताकती है अपलक मुझे,
घेरती हैं घूरती है,
परन्तु ………मरने नहीं देती…
भागने नहीं देती… सोने नहीं देती…
नहीं आने देती सकून मेरी रूह को…
भारती… मैं अपराधबोध से खण्डित हूँ…. थक गया हूं…
मरना चाहता हूँ… मुक्ति चाहिए मुझे..”
हाथ जोड़े थर थर…कांप रहा
मरने को आतुर… जनरल डायर।
“माफ़ कर दो मुझे भारती….
सदगति दे दो.. मोक्ष दिला दो…
मैं अभी तक बंद हूँ यहीं,
जल्लियां वाला बाग़ में!
यह निर्दोष रूहें मुझे बाहर निकलने नहीं देती..
जकड़े हुए हैं मेरे काल को!..
‘भारती’.. दया कर…. पांव पकड़ता हूं तेरे
क्षमा याचना करता… दिन.. निशि दिन तड़पता ..गिड़गिड़ाता …
मुझे मुक्त करवा दो ..मेरे ज़मीर की कैद से… ज़िल्लत से…
मैं….मैं….मैं…. तेरा अपराधी..
तेरे बच्चों का हत्यारा…
मुआफी के लायक नहीं मैं दरिन्दा..पर
भारती… पर …मुझे माफ़ कर दो…!!!!!?
“सुन डायर … सुन…” श्मशान घाट की नीरवता को तोड़ती आवाज आयी,
देख दशा डायर की ऐसी… भारत माता पास आयी।
तिरस्कृत भाव… आग उगलता स्वर
“मोक्ष चाहता है तू??” मिलेगा..
माफी चाहता है तू? – दूंगी..
कर दूंगी माफ़ मैं खून तुम्हें..
मेरे बेकसूर निहत्थे बच्चों का;
पर !!!!”
“पर!!! पर क्या भारती? बोलो। कहो भारत मां ??”
एक आस जगी.. स्वर में डायर के।
“मैं तुम्हारा अपराधी…
तेरे बच्चों का क़ातिल…
तेरे कदमों में नतमस्तक
…मानूंगा आदेश तुम्हारा,
मोक्ष दिला दे मुझ को बस,
संत्रास सहा नहीं जाए
मरना चाहूँ… इसी बाग में ..तब मन मुक्ति पाए।”
“डायर… तू तो था ही अलग कौम का।
तूने मुझे ठगा.. लूटा… बेचा… रौंदा
मुझे मेरे भगत सिंह, करतार, शेखर, उधम, सराभा ने सहेजा..
खुद पी गये शहादतों के जाम.. झूल गए फांसी
पर..पर..मुझ पर आंच न आने दी ..और आज .. आज ..
मेरा सौदा कर रहे मेरे ही अपने..!!
कुछ ..तथाकथित रखवाले,
दलाल…. भेडिए…. नालायक… नशेड़ी… बाजीगर..
कहने को मेरे अपने.. ..
लोकतंत्र की आड़ में बिछाते हैं बिसातें
और चलते है चालें
मोहरे बना कर सुरा-सुन्दरी के,
दण्ड-भेद के, आटे-दाल के।
जीतते हैं खरीदते हैं सत्ताएं..
आतंक, बारूद से, नोट से,
खरीदे वोट से!!
कुपात्र बने प्रतिनिधि..
आते हैं, सत्ता के गलियारों में
बनाते है कानून।.. अपनी सुविधा से..
करते हैं तैनात प्रहरी अन्धे-बहरे-निर्वस्त्र-निरस्त्र!
बेचते हैं मुझे, करते हैं जलील
रौंदते है अधखिली कोंपल,
श्रमी को करते दंडित
मजबूर करते..फंदा गले में डाल
लटक जाने को ..
या कीटनाशक पी कर
कर्जा मुक्त हो जाने को।
ला बिठाते हैं मेरी छाती पर
रक्त पिपासू नर पिशाचों को,
जो पहचाने जाते हैं मेरे नाम से और.. और
मैं उन्हें बिल्कुल भी नहीं जानती…
.. नहीं पहचानती।
मेरे नाम के पहचान क्रमांक
जेब में डाल
वह दरिन्दे सानते है मेरी ही जमीन
मेरे अपनों के खून से
और पैशाचिक अट्टहास कर छुप जाते हैं..
अपने निर्वाचित आकाओं के,
तहखानों में.. बनियानो में,..सदनो में।
जा, डायर जा …जाकर कर एक और नर संहार..
मैं आदेश देती हूँ
नहीं नहीं
प्रार्थना करती हूँ
डायर ..!
दे आदेश… करवा एक बार फिर फायरिंग…
डायर।
न कौरव रहें न पांडव।
अब न हो रोजाना महाभारत।
दिला मुझे भी मोक्ष.. फिर…
हम दोनों चलेंगे तृप्त…. मोक्ष के द्वार ..
‘डायर मैं बख्श दुंगी
तुम्हे वो नरसंहार ..
यह नरसंहार!!!
हम दोनों चलेंगे तृप्त….
मोक्ष के द्वार ..
*****

डॉ. चरनजीत सिंह

‘बैसाखी‘ के त्यौहार का विलक्षण इतिहास
“बैसाखी” नाम ‘विसाख‘ से बना है, इस त्यौहार को ‘वैसाखी’ या ‘वसाखी‘ के नाम से भी पुकारा जाता है। “बैसाखी” का त्यौहार मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा राज्य में तथा आस-पास के प्रदेशों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। वास्तव में यह त्यौहार सिख-समुदाय के नव-वर्ष और फसल-उत्सव की शुरूआत का प्रतीक माना जाता है। यह त्यौहार मुख्य रूप से हर वर्ष 13 या 14 अप्रैल को मनाया जाता है।
किसान और उनके परिवार के सदस्य बैसाखी का आगमन, सर्दियों की रबी फसल के पकने और उसकी कटाई तथा नये साल के आरंभ की खुशी में नाच-गा कर मनाते हैं। इस दिन किसान भगवान का धन्यवाद ज्ञापित करने के लिए गुरुद्वारों, मंदिरों में जाते हैं। पंजाब, हरियाणा के लोग अपने-अपने रीति-रिवाज़ों के अनुसार भांगड़ा और गिधा डालते हुए खुशियाँ मनाते हैं।
बैसाखी के दिन ही 13 अप्रैल 1699 को सिखों के दसवें गुरू श्री गुरू गोबिंद सिंह जी ने एक अविस्मरणीय व अद्भुत कौतुक रचाया। इसी दिन आनंदपुर साहिब में विभिन्न स्थानों से आए हज़ारों श्रद्धालुओं का एकत्र करके गुरू साहिब जी ने स्टेज पर आकर अपने हाथों में नंगी तलवार लहराते हुए एकाएक एक शीश की मांग कर दी। यह सुन कर पहले तो संगत रूप में एकत्रित श्रद्धालुओं में गुरू जी का ऐसा रौद्र रूप देख कर व उनकी ऐसी मांग को सुन कर भगदड़ मच गई। परंतु श्रद्धालुओं में से एक सिख गुरू जी के समक्ष आन खड़ा हुआ और बड़ी नम्रता से नत-मस्तक होकर अपना शीश गुरू जी को अर्पण करने के लिए हाज़िर हो गया।
इसी तरह गुरू जी के आह्वान पर एक-एक करके पाँच श्रद्धालु (लाहौर निवासी दया राम, सहारनपुर से आए धर्म दास, जगन्न नाथ के रहने वाले हिम्मत राय, द्वारका से आए मोहकम चंद और बिदर निवासी साहिब चंद) अपना शीश अर्पण करने के लिए हाज़िर हो गए।
गुरू जी इन पाँचों श्रद्धालुओं को एक-एक करके स्टेज के पीछे लगी कनात के भीतर ले गए। कनात के अंदर से लहु की धार बहती दिखाई देने लगी।
ये पाँचों मरजीवड़े गुरू जी द्वारा ली गई प्रतिज्ञा में ख़रे उतरे। गुरू जी ने इन पाँचों श्रद्धालुओं को पाँच प्यारों के रूप में परिचित करवाया। इन पाँचों प्यारों को खंडे-बाटे का अमृत पान करवाया और आप भी इन पाँचों प्यारों से अमृत की पहुल लेकर एक नये पंथ “ख़ालसा पंथ” की स्थापना कर दी।
गुरू जी ने इन पाँचों प्यारों को इस नये पंथ में सदा बने रहने के लिए कुछ निर्देश दिए। यथा अपने नाम के साथ सदैव ‘सिंह‘ और स्त्रियों को ‘कौर‘ लगाने और दाढ़ी के बालों को खंडन न करने, केशों में कंघा रखने, आत्म-रक्षा हेतू ‘कृपाण‘ धारण करने, शारीरिक संयम के लिए सदैव ‘कछहिरा‘ धारण करने और हाथों में सरब-लोहे का कड़ा पहनने के निर्देश दिए।
गुरू जी ने 4 कुरहितें न करने की कड़ी हिदायतें भी दीं। जिसमे पर-स्त्री गमन, हलाल मांस का सेवन न करने, तंबाकूयुक्त पदार्थों व नशीले पदार्थो का प्रयोग न करने, केशों व शारीरिक रोमों को पतित न करने की शर्तों को मानने के निर्देश दिए।
इस घटना के बाद गुरू गोबिंद ‘राय‘ से गुरू गोबिंद ‘सिंह‘ कहलाए। इस प्रकार यह दिन ख़ास यादगार दिवस बन गया।
बैसाखी वाले दिन गुरूद्वारों में भव्य शब्द-कीर्तन, विशाल लंगर व प्रसाद आदि का आयोजन किया जाता है।
ख़ालसा पंथ का सृजन करने के पीछे गुरू गोबिंद सिंह जी का मुख्य उद्देश्य समाज के दबे-कुचले लोगों के मनोबल को ऊँचा उठाने साथ ही मुगलों के दमन का निर्भयता से सामना करने व आम लोगों को मुगलों के अत्याचार से मुक्त करा के उनके जीवन को धार्मिक, सामाजिक व नैतिक मूल्यों को बढ़ा कर उनका जीवन श्रेष्ठ बनाना था।
इस त्यौहार के साथ जुड़ी महाभारत काल की पौराणिक कथा भी प्रचलित हैं। कहा जाता है कि बैसाखी वाले दिन जब पांडव अपने बनवास काल के समय पंजाब के कटराज ताल पर पहुँचे और प्यास बुझाने के लिए सरोवर से पानी पीने के लिए झुके तो सरोवर में उपस्थित यक्ष ने उनसे पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने को कहा। परंतु चारों भाईयों ने यक्ष की बात को न मान कर पानी पी लिया और पानी पीते ही मृतक हो गए। भाईयों को पानी पीकर वापिस न आते देखा तो युधिष्ठिर उस सरोवर के पास पहुँचे तो वहाँ अपने भाईयों की दशा देख कर विचलित हो गए। तभी यक्ष ने भी उनसे भी वही सवाल दोहराए, मगर युधिष्ठिर ने बड़ी समझदारी से यक्ष के सभी प्रश्नों का उत्तर देकर अपने भाईयों के प्राण वापिस मांग कर अपने भाईयों के भी प्राण-दान देने को कहा। यक्ष ने युधिष्ठिर की बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर उन्हें जीवन-दान दे दिया।
तभी से इस पवित्र नदी के किनारे हर वर्ष विशाल मेला लगता है तथा जुलूस भी निकाला जाता है।
यह त्यौहार सिखों और हिंदुओं दोनों के लिए महत्व रखता है। भारतीय उपमहाद्वीप, पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया में यह त्यौहार महात्मा बुद्ध के जन्म-दिन के रूप में ‘बौध-वैशाख या बैसाक‘ के रूप में मनाया जाता है। भारत के अन्य क्षेत्रों में यह त्यौहार ‘पोहेला’ ‘बोहाग’, ‘बिहु’ , केरल में ‘विशु‘ बंगाल में ‘नब-वर्षा‘ तामिलनाडु में ‘पुथंडू‘ आदि नाम से मनाया जाता है।
यह दिन व्यापारियों के लिए भी बड़ा महत्वपूर्ण है। कई व्यापारी इस दिन नए वस्त्र धारण करके अपने नए बही-खातों का आरंभ करते हैं।
कई स्थानों पर इसी दिन देवी दुर्गा और भगवान शंकर की पूजा की जाती है।
यह त्यौहार मात्र भारत ही में नहीं बल्कि पाकिस्तान, अमरीका, कैनेडा, युनाईटेड किंगडम, मलेशिया व अन्य अनेक देशों में भी बड़ी श्रद्धा, उल्लास व धूमधाम से मनाया जाता है।
“बैसाखी” का त्यौहार आपसी भाईचारे, एकता, अखंडता व सौहार्द्रता का प्रतीक है। दरअसल “बैसाखी” एक लोक-त्यौहार है। बैसाखी का पर्व मानवीय संबंधों को मजबूत करने का त्यौहार है।
डॉ रमा पूर्णिमा शर्मा, टोक्यो, जापान

बैसाखी और हनामी एक तुलनात्मक विश्लेषण
वैसाखी, जिसे बैसाखी भी कहा जाता है, भारत के प्रमुख त्योहारों में से एक है। यह त्योहार मुख्य रूप से पंजाब और हरियाणा में मनाया जाता है, लेकिन देश के अन्य हिस्सों में भी इसकी विशेष महत्ता है। यह पर्व हर साल 13 या 14 अप्रैल को मनाया जाता है और यह कृषि से जुड़ी एक फसल कटाई का उत्सव है। वैसाखी का पर्व न केवल कृषि से संबंधित है, बल्कि यह सिख धर्म का एक महत्वपूर्ण पर्व भी है।
पंजाब के किसान इस दिन अपनी नई फसल का उत्सव मनाते हैं। यह उन दिनों की याद दिलाता है जब खेती की अच्छी फसल के कारण किसान खुश होते थे।
इसके अलावा, वैसाखी का एक और ऐतिहासिक महत्व है। 1699 में, गुरु गोबिंद सिंह जी ने इसी दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी। यह दिन सिख धर्म के अनुयायियों के लिए विशेष महत्व रखता है, क्योंकि इस दिन गुरु जी ने सिखों को संगठित करने का कार्य किया। खालसा पंथ की स्थापना ने सिख समुदाय को एक नई पहचान दी और इसे एक सशक्त धर्म के रूप में स्थापित किया।
आज के समय में, वैसाखी केवल भारत में ही नहीं, बल्कि विश्व के अन्य हिस्सों में भी मनाया जाता है। विशेष रूप से, जहाँ सिख समुदाय की बड़ी संख्या है, जैसे कि कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, आदि। वहाँ भी इस पर्व को धूमधाम से मनाया जाता है।
जापान में बैसाखी के समान एक त्योहार है, जिसे “हनामी” (Hanami) कहा जाता है। हनामी का मतलब है “फूलों को देखना,” और यह विशेष रूप से चेरी के फूलों (सकुरा) के खिलने के समय मनाया जाता है। यह त्योहार वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है, जब चेरी के पेड़ खिलते हैं। लोग पार्कों में इकट्ठा होकर इन खूबसूरत फूलों का आनंद लेते हैं।
हनामी एक पुरानी परंपरा है, जो जापानी संस्कृति का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह लोगों को प्रकृति और जीवन के चक्र की सुंदरता को याद दिलाता है।
तुलनाः-
हनामी (Hanami) और बैसाखी (Baisakhi) दो महत्वपूर्ण त्योहार हैं, जो जापान और भारत की अनूठी सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। हनामी वसंत ऋतु का उत्सव है, जो चेरी के फूलों के खिलने के समय मनाया जाता है, जबकि बैसाखी एक कृषि उत्सव है जो फसल कटाई के साथ जुड़ा हुआ है।
1. त्योहार का समय और मौसम
हनामी:
समय: हनामी का पर्व आमतौर पर मार्च के अंत से अप्रैल के शुरुआत तक मनाया जाता है। यह समय चेरी के फूलों के खिलने का होता है, जब पूरे जापान में पेड़ गुलाबी रंग से ढक जाते हैं।
मौसम: यह वसंत ऋतु का संकेत है, जब ठंड की कड़ाके से राहत मिलती है और प्रकृति फिर से जीवन में लौट आती है।
बैसाखी:
समय: बैसाखी हर साल 13 या 14 अप्रैल को मनाया जाता है। यह समय फसल की कटाई का होता है, विशेष रूप से पंजाब में गेहूँ की फसल के लिए।
मौसम: यह पर्व गर्मियों की शुरुआत का प्रतीक है, जब किसान अपनी मेहनत के फल का आनंद लेते हैं।
2. धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
हनामी:
धार्मिक महत्व: हनामी का धार्मिक महत्व कम है, लेकिन यह जापानी संस्कृति में गहराई से बसा हुआ है। यह प्रकृति की सुंदरता और जीवन के चक्र को मनाने का अवसर है।
सांस्कृतिक महत्व: हनामी जापानी लोगों के लिए पारंपरिक मूल्यों का प्रतीक है, जिसमें परिवार, दोस्ती और सामूहिकता शामिल हैं। यह त्योहार प्रकृति के प्रति सम्मान और प्रेम को दर्शाता है।
बैसाखी:
धार्मिक महत्व: बैसाखी का पर्व सिख धर्म में विशेष महत्व रखता है। इस दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना की। यह दिन सिखों के लिए बलिदान, एकता और अनुशासन का प्रतीक है।
सांस्कृतिक महत्व: बैसाखी भारतीय संस्कृति की विविधता और समृद्धि का प्रतीक है। यह पर्व कृषि और ग्रामीण जीवन के महत्व को उजागर करता है।
3. समारोह और परंपराएँ
हनामी:
समारोह: हनामी के दौरान लोग चेरी के पेड़ों के नीचे इकट्ठा होते हैं, जहाँ वे पिकनिक मनाते हैं। यह एक सामाजिक उत्सव है जहाँ परिवार और दोस्त एक साथ मिलकर समय बिताते हैं।
पारंपरिक खाद्य पदार्थ: लोग पारंपरिक जापानी खाद्य पदार्थ जैसे चावल, नूडल्स, और मिठाइयाँ ले जाते हैं। यह समय दोस्तों के साथ मिलकर खाने का और आनंद लेने का होता है।
संस्कृति: हनामी के दौरान लोग पारंपरिक कपड़े पहनते हैं और कुछ लोग किमोनो पहनकर आते हैं, जो जापानी संस्कृति की पहचान है।
बैसाखी:
समारोह: बैसाखी पर लोग अपने घरों को सजाते हैं और विशेष पकवान तैयार करते हैं। लोग अपने गाँवों में एकत्रित होते हैं और मिलकर त्योहार मनाते हैं।
पारंपरिक नृत्य और संगीत: बैसाखी पर भांगड़ा और गिद्दा जैसे पारंपरिक नृत्य होते हैं। ये नृत्य खुशी और उत्साह का प्रतीक हैं।
धार्मिक समारोह: लोग गुरुद्वारों में जाकर अरदास करते हैं और लंगर का आयोजन करते हैं, जहाँ सभी धर्मों के लोग एक साथ बैठकर खाना खाते हैं।
4. सामाजिक पहलू
हनामी:
सामाजिक एकता: हनामी एक सामाजिक समारोह है, जो लोगों को प्रकृति के प्रति जागरूकता और प्रेम का अनुभव कराता है। यह परिवार और दोस्तों के बीच संबंधों को मजबूत करता है।
सामुदायिकता: यह त्योहार सामुदायिकता की भावना को बढ़ावा देता है, जहाँ लोग एक-दूसरे के साथ मिलकर खुशियाँ मनाते हैं।
बैसाखी:
भाईचारे का प्रतीक: बैसाखी का पर्व विभिन्न समुदायों के बीच भाईचारे और मेलजोल को बढ़ावा देता है। यह एकता का प्रतीक है, जहाँ लोग अपने मतभेद भुलाकर एक साथ आते हैं।
सामाजिक कार्यक्रम: इस दिन विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं, जो लोगों को एकत्रित करने और सामूहिकता की भावना को बढ़ावा देने का कार्य करते हैं।
5. वैश्विक प्रभाव
हनामी:
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता: हनामी केवल जापान में ही नहीं, बल्कि विश्व के अन्य हिस्सों में भी मनाया जाता है, खासकर उन स्थानों पर जहाँ जापानी समुदाय मौजूद है। यह जापानी संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है।
पर्यटन: हनामी के दौरान जापान में पर्यटकों की संख्या में वृद्धि होती है, क्योंकि लोग इस समय चेरी के फूलों की सुंदरता देखने आते हैं।
बैसाखी:
वैश्विक पहचान: बैसाखी का पर्व भी विदेशों में, विशेषकर कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन में, मनाया जाता है। यह भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसे विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
सिख समुदाय का योगदान: विदेशों में बसे सिख समुदाय के लोग इस दिन बड़े उत्साह के साथ बैसाखी मनाते हैं, जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान मजबूत होती है।
6. विशेष पकवान और खाद्य पदार्थ
हनामी:
पारंपरिक व्यंजन: हनामी के दौरान लोग विभिन्न जापानी व्यंजन जैसे चावल, नूडल्स, और मिठाइयाँ लाते हैं। इसके अलावा, कुछ लोग खास तौर पर हनामी के लिए तैयार की गई टोकाकु (टोकाकु) जैसी पारंपरिक मिठाइयाँ भी लाते हैं।
बैसाखी:
पारंपरिक खाद्य पदार्थ: बैसाखी पर विशेष पकवानों का महत्व है, जैसे:
सरसों का साग: यह पंजाब का प्रसिद्ध व्यंजन है, जो खासतौर पर मक्के की रोटी के साथ परोसा जाता है।
गुड़ और चने: बैसाखी पर गुड़ और चने का सेवन करना शुभ माना जाता है।
फुल्के और दही: ये भी इस दिन के खास व्यंजन हैं।
निष्कर्ष
हनामी और बैसाखी दोनों ही त्योहार अपनी-अपनी संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। हनामी जापान की प्रकृति प्रेम और जीवन के चक्र का प्रतीक है, जबकि बैसाखी पंजाबी संस्कृति की कृषि आधारित खुशियों और सिख धर्म के मूल्यों को दर्शाता है।
दोनों पर्व सामाजिक एकता, परिवार और दोस्तों के साथ समय बिताने का अवसर प्रदान करते हैं। यह दोनों त्यौहारों से हमें यह शिक्षा मिलती है कि कैसे हमें प्रकृति और एक-दूसरे के साथ जुड़कर जीवन का आनंद लेना चाहिए।
हनामी और बैसाखी के बीच के समानताएँ और भिन्नताएँ हमें विभिन्न संस्कृतियों की समृद्धि और विविधता का अनुभव कराती हैं, और यह दर्शाती हैं कि कैसे अलग-अलग संस्कृतियाँ अपने-अपने ढंग से जीवन के सुख और खुशियों का जश्न मनाती हैं।
डॉ.पूर्णिमा, अमृतसर, पंजाब

वैशाखी की पावन बेला
वैशाखी की पावन बेला, मन में प्यार जगाती है।
नफरत छोड़ो मिलकर बैठो, मन तकरार मिटाती है।।
फसलें ऊँची प्यारी लगती, खेतों में हरियाली है;
कृषकों के जीवन में आई, देखो आज दीवाली है;
अन्न देवता के कारण ही, जगती हर घर बाती है।
युग द्रष्टा युग स्रष्टा गुरु ने, खालस पंथ सजाया था;
पावन धाम आनन्दपुर में ही, अमृत पान कराया था;
गुरु मर्यादा गुरु सिक्खी यह, सबके मन को भाती है।।
खूनी साका जलियाँवाला, देखा मन अकुलाया था;
उजड़ गया था बाग सुनहरा, फूल-फूल मुरझाया था;
वीर शहीदों की कुर्बानी, हमको याद दिलाती है।।
सुख-वैभव खुशहाली आए, धन-दौलत सौगात मिले;
नील गगन में दिखे “पूर्णिमा”, सोने जैसी रात खिले;
श्रम उद्यम से किस्मत चमके, वैशाखी बतलाती है।।
परमजीत कुमार, हनुमानगढ़, राजस्थान

उमंग और उल्लास का प्रतीक उत्सव है बैसाखी
फसलां दी मुक गयी राखी
ओ! जट्टा आयी बैसाखी
बैसाखी पंजाब के वासियों के प्रमुख और आकर्षक त्योहारों में से एक है जो भारत में, विशेषकर पंजाब और हरियाणा में मनाया जाता है। इसे वैसाखी के नाम से भी जाना जाता है और यह हर साल अप्रैल में पड़ता है। यह त्योहार फसल के मौसम के आगमन का स्वागत करने के लिए समर्पित है। साथ ही, यह उत्सव पंजाबी समुदाय के लिए नए साल का प्रतीक है। इसके अलावा, यह पाकिस्तान में भी मनाया जाता है क्योंकि भारत के विभाजन के बाद कई सिख वहां रह रहे हैं। लंदन,,वैंकूवर, कनाडा, जर्मनी, मॉरीशस, लॉस एंजिल्स, यूनाइटेड किंगडम और मैनहट्टन इत्यादि जैसे देश भी इस त्योहार के गवाह बनते हैं क्योंकि विशाल पंजाबी समुदाय वहां स्थायी रूप से रहता है। लोग इसे बेहद खुशी और उत्साह के साथ मनाते हैं।
बैसाखी त्यौहार का इतिहास
त्योहार की कहानी नौवें सिख गुरु, गुरु तेग बहादुर की शहादत से शुरू होती है, जिनका औरंगजेब ने सार्वजनिक रूप से सिर काट दिया था। उस समय मुगल शासन का बोलबाला था और उनकी भारत में इस्लाम फैलाने और सभी को मुसलमान बनाने की दुष्ट योजना थी। गुरु तेग बहादुर इसे बर्दाश्त नहीं कर सके और हिंदुओं और सिखों के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए औरंगजेब के आदेश मानने से इंकार कर दियाl
औरंगजेब गुरु जी के साहस से क्रोधित हो गया और उसने उन्हें खतरा घोषित कर दिया। इसलिए तत्कालीन परिवेश में डर पैदा करने के लिए उनकी निर्मम हत्या कर दीl गुरु तेग बहादुर की मृत्यु के बाद, गुरु गोबिंद सिंह उनके अगले गुरु बने। 1699 में, बैसाखी के अवसर पर, उन्होंने सिख समुदाय को सैनिक संतों के एक परिवार में बदल दिया, जिन्हें खालसा पंथ के नाम से जाना जाता था। वह आनंदपुर साहिब में हजारों की उपस्थिति में खालसा पंथ की स्थापना करने वाले अग्रणी थे।
उत्सव के दौरान, उन्होंने एक तंबू लगाया था और उसमें से तलवार लेकर निकले और किसी भी सिख को तंबू में प्रवेश करने के लिए चुनौती दी, जो अपने जीवन का बलिदान करने के लिए तैयार था। वह इस क्रिया को तब तक दोहराता रहा जब तक कि पाँच व्यक्ति स्वेच्छा से तम्बू में गायब नहीं हो गए। भीड़ में मौजूद लोग यह जानने को उत्सुक और चिंतित थे कि उन लोगों का क्या हुआ। तभी अचानक उन्होंने देखा कि पाँच आदमी गुरु के साथ पगड़ी पहने हुए लौट रहे हैं। गुरु ने इन लोगों को खालसा में बपतिस्मा दिया। बाद में इन पांचों को ‘पंज प्यारे’ कहा जाने लगा l
गुरु ग्रंथ साहिब और बैसाखी
गुरु ग्रंथ साहिब जी सिख धर्म का केंद्रीय धार्मिक ग्रंथ है, जिसका पालन दुनिया भर के सिख करते हैं। पवित्र पुस्तक को ईश्वर की स्तुति में लिखे गए भजनों के रूप में व्यवस्थित किया गया है, जो गुरुओं की शिक्षाओं और जीवन जीने के सही तरीके का वर्णन करते हैं।
बैसाखी के दिन पवित्र ग्रंथ (गुरु ग्रंथ साहिब) पर पानी छिड़का जाता है और उसके सामने पंज प्यारे की बलि का नाटक किया जाता है। सड़कों पर लंबे जुलूस के बाद, पुस्तक को वापस उसके सिंहासन पर रखा जाता है और महान गुरुओं की शिक्षाओं का स्मरण किया जाता है। लोग भगवान की स्तुति में गाए जाने वाले संगीतमय छंद (जिसे नगर कीर्तन कहा जाता है) सुनते हैं। सभी को सामुदायिक भोजन (लोकप्रिय रूप से लंगर के रूप में जाना जाता है) परोसा जाता है। यह भोजन अत्यंत स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन होता है तो, हर कोई इसका आनंद ले सकता है। इसे साधारण भाषा में प्रसाद कहा जाता है। रसोई, बर्तन, शरीर और मन की सफाई अत्यंत महत्वपूर्ण है। गपशप करना सख्त वर्जित है और भोजन तैयार करने वाले व्यक्ति गुरबानी जपजी साहिब का पाठ करते रहते हैं।
यह लगभग सभी गुरुद्वारों में 24 घंटे की निःशुल्क सेवा है और कोई भी इसे प्राप्त कर सकता है। स्वर्ण मंदिर की सामुदायिक रसोई में प्रतिदिन औसतन 100,000 श्रद्धालु या पर्यटक लंगर खाते हैं लेकिन विशेष अवसरों पर यह संख्या लगभग दोगुनी हो जाती है। समाज के भक्त और श्रद्धालू समुदाय द्वारा धार्मिक स्थलों में लंगर और प्रसाद का सामान दान किया जाता है।
इस दिन अमृतसर का स्वर्ण मंदिर खूब अच्छी तरह से सजाया जाता है। भारतीय संस्कृति की वास्तविक छटा इसके उत्सव और जश्न को देखने के लिए विश्व से पर्यटक पंजाब आते हैं। जहां भारत के उत्तरी राज्य इसे बैसाखी के रूप में मनाते हैं, वहीं दक्षिणी राज्य इसे तमिलनाडु में पुथंडु और केरल में विशु के रूप में मनाते हैं। इस महीने में असम के लोग प्रसिद्ध बिहू नृत्य करते हैं। यह त्यौहार प्रसिद्ध वाक्यांश ‘अनेकता में एकता’ के प्रमाण के रूप में कार्य करता है। तो, दोस्तो, मैं यह निष्कर्ष निकालना चाहूंगा कि हमारे त्योहारों को मनाते समय हमारा दिल अत्यधिक खुशी और गर्व से भरना चाहिए क्योंकि ये भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की पहचान हैं।
डॉ ऋतु शर्मा (नंनन पांडे), नीदरलैंड

बैसाखी
आई बैसाखी, आई बैसाखी
ख़ुशियाँ संग लाई बैसाखी
हरे-पीले बिखरे रंग से सजी धरती
खेतों में कनक सी फसल लहराती
ख़ुशी का रंग चढ़ा है ऐसा
पूरा पिंड लगता मेले के जैसा
कहीं बजते ढोल और ताशे
कहीं भांगड़ा कहीं तमाशे
मन मलंग हो गया हो जैसा
जट्टी की है टोर निराली
लाल कुर्ती परान्दी काली
जूती पहन तिल्ले वाली
गिद्दा डाल रही हो कर मतवाली
नाचों गाओ ख़ुशियाँ मनाओ
बैसाखी में बैर सारे मन के भुलाओ
एक-दूसरे को गले लगा कर
जीवन की बगिया महकाओ।
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डॉ. अतुला भास्कर, एस. एन. कालेज, अमृतसर

पंजाब का सांस्कृतिक पर्व: वैसाखी
संस्कृति एक क्षेत्र विशेष में रहने वाले लोगों की विचारधारा, रीति -रिवाज, पर्व-त्योहार और उत्सव का संशलिष्ट रूप होती है। क्षेत्र विशेष की संस्कृति तद्परिस्तिथियों में बसे लोगों की संवेदनाओं का प्रतिरूप होती है। संस्कृति एकांतता में नहीं अपितु परस्पर अभिव्यक्ति के माध्यम से पोषित होती है। जिस वृक्ष की जड़े जितनी गहन और सुदृढ़ होती हैं। वह वृक्ष उतना ही मजबूत होता है। इसी तरह जिस राष्ट्र की संस्कृति जितनी प्राचीन और दृढ़ होती है, वह राष्ट्र उतना ही सबल होता है। त्योहार और पर्व प्रसन्नता और खुशहाली लाते हैं जो जीवन में नई ऊर्जा का संचार करते हैं।
पंजाब का महत्वपूर्ण त्योहार है–वैसाखी। सूर्य 12 राशियों की परिक्रमा करके इस दिन पुनः मेष राशि में आता है। वैसाखी का संबंध पंजाब की संस्कृति से अत्यंत प्रगाढ़ है। सिक्खों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने सन् 1699 में वैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की थी। गुरु जी के आह्वान पर धर्म की रक्षा के लिए पंज प्यारे अपना सिर कटवाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए थे। जिन्हें गुरु जी ने अमृत पान करवाया था। पंज प्यारे ही सम्पूर्ण सिख समाज का सामूहिक प्रतिनिधित्व करते हैं। पंजाबी नववर्ष वैसाखी के दिन से शुरू होता है।
विशाखा नक्षत्र पूर्णिमा में होने के कारण इस माह को वैसाख कहते हैं। इसे वैशाखी,विसाखी,बैशाखी और वैसाखी आदि नामों से पुकारा जाता है। प्रकृति से भी वैसाखी का गहरा संबंध है। मौसम बदलने की शुरुआत भी यहीं से होती है। सर्दी की समाप्ति और गर्मी का आगमन होता है। किसान अपनी गाढ़ी मेहनत से तैयार गेहूं की लहलहाती फसल को आशावान दृष्टि से निहारता है। इसी दिन से रबी की फसल कटाई भी शुरू की जाती है।
वैसाखी के दिन विशेष चहल – पहल होती है। कई स्थानों पर मेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। मंदिरों और गुरुद्वारों में नतमस्तक होकर लोग मंगलकामना करते हैं। नगर कीर्तन और शोभायात्राएं निकाली जाती हैं। इस पर्व को मीठे पकवानों का सेवन कर अत्यंत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। गिद्दा भागंड़ा लोकनृत्य का प्रदर्शन जश्न की खुशी में चार चांद लगा देता है।
इस पर्व को मनाते हुए एक टीस हर पंजाबी के मन को सालती है। अत्यंत दुखदायी दुर्घटना वैसाखी वाले दिन सन् 1919 में अमृतसर के जलियाँवाला बाग में घटित हुई। जनरल डायर ने रौलेट एक्ट का विरोध कर रहे निहत्थे अपार जनसमूह पर गोलियों की वर्षा की थी। इस दिन अमर शहीदों को भावभीनी श्रद्धांजलि भी अर्पित की जाती है।
डॉ० सरोज बाला, डी.ए.वी. कॉलेज, बटाला

’’वैशाखी पंजाब की समृद्ध सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत का उत्सव’’
एकता, भाईचारे और सौहार्द का प्रतीक वैसाखी का त्योहार पंजाब प्रांत में प्रत्येक वर्ष 13 अप्रैल को पूर्ण हर्षोल्लास से मनाया जाता है। इस त्योहार का साहित्यिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व है। वैसाखी को पंजाब में वैसाखी, बंगाल में पोइला, बिहार में सत्तूआन, तमिलनाडू में पुथांडु, केरल में विशु और असम में बिहू के नाम से जाना जाता है। पंजाब में यह त्योहार कृषि उत्सव, नव वर्ष की शुरूआत के रूप में और ’’खालसा पंथ की स्थापना’’ को स्मरण करते हुए मनाया जाता है।
इस दिन किसानों की मेहनत रंग लाती है उनके द्वारा बोयी गई गेहूँ की फसल की कटाई के आरम्भ की खुशी उनमें देखने को मिलती है। वह ईश्वर के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते है कि उनकी फसल बिना किसी आपदा के तैयार हो गई और किसान खुश होकर कह उठता है-
’’देख, जट्टा आई वैसाखी,
अब खत्म हुई फसलांदी राखी’’
इस दिन पंजाब के विभिन्न गुरुद्वारों को सजाया जाता है, अमृतसर शहर के स्वर्ण मंदिर में श्रद्धालु दूर-दूर से नतमस्तक होने आते हैं। स्थान-स्थान पर मेले लगाए जाते हैं जो भारत की ’अनेकता में एकता’ को दर्शाते हैं।
13 अप्रैल 1699 को वैसाखी के दिन दशम् पातिशाहि संत सिपाही गुरु गोबिन्द सिंह ने ’खालसा पंथ’ की स्थापना कर लोगों को वीरता, शुद्धता, नैतिकता परहित एवं सेवा भाव से जीवन जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने पहले पाँच प्यारो-भाई दयाराम, भाई धर्मदास, भाई हिम्मत राय, भाई साहिब चन्द और भाई मोहकम चन्द को अमृत पान करवाकर ’सिंह’ बनाया और तत्पश्चात् उन पांचों से स्वयं अमृत छका। इसी संदर्भ में कहा जाता है-
’’वाह वाह गुरु गोविंद सिंह, आपे गुरु चेला’’
गुरु गोविन्द सिंह जी ने पाँच सिंहों को ’अकाल पुरख की फौज’ कहकर सम्बोधित किया। ’खालसा पंथ’ की स्थापना का मूल उद्देश्य अन्याय, अत्याचार और उत्पीड़न के विरूद्ध लड़ना और समाज का परोपकार करना है। आज भी वैसाखी के अवसर पर लोग ’आनन्दपुर साहिब’ माथा टेककर गुरु जी के पदचिह्नों पर चलने का भरसक प्रयास करते हैं और अमृत पान कर ’सिंह’ बनते हैं।
वैसाखी का त्योहार हमें हमारी भारतीय संस्कृति की उच्च एवं कीर्तिमान स्थापित करने वाले शहीदों का स्मरण करवाता है। जलियाँवाला बाग का वह खूँखार दृश्य अभी भी वह कुआँ भुला नहीं पाया है जहाँ पर अनेक भारतीयों ने छलाँग लगाकर अपने-आप को बचाने के लिए अपने प्राण गवाँ दिए थे। उस कुएँ की लालिमा उन अनेक सूर्य रूपी शूरवीरों की ओर संकेत करती हुई कहती है कि हमारे भारत का अतीत गौरवमय है जहाँ ऐसे सपूतों ने जन्म लिया जिन्हें मरने का कोई ख़ौफ़ नहीं था। 13 अप्रैल 1919 को हुए जलियाँवाला बाग के हत्याकांड को भी भुलाया नहीं जा सकता जिसमें असंख्य निर्दोष जवानों, बुजुर्गो एवं बच्चों ने अपनी मातृभूमि भारत को स्वतन्त्र करवाने और अंग्रेज़ी शासक के अत्याचार के विरोध में की जा रही शान्तमय समूह वार्ता में अपने प्राण गंवा दिए। उन निहत्थों को क्या पता था कि जर्नल डायर उनका काल बनकर उन निहत्थों पर गोलियों का सतत् आघात कर देगा और हज़ारों की गिनती में लोग अपनी जान गवाँ बैठेंगे। उन शहीदों की मौत ने ही सुप्त भारतवासियों के अंदर स्वतंत्र होने की ललक पैदा की और हम आज़ाद भारत में स्वतन्त्र रूप से सांस लेने के काबिल हुए।
हिन्दी जगत् की प्रसिद्ध लेखिका सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता ’जलियां वाला बाग में बसंत’ में इसी शोक और स्मृति के भाव है जिसमें कवयित्री जलियां वाला बाग के हत्याकांड की यादों को दुख से व्यक्त करती हुई कहती है कि-
यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते,
काले-काले मोर, भ्रमर का भ्रम उपजाते,
कलियों भी अधखिली, मिली कंटक-कुल से,
वे पौधे पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे।
अंत में यह कहना होगा कि पंजाब प्रांत पावन पर्वो, तीज-त्योहारों की भूमि है जहाँ पर भारतीय संस्कृति, साहित्य, आध्यात्म ने अपनी ऊँचाइयों से पूरे भारत का गौरव बढ़ाया है। यहाँ पर मनाया जाने वाला प्रत्येक पर्व हमें हमारी स्वर्णिम जीवन-मूल्यों रूपी विरासत से जोड़कर हमें यह सिखाता है कि हम ’आर्य’ हैं और हमारे कर्म सद्कर्म होने चाहिए जो हमें भोग से योग, स्वार्थ से निःस्वार्थ, स्व से पर की ओर अग्रसर करें तथा जिससे मानवता का कल्याण हो।
नीता त्रिपाठी “परिणीता”

बैसाखी
बैसाखी खुशियों का त्यौहार
धरती ने किया सोलह श्रृंगार,
बैसाखी खुशियों का त्यौहार,
सुख, शांति, आनंद से भरकर,
पंजाबी नव वर्ष मनाएं,
गिद्दा-भांगड़ा, ढोल बजाकर,
फसलें काटें घर में लाएं।
सिखों के गुरु गोविंद सिंह ने,
इस दिन खालसा पंथ बनाया,
त्याग, तपस्या, देशभक्ति का,
सबको शुभ सन्मार्ग दिखाया।
अपने गुरु गोविंद के प्रति,
जन-जन सादर शीश झुकाएं,
हृदयों में पर सेवा भरकर,
परहित सेवा करने जुट जाएं।
अनिता सुरभि, चंडीगढ़

वैशाखी
वैशाख के पहले दिन
पतंग सा तिकोन
बनाते हुए हरे पहाड़ पर
झुके नीले आसमान
के बीच से गुज़रते हुए
सूर्य देव
अपने सात घोड़ों के
रथ पर सवार हो
मीन राशि से विदा ले
पूर्व दिशा की
मेष राशि में भ्रमण
करने को चल पड़े हैं।
मुस्कराती नदी,
लय में उड़ते बगुले,
पहाड के पार से
आती गुनगुनाती हवा,
और सब कुछ को
ढंकती-अनावृत करती
धूप के साथ
पतंग उड़ाने की
तैयारी में व्यस्त है-
झड़ते पत्तों के संग
चटकते मन को सँवार
पुल पर खड़ी सुबह
ताँबे सी किरणों को
अपनी हथेलियों में भर
गुड़ और कुमकुम के जल से
सूर्य को अर्घ्य दे रही है।
भांगड़ा और गिद्दा
करते बादल
अपने द्वार पर आई
वैशाखी की
इन्द्र धनुष सी पतंगों को
आते हुए देख खुश हो रहें हैं।
डॉ सीमा अरोड़ा, डीएवी कॉलेज, फिरोजपुर कैंट

वैसाखी
वैसाखी धरती मां के मातृत्व का त्योहार है
हर तरफ छाई हुई मदमस्त फसले बहार है
बैसाखी की धूम, पंजाब में छाई है,
मौसम आया है फसल की कटाई है
सूरज की किरणें
स्वर्ण सी सोने की तरह चमकती हैं,
वैसाखी की खुशियाँ
किसान के परिवार के चेहरे पर दमकती हैंl
गुरुद्वारों में, मंदिरों में, प्रार्थनाओं की है धूम
लंगर की सेवा के लिए है होड़
गुरु कृपा पाने को संगत निहाल है,
भंगड़े और गिद्धे की मच रही धमाल है।
वैसाखी की शुभकामनाएँ, हर किसी को मुबारक है
पंजाब की संस्कृति का वैसाखी करती प्रतिनिधित्व है
वैसाखी का त्योहार, हमें करता एकजुट है,
पंजाब की संस्कृति, हमें करती गौरवान्वित है।
वैसाखी की खुशियाँ, हर दिल में हैं बसी,
वैसाखी का त्योहार, हमें देता खुशियाँ अपार।