पूर्व-राग : एक पाठक की नोटबुक

राकेश कुमार मिश्र

हिंदी के वरिष्ठ कथाकार-गद्यकार जयशंकर जी की नई किताब पूर्व-राग : एक पाठक की नोटबुक (2025) को पढ़ते हुए लगा कि अपने भीतर के उथल-पुथल को लगातार दर्ज़ करना कितना ज़रूरी है। इस डायरी से गुज़रते हुए हवा और पानी जैसी भाषा से सामना हुआ । यह इल्हाम भी हुआ कि भाषा सिर्फ सम्मोहन नहीं है। भाषा कोई जादू और करतब भी नहीं है । भाषा अपने मूल रूप में ख़ुद को दर्ज़ करने की जगह है। तमाम आवरण को उतार फेंक ख़ुद को देखने का अवसर है। “लेखकों के लेखक” निर्मल वर्मा के बेहद करीब रहे जयशंकर जी ने अपनी डायरी में भाषा को इसी तरह से इस्तमाल किया है। मेरी दिलचस्पी शुरू से उन लेखकों में रही है, जो हिंदी विभागों की उपज नहीं हैं, या जो हिंदी पट्टी की ‘गुरु वंदना’ परंपरा से नहीं आते। जयशंकर जी की जड़ें दक्षिण भारत से जाकर जुड़ती हैं। उन्होंने हिंदी ‘सीखा’ है। हिंदी पट्टी के किसी युवा की तरह वो इस भ्रम में कभी नहीं रहे की वो इस भाषा के ‘ज्ञाता’ हैं। उनकी भाषा में जो ठहराव और सुकून सहज ही तैरता है, उसके पीछे उनका इस भाषा को सीखने और सहेजने की इच्छा ही शायद अंतस में कहीं काम कर रहा हो।

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