विगत शनिवार, 20 सितंबर, 2025 को साहित्य अकादमी और व्यंग्य यात्रा के संयुक्त तत्वावधान में “व्यंग्य का संक्रमण काल” विषय पर एक दिवसीय परिसंवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया। साहित्य अकादमी के सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में देश के जाने माने व्यंग्यकारों और अन्य विधा के वरिष्ठ साहित्यकारों की भागीदारी रही।

प्रस्तुत है इस कार्यक्रम की विस्तृत रपट —

विगत शनिवार, 20 सितंबर, 2025 को साहित्य अकादमी के सभागार में ‘हिंदी व्यंग्य का संक्रमण काल’ विषय पर साहित्य अकादमी और व्यंग्य यात्रा के संयुक्त तत्वावधान में एक दिवसीय परिसंवाद कार्यक्रम का आयोजन किया गया। उद्घाटन सहित चार सत्रों में आयोजित इस परिसंवाद कार्यक्रम में उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और वरिष्ठ साहित्यकार डॉ माधव कौशिक ने की। बीज वक्तव्य दिया डॉ प्रेम जनमेजय ने और स्वागत वक्तव्य साहित्य अकादमी के सचिव के श्रीनिवास राव ने दिया। आरंभ के तीन सत्रों का कुशल संचालन साहित्य अकादमी के उप सचिव और साहित्यकार डॉ देवेन्द्र कुमार देवेश ने और अंतिम सत्र का संचालन युवा व्यंग्यकार रणविजय राव ने किया।

अन्य तीन सत्रों की अध्यक्षता क्रमशः वरिष्ठ साहित्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी, लीलाधर मंडलोई और सुभाष चंदर ने की। इन सत्रों के दौरान अपनी बात रखने वालों में शामिल रहे वरिष्ठ साहित्यकार प्रभात रंजन, राकेश पांडेय, गौतम सान्याल, यशवंत व्यास, संजीव कुमार, गिरीश पंकज, रमेश सैनी और प्रताप सहगल। आलोक पुराणिक, बलराम अग्रवाल, राजेश कुमार, फारुक अफरीदी, अतुल चतुर्वेदी, अलंकार रस्तोगी, कृष्ण कुमार आशू, अर्चना चतुर्वेदी, स्वाति चौधरी, रिंकल शर्मा और रणविजय राव ने अपनी अपनी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया।

विदित हो कि वर्ष 2012 में व्यंग्य विधा पर साहित्य अकादमी, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान और व्यंग्य यात्रा द्वारा व्यंग्य विधा पर केंद्रित दो दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया गया था। उस दौरान व्यंग्य विधा है या नहीं, इस पर चर्चा केंद्रित रही थी लेकिन करीब 13 वर्ष बाद आयोजित इस परिसंवाद कार्यक्रम में व्यंग्य विधा के रूप में स्थापित तो हो गया है, अब क्या लिखा जा रहा है, व्यंग्य का विधान क्या हो, संविधान क्या हो, चर्चा इस बात पर केंद्रित रही।

उद्घाटन सत्र में स्वागत वक्तव्य देते हुए साहित्य अकादमी के सचिव श्री के श्रीनिवास राव ने कहा कि व्यंग्य एक लोकप्रिय साहित्य शैली है। उन्होंने वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि में सूक्ष्म व्यंग्य की उपस्थिति का उल्लेख किया। व्यंग्य का उद्देश्य विसंगतियों पर चोट करना और व्यवस्था की विडंबनाओं पर प्रहार करना है। उन्होंने कबीर, भारतेंदु, बद्रीनाथ चौधरी, बालमुकुंद गुप्त आदि का भी उल्लेख किया। श्री राव ने कहा कि युगीन समस्याओं पर व्यंग्य करने की प्रवृत्ति प्रेमचंद में भी दिखाई देती है। परसाई का व्यंग्य आजाद भारत का सृजनात्मक इतिहास है। उन्होंने कहा कि आज के कार्यक्रम की परिकल्पना इस बात को ध्यान में रख कर की गई कि व्यंग्य विधा में जो लिखा जा रहा है, वह स्तरीय है कि नहीं।

अपने आरंभिक वक्तव्य में डॉ प्रेम जनमेजय ने कहा कि व्यंग्य का जो पौधा सींचा गया है, अब उसे वृक्ष भी बनना है। उन्होंने विश्वनाथ त्रिपाठी, नामवर सिंह जैसे आलोचकों का उल्लेख करते हुए कहा कि वह वट वृक्ष हैं और व्यंग्य के लिए कवच का काम करते हैं। संक्रमण काल में उपेक्षित व्यंग्य को अनेक कवच मिले हैं। कई लोग आसमान में थूकने की प्रतियोगिता कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वह थूक उनके ऊपर ही गिर रहा है। व्यंग्य के संक्रमण काल के बारे में उन्होंने कहा कि धार्मिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवर्तन के कारण परिस्थितियां बदलने लगी हैं, बाजार हावी होने लगा है, विज्ञापन हमारी भाषा बिगाड़ने में लगा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, राजनीति और न्याय प्रोडक्ट बन रहे हैं। परसाई का समय अलग था। अब ए आई की चुनौतियां आ गई हैं, सोशल मीडिया हावी होने लगा है। उन्होंने व्यंग्य लेखन में एआई के हस्तक्षेप के बारे में बोलते हुए कहा कि हमने ए आई से शरद जोशी का व्यंग्य आलेख के बारे में पूछा तो बिलकुल उसी तर्ज पर जैसा कि जोशी जी लिखते थे, ए आई ने उसी तरह का व्यंग्य लिखकर हमारे सामने परोस दिया दिया। इसलिए यह जरूरी है कि संक्रमण काल में इन चुनौतियों के बारे में व्यंग्य पर विमर्श हो। सार्थक व्यंग्य गलत से लड़ने के लिए योद्धा तैयार करता है और विसंगत समय में शब्द विरोध में ही उभरे हैं, इसलिए व्यंग्यकार का दायित्व बढ़ जाता है।

कार्यक्रम के अध्यक्ष डॉ माधव कौशिक ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि अखबारों ने व्यंग्य को स्थापित करने में बड़ा योगदान दिया है। दक्षिण की सारी भाषाओं में व्यंग्य की सशक्त उपस्थिति है। उर्दू अखबारों में भी व्यंग्य है। उर्दू भाषा में कई व्यंग्यकार हुए हैं। उन्होंने कहा कि यदि भाषा में धार देनी है तो व्यंग्य का सहारा लेना ही पड़ेगा। साहित्यकार में विद्रोह का स्वर होता है। यदि वह विद्रोह नहीं करता है तो वह साहित्यकार नहीं है। श्री कौशिक ने कहा कि सबसे बड़ा व्यंग्यकार वह होता है जो चपत तो अपने गाल पर लगता है, पर चोट पूरे समाज पर पड़ता है। उन्होंने ‘मतवाला’ पत्रिका और श्रीलाल शुक्ल के ‘अंगद का पांव’ आदि का भी उल्लेख करते हुए विश्व साहित्य में व्यंग्य की उपस्थिति की भी बात की। उन्होंने कहा कि यहां संक्रमण कम है और संकट अधिक है। साहित्य के लिए सुखद स्थितियां कभी नहीं रहीं। आज के दौर में साहित्य में सबसे ज्यादा निशाने पर व्यंग्यकार ही होते हैं। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि स्थिति विसंगत और विद्रूप होने पर ही व्यंग्य निकलता है और वह अपना प्रभाव छोड़ता है। व्यंग्यकारों का आह्वान करते हुए कहा कि आपका दायित्व यह सुनिश्चित करना है आपने जो लिखा उसे पढ़ा जाए। श्री कौशिक ने कहा कि पहले तो व्यक्ति की भावना आहत होती थी, अब तो समूह की भावनाएं भी आहत हो रही हैं। संक्रमण काल में यह संकट पूर्ण स्थित है जिससे हम सबको पार पाना होगा।

कार्यक्रम का प्रथम सत्र “21वीं सदी की दस्तक – परिदृश्य और चुनौतियां” विषय पर केंद्रित था। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ व्यंग्यकार डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने की। प्रभात रंजन, राकेश पांडेय, गौतम सान्याल और यशवंत व्यास ने विषय केंद्रित अपने-अपने पर्चे पढ़े।

यशवंत व्यास ने ए आई पर चिंता व्यक्त करते हुए अपने वक्तव्य का आरंभ किया और कहा कि जो मोहब्बत में नफा नुकसान देखते हैं, उन्हें परचून की दुकान खोल लेनी चाहिए। ए आई से मौलिकता को कोई खतरा नहीं है। उन्होंने कृष्ण चन्दर के उपन्यास का उल्लेख किया और उसमें दूसरा आदमी का संदर्भ देते हुए मशीन के द्वारा मनुष्यों को मारने और फिर रोबोट में भावनाओं के उदय और फिर मनुष्य की तरह जीने की बात का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि व्यंग्य लिखकर सत्ता को चुनौती देना ही व्यंग्यकार का उद्देश्य होना चाहिए।

डॉ प्रभात रंजन ने कहा कि व्यंग्य विधा पाठकों के कारण ही ऊंचाई पर पहुंची है। उन्होंने मनोहर श्याम जोशी को उद्धृत करते हुए मारक व्यंग्य की चर्चा करते हुए कहा कि हम एक बेशर्म समय में जी रहे हैं और व्यंग्य का काम है कि वह हमें शर्म अनुभव कराए। नए दौर में व्यंग्य के सामने कई चुनौतियां हैं। इस विषय पर अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि चैट जीपीटी से व्यंग्य की चुनौतियों पर सवाल पूछने पर उसने साहित्य में गुणवत्ता की कमी, समाज की बदलती प्राथमिकताएं, प्रिंट मीडिया की जगह डिजिटल माध्यम की सक्रियता, राजनीतिक दबाव एवं सेंसरशिप, मौलिकता की कमी आदि कई कारण बता दिए।

डॉ राकेश पांडेय ने कहा कि रचना का प्रवासी होना महत्वपूर्ण है, न कि रचनाकार का। व्यंग्य झूठ के माध्यम से नहीं रचा जा सकता है, सत्य ही उसका आधार होता है। गिरमिटिया देशों का संदर्भ देते हुए उन्होंने फिजी के राष्ट्रीय कवि कमला प्रसाद का उल्लेख किया जिन्होंने लोकगीतों के माध्यम से व्यंग्य लिखा। प्रवासी साहित्यकारों को भारत में हिंदी के गिरते स्तर की चिंता है। उन्होंने कहा कि प्रवासी साहित्यकारों की तुलना भारत के हिंदी रचनाकारों से करना गलत है।

गौतम सान्याल ने व्यंग्य आलोचना के विषय पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि व्यंग्य मात्र प्रतिघात का माध्यम नहीं है, वह चैतन्य है। वह मेरे लिए विधा है, सुविधा नहीं। व्यंग्य को मैंने सदैव कौंधते हुए पाया है। उन्होंने कहा कि व्यंग्य की आलोचना ही व्यंग्य का केंद्र बिंदु है। श्री सान्याल ने कहा कि साहित्य आंख का रेटिना है और यदि यह गिर जाए तो लेखक अंधा हो जाता है। इसलिए व्यंग्य यथार्थ के धरातल पर चलता है और तभी वह चोट करता है। व्यंग्य वंचितों-शोषितों की बात करता है और सुविधाग्रस्त लोग उसे पढ़कर तिलमिला जाते हैं।

डॉ ज्ञान चतुर्वेदी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि व्यंग्य लेखन में समय की प्रतिबद्धता है। 21वीं सदी की चुनौतियों पर बात रखते हुए उन्होंने कहा कि आज का व्यंग्य वैसा नहीं लिखा जा रहा है, जैसा परसाई के समय में लिखा जा रहा था। समय के अनुसार व्यंग्य में बदलाव आवश्यक है। फेंटेसी से निकलकर एंटी मेटाफर में जाना होगा। व्यंग्यकारों को अपने मुहावरे स्वयं तलाशने होंगे। डॉ ज्ञान ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि व्यंग्यकार को अपनी छाया की गिरफ्त से बाहर आना आवश्यक है। व्यंग्य विधा भागता हुआ खरगोश है जिसे दौड़कर पकड़ना जरूरी है। ‘रोशनी की शिनाख्त’ पुस्तक में अंधेरों की पड़ताल की गई है। अंधेरे चालाक हो गए हैं, वह स्वयं को रोशनी बताते हैं। अंधेरों ने अपने दरवाजे पर रोशनी की नेम प्लेट लगा ली है।

दूसरे सत्र का विषय था – “व्यंग्य का विस्तृत आकाश”। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि साहित्यकार लीलाधर मंडलोई ने की। इस सत्र के वक्ताओं में शामिल रहे डॉ संजीव कुमार, गिरीश पंकज, रमेश सैनी और डॉ प्रताप सहगल।

लीलाधर मंडलोई ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि जो विस्तृत आकाश अपेक्षित थी, वह संक्रमण में डूब गई है। बुद्धि का वैभव और बदलाव की चेतना यदि नहीं होती तो न कबीर होते और न परसाई। जब एक आंख रोती हो और दूसरी हंसती हो तभी व्यंग्य की स्थिति उत्पन्न होती है। ‘अंधेर नगरी चौपट राजा’ आज 21वीं सदी में भी उतना ही सच है और उतनी ही प्रासंगिक है जितनी तब थी। प्रेमचंद की कहानियों में करुणा जनित व्यंग्य देखने को मिलता है। व्यंग्य साहित्य का यदि कोई संविधान होता तो बेहतर होता। संविधान नहीं है इसलिए जिसे जो समझ आता है, लिख लेता है। व्यंग्य का भी संविधान होना चाहिए। जिसमें जितना नैतिक साहस होगा, वह उतना ही प्रभावी व्यंग्यकार होगा। उन्होंने यह भी कहा कि व्यंग्य का यह विस्तृत आकाश मिथक से लेकर आज तक फैला हुआ है, इसलिए आप जो चाहें लिखते रहें। उन्होंने व्यंग्य साहित्य में आलोचना की पंगुता पर हैरत जताई।

डॉ प्रताप सहगल ने कहा कि व्यंग्य नाटक का संक्रमण काल नहीं, बल्कि व्यंग्य नाटक का संकट काल है। व्यंग्य नाटक के प्रारूप को बदलना आसान नहीं है। व्यंग्य का जो बंधान है, वह लेखक की पकड़ से बाहर न हो। जब आप विधा की बात करते हैं तो अपना विधान क्यों नहीं है, विधान क्यों नहीं तैयार करते हैं। व्यंग्य के छीटें तो आम जन-जीवन में भी मिलते हैं। जितने प्रयोग नाटकों में होते हैं, उतने कहीं नहीं होते। नाटक में प्रयोग की अनडाइमेंशनल छूट है और केवल संवाद से ही नहीं बल्कि अंग संचालन से भी व्यंग्य पैदा कर सकते हैं।

डॉ गिरीश पंकज ने व्यंग्य कविता पर अपनी बात रखते हुए कहा कि व्यंग्य का आकाश काफी विस्तृत है। व्यंग्य वह पारदर्शी पानी है जो जिसमें मिलता है उसके जैसा हो जाता है। व्यंग्य लोकव्यापी विधा है जो अनिवार्य है। उन्होंने लोक बोलियों में भी व्यंग्य की उपस्थिति बताते हुए कहा कि व्यंग्य की गंगोत्री कबीर से शुरू होती है। कोई भी विधा हो, जब तक वह व्यंग्य की पालकी पर सवार होकर नहीं आएगी तब तक वह प्रभावपूर्ण नहीं होगी। कविता जब तक कबीरी कवच नहीं पहनेगी, तब तक वह कविता कविता नहीं होगी। सही मायने में व्यंग्य कविता वही है जो वह अपने समय के नायकों को ललकार सके, वही कबीरी धार की कविता है।

डॉ संजीव कुमार ने व्यंग्य आलोचना पर अपनी बात रखते हुए कहा कि वैसे तो कबीर से हम व्यंग्य की शुरुआत मानते हैं, पर व्यंग्य का वास्तविक स्वरूप भारतेंदु युग में देखने को मिला। उन्होंने सवाल करते हुए कहा कि व्यंग्य विधा में अधिक लिखा जा रहा है, फिर वह पीछे कैसे है। इसके उत्तर में उन्होंने तारतम्य का अभाव बताया। व्यंग्य का इतना विकास होने के बावजूद आज भी मुख्य रूप से तीन ही नाम हमारे सामने आते हैं – परसाई, जोशी और त्यागी। हमें इनसे आगे बढ़ने की जरूरत है। उन्होंने आलोचना के प्रतिमान क्या हों, इस पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि व्यंग्य आलोचना पर ज्यादा काम नहीं हुआ है, जिसे करने की जरूरत है। विषयों की भरमार है, पर सीमित विषयों पर ही व्यंग्य लिखे जा रहे हैं। श्री व्यंग्य की रचना करना ही बहुत नहीं है, व्यंग्य का व्याकरण भी आना चाहिए।

रमेश सैनी ने व्यंग्य उपन्यासों पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि आज व्यंग्य का संक्रमण काल ही नहीं, बल्कि विचारों का भी संक्रमण काल है। व्यंग्य उपन्यासों में सामाजिक सरोकार भरपूर है। इसका विषय, कहन, कथन, भाषा, शैली सब अलग है। वर्तमान में विचारों का संकट है। श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी व्यंग्य उपन्यासों में मिल का पत्थर है। राग दरबारी पढ़ते हुए मन नहीं भरता क्योंकि हम उसको जीते हैं और खुद को उसमें पाते भी हैं।

इस एक दिवसीय कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र और बाद के दो सत्रों का कुशल संचालन साहित्य अकादमी के वरिष्ठ अधिकारी और साहित्यकार देवेंद्र कुमार देवेश ने किया।

अंतिम सत्र व्यंग्य रचना पाठ का रहा। इस सत्र की अध्यक्षता सुभाष चंदर ने की और संचालन किया युवा व्यंग्यकार रणविजय राव ने। जिन वरिष्ठ व्यंग्यकारों ने अपनी-अपनी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाओं का पाठ किया, उनमें आलोक पुराणिक, बलराम अग्रवाल, कृष्ण कुमार आशू , आचार्य राजेश कुमार, अतुल चतुर्वेदी, अलंकार रस्तोगी, अर्चना चतुर्वेदी, स्वाति चौधरी, फारूक अफरीदी, रिंकल शर्मा और रणविजय राव शामिल रहे। प्रायः सबने अपनी रोचक चुनिंदा रचनाओं का पाठ कर कभी गुदगुदाया तो कभी सोचने पर भी मजबूर किया।

इस सत्र के अध्यक्ष सुभाष चंदर ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि आज के इस परिसंवाद का विषय ‘व्यंग्य का संक्रमण काल’ बेहद मौजू है। उन्होंने वर्ष 2012 में साहित्य अकादमी और व्यंग्य यात्रा द्वारा व्यंग्य विधा केंद्रित दो दिवसीय संगोष्ठी के आयोजन का उल्लेख करते हुए कहा कि उनमें हुई चर्चा से व्यंग्य विधा निःसंदेह समृद्ध हुई थी और आज करीब तेरह वर्ष बाद हुए इस परिसंवाद से व्यंग्य विमर्श को केंद्र में ला दिया है। यही कारण है कि आज व्यंग्य आलोचना, व्यंग्य के संविधान और विधान की बात हो रही है। उन्होंने इन सब बातों का श्रेय व्यंग्य यात्रा और डॉ प्रेम जनमेजय को दिया। श्री सुभाष ने जोर देते हुए कहा कि व्यंग्य को इस संक्रमण काल से हम व्यंग्यकार ही बाहर निकाल सकते हैं।

धन्यवाद ज्ञापित किया व्यंग्य यात्रा की प्रबंधक और साहित्यकार आशा कुंद्रा जी ने। उन्होंने व्यंग्य के संक्रमण काल पर आयोजित इस परिसंवाद कार्यक्रम में उपस्थित सभी वरिष्ठ साहित्यकारों, वक्ताओं और श्रोताओं के प्रति आभार जताते हुए कहा कि व्यंग्य के संक्रमण काल पर चिंता वाजिब है और व्यंग्य विमर्श पर व्यंग्य यात्रा ने बहुत काम किया है। उन्होंने साहित्य अकादमी को इस विशेष सहयोग के लिए भी धन्यवाद ज्ञापित किया।

व्यंग्य विधा पर केंद्रित इस परिसंवाद कार्यक्रम में दिल्ली और एनसीआर सहित देश के अलग-अलग राज्यों से भी साहित्यकारों की उपस्थिति रही। श्रोताओं में वरिष्ठ साहित्यकार अनामिका, उपासना दीक्षित, शुभेंदु ओझा, अवधेश कुमार सिंह, आसमा कौल सहित बड़ी संख्या में साहित्यकार, पत्रकार और साहित्य प्रेमी उद्घाटन से लेकर समापन तक उपस्थित रहे।

रपट प्रस्तुति — रणविजय राव

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