
हिंदी तेरा क्या होगा
डॉ. अशोक बत्रा, गुरुग्राम
अँधेरा इतना सघन है कि एक जुगनू भी नहीं टिमटिमा रहा। जिस सोसाइटी में रहता हूँ, वहाँ हिंदी में कोई छींकता भी नहीं। सर्दी में किसी को जुकाम नहीं होता, बस नोज़ी-नोज़ी हो जाता है। यह तो तब है जब उसमें शत-प्रतिशत भारतीय; और विशेष रूप से हिंदी क्षेत्र के लोग रहते हैं। फिर भी पूरी सोसाइटी में एक शब्द भी हिंदी का प्रयुक्त नहीं होता। सभी नामपट्ट, सभी टॉवर्स के नाम, सभी नागरिकों के नाम, हस्ताक्षर, आपसी संदेश — सब जगह अंग्रेजी का पूर्ण साम्राज्य है। वर्षों बाद एक जगह चेतावनीपरक बोर्ड लगा हिंदी में। यूँ लगा, जैसे जुगनू टिमटिमाया हो। सच में जुगनू था, वह भी काना — एकाक्षी। वर्तनी गलत थी।
मन में हूक उठी — हिंदी! तेरा क्या होगा?
जैसे ही बच्चा पैदा होता है, माँ अपने स्तनों से नवजात का मुँह हटाकर किसी विदेशी मॉम के स्तनों को उसमें ठूँस देती है। इसलिए नवजात की शिराओं में खून ही विदेशी पहुँचता है। अब नवजात को केला नहीं बनाना खाना होता है, आम नहीं, मैंगो चूसना होता है। और जब शिक्षित लोगों की पूरी की पूरी प्रजाति ही विदेशी जंगलों में भटक गई हो तो मन में यही हूक उठती है — हिंदी! तेरा क्या होगा?
कभी-कभी प्रश्न उठता है — ये भारतीय माएँ अपनी संतानों को अपनी छाती का दूध पिलाती क्यों नहीं? क्या उन्हें अपने दूध पर विश्वास नहीं? क्या उनका अपना खून अक्षम है?…. चारों ओर देखकर लगता है — ये डरी हुई माएँ हैं। इनका वात्सल्य और ममत्व इन्हें शक्तिशाली बनाने की बजाय इन्हें डराता है। क्योंकि कुछ माएँ अंग्रेजी के गुमान में उन्मादित होकर हिंदी को ही तुच्छ घोषित किए हुए हैं। इन विदेशी गंध से बासित आत्मविस्मृत माओं से पिछड़ने के भय के मारे ये डरी हुई माएँ अपने सुतों की भविष्य- रक्षा में अपने ममत्वपूर्ण संस्कारों को भी दाँव पर लगाए हुए हैं। वे देख रही हैं कि जिन्होंने विदेशी वक्ष से दूध पिया है वही बच्चे बड़ी-बड़ी नौकरियों में हैं। वरना तो पूरा देश एक अंतहीन भीड़ में गुम है। और कोई माँ अपने बच्चों को भीड़ में गुम नहीं करना चाहती।
परंतु — क्या कोई रास्ता निकलेगा?
या घुप्प अँधेरा है भविष्य में। क्या हिंदी का अंधकारकाल आने वाला है?
हाँ, आशा तो है, सम्भावना भी है। एक किरण है जो कहती है — निश्चित रूप से रास्ता निकलेगा! और इन्हीं माँओं के माध्यम से निकलेगा। बस इंतजार है किसी जीजाबाई की, जो शिवाजी को जन सके और उसे दाँव पर लगा सके। वरना कल्लू की माँ से तो लल्लू और बल्लू ही पैदा होते हैं, जो कीट- पतंग की तरह अपनी- अपनी जिंदगी बसर करके खत्म हो जाते हैं। बस प्रतीक्षा! कोई बड़ा काम करने के लिए बड़ा ही व्यक्ति पैदा होता है। प्रतीक्षा है किसी महान व्यक्ति की — जैसे रावण का ध्वंस करने के लिए राम हुए थे। नास्तिकता का अँधेरा मिटाने के लिए रामकृष्ण परमहंस हुए थे, योग साधना का नव-उत्थान करने के लिए बाबा रामदेव हुए… प्रतीक्षा है किसी और राम की, जो इस बार हिंदी का झंडा उठाए और लोगों से कहे कि कम- से- कम तुम अपनी माँ के दूध को, अपनी भाषा को लज्जित मत करो। देखते हैं, कब जन्म लेती है वो माँ!
आज तो स्थिति यह है कि पूरा का पूरा जंगल ही अंग्रेजी सिंचाई से सिंच-सिंच कर गीला हो चुका है। किसी में आग नहीं है। न ही सूखी पत्तियाँ हैं जो चिंगारी छूते ही दावानल बन जाएँ । समूचा भारत अंग्रेजी के गीले घासफूस में तब्दील हो चुका है। जहाँ कोई चिंगारी या लपट उठती भी है तो आग नहीं भभकती बल्कि एक धुएँ का गुबार उठता है और सभी की आँखों को मिचमिचा कर और आकुल बना देता है।
बस एक आशा की किरण जगती है… भारत के उन दिशाभ्रष्ट कहलाने वाले, सस्ते, छिछोरे फ़िल्मी गानों, फिल्मों और सीरियलों से जो देश में ही नहीं विदेशों में भी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की धमक बनाए हुए हैं। अभी भी ठुमके हिंदी, पंजाबी और अन्य देशी भाषाओं वाले गीतों पर लगाए जा रहे हैं। अधिकतर महफिलेँ हिंदी उर्दू आदि भाषाओं और बोलियों से सजती हैं। चुटकले हों या हास्य के लोकप्रिय कार्यक्रम — स्वदेशी भाषाओं तथा बोलियों में आनंद देते हैं। इन्हीं के कारण हिंदी व्यापार, मनोरंजन, लोकप्रचार और लोकसंवाद की भाषा बनी हुई है। अपने पढ़े-लिखे बेटों से तो कभी किसी माँ को आशा नहीं रही। हिंदी का झंडा आज भी वही अनपढ़ भुच्च ग्रामीण उठाएँगे। यही लल्लू, बल्लू और तथाकथित नालायक कहलाने वाले बालक ही हिंदी की अस्मिता बचाने आगे आएँगे। पढ़े-लिखे सपूतों ने तो इतना भी नहीं किया कि जब इंटरनेट यूजर्स में अपने देश का दबदबा है तो कम- से- कम इंटरनेट संचालित करने वाले उत्पादों में हिंदी को उसका स्थान और सम्मान दिला देते। उनसे क्या उम्मीद करें? वे तो स्वयं भरे दरबार में हिंदी का चीर-हरण करने में लगे हुए हैं। स्वभाषा पहले ही दाँव पर थी; एक लिपि बची हुई थी, उसे वे पढ़े-लिखे सपूत मिटाने में लगे हुए हैं! वे हिंदी के भी सन्देश लिखते हैं तो रोमन लिपि में लिखते हैं, देवनागरी में नहीं। उनका वश चले तो भारतमाता को भी वैस्टर्न गाउन पहना दें।
और हम लज्जित हैं कि हम लज्जित भी नहीं हैं!!