
किल्ला

-श्रेयस
किल्ला का अर्थ है किला, दुर्ग अथवा गढ़ी। महाराष्ट्र में दीपावली पर बच्चों के लिए खिलौनों से किला बनाने की सदियों पुरानी एक सुंदर परंपरा रही है। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के दौरान निर्मित अथवा सुदृढ़ किये गये अनेक किले जैसे- रायगड, सिंहगड, पन्हाला, शिवनेरी, विशालगड, सज्जनगड, सिंधुदुर्ग, जिंजी आदि न केवल भारतवर्ष का गौरव बढ़ा रहे हैं अपितु विश्व विरासत में भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। ऐसे ही समृद्ध दुर्गों की परंपरा को सामाजिक-सांस्कृतिक स्मृति में संजोकर रखते हुए नयी पीढ़ियों को उनके ऐतिहासिक व सामरिक महत्त्व व उन्हें बनाने की कष्टसाध्यता से परिचित कराने हेतु ‘किल्ला’ बनाने की इस परंपरा का उद्भव हुआ।
आज महाराष्ट्र के बाहर भी अनेक महाराष्ट्रीय परिवारों में इस सांस्कृतिक परंपरा को निभाते हुए दीपावली पर घर में किल्ला बनाने की परिपाटी है।
किल्ला बनाना व्यक्ति को संसाधन प्रबंधन, समय प्रबंधन, कला-कौशल और सौंदर्यबोध एकसाथ सीखने का अवसर उपलब्ध कराता है। इससे न केवल बचपन समृद्ध होता है बल्कि बाल्यावस्था की ये स्मृतियाँ युवावस्था और वृद्धावस्था में भी व्यक्ति को उत्साहपूर्ण, आत्मविश्वास से भरा और रचनात्मक बनाए रखती हैं। घर में छोटे बच्चे हों तो बड़े भी उनके साथ अपनी बाल्यावस्था की स्मृतियों को पुनः ताजा करने के लिए जोर-शोर से किल्ला बनाने में जुट जाते हैं। उनके अनुभव का लाभ बच्चों को मिलता है जो एक पीढ़ीगत संस्कार बनकर परिवार में आगे बढ़ता रहता है।
किल्ले अनेक प्रकार से बनाए जा सकते हैं। मिट्टी, पत्थर, गत्ते, ईंटे, थर्मोकॉल, फाइबर आदि की सामग्री, एक-दो-तीन मंजिला ढांचे, बुर्ज, दरवाजे, दीवारें, रंग किल्ले में रखे जाने वाले खिलौनों वाले सिपाही, व्यापारी, साधु-संत, आमजन, सजावट, आकृतियाँ, ध्वज आदि की विविधताओं के अनुसार किल्ले के अनेक प्रकार होते हैं। कई बार प्रसिद्ध किलों से प्रेरणा लेकर उनके तत्वों पर आधारित किल्ले भी बनाए जाते हैं। हर वर्ष कुछ नवीन करने के प्रयास में भारतीय किलों की विविधता और उन्हें बनाने में लगने वाले परिश्रम का सहज ही परिचय हो जाता है।






इस वर्ष दीपावली पर मुझे अपने चाचा, जिन्हें बचपन से अनेक भव्य किल्ले बनाने का अनुभव रहा है, के साथ मेरे ढाई वर्षीय पुत्र के लिये किल्ला बनाने का अवसर मिला। किल्ला बनाने की मंशा उनसे जाहिर करने पर वे पूरे उत्साह से सामान लाने, नक्शा बनाने से लेकर अंतिम आकार देने तक पूरे मनोयोग से किल्ला बनाने में जुटे रहे। इस बार अलग ये था कि किले की हर दीवार और बुर्ज एक-एक ईंट को जोड़कर बनाए गये थे। मैंनै, पत्नी और भाई ने मिलकर नक्शे अनुसार छोटी-छोटी विशेषताओं पर काम किया। मेरा पुत्र किल्ला बनने की प्रक्रिया का आनंद भी ले और किल्ले से उचित दूरी भी बनाए रखे इसकी व्यवस्था चाची ने सुनिश्चित की। किल्ला छोटा पर दृढ़ और सुंदर बना। पुत्र किल्ले को बनता देख और पूरा होने पर इतना आनंदित हुआ कि उसे अपना घर कहकर उसमें बिठा देने के लिए जिद करने लगा। अंत में माँ ने परंपरानुसार किल्ले के चारों ओर रंगोली बनाई। पूरे परिवार के सहयोग से चौबीस घंटे में बने इस किल्ले ने न केवल सबकी स्मृतियों को फिर ताजा किया बल्कि इस सांस्कृतिक विरासत को अगली पीढ़ी तक पहुँचा पाने का संतोष भी दिया।
महेश्वर की सीढ़ियों, जयपुर के महल, बगीचे, बुर्ज, ध्वज, दरवाजों, पौधों, पशु-पक्षियों, रोशनी से सजा किला जिसमें श्रीगणेश और श्रीरामलला विराजित किये गये थे, दीपावली के दीपों के बीच सभी के मन के दीपों को प्रकाशित कर रहा था।

Thank u for rewinding childhood memories. I clearly remember in our childhood we all bros n siss use to make killas n gharkul n celebret diwali days.
Thans again