
घर
– चित्रा मुद्गल
टूटते जाड़े का वह मटमैला-सा उदास दिन था …
शिप्रा,
बालकनी से लगे तारों पर मैं कपड़े सुखाकर पलटने को ही थी कि तभी दरवाजे की उतावली घण्टी ने मुझे अपनी ओर खींचा।
पड़ोस के किशोर ने सूचना दी “आण्टी, उस बूढ़े अंकल की मौत हो गयी है जिससे महीने भर पहले आपका झगड़ा हुआ था। नीचे ठेलेवाले ने बताया।”
शिप्रा के हाथ से बाल्टी छूट गयी। बाल्टी पर पकड़ ढीली नहीं थी, खबर ने मुट्ठी की जान खींच ली। हफ्ता होने को आया उसे पुलिया पर बैठे घर की ओर ताकते नहीं पाया। लगा, मुझे उससे नहीं, उसे वहाँ देखने की अपनी आदत से छुटकारा पाना है। मगर आदत थी कि मेरी चेतावनी की उपेक्षा करती हुई उस बूढ़े से अलग होने को राजी नहीं थी। शायद इसीलिए उसके पुलिया पर न होने के कारणों ने हर दिन कुछ उद्विग्न किया।
“ठेलेवाले से पूछ सकते हो बेटे, कि क्या वह उस बूढ़े के घर का पता जानता है ?”
शुभम और नेहा को स्कूल से लौटने में दो घण्टे की देरी थी। तब तक उसे देखकर लौट आना होगा। घर की चाभी फिर भी किशोर के घर रख देनी होगी। तय हो गया मन में। कपड़े जैसे हैं वैसे ही चलेंगे। पता तो मिले। तेलेवाले ने गली बता दी। घर नहीं। गली में पहुँचते ही घर पूछपौछ से पता चल जाएगा। त्रिलोकपुरी अट्ठाईस ब्लाक !
पुलिस में शिकायत दर्ज करवायी थी मैंने :
‘सुबह नौ-दस के बीच इमारत के सामने सड़क पार पुलिया पर बैठा एक यूदा घण्टों मेरे घर की ओर ताकता रहता है। परेशान हूँ। विधवा हूँ। दो किशोर बच्चों के संग अकेली रहती हैं। ससुराल वालों की आये दिन की प्रताड़ना से बचने, जहर न खाकर बच्चों को शिक्षित करने के ख्याल से, एन्काउण्टर में मरे हवलदार पति का मुआवजा लेकर इस घर को मायके की मदद से खरीदा है मैंने। नौकरी की तलाश में हूँ। हिन्दी पढ़ाने के लिए पब्लिक स्कूलों के चक्कर लगा रही हूँ। नौकरी लग जाए तो संग बी.एड. भी कर लूँगी। हवलदार की पेंशन ही कितनी होती है। ऊपर से सन्दिग्ध से लगते उस बूढ़े की मुसीबत चैन नहीं लेने दे रही। बूढ़ा देखने में छटा हुआ बदमाश लगता है। बिना मर्द के औरत को रहता पाकर लूटने लाटने की घात में होगा। शुभम और नेहा को तकरीबन रोज ही चेतावनी थमाकर स्कूल भेजती हूँ। अजनबी से बोलने-चालने की जरूरत नहीं। ललचाकर उनसे कोई चीज लेने लिवाने की जरूरत नहीं। अपहरण की वारदातों से पूरा शहर त्रस्त है…’
पुलिस ने एफ.आई.आर. पर फुर्ती दिखायी। रिश्ता निबाहा। बूढ़े को धर दबोचा। पूछताछ के लिए मुझे भी बुलवा भेजा।
बूढ़ा करीब से बहुत बूढ़ा लगा। पुलिस का झन्नाटेदार तमाचा नहीं झेल पाया। कुर्सी समेत फर्श पर उलट गया।
मैंने मना किया। मारपीट की आवश्यकता नहीं। केवल बूढ़े से कह दें- मेरे घर की पुलिया पर बैठना बन्द कर दे और घर पर नज़र रखना।
बूढ़ा मार खाकर नहीं रोया। मेरी बात सुनकर सुबकियाँ भरने लगा… सुबकियाँ भरते हुए उसने बताया- जिस घर में में रहती हैं-उसके बेटे का है। उसी घर में पोते-पोतियाँ और उसके संग बेटे-बहू किराए पर रहते थे। सुख सावन की झींसी-सा पूरे परिवार को फुरफुराता पुलकाता रहता।
अचानक एक रोज… निर्दयी खग्रास ने उससे उसके आँखों की रोशनी छीन ली …
हिचकियों की खिंचन से वृढ़े की बत्तीसी कमज़ोर मसूढ़े छोड़ उसके काले सिकुड़े लटके ओठों पर आ गयी।
उसके दुःख से विहल मुझे ही उसे चुप्प कराने आगे आना पड़ा। आखिर हुआ क्या, जिज्ञासा पुलिसवालों के मुँह पर भी लटकी दिखी।
बताया। बच्चे जाने कब से बर्फ़ देखने को ललक रहे थे। टैक्सी लेकर मसूरी गये। अट्ठाईस दिसम्बर उनकी वापसी का दिन था। चीतल के पास उनकी गाड़ी फ्रिज लदे ट्रक से टकरा गयी; पूरा परिवार समाप्त हो गया। उसे घर छोड़ना पड़ा। गाँव के मामूली से अध्यापक की चुटकी-भर पेंशन का बूता नहीं था कि उस घर का किराया चुका पाती।
नजदीक त्रिलोकपुरी में ही एक कमरा किराये पर ले लिये, ताकि आते- जाते उस घर को देख सके। उन दीवारों को छूना चाहता है जिनमें उसके बच्चों की साँसों की गन्ध पैठी हुई है! खिलखिलाहटें मंडरा रही हैं। उसे महसूस होती हैं। कुछ दिनों घर बन्द पड़ा रहा, मगर पुलिया पर बैठने का उसका नियम नहीं टूटा।
… पुलिया पर बैठे हुए वह बालकनी के तार पर जब उसके बच्चों के रंग-बिरंगे कपड़ों को फड़फड़ाता हुआ पाता है, बच्चे उसके पास किलकारियाँ भरते हुए दौड़ आते हैं!
एक एहसान करें उस पर। जब तक वह जीवित है उसे उसके घर की पुलिया के सामने बैठने की अनुमति दें! घर के दरवाजे पर वह कभी दस्तक नहीं देगा। यकीन करें उसका !…
रिक्शे से उतरकर उसके कमरे को ढूँढ़ उसकी निर्जीव काया तक पहुँची तो पाया-वह न जाने कितने लोगों से घिरा हुआ है। उसने तो कहा था, उसका कोई नहीं। न इस शहर में न गाँव घर में।
लोगों ने बताया। वे पड़ोसी हैं। बूढ़े को कई रोज से बुखार आ रहा था। डेढ़-दो घण्टे पहले ही प्राण छूटे हैं। डॉक्टर ने उसका मृत्यु-प्रमाणपत्र मकान मालिक को दे दिया है। पुलिस आ रही है। लावारिस लाश का दाह-संस्कार वही करेगी।
सिरहाने खड़ी हो जैसे ही मैंने बूढ़े के माथे पर हाथ रखा, तुम्हें यकीन नहीं आएगा, उसकी अधमुँदी पलकें उठीं और खुली आँखों ने मुझसे कहा, “तुम आ गयी बहू!”
आवाज़ उसी की थी। आवाज़ मैंने उसकी सुनी थी। भूली नहीं थी। भुला देनेवाली थी भी नहीं। कैसे भूलती शिप्रा !
हलचल हुई फुसफसाहटें संकेत करने लगीं। “हटिए, हटिए, स्ट्रेचर को खटिया तक ले जाना होगा।”
गठरी हो आई काया को बेदर्दी से पुलिस के जवानों ने स्ट्रेचर पर खींचा।
पता नहीं अचानक मुझे क्या हुआ। गले से चीख-सी फूटी :
“रुकिए! किसने आपसे कह दिया ये लावारिस हैं? इनका कोई नहीं ? इनका पोता शुभम है न, वही मुखाग्नि देगा अपने दादा को…”
शिप्रा !
उन्होंने अपनी बहू को पहचाना, बहू उन्हें कैसे न पहचानती !
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