

उपसंहार

राकेश मिश्र
काशीनाथ सिंह हिन्दी साहित्य के एक प्रमुख लेखक और कवि हैं। उनका लेखन मुख्यतः सामाजिक यथार्थ, बनारस की संस्कृति और आम जनजीवन पर केंद्रित रहा है। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में अपना मोर्चा, काशी का अस्सी, रेहन पर रग्घू, याद हो कि न याद हो, और उपसंहार शामिल हैं। उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए हैं।
उपसंहार एक ऐसी कथा है जो कृष्ण को हमारे सामने एक विरक्त राजा और उदास मनुष्य के रूप में प्रस्तुत करती है। यह कहानी उस समय की है जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका है। नारायणी सेना लौट रही है, और कृष्ण भी। लेकिन यह वापसी विजय की नहीं, विषाद की है।
तट पर एक घायल घुड़सवार पड़ा है, जिसे मछुआरे पहचानते हैं कि वह नारायणी सेना का नायक है। उसे नगर में लाया जाता है, और लोग जानना चाहते हैं कि युद्ध में क्या हुआ। वह कुछ बड़बड़ा रहा है। उसकी मूर्छा टूटती है, लेकिन जो शब्द निकलते हैं, वे डरावने हैं। कोई स्पष्टता नहीं, बस एक भारी सन्नाटा।
द्वारका कृष्ण के स्वागत की तैयारी में है, लेकिन उत्सव में उत्साह नहीं, एक बेचैनी है। कृष्ण आते हैं, वैभव के साथ, लेकिन चेहरे पर मुस्कान नहीं है। वे थके हुए हैं, लेकिन रुकते नहीं। घायल सैनिकों की देखभाल में लगे हैं, पशुओं के घावों पर मरहम लगा रहे हैं। महल जाने से इनकार करते हैं।
मंजुल काका आते हैं , गोकुल के वही काका जो उनके लिए खिलौने बनाते थे। कृष्ण को “लल्ला” कहकर पुकारते हैं, और कृष्ण का मन भर आता है। वे कहते हैं, “मैं तंग आ गया हूँ वासुदेव, केशव, जनार्दन सुनते-सुनते।”
आगे के प्रसंग में ,भीड़ अब भी तट पर खड़ी है, अपने उन प्रियजनों की प्रतीक्षा में जो कभी नहीं आएंगे। यह सब देखकर कृष्ण दारुक से पूछते हैं, “मेरी आँखों में आँसू क्यों नहीं आते?” दारुक कहता है, “भगवान कभी रोते हैं क्या?” और कृष्ण मन ही मन सोचते हैं, “मैं तो बहुत रोता था गोकुल में, अब क्या हो गया है?”
द्वारका की स्थापना की कहानी भी यहाँ है की कैसे मथुरा, वृंदावन, गोकुल के लोग यहाँ आकर बसे। कृष्ण ने सबको समान रूप से संपन्न किया, बिना ऊँच-नीच के। लेकिन अब वे आहत हैं, अपने नागरिकों के दुःख देखकर। एक जगह लिखा है कि महीने भर हो गए हैं और कृष्ण को नींद नहीं आ रही है। कृष्ण योगी हैं , वे जागते-जागते सो सकते हैं और सोते-सोते जाग भी सकते हैं ,लेकिन अब नींद नहीं आती। उन्हें सुख-दुख में समान रहना चाहिए, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है।
गुप्तचर बताते हैं कि द्वारका में रोष है। कई घरों में चूल्हा नहीं जलता। लोग कहते हैं, “हमें उजाड़ कर इन्हें भगवान बनना था।” कृष्ण यह सब सुनते हैं, चुपचाप। आँखें भीग जाती हैं इसे पढ़कर।
एक सभा होती है, जहाँ बलराम और कृष्ण के बीच मतभेद सामने आते हैं। बलराम को जब पता चलता है कि कृष्ण ने कौरवों और पांडवों को विकल्प दिया था कि या तो कृष्ण या उनकी सेना चुन लें ,तो वे क्रोधित हो उठते हैं। गदा ढूँढने लगते हैं, फिर खुद को सँभालते हैं। कहते हैं, “सेना दान-दक्षिणा में दी जाने वाली निजी संपत्ति नहीं होती।” और लगभग रुंधे गले से कहते हैं, “कृष्ण ने वही गलती की है जो युधिष्ठिर ने जुए में की थी।”
कृष्ण की दुविधा को एक कविता में बहुत सुंदर ढंग से व्यक्त किया गया है। एक ओर पांडव, दूसरी ओर नारायणी सेना। दुर्योधन जानबूझकर सेना को आगे करता है। कृष्ण मार भी रहे हैं, मर भी रहे हैं। जब वे भीष्म से उलाहना देते हैं, तो भीष्म कहते हैं, “याद रखो, अगर कृष्ण और नारायणी सेना एक कुल हैं तो कौरव-पांडव भी एक कुल हैं। और अब नारायणी सेना कौरवों की है, तो युद्ध करो।”
कृष्ण बहुत मानवीय लगते हैं जब दारुक उन्हें नहाते देखता है उन्हें पहली बार बिना मुकुट के। उनके बाल अब खिचड़ी हो गए हैं, शिखा की जगह खाली है। समुद्र, जो पहले उनके पाँव पखारने दौड़ता था, अब रौद्र रूप में दहाड़ रहा है।
कृष्ण एक जगह कहते हैं, “हर मनुष्य कुछ क्षणों के लिए किसी का ईश्वर होता है, और ईश्वर मनुष्य का श्रेष्ठतम प्रकाश है, जो तब फूटता है जब वह किसी को कातर, बेबस, प्रताड़ित देखता है। मैं भी था ईश्वर, मेरी अवधि बस थोड़ी लंबी रही होगी।” और यह कहकर वे चल पड़ते हैं, स्वयं को मनुष्य मानकर।
एक और प्रसंग में वे बस मानव नजर आते हैं जब बलराम उन्हें डाँटते हैं ,एक बड़े भाई की तरह और कहते हैं, “तुमने अधर्म की नींव पर धर्म की जर्जर इमारत खड़ी की है।” कृष्ण कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन डरते हैं कि दाऊ फिर बिगड़ न जाए।
एक बहुत कोमल प्रसंग है ,कृष्ण राधा से कब मिले थे यह याद कर रहे हैं।
राधा मथुरा में कृष्ण से मिलने आई है। बहुत हँसी-ठिठोली के बाद दोनों युवा प्रेमी आलिंगन में हैं। लेकिन राधा चाहती है कि उनका प्रेम इन महलों में नहीं, यमुना के कछारों में पल्लवित हो और वह इसके लिए कृष्ण का इंतज़ार करेगी। उन स्मृतियों से बाहर आकर कृष्ण सागर की ओर उदास होकर देखते हैं और कहते हैं, “प्रेमयोग की मेरी प्रथम दीक्षागुरु।”
जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ता है, कृष्ण का नीला वर्ण स्याह हो गया है, दाढ़ी सफेद होकर छाती तक पहुँच गई है। मुस्कान कुरुक्षेत्र में ही छूट गई है। लेकिन चेहरे पर अब भी दीप्ति है। वे देखते हैं कि द्वारका में परस्पर द्वेष बढ़ता जा रहा है, और पुरोहित कहते हैं कि अब द्वारका छोड़ देनी चाहिए।
आगे के अध्यायों में कृष्ण एकांत चाहते हैं, लेकिन कलह से वह भी नहीं मिलता। यादवों के आपसी संघर्ष विनाश की ओर जा रहा है और कृष्ण लाचार हैं। एक दुर्वासा ऋषि का प्रसंग आता है, जिसमें कृष्ण निर्वस्त्र होते हैं, ऐसा लगता है कि वे लाचार और क्रोधित हैं, झुँझलाए हुए। लेकिन यह प्रसंग उपन्यास में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
अंतिम पृष्ठों में कृष्ण दारुक से कहते हैं, “हस्तिनापुर जाओ, अर्जुन से कहो कि स्त्रियों और बच्चों को ले जाए।” और स्वयं वन में तपस्या के लिए निकल जाते हैं। वे एक झरने में नहाते हैं, फिर जल में अपना चेहरा देखते हैं और डर जाते हैं। सिर्फ आँखें बता रही हैं कि वे कृष्ण हैं। वे सोचते हैं, “कौन कहेगा कि यही व्यक्ति कभी ईश्वर था?”
अंत में शाम का समय है। चिड़ियों की चहचहाहट है, गायों की घंटियाँ बज रही हैं। कृष्ण गोकुल, यमुना, राधा को याद करते हैं। सोचते हैं, “अभी भी देर नहीं हुई, राधा से मिलने जाना चाहिए।” तभी एक तीर उनके तलवों को भेदता है। शरीर बैंगनी पड़ने लगता है, साँसें टूट रही हैं। आँखें खोलना चाहते हैं, लेकिन नहीं खोल पाते। कुछ कहना चाहते हैं, लेकिन शब्द नहीं निकलते। फिर आँखें बंद होती हैं, सिर एक ओर लुढ़क जाता है। मुखमंडल शांत है, प्रसन्न है।
पूरे उपन्यास में कृष्ण उदास हैं। वे सोचते हैं की क्या पाया, क्या खोया?
असाधारण उपलब्धियों वाला पुरुषोत्तम कृष्ण, यहाँ बस एक मनुष्य लगता है। यह रचना काशीनाथ जी की श्रेष्ठतम कृतियों में से है, जो युद्ध के बाद की पीड़ा को, ईश्वर के भीतर के मनुष्य को, और मनुष्य के भीतर के ईश्वर को उजागर करती है। युद्ध कितना भी आवश्यक रहा हो, लेकिन समाधान नहीं है।
पाठक को समय लेकर, बहुत धीरे-धीरे इस उपन्यास की यात्रा करनी चाहिए।वैरागी कृष्ण से प्रेम होना निश्चित है।
