डॉ. शैलजा सक्सेना

मित्रो,

मौसम के बदलने के साथ जो अनचाही सौगातें आती हैं, उन्हीं के चलते पिछला संपादकीय नहीं लिख सकी, इसके लिए क्षमा चाहती हूँ।

अब बात उसकी जिसके नाम पर यह पूरा वर्ष घोषित है- वंदे मातरम!

वंदे मातरम् के १५० वर्ष पूरे होने पर भारतवंशियों में एक उत्साह की लहर दिखाई देती है। यह घोष भारतीय जनमानस की चेतना, भारतीय अस्तित्व और भारतीय स्वाधीनता के संघर्ष के इतिहास का स्वर है। यह राष्ट्रीय भावना का प्रतीक गीत है इसलिए सारे भारतवंशी, चाहें वे भारत में हों या विदेश में हों, वे इस गीत से जुड़ते हैं। इसका उद्घोष कोई कहीं भी करे, यह गीत हमें कहीं सड़क चलते भी सुनाई दे जाये तो हम समझ जाते हैं कि भारत यहीं उपस्थित है।

बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने इस गीत को ’आनंदमठ’ उपन्यास में प्रस्तुत करते हुए भारत को माँ कह कर संबोधित करते हुए उसकी स्वतंत्रता का स्वप्न दिया। इस गीत में भारत की एक सुंदर संकल्पना है। यह शस्य श्यामला भूमि है, यहाँ फूल खिलते है, अनेक नदियाँ बहती हैं, शुभ्र चाँदनी पुलकित करती है और इस माँ के हजारों, लाखों बच्चे उसकी आँचल में खेलते हुए उसके प्रति आदर और श्रद्धा से समर्पित हो जाते हैं। मातृभूमि की संकल्पना अथर्ववेद से प्रारंभ हुई, वहाँ “माता भूमि:,पुत्रो॓अहं पृथिव्या:” की बात हुई है। वाल्मीकि रामायण ’जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ ओर रामचरित मानस में तुलसीदास उत्तर कांड में श्री राम जी की इन पंक्तियों को आधार बनाते हैं “जद्यपि सब बैकुण्ठ बखाना, वेद पुरान बिदित जग जाना/ अवधपुरी सम प्रिय नहीं सोऊ, यहि प्रसंग जानई कोऊ कोऊ॥ जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि, उत्तर दिसि बह सरजू पावनी। जा मज्जन ते बिनहिं प्रयासा, मम समीप नर पावहिं वासा॥“

गंगा को माँ मानकर पूजा करने वाला, बट वृक्ष पर अपनी इच्छाओं के धागे बाँध कर, अपनी श्रद्धा का जल अर्पित करने वाला, पर्वतों को शिव की भूमि मानने वाला, योग, तपस्या करने वाला यह देश अगर अपनी मातृभूमि की वंदना करते हुए उस पर न्योछावर होता हुआ उसे स्वतंत्र बनाने के लिए और उसका विकास करने के लिए प्राणों की बाजी लगाने के लिए तत्पर हो तो इसमें आश्चर्य क्या? जहाँ दूसरे देशों में इस समर्पण को नौकरी या अधिक से अधिक सिपाही के कर्तव्य की बात या शासक के द्वारा डरा धमकाकर प्रेरित किये जाने की बात दिखाई देती है वही हमारे यहाँ कोटि-कोटि कंठों से कल-कल निनाद के रूप में अपनी मातृभूमि पर बलिहारी हो जाने की बात स्वतः निकलती दिखाई देती है।

यह मातृभूमि कैसी है, इसे बंकिम बाबू बताते हैं, अवनीन्द्र कुमार इसका चित्र बनाकर जनता में प्रस्तुत करते हैं, इस चित्र में माँ भारती के एक हाथ में धान हैं, एक में माला, एक में वस्त्र और एक में शास्त्र है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर इसे गाकर मग्न होने लगते हैं, कांग्रेस इस गीत को अपने हर अधिवेशन का मुख्य गीत बना लेती है, झंडे उठाकर चलने वाला आम आदमी इसे नारा बना देता है तब हर भारतवंशी का हृदय चाहे वो देश में हो या विदेश में इस गीत के साथ अपने अस्तित्व की पहचान करता है। वंदेमातरम के प्रयोग के इतिहास की बातें, इस पर लिखे लगभग हर आलेख और भाषण में आजकल बताई जा रही हैं जैसे १९०७ में मैडम भीकाजी कामा ने जब जर्मनी में पहला तिरंगा फ़हराया था तो उस पर वंदे मातरम लिखा था, चिदंबरम पिल्लई जी ने १९०७ में स्वदेशी जहाज पर वंदेमातरम लिखवाया था, रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी प्रतिबंधित पुस्तक ’क्रांति-गीतांजलि’ का पहला गीत यही रखा था और गाँधी जी ने भी एकाधिक बार इस गीत और बंकिम बाबू के लेखन की प्रशंसा की थी। हमारे पहले राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसादजी ने इसे राष्ट्रीयगीत घोषित किया था।

दो शब्दों का यह छोटा सा नारा, एक कविता का अंश, किस तरह से स्तंत्रता पाने के लिए क्रांति स्वर बनता है और स्वतंत्र हो जाने के बाद भी भारतीय चेतना, भारतीय अस्तित्व ओर स्वयं भारतीयता का चिन्ह बन गया है, यह प्रशंसनीय है। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि कवि के स्वर में युगों को प्रभावित करने की शक्ति होती है। आज की कृत्रिम मेधा के समय में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या साहित्य समाज को बदलने की शक्ति रखता है?

साहित्य प्रत्यक्ष रूप से कर्म नहीं करता पर उसका अप्रत्यक्ष प्रभाव जीवन भर रहता है। साहित्य शब्दचेता है, उसके शब्दों की अग्नि, पाठक के हृदय में चेतना की अग्नि प्रज्वलित करती है। ’वंदे मातरम्’ हो या ’जन-गण-मन’ हो या ’सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, या ’बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी’ या ’12 बरस लै, कूकर जीवें अरु तेरह ले जिए सिआर, बरस अठ्ठारह छत्री जीवें, आगे जीवन को धिक्कार’ ये सब थोड़े से उदाहरण हैं जिन्होंने जनता के देशप्रेम की भावना को विकसित करने में मदद की। ये और इस तरह की पंक्तियाँ सूक्ति बन गईं। इसी तरह भक्ति काव्य की कितनी ही पंक्तियाँ जैसे ’रहना नहीं ये देश बेगाना है’, ’मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे’, ’अवगुण चित न धरो’ या तुलसी के दोहे, उन्होंने मनुष्य के मन को भक्ति रस से उदात्त और संवेदनशील बनाने का काम किया।

साहित्य का मूल उद्देश्य लोगों की संवेदना को जागृत करना है, जो संवेदना जीवन की ज़रूरतों को पूरा करते कहीं दब जाती है, वह साहित्य के माध्यम से पुन: सचेत होती है। आज का साहित्य जीवन का उद्देश्य या दिशा दिखाने का काम भले न करें किंतु उसमें उपस्थित वर्तमान के करुण दृश्य, वितंडावाद पूर्ण स्थितियाँ और कटु यथार्थ हमको अपने आचरण के प्रति सजग और संबंधों के प्रति उदार बनाते हैं।

वंदे मातरम ने गुलामी में पिटते, कुचले लोगों को एक स्वप्न दिया। संस्कृत भाषा के इन दो शब्दों ने काश्मीर से कन्याकुमारी तक के लोगों को एक साथ बाँधा। भाषा या बोधगम्यता की कोई लड़ाई इसमें हमें नहीं दिखाई देती। दिखा तो सबको एक स्वप्न, एक माँ दिखी जो पीड़ित, गुलाम और कुचले लोगों को गोद में लेने को आतुर है, यह माँ ही मानों घर बन गई, एक belongingness की भावना और इस माँ, इस घर को बचाने के लिए दुर्गा की शक्ति ही मानों कवि ने लोगों की बाँहों में भर दी। विवेकानंद जी का ’उत्तिष्ठत, जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ जैसे हमारा मंत्र बना, वैसे ही वंदे मातरम का उद्घोष हमारा स्वप्न बना। संविधान में ’शस्य श्यामलाम’ की बात लिखी गई पर इसके बाद के अनुच्छेद दुर्गा की बात करते थे तो उन्हें निकाल दिया गया ताकि मुस्लिम संप्रदाय को आपत्ति न हो, इस राजनैतिक तुष्टिकरण ने इस गीत को अधूरा कर दिया।

इस अधूरेगीत से भी अब उस समाज को परेशानी है कि अल्लाह के अलावा किसी माँ की वंदना का जयघोष करना संभव नहीं। यह बात चेताती है कि दूसरे की भावना का ध्यान रखने में आप इतने न बदल जाइये कि स्वयं की पहचान खो दें। जीसस को मानने वाले देश घोषित क्रिश्च्यनधर्मी हैं पर वे एक गाल पर थप्पड़ खा कर क्या दूसरा गाल आगे बढ़ा देते हैं? कभी नहीं! तब अपनी विचारधारा और उसके उद्घोषक स्वरों को बदलने, मिटाने, छिपाने का काम करके क्या हम अपनी ही भारतीय सभ्यता को, सांस्कृतिक चेतना को तोड़ मरोड़ नहीं रहे?

वीरता मनुष्य का स्वाभाविक गुण है और जब यह सही जगह दिखाई जाती है तो उदहारण बन जाती है, गलत जगह दिखाई जाती है तो अपराध हो जाती है। वीरता किसी को आक्रांत करने में नहीं, अपने धर्म और राष्ट्र की सुरक्षा और मूल्यों के लिए अडिग खड़े रहने में है।

आशा है वंदे मातरम के १५० वर्ष मनाने वाले हम विवेक और वीरता को भी अपनायेंगे। यह वंदना केवल शब्द न रहे बल्कि क्रिया बने। हमको आज के समय को समझना है, समय की आवश्यकता को समझना है और समय में अपनी भूमिका को तय करना है। जो देश किसी समय फुल्ल कुसुमित था, वह आज कूड़े-कचरे की दुर्गंध से जूझ रहा है, जो कल-कल निनादिनी नदियों का देश था, वहाँ नदियाँ आज प्रदूषण के कारण काली हो रही हैं, जो धरती शस्य श्यामला थी, वहाँ आज मिट्टी बचाने और वृक्षों को बचाने की चिंता प्रखर है, हम इन चिंताओं से जुड़ें, इनको दूर करने के लिए निरंतर सक्रिय रहने की प्रतिज्ञा करें ताकि राष्ट्र शस्य श्यामला बने, साफ़ पानी, खिले फूलों वाला सुंदर देश बने और हम सही मायनों में ’वंदे मातरम’ कह सकें, गा सकें ।

सादर

शैलजा

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