प्रेम की भाषा में बाँचे त्यौहार ही पीढ़ियों तक चलते हैं

डॉ. शैलजा सक्सेना

घर में लड्डू बनने की महक फैली है, तीन स्टोव चल रहे हैं जिस पर अलग-अलग सामान चढ़े हैं। सिंक में अनेक बर्तन पड़े हैं, दीपावली का बड़ा त्यौहार सामने है। प्रवासियों को दीपावली की छुट्टी नहीं मिलती इसलिए सब काम पहले से करने होते हैं, सफ़ाई से लेकर पकवान और भोजन बनाने तक, घर-बाहर, नौकरी, परिवार के बीच अकेले काम करते मन झींक भी जाता है कभी-कभी! पर त्यौहार का उत्साह मन और हाथों की गति को घड़ी की सुइयों के अनुसार तीव्र गति दे देता है। सालों से संस्कृति को सँभालने का रास्ता है, त्यौहारों को पकड़ना!

क्रिसमस से बढ़ कर जब दीवाली पर घर सजेगा, लोग आयेंगे, बच्चों को सुन्दर कागज़ों में बँधे उपहार मिलेंगे, दीये और फुलझड़ी की रौशनी होगी तब जाकर क्रिसमस के बरक्स दीवाली का महत्व इन प्रवासी बच्चों को समझ आयेगा, बस इसी से हम सभी लोग दीपावली की धूमधाम में दिनों पहले से जुट जाते हैं। इस तरह बच्चे लक्ष्मीपूजन के महत्व को समझते हैं, अत: घर सँवारने में बराबर से जुट जाते हैं। हमारा उत्साह और मेहनत, उनको भी प्रभावित करती है। अगर हम ही ’छुट्टी नहीं मिलती, यहाँ क्या त्यौहार मनाएँ?, इतने कामों को करवाने वाला और कौन है? या पहले मिठाइयाँ बनाने की मेहनत और फिर खा कर मोटे से पतले होने की मेहनत’ आदि के रोने रोते हुए, भारत के त्यौहार की चमक दमक को याद करने में ही ऊर्जा लगायेंगे तो हमारे बच्चे क्या सीखेंगे? अनेक प्रवासी परिवार “पूजा करनी थी, कर ली किसी तरह” का भाव रख कर भी त्यौहार मनाते हैं और जब उनके बच्चे बड़े होकर उस परंपरा का निर्वाह नहीं कर पाते तब उन्हें दुख होता है। अपने दुख को वे यह कह कर ढक लेते हैं कि ’आजकल के बच्चों के बारे में आप तो जानते ही हैं, सब अपने मन के मालिक, सुनते ही नहीं या बहुत व्यस्त हैं’!

ऐसे लोगों से यही कहने का मन करता है कि ’नहीं, मैं ऐसे आजकल के बच्चों को नहीं जानती’ क्योंकि बच्चे तो वही कर रहे हैं जो देखते आये हैं। अगर हमने वह उत्साह और महत्व अपने त्यौहारों और संस्कृति को दिया है तो बच्चे भी वह उत्साह और प्रेम अपनी संस्कृति को अवश्य देंगे। यह हो सकता है कि वे अपनी सुविधानुसार कुछ फ़ेर बदल करें और पकवान घर में बनाने की बजाये बाहर से ले आयें, पर वे त्यौहार के प्रति अपने प्रेम में फ़ेर बदल नहीं करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। इसलिए त्यौहार को प्रेम की भाषा में बाँचिये, कर्तव्य की भाषा से अधिक प्रभावशाली होती है यह प्रेम की भाषा जो अनेक पीढ़ियों तक जायेगी।

मित्रो, जीवन में अनेक व्यस्ततायें हैं, समस्यायें हैं पर इन सबको कुछ देर के लिए घर की दहलीज़ के बाहर रखकर त्यौहार की तैयारी कीजिये। माँ लक्ष्मी संतोष और सुख का धन लेकर और श्री गणेश जी, बुद्धि और विवेक की संपदा लेकर आने वाले हैं। उनके स्वागत के लिए हमें अपने मन में स्थान तो बनाना होगा अन्यथा ये समस्यायें और व्यस्तताएँ तो सुरसा का मुँह हैं, “सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा” करके भी संतुष्ट नहीं, अत: “अति लघु रूप पवनसुत कीन्हा” की तरह अपने लघु विश्वास और प्रयत्न के माध्यम से भी हम अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की चेष्टा करेंगे तो भी सफल होंगे ही।…

इन पकवान बनाने और घर सँभालने के बीच मैं संपादकीय लिखने का दिन भुला बैठी थी, ख़ैर, महिला लेखन की चुनौतियों से निकल कर, कड़छुल-कड़ाही कुछ पल त्याग कर यह संपादकीय आप तक पहुँचाने आ ही गई हूँ, इस आशा के साथ कि इस देर को आप महिला लेखन की संभावनाओं में सम्मिलित कर लेंगे। 😊

आप सबकी दीपावली और उसके साथ आने वाले सभी त्यौहार आनंद से संपन्न हों, मन में परिवार के साथ और मित्रों की मुस्कुराहट का सुख हो, किये का संतोष और अनकिये की योजनायें फलीभूत हों, दूर और बिछड़े हुए प्रियजन मन के आसपास अपनी नेह ऊष्मा से ऊर्जा देते रहें….अशेष शुभकामनाएँ!

सादर

शैलजा

अक्तूबर १६, २०२५

One thought on “प्रेम की भाषा में बाँचे त्यौहार ही पीढ़ियों तक चलते हैं – (संपादकीय-४)”
  1. वाकई कष्ट अवश्य होता है, खास तौर पर जब सारे काम स्वयं करने होते हैं, परन्तु, उसके बाद त्यौहार की तैयारी देखकर, जो संतोष होता है वह सारी थकान मिटा देता है। पकवानों की खुशबू, जगमग करता घर, दरवाजे पर अल्पना और पूरे परिवार का एक साथ जुड़ना। यह सुख अवर्णनीय है।
    सुंदर संपादकीय के लिए बधाई और इस पाँच दिवसीय पावन पर्व की अनंत मंगल कामनाएं।

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