मां की डायरी

सूर्यबाला

आवाजें आ रही हैं….

चले गए सब। वेणु, मेधा, बेटू और साशा¬

वृंदा, विशाखा, दिवांग और दूर्वा भी….

अब सिर्फ आवाजें गूंज रही हैं।… बेटू ऊब रहा है… ‘मॉम! आ ‘यम बोर्ड हियर‘… साशा लगातार मेधा को तंग कर रही है- ’व्हेन आर वी गोइंग बैक ‘होम!’… वेणु, मेधा को झुंझलाई देख कर बच्चों को अपने पास बुला लेता है। अमेरिका की तरह कुछ खेलने की कोशिश करता है। सहसा याद आने पर दिवांग, दूर्वा और मुनमुन को भी बुलाता है। वे नहीं खेल पाते। साशा पैर पटक कर जोर से, ’नोऽऽ’ कहती है।… विशाखा जल्दी से तीनों बच्चों को अपने पास बुला लेती है और एक बहुत हल्की, तल्ख मुस्कान के साथ कहती है- वेणु! तू अपने बच्चों को बहला, मैं इन सबको संभाल लूंगी… चलो सब इधर, तंग मत करो मामा को… दिवांग! जरा दूर्वा और मुनमुन को ’दुल-दुल घोड़ा, पांच पकौड़ा’ और ‘अक्कड़-बक्कड़ बंबे बो, अस्सी नब्बे पूरे सौ…’ वाला खेल खिला-तो…

दिवांग समझदार है। फौरन मां का आदेश मानकर बच्चों को बाहर बरामदे में लेकर चला जाता है। दूर्वा भी तो। दोनों कैसे भी बेटू और साशा को भी संभालते हैं। उन्हें खुश रखने की कोशिश करते हैं। थक जाने पर भी कहते नहीं। ये भी, तो आखिर बच्चे ही। बस वृंदा का मुनमुन नहीं समझता। साशा लाख मांगे, अपना खिलौना नहीं देता। अपने हक पर अड़ा रहता है। जबरदस्ती उससे लेकर साशा को देने की कोशिश करो तो चीख मारकर जमीन पर लोट जाता है। दिवांग और दूर्वा जब भी इंग्लिश बोलने की कोशिश करते हैं बेटू, साशा उस पर हंसते हैं। दिवांग अपमानित महसूस करता है।

लेकिन मुझे उद्विग्र देख संभाल ले जाता है। उल्टे मुझे समझाता है, आप जाइये नानी! परेशान मत होइये… मैं इन सबसे बड़ा हूं न!…

सिर्फ एक बार आहत स्वर में चिढ़ कर कहा था जाने दीजिए…। उसे रोने दीजिए नानी… जानती है क्या कह रहा है? आयम सिक ऑफ इंडिया… इसे यहां का सब कुछ गंदा, खराब लग रहा है।… फिर यह आया क्यों? पूछिए इससे…. हम सब इतना प्यार कर रहे हैं… वह सब कुछ नहीं… इसके लिए ही तो अपने इग्ज़ाम के दो पेपर बीच में छोड़कर आया हूं मैं…

विशाखा पास खड़ी कसमसायी दोनों होठ काट रही थी।

मैंने दिवांग को बाहों में मींचकर कहा था, वह छोटा और पगला है बेटा… पर मुझे खुशी है कि मेरा दिवांग इतना समझदार हो गया।

छोटी दूर्वा शह पाकर बटन सी गोल आंखें नचाती बोली और-और साशा भी तो… कोई खाना इसे पंसद नहीं आता। नाक सिकोड़ कर कहती है आय डोंट लाइक दिस यकी स्मेल… हर चीज को यकी-यकी बकती रहती है। मैं वेणु मामा से साशा की शिकायत करूंगी। दिवांग भइया! चलो, इसे छोड़कर…. हम मुनमुन के साथ खेंलेगे…. हां…ऽऽऽ

वृंदा किचेन से क्षुब्ध स्वर में बोली थी – ‘नहीं दिवांग! मामा से कुछ नहीं कहना है समझे तुम तीनों…

– ‘हांऽऽऽ मामा को दुःख होगा न! मामा एक दिन बेटू साशा को समझा रहा था- दिस इज़ अवर कंट्री बेटे… वी आर बॉर्न हियर। वी आर प्राउड ऑफ इट…

– नोऽऽऽ आयम नॉट- दिस इज़ नॉट माय कंट्री। पीपुल ओनली टॉक एंड लाफ, ऑल द टाइम’…. एंड दैट आलसो, सो लाउडली… पास खड़ी साशा भी नाक सिकोड़कर बोली

– येस, एंड सोऽऽ मेनी बग्स- एंड फ्लाइ… एंड सो मैनी पीपुल टूऽऽऽ

अचानक याद आया, नासिक से प्रयाग की लंबी तीर्थयात्रा के दौरान दो विदेशी मिले थे जो हर स्टेशन पर उतर-उतर कर प्लेटफॉर्म पर तली जाती पूरियां, सब्जी और जलेबियां खा रहे थे। खूब खुश, मस्त घूम रहे थे। पता चला, हर दो-चार साल पर पैसे इक्टठे कर दोनों यहां आ जाते हैं। उन्हें इंडिया अच्छा लगता है।

प्रभाकर ने उनसे पूछा था- व्हाय? यहां का क्या आपको सबसे अच्छा लगता है?

उन्होने छूटते ही कहा था- पीपुल…

और बेटू साशा कह रहे थे, वी आर सिक ऑफ दीज़ पीपुल।…

चटाक्… बेटू के नरम गालों पर वेणु के सख्त हाथों का चांटा पड़ा था। सब एक बारगी सनाका खा गए थे। बेटू एक पल को अकबकाया फिर जोर से बिलबिला कर रो पड़ा। उसे रोता देख साशा भी। मेधा दोनों को लेकर तेजी से कमरे में चली गई। पूरा घर स्तब्ध था। जैसे किसी को विश्वास न हो पा रहा हो।

लेकिन पूरा घर कहीं संतुष्ट भी था, जैसे सबका चाहा हो गया हो, जो सब चाहते थे लेकिन कर नहीं पा रहे थे। इस न्याय से संतुष्ट थे सब। अचानक विशाखा उठी। कचोट और पछतावे से भरी हुई, वेणु के पास आ चुपचाप खड़ी रही फिर जैसे उसे और खुद को एक साथ समझाती कहती रही तू बहुत परेशान हो जाता है वेणु! मन को समझा। अब ये बच्चे तो आखिर वहीं के हुए। बेचारे बुआ, दादी को क्या समझेंगे। उनका दोष भी नहीं।…

वेणु सुनता-सुनता उठा और हारा सा चुपचाप कमरे में लौट गया था।

वेदनाओं का पुर्नजन्म

क्या व्यथा और वेदनाएं भी पुर्नजन्म लेती रहती हैं!… तभी तो सालों-साल बाद, आज वह व्यथा मेरे अंदर हलकोर उठी है जब लोकेन्द्र अपनी ग्यारह साल की बच्ची को लेकर हिंदुस्तान आया था, अम्मा की बीमारी में उन्हें दिखाने…। लोकेन्द्र ने अपनी बेटी को उसकी दादी से इंट्रोड्यूज कराया था -‘योर ग्रैन्ड मां!‘ दादी-पोती बिटर-बिटर एक दूसरे को देखती रहीं थीं…

बाद में अम्मा ने मुझसे कहा था – ‘वाय क्या मालूम, कौन हूं मैं उसकी – उसे एक शब्द रटा दिया गया… दादी बाकी तो हम निरे अजनबी ही रहे एक-दूसरे के लिये… नहीं…?

इतने वर्षों बाद, हमारे पहुंचने पर, वेणु वही कह कर बेटू को हमारा रिश्ता बता रहा था और बेटू ऊबासा पूछ रहा था – डैड! मैं जा सकता हूं क्या-

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कितनी प्यारी बातें!….

मेधा खाने के लिये बुला रही है – बेटू हाथों में पकड़ा वी.डी.ओ. गेम्स सॉल्व कर रहा है।

सुबह नाश्ते पर –

बेटू अभी सोया है।

शाम डिनर पर-

बेटू अभी लौटा नहीं है।

या फिर, आयम नॉट हंग्री…

या फिर, बेफिक्री से- व्हाट्स फॉर डिनर…

मेधा बताती है। जवाब में वह ‘यकी‘ जैसा कुछ कहता है।

– मैं ‘हैम’-सैन्डविच खा लूंगा।

-‘आई तूऽऽ…(मैं भी..)‘ साशा तुतलाती है। उसका हीरो बेटू है। खान पान बोल चाल सब में। ठीक उसी की तरह साशा भी, जब तब अपनी नापसंदगी, ‘यकी‘ कह कर जाहिर करती है।

हम ऐसी हर बात पर हंस देने की कोशिश करते हैं। जैसे बच्चे ‘कितनी प्यारी बातें’ कर रहे हैं।

एक लाचार कोशिश उनसे जुड़ पाने की। दादा, दादी का न सही… कैसा भी… एक रिश्ता सा ही सही…

लेकिन कहां जुड़ पाता है?

वेणु का बेटा, मेरे ऐन सामने होकर भी बहुत दूर है मुझसे।

हम क्या बात करें!…

हम किसकी बात करें….

हम कैसे (किस भाषा में) बात करें।

क्या यह सिर्फ जेनेरेशन गैप है?

नहीं, वृंदा, विशाखा के बच्चों के बीच यह अजनबीयत नहीं है। दूर रहने पर भी उनके जे़हन में मौसी, मामा, बुआ, चाची आदि सारे नाम मिठ बोली स्मृतियों के साथ सुरक्षित है। उनके ऊपर, नीचे की पीढ़ियों वाले नाम भी। इन पहचानों की वजह से वे जुड़ लेते हैं। बिना मिले भी जैसे मिले होते हैं…. और एक दूसरे से दूर होते हुए रोते हैं।…

बेटू के पास ऐसी कोई स्मृति नहीं हैं जिसे वह संजोकर रखना चाहे। इतने सारे देखे चेहरों में से कोई चेहरा ऐसा नहीं जिससे वह कोई लगाव महसूस कर सके। कौन क्या है, वह नहीं समझ पाता। समझना चाहता भी नहीं। यह रिलेशन, रिश्ता क्या बला है जिसे लेकर लोग इतना हंसते, रोते हैं। रिलेशन और फैमिली के नाम पर वह सिर्फ मां, डैड, और साशा को जानता है।

बाकी के लोगों के साथ वह दूरियां नाप सकता है, नजदीकियां नहीं।….

भूलना मत हमें…

रिक्शा आ गया। विशाखा जा रही है।

बेटू और साशा, मेधा के पास खड़े चुपचाप देख रहे होते हैं… वेणु को गले से लगा कर रोती हुई विशाखा को… तू बहुत दूर चला गया वेणु।… जहां न हम पहुंच सकते हैं, न तू ही बार-बार आ सकता है। अब के गए फिर न जाने कब देख पाएं हम एक दूसरे को… खुल कर रो लेने दे मुझे… कब की रोकती, दबाती आई हूं… कबका बिछड़ा मिला है तू मुझे इस बार।… अचानक विशाखा, वेणु का सिर अपनी बाहों में भींच लेती है जानती हूं, तू मेरा वही छोटा भइया है रे… उसने वेणु का माथा इस तरह चूमा जैसे वह सचमुच छोटा बच्चा हो-

सामान रख गया तो रिक्शे पर बैठती विशाखा के पांव छुलाए वेणु ने साशा और बेटू से। दिवांग और दूर्वा बड़े पुरखों की तरह, बड़ों की सुनासुनी दोनों को प्यार करते हुए कह रहे थे- ‘भूलना मत हमें। हम तुम्हारे भइया, दीदी होते हैं।… समझे।…

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शर्मिंदा सभ्यताएं

आवाजें गूंज रही हैं।… दूर होते जाते रिक्शें की ट्रिन-ट्रिन करतीं घंटियों भी… धुंधलाती यादों के रंग रेखाओं की… जैसे रबर से उन्हें घिस घिस कर मिटाया जा रहा हो। अक्सर हम रक्त संबंधों के सबूतनामे लेकर बैठे रह जाते हैं, लेकिन बहती नदियां, सूखती भी तो जाती हैं। दोआबे ऊसर में तब्दील नहीं हो जाया करते क्या!… तो क्या आदमी भी ऐसे ही तब्दील हो जाएगा? निपट अकेला रह जाने के लिए? नहीं, शायद वह जरूरत भर का साथी तलाश लिया करेगा।

और ये रक्त संबंध!… हटते जाएंगे हमारे शब्द कोषों से?…

तो क्या, तब नये शब्दकोष बनेंगे?

नई सभ्यताओं के… लेकिन सभ्यताएं तो यहां पहुंच कर शर्मिंदा खड़ी हैं।…!

(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास का एक अंश)

-सूर्यबाला

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