
ट्रिक-ओ-ट्रीट: किसकी ट्रिक और किसको ट्रीट
शैलजा सक्सेना
त्यौहारों का मौसम लौट गया, मौसम में ठंड की धीमी पदचाप है। दीपावली के दियों के साथ, गर्मी भी जैसे घर-आँगन से उठा ली गई। छठ के उगते, डूबते सूरज ने मौसम के बदलने, उठने-गिरने के बीच भी सम बने रहने का संदेश दिया। भारत के गाँवों- कस्बों-शहरों में जहाँ त्यौहारों के बाद का नियमित जीवन शुरू हो गया है वहीं विदेश में एक अलग तरह का त्यौहार ’हालोईन,’ अक्तूबर 31 को मनाया गया। प्रतिवर्ष इसी तारीख़ को यह बहुत धूमधाम से मनाया जाता है। इसके बाद से क्रिसमस की तैयारी और चहल-पहल शुरू हो जाती है। हालोईन पर बच्चे डरावने मुखौटे पहन कर या चेहरे पर पेंट लगा कर घरों में जाते हैं और ’ट्रिक-ओ-ट्रीट’ कह कर टॉफ़ी, चिप्स, चॉकलेट आदि कुछ माँगते हैं। ’ट्रिक-ओ- ट्रीट’ डराने, धमकाने वाली उक्ति है यानी कुछ दे रहे हो या तुम्हें अपनी ’ट्रिक’ करके दिखायें!! पश्चिम की यह उक्ति पहले फूट डालने की ट्रिक और फिर टुकड़ा भर देश देने की ट्रीट नीति में दिखाई दी थी तो आजकल टैरिफ़ की ट्रिक और बात मान जाने पर आयात- निर्यात की कुछ छूट की ट्रीट में भी दिखाई देती है। हमारे यहाँ भी दंड और भेद की नीति ट्रिक के समान ही प्रयोग की जाती रही है! सचमुच यह ट्रिक जीवन की अनेकों घटनाओं में फैली हुई है, कब कौन आपको ट्रिक से फँसा कर कहाँ काम निकलवाने की कोशिश कर रहा है, कुछ पता नहीं चलता।
वैसे इस दिन के बारे में माना जाता था कि इस दिन प्रेतात्माओं के संसार और जीवित लोगों के संसार के बीच की रेखा धूमिल हो जाती है। है न यह मज़े की बात कि भूत-प्रेत की धारणा स्थानीय नहीं वैश्विक है और हर देश में आत्माओं का कम से कम एक दिन तो होता ही है। बच्चों की दृष्टि से यह एक मज़े का त्यौहार अवश्य दिखाई देता है। घर में कंकाल, मकड़ी के जाले, डरावनी आवाज़ों वाले यंत्रों को लगाया जाता है। बच्चों को हर वर्ष सोचना होता है कि वे इस बार क्या बनें? फिर वैसे ही कॉस्ट्यूम/ परिधान लाये जाते हैं, बच्चे जानवरों के मुखौटे, भूतों या फ़िल्मों के चरित्रों का रूप धर कर मौहल्लों में घूमते फिरते हैं। मुझे याद है जब मेरे बच्चे छोटे थे तो डलिया भर टॉफ़ी और चॉकलेट ले आते थे। अंत में गिनते कि तुझे कितनी ’कैंडी’ मिली, मुझे तो इतनी मिली, खूब मस्ती होती, विभिन्न घरों की डरावनी सजावट की बात होती और मेरा काम होता कि पहले उन सबकी जाँच करूँ कि कोई न खाने लायक चीज़ भी न मिली हो क्योंकि कभी-कभी कुछ सिरफ़िरे लोग उलटा-सीधा सामान भी बच्चों को पकड़ा देते हैं और बाद में बच्चे उन्हें खाकर बीमार पड़ जाते हैं। जाँच के बाद काम होता गिन कर कुछ ही टॉफ़ी बच्चों को देने और शेष उठाकर, छिपाकर अपने पास रखने का। अधिक टॉफ़ी एकसाथ खा लेना बच्चों के लिए हानिकारक होता है सो समझाना, मनाना…एक पूरी प्रक्रिया हालोईन की होती।
इस त्यौहार का प्रारंभ एक अलग रूप में सन ६०७ में हुआ था। पोप बोनीफ़ेस चतुर्थ जब रोम के ’पैन्थियोन’ के मुखिया बने तब उन्होंने नवम्बर एक को संत दिवस, ऑल सेन्ट्स डे या ’हॉलोस डे’ के रूप में घोषित किया, क्योंकि वे मूर्तिपूजकों (पैगन) के समान ही हर क्रिश्चियन संत को एक दिन देना चाहते थे पर इससे दिनों के हिसाब- किताब लगाने में मुश्किल होती तो उन्होंने सारे ही संतों के लिए एक दिन घोषित कर दिया(आधार-संडे ईवनिंग स्टॉर, वाशिंगटन डी.सी, अक्तूबर २६, १९१३- लायब्रेरी ऑफ़ कॉन्ग्रेस) सैल्टिक लोगों में इसे ’सैमोइन’ कहा जाता था। यह विश्वास था कि संतों से अपनी मुक्ति माँगने के लिए नवंबर एक से पहले की शाम यानी ३१ अक्तूबर को सब आत्मायें निकल आती हैं और अपने परिजनों से मिलने के लिए और इधर-उधर घूमने के लिए स्वतंत्र होती हैं। फ़िन (फ़िनलैंड के) लोगों में इस बात पर गहरा विश्वास था कि वे इन दुरात्माओं को भी काबू में करके अपना काम निकाल सकते हैं। आत्माओं को देने के लिए कटी फ़सल से कुछ बनाना और देना एक प्रथा के रूप में चल निकला, अगर उन्हें कुछ नहीं दिया जाता तो वे नुकसान भी कर सकती हैं अत: उनको देने के लिए लोग खाना आदि घर के बाहर के सहन में रखते थे। धीरे-धीरे लोग ’ऑल सेंट्स डे’ को तो भूल गए, हॉलोस -इन या हालोईन प्रतीक रूप और मज़े के लिए मनाया जाने लगा। इस रात अपराधी तत्वों के सक्रिय होने का डर भी रहता है अत: सावधान रहने को कहा जाता है। हॉलीवुड प्रतिवर्ष कुछ डरावनी, भूत-प्रेतों की फ़िल्में भी इस विशेष दिन के लिए निकालता है।
हालोईन की इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के समानांतर मुझे भारतीय श्राद्ध याद आते हैं जब हम १५ दिन पूर्वजों को अपनी शृद्धा अर्पित करते हैं। मुझे वे पंडित याद आते हैं जो तर्पण और पूजा करके आत्माओं की मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। उन्हें और ब्राह्मणों को पितरों द्वारा पसंद किया जाने वाला भोजन कराया जाता है और धन, सामान आदि की दक्षिणा दी जाती है।
भारतीय लोग सड़कों पर प्रेतात्माओं के चेहरे लगा कर नहीं घूमते, घरों पर कद्दू को काट कर उस पर डरावना चेहरा बना कर दिया नहीं रखते, घरों पर मकड़ी के जालेनुमा रुई चिपका कर डरावना नहीं बनाते…, चुडैल और भूतनी जैसी शक्ल बना कर कैंडी नहीं बाँटते क्योंकि यहाँ आत्माओं को आदर की दृष्टि से देखा जाता है और हर त्यौहार अनेक पवित्राओं के मंगल धागों में बँधा आता है।
आज का यह संपादकीय शायद इस रूप में नहीं लिखा जाता अगर मुझे जयपुर से अपने परिवार की एक छोटी बच्ची की भूतनी बनी शक्ल व्हाट्सएप पर नहीं मिलती। जयपुर के एक छोटे से प्राइवेट स्कूल में हालोईन मनाना मुझे विचित्र लगा। आज जब विश्व एक हो रहा है तो निसंदेह हमारी संस्कृति एक- दूसरे से प्रभावित होगी ही पर इस प्रभाव को समझ कर अपनाया जाये तो हम कुछ अच्छा ग्रहण करके व्यर्थ का तत्व छोड़ सकते हैं, कुछ अपनाने से पहले उसके इतिहास और उद्देश्य को जानना आवश्यक है तब ही नई पीढ़ी चीज़ों को स्पष्ट समझ पायेगी। अंधानुकरण की प्रवृति को समाप्त करना हमारा ही काम है अत: जिस भी भूमि पर हम बसे हैं, उसके और दूसरे देशों से आने वाली संस्कृति दोनों को ही अपनाने से पहले उसे गहराई से समझना आवश्यक है। यूँ हालोईन अब पार्टी करने वाला विशेष दिन ही रह गया है, धार्मिक मान्यता से इसका कोई जुड़ाव अब नहीं रहा और पार्टी करने के लिए तो हर कोई तैयार रहता है चाहें वह किसी भी देश में क्यों न रह रहा हो। यह भी अच्छी बात है कि विश्व के एक हिस्से में एक त्यौहार समाप्त होता है तो दूसरे हिस्से में किसी और पर्व या दिन विशेष की तैयारी शूरू हो जाती है। मनुष्य की सामाजिकता और सकारात्मकता को बचाए रखने के लिए पर्व और विशेष दिन एक महत्वपूर्ण यंत्र और मंत्र हैं, इनका आनंद बना रहे, यही शुभकामना है।
सादर
शैलजा
नवंबर २, २०२५

बहुत ही सुंदर सारगर्भित और जरूरी पोस्ट शैलजा..!
बिल्कुल सही शैलजा जी मैं भी कल यही सोच रही थी की अचानक इस वर्ष ऐसा क्या हुआ की भारत के सभी स्कूलों में हैलोवीन मनाने लगे..ये सब किसी propaganda के तहत होता है..धीरे धीरे हमारी संस्कृति में बदलाव लाने के लिए..जहाँ हमारी नई पीढ़ी पितृ श्राद्ध को रूढ़िवाद समझ के प्रश्नवाचक चिह्न लगाती है वही बिना सोचे समझे इन विदेशी त्योहारों को झट स्वीकार कर लेती है..इस विषय पर आत्म मंथन आवश्यक है ।
आपने हमेशा की तरह बहुत ही सामयिक और अच्छा लिखा है और अंत शुभकामना और सकारात्मकता से किया है l
भेड़ चाल छोड़ कर ,गहराई से समझने की सलाह बहुत जरूरी है l आनंद बना रहे 🙏🏽