टोकरी – उम्मीदों की

डॉ. शिप्रा शिल्पी सक्सेना, कोलोन, जर्मनी

ओह, 7 बज गए, क्रिस्टी ने आँख खोलकर घड़ी पर नजर दौड़ाई, आँखें मिचमिचाते हुए चारों ओर देखा, पर सुबह 7 बजे भी गहरा अंधकार था। सर्दियों में 10 बजे सुबह तक जर्मनी में ऐसा अंधकार होना स्वाभाविक है, पर कुछ था जो स्वाभाविक नहीं था, वो था ओमा मतलब क्रिस्टी की दादी का उसे न जगाना।
7 साल की क्रिस्टी का गरम रजाई से निकलने का मन तो नहीं था, पर मन अंधेरे में डर भी रहा था। उसने रजाई से ही मुँह निकाल कर अंधेरे में घड़ी की रोशनी में आवाज लगाई – ओ ओ माँ…. , ओ माँ…. डर लग रहा कहाँ हो आप। वो हिम्मत करके फिर चीखी कोई उत्तर न पाकर अब उसका डर घबराहट में बदल रहा था । वो क्या करे समझ नहीं आ रहा था । उसने हिम्मत करके रजाई से ही बिजली का स्विच ढूँढने का प्रयास किया, जो कुछ देर की मशक्कत के बाद उसे मिल गया। लाइट आते ही जान में जान आई । उसने चारों ओर नजर दौड़ाई पर ये क्या उसकी चीख निकल गई, ओमा क्रिस्टी की प्यारी ओमा जमीन पर गिरी हुई थी । वो फुर्ती से रजाई छोड़कर ओमा की ओर भागी। ओमा बेहोश थी, उनका माथा तप रहा था । उसने गिलास मे रखे पानी को ओमा के मुँह पर छिड़का, जोर- जोर से आवाज देने लगी। वो बहुत डर गई थी, एक ओमा ही तो थी उसकी ज़िंदगी में, माँ- पापा के अलग होने के बाद । दोनों अपने नए परिवार में उसे नहीं रखना चाहते थे। यूँ तो इन देशों में सरकार अकेले बच्चों को हर सुविधा देने को तैयार थी, पर ओमा मतलब उसकी दादी, उसे अपने साथ अपने गाँव ले आई थी । शहर से दूर उसकी ओमा ताजे फल- सब्जियाँ उगाती और रोज सुबह शहर की हाट में जाकर बेच आती थी । जीवकोपार्जन का यही साधन था उनके पास। क्रिस्टी के लिए ओमा और ओमा के लिए क्रिस्टी और उनके ताजे फलों की टोकरी खुशियों का कारण थी । सुबह टोकरी का भरा रहना और शाम को उसका खाली होना, ओमा के चेहरे की मुस्कान थी और उसके भी ।
ओमा का बुखार बढ़ता जा रहा था और माथे पर चिंता की लकीरें भी । सामने फलों की टोकरी आधी भरी रखी थी, वो बार – बार उसे देख रही थी और चिंता कर रही थी कि अगर फल बाजार नहीं गए तो खराब हो जाएंगे और पैसे भी नहीं आयेंगे । नन्ही क्रिस्टी ओमा की परेशानी समझ रही थी, कम उम्र में भी वो भरी और खाली टोकरी का महत्व समझने लगी थी। उसने ओमा का हाथ हौले से पकड़ा । फिर फोन करके एम्बुलेंस को बुलाया, 10 मिनट में डॉक्टर आ गए उन्होंने ओमा को दवा दी और बिल्कुल ना उठने की सलाह भी । ओमा का बुखार थोड़ी देर में कम होने लगा था, वो बाजार जाने की जिद करने लगी, पर आज क्रिस्टी उनकी एक भी बात मानने वाली नहीं थी। उसने बर्फ वाले जूते पहने, जैकेट पहनी, कैप और मफ़लर पहना बिल्कुल जिम्मेदार बड़ों की तरह, वैसे कपड़े पहनते वक्त उसने भीगी आँखों से ओमा की ओर देखा, रोज वो ओमा की डाँट पर गुस्सा करती थी, पर आज वो दिल से चाह रही थी कि ओमा उसे हर बात पर रोकें – टोके । उसने बड़ी मुश्किल से ओमा को मीठी वाली डाँट लगाकर सुलाया, फिर बाहर जाकर फार्म से बची टोकरी को उसी कारीने से भरने लगी जैसे उसकी ओमा भरती है । पर ये क्या टोकरी तो बहुत भारी हो गई , वो सोचने लगी अब क्या करें इसे उठाकर तो वो बाजार तक नहीं जा पाएगी।
तभी उसे मार्गेट की गुड़ियों वाली ट्रॉली का ध्यान आया, मार्गेट और क्रिस्टी एक साथ स्कूल मे पढ़ते भी है और पड़ोसी भी है। उसके चेहरे पर ओमा की परेशानी दूर हो जाएगी, ये सोचकर ही खुशी की लहर दौड़ गई। वो धीरे से मार्गेट के दरवाजे पर गई और हाँ स्टूल भी साथ में लेकर गई थी, क्योंकि मार्गेट की दरवाजे की घंटी ऊपर लगी थी । वो ओमा की परेशानी दूर करने में कोई लापरवाही और देर नहीं करना चाहती थी। उम्मीद के अनुसार दरवाजा मार्गेट ने खोला और क्रिस्टी की बात सुनने के बाद खुशी- खुशी उसको ट्रॉली देने को तैयार हो गई । गुलाबी रंग की ट्रॉली में फूलों से सजी टोकरी लगी थी, रंग- बिरंगे पहिये और मुलायम फ़र से ढंका हुआ हैंडल भी ।
उस समय क्रिस्टी के लिए वो ट्रॉली नहीं ओमा की खुशी उसकी खुशियों का रथ थी, पंखों वाला, उड़ने वाला, गुलाबी रथ। क्रिस्टी ने ट्रॉली की टोकरी मे सारे फल सजा लिए मार्गेट की माँ को ओमा के पास बैठा कर वो गाँव के बाजार की ओर चल पड़ी। बाजार 4 बजे शाम तक ही लगती थी और ये सब करते कराते दिन के 1 बज चुके थे , उसके नन्हे कदम हवाई जहाज की गति से चल रहे थे, वो बस ट्रॉली में रखी टोकरी को खाली करके, घर ले जाना चाहती थी क्योंकि उसको देखकर ही ओमा के चेहरे पर खुशी आ जाएगी ।
बाल मन पैसा नहीं देखता, व्यापार नहीं जानता पर खुशियाँ लाने का हौसला जरूर रखता है। बाजार कुछ किलोमीटर ही दूर था। लोकल ट्रेन से आना जाना उसे आता है, जर्मनी मे बच्चे छोटेपन से ही अकेले आते जाते है ये बात अलग है, ओमा हमेशा क्रिस्टी के साथ साये की तरह रहती हैं । बाजार में वो बड़े- बड़े ट्रकों के बीच अपनी ट्रॉली लेकर खड़ी हो गई । वो ओमा के साथ अक्सर रविवार को बाजार आती रहती थी। एक घंटे तक अपनी नीली पुतलियों वाली आँखों से वो टुकुर – टुकुर लोगों को आता- जाता देखती रही। किसी ने उसकी टोकरी की ओर देखा भी नहीं । ठंड में पैर भी जमे जा रहे थे, मोजे भी वो उलटे पहन आई थी, जो अब गड़ने लगे थे । उसे जोर- जोर से ओमा की गरम बाहें याद आने लगी थी। जाड़ों मे अंधेरा भी जल्दी हो जाता है, टोकरी के सारे फल ऐसे ही रखे थे। वो रोने- रोने को होने लगी, अब कैसे वो अपनी बीमार ओमा के चेहरे पर हँसी देख पाएगी ये चिंता भी उसे सताने लगी थी। तभी उसे लगा कुछ कंबल ओढ़े बच्चे उसकी टोकरी को लगातार ताक रहे है। वो डर गई, पहले तो उसने कोशिश की अपने स्कार्फ से फलों को ढकने की पर फिर उसे लगा लोगों को फल दिखेंगे नहीं तो वो खरीदेंगे कैसे। तभी उन बच्चों में से एक बच्चा उसके पास आया और बोला मैंने और मेरे दोस्तों ने सुबह से कुछ खाया नहीं है, हम भूखे है, यहाँ सभी से हमने खाने को मांगा सबने हमें भगा दिया। तुम दयालु लगती हो क्या तुम मुझे खाने को अपनी टोकरी से मीठे फल दोगी। क्रिस्टी सोच में पड़ गई, एक ओर शाम को फल बेचकर कुछ पैसे घर ले जाने पर ओमा के चेहरे की खुशी दूसरी ओर ओमा की ही सिखाई बात की किसी भूखे को खाना खिलाना ईशू को खाना खिलाना है। रात बढ़ रही थी, वैसे भी कोई फल खरीद नहीं रहा था, उसने सोचा क्यों न इन बच्चों को ही फल खिला दिए जाए कम से कम फल खराब तो नहीं होंगे। हाँ, शाम के लिए पैसे नहीं हो पाएंगे, पर टोकरी खाली हो जाएगी। वो जानती थी ओमा उसकी बात समझेंगी। भूख तो उसे भी लगी थी। उसने बच्चों को इशारे से पास बुलाया और पेट भर फल खाने को कहा। वो सब बहुत खुश हो गए उनकी खुशी देखकर वो भी खुश हुई और उनके साथ मिलकर फल खाने लगी। कुछ ही देर मे उसकी टोकरी खाली हो गई । कहीं न कहीं फल न बेचकर पैसे न कमा पाने का क्रिस्टी को अफसोस था, पर बच्चों के चेहरे पर रौनक देखकर संतोष भी था।
रात गहरी हो गई थी अब अकेले वापस जाने में उसे बहुत डर लग रहा था वो रूँआसी हो गई , उन बच्चों ने उससे पूछा वो क्यों रो रही है, तो क्रिस्टी ने सारी बात उन बच्चों को बताई। वो हँस कर बोले अरे, तुम बिल्कुल मत घबराओ, हम सब तुम्हारे साथ तुम्हें घर छोड़ने चलेंगे। तुम्हारी ओमा को शुक्रिया भी कह देंगे। तुमने बिना अपना नुकसान सोचे हमें फल खिलाए है जब हम भूखे थे। क्रिस्टी बहुत खुश हो गई कि अब उसे अकेले नहीं जाना पड़ेगा। सबने उसकी ट्रॉली को ठीक किया और साथ मे गाते हुए चलने लगे गिनीसेन दि लेबन – ज़िंदगी आनंद से बिताओ ।
सामने घर था ओमा बाहर उसका इंतजार कर रही थी, वो दौड़ कर उनसे चिपक गई और ओमा के चेहरे पर खाली टोकरी को देखकर आने वाली मुस्कान का इंतजार करने लगी, पर ओमा कौतूहल से अनजान बच्चों को देख रही थी। तभी एक बच्चे ने आगे बढ़कर ओमा के हाथ पर 100 यूरो रख दिए, ओमा ने पूछा, ये क्या है और क्यों। बच्चों ने क्रिस्टी ने किस प्रकार बिना अपनी भलाई सोचे उनको फल खिलाए उनकी भूख मिटाई, ये सारी घटना विस्तार से बताई और ये भी बताया की हमारे स्कूल मे सेंट मार्टिन सुंदर मन खोज प्रतियोगिता चल रही है, जिसमें निस्वार्थ भाव से सेवा करने वाले बच्चों को हमारा स्कूल पुरस्कृत कर रहा है, जिसकी खोज अनजान बनकर हम बच्चों को करनी होती है । आज हम सब ने क्रिस्टी से नेकी का निस्वार्थ भाव से सेवा का पाठ सीखा ।
शुक्रिया क्रिस्टी- सबने एक साथ बोला और अब से आप सिर्फ क्रिस्टी की ही नहीं हमारी भी ओमा है। तो अब हम सब जब तक आप ठीक नहीं हो जाती रोज स्कूल जाने से पहले आपके फलों को बेचने में क्रिस्टी की मदद करेंगे। ओमा की आँखों मे खुशी के आँसू थे, क्रिस्टी अपनी नीली पुतलियों मे आँसू भरकर उन्हें देख रही थी , इसी खुशी के लिए तो वो सुबह से जुटी थी। उसे अब जमे हुए पैर, उलटे मोजों की चुभन, कई किलोमीटर ट्रॉली धकेलकर ले जाने से हाथों मे हो रहे दर्द का आभास भी नहीं था। वो जानती थी कल सुबह ओमा की टोकरी फल- सब्जी के साथ, नए दोस्तों और खुशियों से भरी होगी।

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