
नटराज

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय
आदरणीया शोभासिंह जी ने कुबेरजी के चिंतन को केंद्र में रखकर अध्ययनपरक तथा गंभीर चिंतनपरक टिप्पणी की है। उन्हें साधुवाद।उनकी विस्तृत टिप्पणी पर अपना मत मैं प्रस्तुत पृथक पोस्ट से उसके विस्तार को देखते हुए कर रहा हूं।
यह अत्यंत विस्तीर्ण विषय है तथा मैंने नटराज को केंद्र में रखकर उसके शिल्पगत,दार्शनिक,कला इतिहासपरक तथा धार्मिक परिप्रेक्ष्य को लेकर एक सुदीर्घ मोनोग्राफ अंग्रेज़ी में कोलंबो में डॉक्टर आनंदकुमार स्वामी पर हुई सेमिनार के लिए लिखा था जिसमें कुबेरनाथ राय रचनावली के संपादन के दौरान नई सामग्री के प्रकाश में विचार करते हुए मैंने कुबेरनाथ राय रचनावली की भूमिका में स्थिति स्पष्ट की है।वह संक्षिप्त है लेकिन अद्यतन है।मेरा मोनोग्राफ भी उपलब्ध है।मैं उसका हिंदी अनुवाद कर रहा हूं ताकि नटराज की अवधारणा का परिप्रेक्ष्य हिंदी में समग्रता में और सामने आ सके।मैं निम्न बिंदुओं को शोभाजी की टिप्पणी के सन्दर्भ में स्पष्ट कर रहा हूं।
1- कुबेरनाथ राय हमारी परंपरा के बिरले, मौलिक चिंतक हैं और न केवल “कामधेनु” के निबंधों में अपितु उनकी अन्य कृतियों में भी उन्होंने हमारे धार्मिक प्रतीकों में निहित अवधारणा को स्पष्ट किया है।कामधेनु के तमाम निबंध जो प्रबंध कोटि के हैं वे हमारी अवधारणाओं का आख्यान हैं इनमें कामधेनु” श्री तत्व: लोक और वेद में” तथा “सिरी देवताऔर निशाचर पक्षी” से लेकर,”मायाबीज” तथा “शेषशायी” तक शामिल हैं। कामधेनु के निबंध हमारे दर्शन की शिल्प भित्ति पर भारतीयता का अनूठा वृत्त रचते हैं।वे अपनी भूमिका में कहते भी हैं”इस संग्रह का नटराज निबंध लिखने की प्रेरणा प्राप्त हुई सर आनंद कुमार स्वामी की इस उक्ति को पढ़कर कि भारतीय मूर्तिशिल्प में शताब्दियों की साधना के फलस्वरूप दो बिंब विकसित किए गए हैं।एक है अस्ति(Being) का द्योतक”ध्यानी बुद्ध”और दूसरा है”भवति”(becoming) का द्योतक नटराज”
2- वे नटराज को भारत का पर्याय मानते हैं ,कहते हैं,नटराज स्वयं साक्षात हिंदुस्तान है जिसका प्राचीन नाम था “अजनाभ वर्ष” और “जंबू द्वीप’ तथा नया संवैधानिक नाम है “भारत” .
3- आपका यह कहना एक बड़ी सीमा तक ठीक है कि नटराज का देवी की अवधारणा के अनुसार अपार आख्यान है तथा उसे डिकोड पूरी तरह से नहीं किया जा सका।लेकिन मैं यहां विशेष रूप से स्पष्ट करूं कि कला इतिहासकारों ने यह कार्य बड़ी गहनता के साथ किया है।प्रख्यात विदुषी डॉक्टर स्टैमला क्रेमरिश ने वर्ष 1981 में एक प्रदर्शनी इसी विषय पर की थी “Manifestations of Shiva” जिसमें उन्होंने नटराज के विभिन्न पक्षों पर विस्तार से लिखा था।उन्होंने मूर्तिशिल्पों के आधार पर नटराज के धार्मिक,आध्यात्मिक और शिल्पकेंद्रित पक्षों से लेकर उनके कालस्वरूप और हिंदुत्व की निर्मिति में इस शिल्प की भूमिका को लेकर लिखा था।तब से अभी तक नटराज के इस शिल्प पर बहुत विचार हुआ है तथा हाल ही में प्रोफेसर शारदा श्रीनिवासन ने हमें विशद सूचनाएं दी हैं।उन्होंने अपनी शोध में , पल्लव,चोल, चालुक्य, पांड्य और नायक काल से लेकर मराठा काल तक की उन १३० शिव प्रतिमाओं का गहरा परीक्षण किया जो देश के संग्रहालयों के अतिरिक्त विक्टोरिया एंड अल्बर्ट संग्रहालय लंदन सहित ब्रिटिश संग्रहालय तथा अन्य विदेशी संग्रहालयों में संरक्षित हैं।उन्होंने १८लक्षणों के आधार पर उनका परीक्षण कर निष्कर्ष निकाले हैं।अपने शोधपत्र में उन्होंने विस्तार से इनका उल्लेख किया है।अपने लन्दन के अध्ययन प्रवास में मैने जो नटराज शिल्प देखे उन पर मैंने पृथक टिप्पणी भी की है.
4 – प्रख्यात फ्रेंच शिल्पी रौदां(Rodin)ने अपने निबंध” La Dance de Siva”में नटराज की परिकल्पना पर विस्तार से प्रकाश डाला है।अपने पेरिस प्रवास में मुझे उनके संग्रहालय में नटराज के अदभुत शिल्प देखने को मिले तथा वहां के निदेशक ने विमर्श में उनकी अवधारणा से अवगत कराया।उन्होंने बताया कि पश्चातवर्ती आधुनिक कला के संदर्भ में वे कैसे प्रासंगिक हैं?
निश्चय ही न केवल कला अपितु विज्ञान के लिए भी नटराज प्रेरणा हैं।स्विट्जरलैंड के जिनेवा में भौतिक शास्त्र की सर्न स्थित परमाणु केन्द्रित प्रयोगशाला के परिसर में नटराज की सबसे विशाल मूर्ति स्थापित है तथा वैज्ञानिकों का तर्क है कि यह आस्था तथा विज्ञान के मेल का प्रतीक है।इस संबंध में आदरणीय संतोष तिवारी जी ने भी केपरा की शोध का संदर्भ दिया है जो बहुत महत्वपूर्ण है।
मेरे मत में कला इतिहासकारों की दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में विशेष रूप से हिंदी में इस पर विचार होना चाहिए।डॉक्टर ओ. सी. गांगुली से लेकर डॉक्टर विद्या दहेजिया जैसे भारतीय कला इतिहासकारों ने इस शिल्प पर विचार किया है जो अंग्रेज़ी में हैं।कुबेरजी ऐसे बिरले चिंतक हैं जिन्होंने नटराज के आरंभिक शिल्पों का उल्लेख करते हुए नटराज की अवधारणा पर प्रकाश डाला है।अंतरानुशासिक दृष्टि से इस शिल्प पर अभी हिंदी में विमर्श होना शेष है।
5- ‘डांस ऑफ शिवा’ का अनुवाद आदरणीय मुन्नलाल डाकोत जी ने हिंदी में स्तरीय और संदर्भ सहित किया है।इसके पूर्व राजकमल प्रकाशन से पूर्व में ‘डांस ऑफ शिवा’ का हिंदी में अनुवाद किए जाने की सूचना है। और भी हैं. डाकोत जी से इस संबंध में मेरी चर्चा होती रही है।
6- हिंदी में नटराज पर तथा शिव की अवधारणा पर बहुत लिखा गया है लेकिन कुबेरजी के “नटराज” से कोई भी तुलनीय नहीं।वे अप्रतिम हैं।
यहां स्विट्जरलैंड में स्थापित उस विशाल नटराज प्रतिमा की छवि प्रस्तुत है जो वहां की सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रयोगशाला के परिसर में स्थापित है तथा जिसे भारत सरकार ने भेंट स्वरूप प्रदान किया है।इसके अतिरिक्त कुछ अन्य प्राचीन और अर्वाचीन शिल्प की छवियाँ भी प्रस्तुत हैं…



