‘महायोगिराज गोरखनाथ’

नर्मदा प्रसाद उपाध्याय

संसार में गुरु गोरखनाथ ऐसे बिरले उदाहरण हैं जिन्होंने अपने गुरु मत्स्येंद्रनाथ को सन्मार्ग दिखलाया। वे नाथ परंपरा की उज्ज्वल मणि हैं जिनके समूचे व्यक्तित्व और कृतित्व तथा उनके अनुषंगों पर इस विषय के देश के प्रतिष्ठित विद्वान श्री ब्रजेन्द्रकुमार सिंहल की कृति “महायोगिराज गोरखनाथ” प्रकाशित हुई है जिसकी भूमिका “महायोगिराज गोरखनाथ : साधना के वृन्त पर उपलब्धि का सुमन” शीर्षक से लिखने का मुझे अवसर मिला। हिंदी के सुविख्यात ललित निबंधकार डॉक्टर श्यामसुंदर दुबे जी ने भी अपने विचार अपने विद्वत वक्तव्य में दिए हैं।

सात सौ पिछ्हत्तर पृष्ठों में इस विषय की सम्पूर्ण सामग्री समेटे, भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् द्वारा स्वीकृत इस ग्रन्थ को देश के प्रतिष्ठित राधाकृष्ण प्रकाशन ने भव्यता के साथ प्रकाशित किया है।

तीन खण्डों में बंटी इस कृति के पहिले खण्ड में पूर्व पीठिका है जिसमें उन्होंने हस्तलिखित और कुछ महत्वपूर्ण प्रकाशित ग्रंथों का विवरण दिया है साथ ही नाथों और सिद्धों की नामावलियों के संबंध में विस्तृत जानकारी दी है।

खण्ड दो में मछिन्द्रनाथ (मत्स्येंद्रनाथ, मच्छेन्द्रनाथ) और उनके शिष्यों से संबंधित सामग्री दी है तथा भक्तमाल के संदर्भ में भी विचार किया गया है।

खण्ड तीन का शीर्षक ‘गोरख-जनम लीला’ है। इसमें गोरख से संबंधित विभिन्न ग्रंथों ,उनके सार व अनुवाद, उन स्रोतों और इस विषय के विद्वानों के विचार तथा शिलालेखीय प्रमाण देते हुए, विशेषत: आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी व प्रो. दिनेशचन्द्र सेन आदि विद्वानों को उल्लिखित कर अपने निष्कर्ष दिए हैं।

इस खंड में गोरख जनम लीला की चौपाईयों व साखियों की बड़े परिश्रम के साथ अर्थवत्ता स्पष्ट की है तथा तार्किक रूप से यह सटीक अनुमान भी व्यक्त किया है कि मछिन्द्रनाथ, गोरखनाथ, जलंधरनाथ, गोपीचंद्रनाथ, भरथरीनाथ व कान्हीपाव इन सभी में से यदि किसी एक का समय मालूम कर लिया जाए तो इन सभी नाथों का लगभग समय ज्ञात हो सकता है। वे देश के संत साहित्य के इकलौते ऐसे अधीत विद्वान हैं जिन्होंने अन्तरानुशासिक दृष्टि से भी गंभीर विमर्श किया है ।

यह कृति एक वैज्ञानिक शोध कार्य है तथा इसे न केवल इस विषय के छात्रों और विद्वानों को अपितु संत साहित्य के अध्येताओं को भी अवश्य पढ़ना चाहिए। श्री सिंहल शिक्षा क्षेत्र से जुड़े विद्वान नहीं हैं ,वे वरिष्ठ चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं इसलिए उनकी अपनी तटस्थ और मौलिक दृष्टि है तथा मीरा से लेकर नरसी मेहता,बिश्नोई पंथ के संस्थापक जाम्भोजी महाराज और बाबा फरीद तक के व्यक्तित्व और कृतित्व को उन्होंने अपनी शब्द साधना की परिधि में लेकर ज्ञान संसार को आलोकित किया है। उनके दो सौ से अधिक शोध आलेख हैं।

मैं तो मात्र एक विद्यार्थी भर हूँ लेकिन अपने अनुभव से मुझे लगता है कि शोध न तो पुनर्पाठ है, न मात्र आख्यान, न शब्दों और वाक्यों का अपनी दृष्टि से संयोजन और अर्थ और न ही अपने निष्कर्षों को अंतिम मानकर उन्हें मान लेने और मनवाने की हठ।

सच्ची शोध दृष्टि सहिष्णु और पूरी तरह वैज्ञानिक होती है जिसका लक्ष्य खेत में खड़े होकर काग़ज़ी विमान उड़ाना नहीं अपितु श्री हरिकोटा से परीक्षित उपग्रह को प्रक्षेपित करना होता है और निस्संदेह सिंहल जी ने इस ग्रंथ के रूप में एक सफल ज्ञान उपग्रह हमारी ज्ञान परंपरा की आकाशगंगा में स्थापित कर दिया है। आत्मप्रशंसा और आत्ममुग्धता से परे उनकी दम्भहीन मौन साधना उनके कृतित्व में मुखर हुई है।

नाथ सम्प्रदाय तथा विशेष रूप से गुरु गोरखनाथ के संबंध में हमारे यहां अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं। ऐसी स्थिति में इस साहित्य में अवगाहन कर प्रामाणिक निष्कर्षों को प्राप्त करना वैसा ही कार्य था जैसे कोई साहसी व्यक्ति उत्साह के साथ समुद्र तल से एक-एक ज्योतिर्मय मोती को खोजे और उन सबको गूंथकर एक आभामय माला में परिणत कर, उसे ज्ञान विग्रह के कंठ में, कंठहार बनाकर पहिनाते हुए इस विग्रह का सारस्वत अभिनन्दन करे।श्री सिंहल ने अपनी सतत साधना से यही किया है।

मैं आश्वस्त हूं कि यह ज्ञान विग्रह उन्हें सदैव अपने आशीर्वाद से अभिषिक्त करता रहेगा और वे नित्य ऐसे ही मोतियों की माला से इस विग्रह को सुशोभित करते रहेंगे।

यह कृति अमेज़न सहित सभी विक्रय केन्द्रों पर उपलब्ध है।

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