
इस स्वतंत्रता दिवस विशेषांक में अनीता वर्मा – संपादकीय; डॉ अरुणा अजितसरिया एम बी ई– ब्रिटेन; अलका सिन्हा- दिल्ली ; हरिहर झा- आस्ट्रेलिया; आराधना झा श्रीवास्तव- सिंगापुर; डॉ. मंजु गुप्ता, दिल्ली; डॉ. शिप्रा शिल्पी सक्सेना- जर्मनी; डॉ. ऋतु शर्मा ननंन पाँडे- नीदरलैंड; संगीता चौबे पंखुड़ी- कुवैत; डॉ महादेव एस कोलूर- कर्नाटक; डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त- महाराष्ट्र एवं निशा भार्गव- दिल्ली की रचनाएं सम्मिलित हैं।
संपादकीय

अनीता वर्मा
स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ व जयघोष
स्वतन्त्रता के 79 वर्ष में होने के बाद हम दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला देश बनने के साथ-साथ दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने की ओर हैं। उच्च मध्य आय के दर्जे तक पहुंचने की आकांक्षा के साथ जहॉं भारत प्रगति की ओर है वहीं हमारी संस्कृति, सभ्यता और सामाजिक मूल्यों ने हमें विश्व में विशेष पहचान दिलाई है। विकास यात्रा के इस क्रम में आज देश प्रेम का जयघोष उस समय और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम भारत पाक युद्ध की विभीषिका के बीच सशक्त रूप से उभर कर आते हैं। इस वर्ष भारत-पाक युद्ध का सांकेतिक स्वरूप सामने आया तो जन मानस के मन में देशभक्ति की लहरों ने नर्तन करना शुरू किया। पूरे देश के साथ-साथ विदेशों में बैठे भारतीय समुदाय ने भी अपनी आवाज उठाई। सोशल मीडिया पर ना जाने कितने विचारात्मक संदेश और संवाद शुरू हुए जो देशभक्ति से ओतप्रोत थे ,वहीं दूसरी ओर कई कवियों ने ओज से ओतप्रोत कविताओं को साझा किया । ये सत्य है कि समय, काल, परिस्थितियों के अनुसार लेखन भी बदलता है और यहीं हुआ। आज के समय की कविताओं में नए स्वर थे। कलम की ताक़त एक बार फिर से उभर कर आई। विदेश में रह रहे भारतीयों ने भी अपनी रचनाओं से विशिष्ट उपस्थिति दर्ज की।
वास्तव में यह वर्ष जहां एक ओर संभावनाओं का वर्ष है वहीं दूसरी ओर देशप्रेम अपने चरम पर है। सीमा पर तैनात जवानों से लेकर हर भारतीय अपने आप को जोश से भरा हुआ महसूस कर रहा है। आर्थिक विकास के इस दौर में युद्ध की संभावनाएँ हमें मंथन के लिए प्रेरित करती हैं। वैश्विक हिन्दी परिवार का ये विशेषांक आप सब की इन्हीं भावनाओं से जुड़ा हुआ है। आशा करती हूँ कि यह स्वर और कलेवर आप सबको अवश्य पसन्द आयेगा।
मुस्कुराहटों में बचपन खिलखिलाता रहे
मेरे देश का हर बच्चा मुस्कुराता रहे
हो ना पैरों में छाले किसी शख़्स के
ज़ख़्म एक दूजे के दोस्त सहलाता रहे
आसमानों में लिखे इबारतें प्रेम की
मेरे गीतों में तिरंगा लहराता रहे
हवाओं में ख़ुशियाँ हरे भरे खलिहान
बालियों में बालपन लहराता रहे
हो दुआओं में पूजा ,अर्चना में इबादत
तिरंगा मोहब्बत का बस फहराता रहे
हम सबकी सुनें रब्ब हमारी सुने
वो ऊपर से नेह वर्षा बरसाता रहे।

डॉ अरुणा अजितसरिया, एम बी ई, ब्रिटेन
हिंदी साहित्य में राष्ट्रीयता की भावना
‘राष्ट्र’और ‘भावना’ दोनों स्वतंत्र शब्द हैं जिसके मेल से राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय भावना अथवा राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप बनता है। यही भावना साहित्य में स्वर और सुर बनकर प्रवाहित होती रहती है। इससे जनमानस में सामूहिक चेतना का निर्माण होता है। देश भक्ति का उद्वेलन कभी समर्पण तो कभी आंदोलन का रूप धारण कर लेता है, जिससे व्यक्ति के स्वत्व से लेकर राष्ट्र तथा देश की स्वतंत्रता और समानता की सुरक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण तक के भाव समाविष्ट होते हैं।
राष्ट्रीयता सर्वथा आधुनिक संकल्पना नहीं है। यह हमारी सांस्कृतिक धरोहर और हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग है। साहित्य भी उसी संस्कृति का एक अंग है। यह परस्पर एक दूसरे में गुथे हुए होते हैं, जिससे जनमानस में राष्ट्रीय चेतना को उत्तेजित तथा सुदृढ़ करने में सहायता मिलती है। इसके लिए साहित्य सदैव अग्रणी की भूमिका में रहा है।
राष्ट्रप्रेम अथवा राष्ट्रीय चेतना इस देश में सदैव से रही है, कोई भी देश बनता है भौगोलिक क्षेत्र से, उस क्षेत्र में रहने वाली जनता से, उसकी भाषा से, उसके रहन-सहन तथा संस्कृति से और इन सबका प्रतिबिंब साहित्य में मिलता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस बात को इस प्रकार स्वीकार किया है कि ‘प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है।’ इसलिए यह निश्चित है कि हिंदी साहित्य के प्रत्येक कालखंड में अपने युगबोध के सापेक्ष कवियों ने अपनी कविता में राष्ट्रीयता के स्वर अवश्य दिए होंगे। उन्होंने दिए भी हैं, क्योंकि राष्ट्रवाद का कोई एक रूप नहीं होता। क्रांतिकारी राष्ट्रवाद, सुधारवादी राष्ट्रवाद, जन राष्ट्रवाद, पुनरुत्थान वादी राष्ट्रवाद आदि राष्ट्रवाद के विचारधारात्मक प्रकार हैं। इन्हें हम हिंदी साहित्य के आदिकाल, भक्तिकाल तथा रीति कालीन साहित्य में पाते हैं, किंतु राष्ट्रीय चेतना एक प्रवृत्ति के रूप में अपनी पूरी धमक के साथ हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में ही प्रतिष्ठित होती है।
वस्तुत: हिंदी साहित्य के इतिहास में राष्ट्रीयता की भावना सदैव विद्यमान रही है। युग की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप उसके संदर्भ बदलते रहे हैं और कभी वह मुख्य धारा के रूप में मुखर रही तो कभी अंतर्धारा के रूप में। प्रत्येक पीढ़ी का दायित्व अपनी अगली पीढ़ी के लिए जीवन मूल्यों की नींव रखना होता है जो राष्ट्रवाद द्वारा संभव है। भावी पीढ़ी की परिकल्पना के तीन महत्वपूर्ण बिंदु आधुनिकीकरण, लोकतंत्र और राष्ट्रीयता माने जाते हैं। राष्ट्रीयता की बात करते समय देश के स्वायत्त की रक्षा के लिए अपेक्षित वीरता, स्वाभिमान और उन दोनों को अभिव्यक्ति देने के लिए अपनी भाषा शामिल हैं।
आदिकाल में राष्ट्रीयता की भावना उस युग के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में करते समय यह स्पष्ट है कि देश अलग-अलग राज्यों में बँटा होने के कारण हर क्षेत्र के शासक का उद्देश्य अपने राज्य की सुरक्षा और उन्नति करना था। आदिकाल में राज दरबार के चारण कवि अपने आश्रयदाता की वीरता और राष्ट्र-प्रेम की प्रशस्ति करते थे जो उस समय की राष्ट्रीयता की भावना दर्शाता है। वे राज्याश्रय में रहकर जनजीवन में राष्ट्रीय और जातीय भावनाओं का संचार करते थे।
आदिकाल के कवियों में प्रमुख रचना चंदबरदाई की ‘पृथ्वीराज रासो’ है। चंदबरदाई पृथ्वीराज तृतीय (1178-1192) के दरबारी कवि थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उन्हें हिंदी का प्रथम महाकवि और पृथ्वीराज रासो को प्रथम महाकाव्य माना है। जनश्रुति के अनुसार चंदबरदाई और पृथ्वीराज का जन्म और मृत्यु एक साथ हुई थीं। पृथ्वीराज रासो एक चरित काव्य है। इसका नायक राजा पृथ्वीराज है। 69 सर्गों में महाकवि ने विदेशी आक्रामक मोहम्मद गौरी के खिलाफ युद्ध करते समय पृथ्वीराज के साहस, युद्ध कौशल और वीरता के वर्णन किए हैं। पृथ्वीराज के शौर्य और अपने राज्य की रक्षा के संकल्प के कई उदाहरण हैं। प्रसिद्ध किंवदंती के अनुसार जब राजा पृथ्वीराज की महती सेना युद्ध के लिए प्रयाण करती थी तो उनके घोड़ों के पदचाप सुनकर गर्भवती स्त्रियों के गर्भ के शिशु उछलने लगते थे। पृथ्वीराज के वीर सिपाही युद्ध में डटे रहे और तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज मोहम्मद गौरी को शब्दभेदी बाण से मार गिराकर विजयी हुए। पृथ्वीराज चौहान का जीवन और उनकी वीरता भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। उनके शौर्य और राज्य की रक्षा के संकल्प की कहानियाँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।
युद्ध में पृथ्वीराज की निर्भीक वीरता और शौर्य का वर्णन चंदबरदाई ने अत्यंत ओजस्वी भाषा में किया है। इसकी भाषा को भाषा-शास्त्रियों ने ‘पिंगल’ कहा है, जो राजस्थान में ब्रजभाषा का पर्याय है।
पृथ्वीराज रासो में पृथ्वीराज की सेना का वर्णन अत्यंत रोमांचकारी है। कवि ने उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकारों की झड़ी लगाकर उत्कृष्ट साहित्य रचा है। वे लिखते हैं, योद्धाओं के सजने की धूम-धाम सुनाई पड़ी तो तीनों लोक केले के पत्ते के समान काँपने लगे। क्या गौरी पति शिव ने डमरू को ‘डह-डह’ किया! क्योंकि उन्होंने जाना कि योग- योगादि का अंत हो गया है। क्या शेषनाग का सिर भार-रहित तो नहीं हो गया। क्या सूर्य का घोड़ा, उच्चाश्व सूर्य के रथ में नहीं रहा? अथवा कमल-सुत ने क्षीर सागर में कमल को नहीं पाया और इसलिए शंकित होकर ब्रह्मांड को पकड़ लिया! इसे कवि राम और रावण का युद्ध क्यों न कहे? अथवा यह क्यों न कहे कि देवी शक्ति महिषासुर का बलिदान लाभ कर रही थी? कंस, शिशुपाल और प्रद्युम्न की जो प्रभुता थी वह लक्ष्मी जैसे उनसे भयभीत होकर जयचंद में रत हुई यहाँ भ्रमित हो रही थी।
चंदबरदाई की भाषा की ध्वनयात्मकता युद्धभूमि के शब्दचित्र अंकित करने में कितनी सक्षम है:
सज्जतं धूम धूमे सुनंत।
कंपिय तीनपुर केलि पत्तं॥
डमरु डहडह कियं गवरि कंतं।
जानियं जोग जोगादि अंतं॥
किम किमे सेस सिर भार रहियं।
किमे उच्चासु रवि रथ्थ नहियं॥
कमल सुत कमल नहि अंबु लहियं।
संकियं ब्रह्म ब्रह्मांड गहियं॥
राम रावन्न कवि किंन कहिता।
सकति सुर महिष बलि दान लहिता॥
कंस सिसुपाल पुरजवन प्रभुता।
भ्रामिया जेन भय लष्षि सुरता॥
आदि काल के अन्य कवियों में दलपति विजय की रचना “खुमाण रासो” में मेवाड़ के राजा खुमाण की वीरता का वर्णन है। नरपति नाल्ह की रचना “बीसलदेव रासो” में बीसलदेव की वीरता और राष्ट्रीयता का वर्णन है इन कविताओं में राजाओं की वीरता, युद्ध कौशल और देशभक्ति का गुणगान किया गया है, जो उस समय की राष्ट्रीयता की भावना को दर्शाता है।
भक्तिकाल में राष्ट्रीयता की भावना का महत्वपूर्ण स्थान था। इस काल के कवियों और संतों ने अपने साहित्य और भक्ति के माध्यम से समाज में राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। भक्तिकाल के संत कवियों ने जाति-पाति और ऊँच-नीच के भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करके सामाजिक समरसता स्थापित करने का प्रयत्न किया जो उस युग की आवश्यकता थी। रामानंद, कबीर, रैदास, और दादू दयाल जैसे संतों ने सभी जातियों और वर्गों के लोगों को समान रूप से भक्ति का अधिकार दिया।
तुलसीदास और सूरदास जैसे कवियों ने अपने काव्य में देशभक्ति और मानवतावाद का संदेश दिया।
भक्तिकाल में धार्मिक एकता पर भी जोर दिया गया। सूफी संतों और हिंदू भक्तों ने मिलकर एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर रहें। कबीर, जायसी और नानक जैसे संत कवियों ने हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया।
तुलसीदास ने अपने महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ में राम राज्य की परिकल्पना की, जो एक आदर्श राज्य का प्रतीक है। इसमें न्याय, समानता, और धर्म की स्थापना की बात की गई है, जो राष्ट्रीयता की भावना को प्रकट करता है। भक्तिकाल के साहित्य ने समाज में राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस काल के कवियों ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई और एक आदर्श समाज की स्थापना का प्रयास किया। भक्तिकाल का साहित्य न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें राष्ट्रीयता और सामाजिक सुधार की भावना भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित महाकाव्य, रामचरितमानस न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें राष्ट्रीयता और सामाजिक सुधार की भावना भी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। इस महाकाव्य में राष्ट्रीयता की भावना को विभिन्न तरीकों से प्रकट किया गया है।
रामचरितमानस में राम राज्य की परिकल्पना एक आदर्श राज्य का प्रतीक है, जिसमें न्याय, समानता, और धर्म की स्थापना की गई है। यह परिकल्पना राष्ट्रीयता की भावना को प्रकट करती है, जहाँ सभी नागरिक समान अधिकारों और कर्तव्यों के साथ रहते हैं। तुलसीदास ने रामचरितमानस में जाति-पाति और ऊँच-नीच के भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया है। रामचरितमानस में सभी वर्गों और जातियों के लोगों को समान रूप से सम्मान दिया गया है, जो राष्ट्रीय एकता और सामाजिक समरसता की भावना को प्रकट करता है। रामचरितमानस में धार्मिक एकता पर भी जोर दिया गया है। इसमें राम को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है, जो सभी धर्मों के लोगों के लिए आदर्श हैं। यह धार्मिक एकता और सहिष्णुता की भावना को प्रकट करता है। राम को एक आदर्श नेता के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए समाज में न्याय और धर्म की स्थापना करते हैं। यह आदर्श नेतृत्व राष्ट्रीयता की भावना को प्रकट करता है, जहाँ नेता अपने नागरिकों के कल्याण के लिए कार्य करते हैं। रामचरितमानस का साहित्यिक योगदान भी महत्वपूर्ण है। इस महाकाव्य ने समाज में राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। तुलसीदास ने अपने काव्य के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई और एक आदर्श समाज की स्थापना का प्रयास किया।
वक्ता उत्तर काण्ड में रामचरितमानस की कथा का समापन है। पृथ्वी पर अधर्म का विनाश और धर्म की प्रतिष्ठा करने के लिए राम ने दशरथ के पुत्र के रूप में जन्म लिया। उत्तर काण्ड में चौदह वर्ष के बनवास की अवधि पूरी होने की कथा है। रावण का वध करने के बाद श्रीराम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, लंकापति विभीषण, वानर राज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान और अंगद सहित अयोध्या लौटे। राम का राज्याभिषेक और उनके शासनकाल के प्रभाव का वर्णन करते समय तुलसी अपने आराध्य देव को मनुज रूप में चित्रित करते हैं। तुलसी के राम मनुष्यों में श्रेष्ठ – मर्यादा पुरुषोत्तम, धर्मनिष्ठ, कर्तव्य पालक और दयावान शासक हैं। उनका उद्देश्य अयोध्या में एक आदर्श राज्य की स्थापना करना है। तुलसीदास ने एक ऐसे रामराज्य की परिकल्पना की है जहाँ प्रकृति और मानव समाज के चरम आदर्श रूप के दर्शन होते हैं। प्रकृति और मानव समाज सभी में सुख-शांति, समृद्धि, संतोष, उदारता और प्रफुल्लता है। रामराज्य में त्रेतायुग में सत्ययुग की स्थिति हो गई है। राम के शासनकाल में अभाव, क्षुद्रता आदि नकारात्मक भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। रामराज्य की यह आदर्श परिकल्पना है। उत्तर काण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के धर्म-संस्थापक-शासक रूप के दर्शन होते हैं। रामराज्य में दण्ड केवल सन्यासियों के हाथ में और भेद केवल नर्तकों और नृत्य समाज में है। जीत शब्द केवल मन को जीतने के लिए ही सुनाई देता है। दण्ड अर्थात सजा और दूसरा अर्थ साधुओं के हाथ में पकड़े जाने वाले दण्ड से है। भेद अर्थात भेदभाव और नृत्य कला में सुर ताल के भेद से है। जीत शब्द केवल मन को जीतने के लिए प्रयुक्त होता है, न कि लड़ाई में हार जीत के संदर्भ में। राजनीति में शत्रुओं को जीतने और चोर डाकुओं का दमन करने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद – ये चार उपाय किए जाते हैं। राम राज्य में कोई शत्रु या अपराधी है ही नहीं, इसलिए किसी को दण्ड देने की आवश्यकता नहीं होती। सभी के अनुकूल होने के कारण भेद नीति की भी आवश्यकता नहीं रही। वनों में वृक्ष सदा फूलते-फलते हैं। हाथी और सिंह पारस्परिक वैर-भाव भूल कर सदा एक साथ विचरण करते हैं। पशु-पक्षियों ने वैर भाव भुलाकर आपस में प्रेम बढ़ा लिया है। पक्षी मीठे स्वर में कूजते हैं और भाँति-भाँति के पशुओं के समूह निर्भय होकर वन में विचरण करते हैं। शीतल, मंद, सुगंधित पवन बहता है और भौंरे पुष्पों का रस लेते हुए गुंजार करते हैं। लता और वृक्ष मांगने से ही मकरंद टपका देते हैं, गाएँ मनचाहा दूध देती हैं, धरती सदा खेती से भरी रहती है। जगत की आत्मा भगवान श्रीराम को संसार का राजा जानकर पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रस्तुत कर दी हैं और नदियाँ श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल, सुखद और स्वादिष्ट जल प्रवाहित करने लगी हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के राज्य में समुद्र भी अपनी मर्यादा में रह कर लहरों के द्वारा तट पर मनुष्यों के लिए रत्न अर्पित कर देते हैं। सरोवर कमलों से परिपूर्ण हैं और दसों दिशाओं के विभाग अति प्रसन्न है। तात्पर्य यह है कि प्रकृति और मानव समाज सभी में सुख-शांति, समृद्धि, संतोष, उदारता और प्रफुल्लता है। रामराज्य में त्रेतायुग में सत्ययुग की स्थिति हो गई है। राम के शासनकाल में अभाव, क्षुद्रता आदि नकारात्मक भावनाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। रामराज्य की यह आदर्श परिकल्पना है। इस खण्ड में मर्यादा पुरुषोत्तम राम के धर्म-संस्थापक-शासक रूप के दर्शन होते हैं।
दंड जतिन्ह कर भेद जहँ नर्तक नृत्य समाज ।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचंद्र कें राज ।।
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन । रहहिं एक सँग गज पंचानन ।।
खग मृग सहज बयरु बिसराई । सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई ।।1।।…
सागर निज मरजादाँ रहहीं । डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहिं ।।
सरसिज संकुल सकल तड़ागा । अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा ।।5।।
उत्तरकाण्ड ।।22।।
रामचरितमानस में राष्ट्रीयता की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। यह महाकाव्य न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें सामाजिक सुधार और राष्ट्रीय एकता की भावना भी प्रकट होती है। तुलसीदास ने अपने काव्य के माध्यम से समाज में राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है।
रीतिकाल (1650-1850) हिंदी साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग है, जिसमें मुख्यतः शृंगार रस और विलासिता का वर्णन मिलता है। हालाँकि, इस काल में भी कुछ कवियों ने राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति की भावना को अपने काव्य में स्थान दिया। रीतिकाल के प्रमुख कवि भूषण ने छत्रसाल और शिवाजी जैसे राष्ट्र नायकों को अपने काव्य का विषय बनाया और राष्ट्रीय प्रेम की भावना को उजागर किया1। इसी प्रकार, गुरु गोविंद सिंह और सेनापति जैसे कवियों ने भी राष्ट्रीय चेतना को प्रकट किया। रीतिकाल के साहित्य में राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप मुख्यतः वीर रस और राष्ट्रप्रेम के माध्यम से प्रकट होता है। इस काल के कवियों ने अपने काव्य में राष्ट्र की महत्ता और उसकी रक्षा के लिए बलिदान की भावना को प्रमुखता दी।
महाकवि भूषण राष्ट्रीय भावों के गायक है। उनकी वाणी पीड़ित प्रजा के प्रति एक अपूर्व आश्वासन हैं। उनके समय में औरंगजेब का शासन था। औरंगजेब की कट्टरता व हिन्दुओं के प्रति नफरत ने उसे जनता से दूर कर दिया था। संकट की इस घड़ी में भूषण ने दो राष्ट्रीय पुरुषों – छत्रपति शिवाजी महाराज व छत्रसाल के माध्यम से पूरे राष्ट्र में राष्ट्रीय भावना संचारित करने का प्रयास किया। भूषण ने तत्कालीन जनता की वाणी को अपनी कविताओं का आधार बनाया है। इन्होंने स्वदेशानुराग, संस्कृति अनुराग, साहित्य अनुराग, महापुरुषों के प्रति अनुराग, उत्साह आदि का वर्णन किया है। महाकवि भूषण की सारी कविताएँ मुक्तक-शैली में लिखी गई हैं। उन्होंने अपने चरित्र नायक शिवाजी और छत्रसाल के विशिष्ट चारित्रिक गुणों और कार्यकलापों को अपनी रचना का विषय बनाया। भूषण केवल छत्रपति शिवाजी महाराज और छत्रसाल इन दो राजाओं के ही सच्चे प्रशंसक थे। उन्होंने स्वयं ही स्वीकार किया है-
और राव राजा एक मन में न ल्याऊं अब।
साहू को सराहों कै सराहौं छत्रसाल को॥
शिवा बावनी में छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य, पराक्रम आदि का ओजपूर्ण वर्णन है। छत्रसाल दशक में बुंदेला वीर छत्रसाल के शौर्य का वर्णन है: भूषण की एक और प्रसिद्ध कविता “छत्रसाल दशक” से एक उदाहरण प्रस्तुत है, जिसमें उन्होंने महाराजा छत्रसाल के शौर्य और वीरता का वर्णन किया है:
छत्रसाल के बल को, देखो सब संसार।
मुगलन के मस्तक झुके, छत्रसाल के द्वार।।
भूषण का संपूर्ण काव्य वीर रस तथा ओज गुण से ओतप्रोत है जिसके नायक छत्रपति शिवाजी महाराज हैं और खलनायक औरंगजेब। औरंगज़ेब के प्रति उनका जातीय वैमनस्य न होकर शासक के रूप में उसकी अनीतियों से विरोध है। औरंगज़ेब के राज्य में निरीह हिंदू जनता अत्याचारों से पीड़ित थी। “शिवा बावनी” में छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य का वर्णन इस प्रकार है:
राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान को तिलक राख्यौ।
गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर।
तेरे हीं भुजान पर भूतल को भार।
उस समय शिवाजी ने किस प्रकार अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाई तथा निराश हिन्दू जन समुदाय को आशा का संबल प्रदान कर उसे संघर्ष के लिए उत्साहित किया, भूषण कवि उनके महत्व का गुणगान करते हैं:
‘राखी हिन्दुवानी हिन्दुवान को तिलक राख्यौ।
गरुड़ को दावा जैसे नाग के समूह पर।
तेरे हीं भुजान पर भूतल को भार।‘
उनके काव्य का आधार ऐतिहासिक है। इसके अतिरिक्त, इस वीर काव्य में देश की संस्कृति व गौरव का गान है। भूषण ने अपने वीर काव्य में औरंगज़ेब के प्रति आक्रोश सर्वत्र व्यक्त किया है। कविता में वीर रस, दानवीर और धर्मवीर के वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलते हैं, पर प्रधानता युद्ध वीर की ही है। रौद्र, भयानक, वीभत्स आदि रसों के वर्णन हैं, पर प्रमुखता वीर रस की है। वे तत्कालीन स्वतंत्रता संग्राम के प्रतिनिधि कवि हैं। छत्रपति शिवाजी राजे भोसले (१६२७ –१६८० ई.) भारत के एक महान राजा एवं रणनीतिकार थे जिन्होंने १६७४ ई. में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य की नींव रखी। इसके लिए उन्होंने मुगल साम्राज्य के शासक औरंगज़ेब से संघर्ष किया। उन्होंने प्राचीन हिन्दू राजनीतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और मराठी एवं संस्कृत को राजकाज की भाषा बनाया। वे भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नायक के रूप में स्मरण किए जाने लगे।
भूषण की शैली अपने विषय के अनुकूल ओजपूर्ण और वीर रस की व्यंजना के लिए सर्वथा उपयुक्त है। प्रभावोत्पादकता, चित्रोपमता और सरसता भूषण की शैली की मुख्य विशेषताएँ हैं। अपने कथानायक छत्रपति शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णन करते समय जैसे वे उपमाओं की झड़ी ही लगा देते हैं। इसका उदाहरण उनकी रचना में सर्वत्र दिखाई देता है।
भूषण कवि कहते हैं कि इंद्र ने जिस प्रकार जंभासुर नामक दैत्य पर आक्रमण करके उसे मारा था और जिस प्रकार बाडवाग्नि समुद्र के पानी को जलाकर सोख लेती है, अभिमानी एवं छल-कपटी रावण पर जिस प्रकार श्रीराम ने आक्रमण किया था, जैसे बादलों पर वायु के वेग का प्रभुत्व रहता है, जिस प्रकार शिवजी ने रति के पति कामदेव को भस्म कर दिया था, जिस प्रकार सहस्रबाहु (कार्त्तवीर्य) राजा को परशुराम ने आक्रमण कर मार दिया था, जंगली वृक्षों पर दावाग्नि जैसे अपना प्रकोप दिखलाती है और जिस प्रकार वनराज सिंह का हिरणों के झुंड पर आतंक छाया रहता है अथवा हाथियों पर मृग राज सिंह का आतंक रहता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणें अंधकार को समाप्त कर देती हैं और दुष्ट कंस पर जिस तरह आक्रमण करके भगवान श्रीकृष्ण ने उसका विनाश कर दिया था, उसी प्रकार सिंह के समान शौर्य एवं पराक्रम वाले छत्रपति शिवाजी का मुग़लों के वंश पर आतंक छाया रहता है। अर्थात् वे मुग़लों का प्रबल विरोध करते है और वीरता पूर्वक उन पर आक्रमण कर विनाश-लीला करते हैं। उनके शौर्य से समस्त मुग़ल भयभीत रहते हैं। शिवाजी आजीवन औरंगज़ेब से लड़ते रहे और कमज़ोर होकर भी पराजित नहीं हुए क्योंकि वे परमवीर थे। उनके शौर्य से समस्त मुग़ल भयभीत रहते थे।
वक्ता इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर,
रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।
पौन वारिवाह पर, संभु रतिनाह पर,
ज्यों सहस्रबाहु पर राम द्विजराज हैं
दावा द्रुमदंड पर, चीता मृगझुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों मलेच्छ बंस पर सेर सिवराज हैं
डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी-सी रहति छाती,
बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिंदुवाने की।
कढ़ि गई रैयत के मन की कसक सब,
मिटि गई ठसक तमाम तुरकाने की।
भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाक धाक,
सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।
मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय सीस,
खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की…
राजा सिवराज के नगारन की धाक सुनि,
केते बादसाहन की छाती धारकति है
वक्त निस्संदेह, भूषण का काव्य राष्ट्रीय चेतना से ओत-प्रोत है। वे सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय भावना के कवि हैं। महाकवि भूषण का हिंदी साहित्य में एक विशिष्ट स्थान हैं। रीति कालीन कवियों में वे पहले कवि थे जिन्होंने हास-विलास की अपेक्षा राष्ट्रीयता की भावना को प्रमुखता प्रदान की। उन्होंने अपने काव्य द्वारा तत्कालीन असहाय हिंदू समाज को वीरता का पाठ पढ़ाया उनकी कविताएँ आज भी राष्ट्रीयता की प्रेरणा देती हैं। वे राष्ट्र की अमर धरोहर हैं।
गुरु गोविंद सिंह जी की कविताओं में वीरता, धर्म की रक्षा और राष्ट्रीय चेतना का अद्भुत संगम मिलता है। उनकी रचनाओं में से एक प्रसिद्ध कविता “चंडी दी वार” है, जिसमें उन्होंने देवी दुर्गा की वीरता का वर्णन किया है। इस कविता में राष्ट्रीय चेतना और धर्म की रक्षा का भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
सेनापति हिंदी साहित्य के रीतिकाल के प्रमुख कवि थे और उन्हें बुंदेलखंड के महाराजा छत्रसाल का राजाश्रय प्राप्त था। महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड के एक वीर और स्वतंत्रता प्रेमी राजा थे, जिन्होंने मुगलों के खिलाफ संघर्ष किया और अपने राज्य की स्वतंत्रता को बनाए रखा। सेनापति के समय में मुग़ल शासक औरंगज़ेब का शासन था। इस समय के दौरान मुग़ल साम्राज्य का विस्तार और हिंदू राजाओं के साथ संघर्ष जारी था। सेनापति की कविताएँ इस संघर्ष और वीरता की भावना को प्रकट करती हैं। उन्होंने अपने काव्य में मुगलों के अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष और स्वतंत्रता की भावना को प्रमुखता दी है। सेनापति ने अपनी कविताओं में महाराजा छत्रसाल के शौर्य और वीरता का वर्णन किया है, जिससे उनकी राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति की भावना स्पष्ट रूप से प्रकट होती है:
सूरज बंसि सुराज करि, करि करि मर्दन मर्द।
सिर काटि काटि सूरमा, बिचि बिचि धरती धरद।।
वक् आधुनिक काल में हिंदी साहित्य की एक प्रमुख विशेषता राष्ट्रीयता रही है। हिंदी साहित्य का आधुनिक काल पराधीनता तथा स्वतंत्रता का युग है, इसलिए इस कालखंड की कविता में राष्ट्रीयता का स्वर अत्यंत मुखर है। इसकी शुरुआत भारतेंदु युग से होती है। भारतेंदु तथा भारतेंदु मंडल के कवियों के बाद यह उत्तरोत्तर पुष्पित और पल्लवित होती चली गई। जिसके संवाहकों में मैथिलीशरण गुप्त, जयशंकर प्रसाद, रामनरेश त्रिपाठी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्रा कुमारी चौहान, श्याम नारायण पांडेय, सोहनलाल द्विवेदी तथा रामधारी सिंह दिनकर आदि का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। इन सभी कवियों ने संपूर्ण भारत के प्रति आस्था, अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठा, मानवता के प्रति समर्पण, सामंती प्रवृत्ति के प्रति विद्रोह तथा स्वतंत्रता के लिए संकल्प का शंखनाद किया।
हिन्दी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारम्भ भारतेंदु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध भारतेंदु जी ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण का चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिन्दी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। ब्रिटिश राज की शोषक प्रकृति का चित्रण करने वाले उनके लेखन के लिए उन्हें युग चारण माना जाता है।
उन्होंने अंग्रेज़ी शासन के तथाकथित न्याय, जनतंत्र और उनकी सभ्यता का पर्दाफाश किया। उनके इस कार्य की सराहना करते हुए रामविलास शर्मा लिखते हैं-
वक्त देश के रूढ़िवाद का खंडन करना और महंतों, पंडे-पुरोहितों की लीला का पर्दाफाश करना निर्भीक पत्रकार हरिश्चन्द्र का ही काम था। राजभक्ति प्रकट करते हुए भी, अपनी देशभक्ति की भावना के कारण उन्हें अंग्रेजी हुकूमत का कोपभाजन बनना पड़ा। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने १८८० में उन्हें ‘भारतेंदु’ (भारत का चंद्रमा) की उपाधि प्रदान की। हिन्दी साहित्य को भारतेंदु की देन भाषा तथा साहित्य दोनों ही क्षेत्रों में है। भाषा के क्षेत्र में उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया जो उर्दू से भिन्न है और हिन्दी क्षेत्र की बोलियों का रस लेकर संवर्धित हुआ है। इसी भाषा में उन्होंने अपने सम्पूर्ण गद्य साहित्य की रचना की। साहित्य सेवा के साथ-साथ भारतेंदु जी की समाज-सेवा भी चलती रही। उन्होंने कई संस्थाओं की स्थापना में अपना योग दिया। दीन-दुखियों, साहित्यिकों तथा मित्रों की सहायता करना वे अपना कर्तव्य समझते थे।
भारतेंदु जी की यह विशेषता रही कि जहाँ उन्होंने ईश्वर भक्ति आदि प्राचीन विषयों पर कविता लिखी वहाँ उन्होंने समाज सुधार, राष्ट्र प्रेम आदि नवीन विषयों को भी अपनाया। भारतेंदु की रचनाओं में अंग्रेजी शासन का विरोध, स्वतंत्रता के लिए आकांक्षा और जातीय भावबोध की झलक मिलती है। सामन्ती जकड़न में फँसे समाज में आधुनिक चेतना के प्रसार के लिए लोगों को संगठित करने का प्रयास करना उस जमाने में एक नई ही बात थी। उनके साहित्य और नवीन विचारों ने उस समय के तमाम साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को झकझोरा और उनके इर्द-गिर्द राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत लेखकों का एक ऐसा समूह बन गया जिसे भारतेन्दु मंडल के नाम से जाना जाता है।
भारतेंदु जी के काव्य में राष्ट्र-प्रेम भी भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। भारत के प्राचीन गौरव की झांकी वे इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं -वक्ता3: भारत के भुज बल जग रच्छित,
भारत विद्या लहि जग सिच्छित।
भारत तेज जगत विस्तारा,
भारत भय कंपिथ संसारा।
भारतेंदु अपने समय के साहित्यिक नेता थे। मातृ-भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं सम्पूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था –
निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल॥
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार॥
१८८२ में शिक्षा आयोग (हन्टर कमीशन) के समक्ष अपनी गवाही में हिन्दी को न्यायालयों की भाषा बनाने की महत्ता पर उन्होंने कहा-
व ‘यदि हिन्दी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़वाने, के लिए दो-चार आने कौन देगा, और साधारण-सी अर्जी लिखवाने के लिए कोई रुपया-आठ आने क्यों देगा। तब पढ़ने वालों को यह अवसर कहाँ मिलेगा कि गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारंट बता दें। सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग किया जाता है। यही (भारत) ऐसा देश है जहाँ अदालती भाषा न तो शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की।’
व भारतेंदु का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि उन्होंने हिन्दी साहित्य को, और उसके साथ समाज को साम्राज्य-विरोधी दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दी। १८७० में जब कविवचनसुधा में उन्होंने लॉर्ड मेयो को लक्ष्य करके ‘लेवी प्राण लेवी’ नामक लेख लिखा तब से हिन्दी साहित्य में एक नयी साम्राज्य-विरोधी चेतना का प्रसार आरम्भ हुआ। ६ जुलाई १८७४ को कविवचनसुधा में लिखा कि जिस प्रकार अमेरिका उपनिवेशित होकर स्वतन्त्र हुआ उसी प्रकार भारत भी स्वतन्त्रता लाभ कर सकता है। उन्होंने तदीय समाज की स्थापना की जिसके सदस्य स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रतिज्ञा करते थे। भारतेंदु ने विलायती कपड़ों के बहिष्कार की अपील करते हुए स्वदेशी का जो प्रतिज्ञा पत्र 23 मार्च, 1874 के ‘कविवचनसुधा’ में प्रकाशित किया, वह समूचे हिंदी समाज का प्रतिज्ञा पत्र बन गया। उसमें भारतेंदु ने कहा था,
‘हमलोग सर्वान्तर्यामी, सब स्थल में वर्तमान, सर्वद्रष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिरेंगे और जो कपड़ा कि पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास हैं उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे पर नवीन मोल लेकर किसी भाँति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे।’
सबसे पहले भारतेंदु ने ही साहित्य में जन भावनाओं और आकांक्षाओं को स्वर दिया था। पहली बार साहित्य में ‘जन’ का समावेश भारतेन्दु ने ही किया। भारतेंदु ने साहित्य को जनता की गरीबी, पराधीनता, विदेशी शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण और उसके विरोध का माध्यम बना दिया। अपने नाटकों, कवित्त, मुकरियों और प्रहसनों के माध्यम से उन्होंने अंग्रेजी राज पर कटाक्ष और प्रहार किए, जिसके चलते उन्हें अंग्रेजों का कोपभाजन भी बनना पड़ा। भारतेंदु अंग्रेजों के शोषण तंत्र को भली-भाँति समझते थे। अपनी पत्रिका कविवचनसुधा में उन्होंने लिखा था –
जब अंग्रेज विलायत से आते हैं प्रायः कैसे दरिद्र होते हैं और जब हिंदुस्तान से अपने विलायत को जाते हैं तब कुबेर बनकर जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं।
यही नहीं, 20वीं सदी की शुरुआत में दादाभाई नौरोजी ने धन के अपवहन (ड्रेन ऑफ वेल्थ) के जिस सिद्धान्त को प्रस्तुत किया था, भारतेंदु ने बहुत पहले ही शोषण के इस रूप को समझ लिया था। उन्होंने अपनी विरचित बहुचर्चित और सुविख्यात कविता ‘भारत-दुर्दशा में लिखा था –
‘अंगरेजी राज सुखसाज सजे अति भारी, पर सब धन विदेश चलि जात ये ख्वारी।’
अंग्रेज भारत का धन अपने यहाँ लेकर चले जाते हैं और यही देश की जनता की गरीबी और कष्टों का मूल कारण है, इस सच्चाई को भारतेंदु ने समझ लिया था। कविवचनसुधा में उन्होंने जनता का आह्वान किया था–
‘’भाइयो! अब तो सन्नद्ध हो जाओ और ताल ठोक के इनके सामने खड़े तो हो जाओ। देखो भारतवर्ष का धन जिसमें जाने न पावे वह उपाय करो।”
भारतेंदु अपने दृष्टिकोण में अपने समकालीनों की अपेक्षा इसलिए भी अलग और विशिष्ट हैं क्योंकि वह जन-भावनाओं की सीधी अभिव्यक्ति हैं. स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भारतीयों के द्वारा भाषा और शिक्षा को लेकर जो भी आवाज उठाई गई, उसमें एक शुद्धतावादी स्वर बहुत साफ दिखाई देता है. जनता के द्वारा गाँधीजी को दिए गए विभिन्न प्रतिवेदनों को छोड़ दें तो सीधे सरकार के विरुद्ध पहली आवाज के रूप में श्यामसुंदर दास और मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में आन्दोलन उभरा, हालाँकि यह आन्दोलन अपनी प्रकृति में शांत और शुद्धतावादी था. इस सन्दर्भ में भी रामगोपाल इसी की पुष्टि करते दिखाई देते हैं. उनके अनुसार, “सन 1893 की दो घटनाएँ उल्लेखनीय हैं.
उस वर्ष काशी में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई. उसी वर्ष रोमन लिपि को भारतीय भाषाओँ के लिए अपनाने का प्रस्ताव पुनः उठाया गया. दो-तीन वर्ष तक उस प्रस्ताव की चर्चा मात्र होती रही. परन्तु 1896 में यह बात दृढ़ता के साथ फैलने लगी कि पश्चिमोत्तर प्रदेश की सरकार अदालतों तथा अन्य दफ्तरों में फारसी अक्षरों के स्थान पर रोमन लिपि को प्रचलित करना चाहती है. उस समय नागरी लिपि का कोई सरकारी अस्तित्व नहीं था; रोमन की स्वीकृति से जिस भाषा या लिपि को तुरंत हानि पहुँचने का भय था, वह थी, उर्दू. परन्तु इस प्रस्ताव से उन अनेक लोगों की आकांक्षा पर भी पानी फिर जाता जिन्हें यह आशा थी कि वे हिंदी भाषा और नागरी लिपि को सरकारी दफ्तरों में प्रविष्ट कराकर ही चैन लेंगे. जैसा कि श्री श्याम सुन्दर दास ने लिखा है, ‘यदि एक बार रोमन अक्षरों का प्रचार हो गया तो फिर देवनागरी अक्षरों के प्रचार की आशा करना व्यर्थ होगा.’
स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिंदी भाषा और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए केवल दो लोगों का उल्लेख किया जाता है, प्राथमिक शिक्षा में गाँधी और उच्च शिक्षा में मालवीय जी का। इस सन्दर्भ में अपने भाषण में गाँधी जी कहते हैं:
“जो मधुरता मुझे ग्राम की हिंदी में मिलती है वह न तो लखनऊ के मुसलमानों की बोली में है, और न प्रयाग के हिन्दुओं की. भाषा की नदी का उद्गम जनता के हिमालय में है. हिमालय से निकली हुई गंगा हमेशा बहती रहेगी, इसी प्रकार ग्राम की हिंदी हमेशा बहती रहेगी जब कि संस्कृतमय तथा फारसीमय हिंदी छोटी नदी की भांति जो छोटी-सी पहाड़ी से निकलती है, सूख जाएगी और लोप हो जाएगी. हिंदी और उर्दू का सद्संगम उतना ही सुन्दर होगा जितना गंगा और यमुना का, और वह सदैव रहेगा.”
‘संदेश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया ।
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया’।।
इन पंक्तियों के लेखक राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जिनका संकल्प था,
‘सुख दुख में एक सा सब भाइयों का भाग हो ।
अंतः करण में गूंजता राष्ट्रीयता का राग हो।।’ भारत-भारती की प्रेरणा तत्कालीन हिन्दी साहित्य में एक बहुत बड़ी कमी को पूरा करने के लिए हुई थी| स्वयं गुप्त जी के शब्दों में, “हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्यत् के लिए प्रोत्साहन भी|” गुप्त जी ने इस अभाव की पूर्ति के उद्देश्य से प्रेरित हो इसकी रचना की, ‘भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती’ में उनकी राष्ट्रीयता की भावना अभिव्यक्त है| ‘भारत-भारती’ तीन खण्डों में विभाजित है| प्रथम खण्ड ‘अतीत खण्ड’ है जिसमें गुप्त जी ने भारतवर्ष के स्वर्णिम अतीत का गुणगान किया है|
‘भू-लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला-स्थल कहाँ?
फैला मनोहर गिरि हिमालय और गंगाजल जहाँ|
सम्पूर्ण देशों से अधिक किस देश का उत्कर्ष है?
उसका कि जो ऋषिभूमि है, वह कौन? भारतवर्ष है||
हाँ, वृद्ध भारतवर्ष ही संसार का सिरमौर है,
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व में क्या और है?
भगवान की भव-भूतियों का यह प्रथम भण्डार है,
विधि ने किया नर – सृष्टि का पहले यहीं विस्तार है||
यह पुण्यभूमि प्रसिद्ध है इसके निवासी ‘आर्य्य’ हैं,
विद्या, कला-कौशल्य सबके जो प्रथम आचार्य्य हैं|
संतान उनकी आज यद्यपि हम अधोगति में पड़े;
पर चिन्ह उनकी उच्चता के आज भी कुछ हैं खड़े||
द्वितीय खण्ड ‘वर्तमान खण्ड’ है जिसमें देश की वर्तमान अवनत दशा पर क्षोभ एवं संताप की अभिव्यक्ति है| अंत में ‘भविष्यत् खण्ड’ के अंतर्गत कवि भारतीय समाज को उद्बोधित कर उसे अपने स्वर्णिम अतीत का स्मरण कराके पुन: उन्नति के मार्ग पर प्रशस्त होने की प्रेरणा देता है| ‘वर्तमान खण्ड’ में कवि ने वर्तमान भारतीय समाज के पतन का चित्रण करके अपनी दुराशा अभिव्यक्त की है: ‘हम कौन थे क्या हो गये और क्या होंगे अभी’ में लेखक की देश और समाज की अवनत दशा के प्रति चिंता परिलक्षित होती है| नशेबाजी, दम्भ, आलस्य, ईर्ष्या-द्वेष, मालिन्य, मदमोह् आदि नकारात्मक प्रवृत्तियों से ग्रस्त सामाजिक स्थिति के प्रति कवि का आक्रोश एवं क्षोभ ‘वर्तमान खण्ड’ की मुख्य संवेदना है:
‘आर्य्य-संतति आज कैसी अन्ध और अशक्त है,
पानी हुआ क्या अब हमारी नाड़ियों का रक्त है?
संसार में हमने किया बस एक ही यह काम है-
निज पूर्वजों का सब तरह हमने डुबोया नाम है!’
वर्तमान भारत के पतन का चित्रण करते समय भी वे राष्ट्रीयता की भावना से प्रेरित हैं| अंत में वे तामसिक विचारों में डूबे भारतवासियों को दिशा निर्देश करते हुए उन्हें उद्बोधित करते हैं, “अब भी समय है जागने का देख” में उनकी भविष्य के प्रति आस्था एवं, ‘”क्या साम्प्रदायिक भेद से है ऐक्य मिट सकता अहो!” में एकराष्ट्र की परिकल्पना है| गुप्त जी का आशावादी दर्शन एवं शुभांशसा ”भगवान भारतवर्ष को फिर पुण्य भूमि बनाइए” में निहित है|
इसी क्रम में कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान का भी नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनकी कविता की एक पंक्ति, ‘कहा मुझे कविता लिखने को / मैंने लिखा जालियां वाला बाग’, में उनकी क्रांतिधर्मिता परिलक्षित होती है। ‘जलियां वाला बाग में बसंत’ कविता में इस नृशंस हत्याकाण्ड पर कवयित्री के करूण क्रन्दन से उसकी मूक वेदना मूर्तिमान हो उठी है।
”आओ प्रिय ऋतुराज, किन्तु धीरे से आना
यह है शोक स्थान, यहाँ मत शोर मचाना
कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा-खा कर
कलियाँ उनके लिए चढ़ाना थोड़ी सी लाकर।”
उनकी कालजयी कविता ‘झाँसी की रानी’ ने एक पूरी पीढ़ी को विदेशियों के विरुद्ध सन्नद्ध किया था और आज भी उसका पाठ अन्याय के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देता है। इस कविता की राष्ट्रीय चेतना संक्रामक है: महारानी लक्ष्मीबाई के साहस और पराक्रम के बारे में कौन नहीं जानता? झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने जिंदगी की तमाम कठिनाइयों को पार करते हुए न सिर्फ अंग्रेजों को डटकर सामना किया, बल्कि उन्हें अदम्य शक्ति और बहादुरी का भी एहसास करवाया और अपनी जिंदगी की आखिरी सांस तक वे अपने राज्य झांसी को स्वतंत्र करवाने के लिए लड़ती रहीं। यही नहीं भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अपना अभूतपूर्व योगदान दिया। महारानी लक्ष्मीबाई ने लोगों को अंग्रेजों के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने के लिए एकजुट किया था, वहीं उनके आह्वान पर इस लड़ाई में कई महिलाएँ भी शामिल हुईं थी। 1857 के युद्ध में झांसी की रानी ने अपनी अदम्य शक्ति और साहस का परिचय देकर, बड़े-बड़े वीर योद्धाओं को भी हैरान कर दिया था। उनके वीर और पराक्रम की तो प्रशंसा उनके दुश्मनों ने भी की थी।
‘सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥…
महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,
इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद्व असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥…
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
व स्वातन्त्र्य-शृंखला की अगली कड़ी के रूप में माखन लाल चतुर्वेदी का नाम न केवल राष्ट्रीय गौरव की याद दिलाता है अपितु संघर्ष की प्रबल प्रेरणा भी देता है। जेल की हथकड़ी आभूषण बन उनके जीवन को अलंकृत करती है।
‘क्या? देख न सकती जंजीरो का गहना
हथकड़ियां क्यों? यह ब्रिटिश राज का गहना’
‘मुझे तोड़ लेना वन माली देना तुम उस पथ पर फेंक
मातृभूमि पर शीष चढ़ाने जिस पर जाते वीर अनेक ”पुष्प की अभिलाषा” शीर्षक कविता की यह चिरजीवी पंक्तियाँ उस भारतीय आत्मा की पहचान कराती है जिन्होंने स्वतन्त्रता के दुर्गम पथ में यातनाओं से कभी हार नहीं मानी।
‘जगे हम लगे जगाने विश्व, देश में फिर फैला आलोक,
व्योम तम पुंज हुआ तब नष्ट, अखिल संस्कृति हो उठी अशोक’ लिखने वाले छायावाद के प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद की कविता स्वाधीन चेतना के बल पर नयी मानव परिकल्पना को संबोधित करने में सक्षम है। प्रसाद राष्ट्रीय भावना की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति के कवि हैं। प्रसाद की ‘अरूण यह मधुमय देश हमारा’ चन्द्रगुप्त नाटक में आया ‘हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयं प्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती’ आदि कविताओं में कवि ने हृदय के स्तर पर अपनी प्रशस्त राष्ट्रीयता की अभिव्यक्ति की है।
अब जहाँ तक ‘कामायनी’ में राष्ट्रीय चेतना देखने का सवाल है, उसकी मूल संकल्पना किसी भी संकुचित राष्ट्रवाद के विरूद्ध है। विश्वमंगल ही इसका मूल प्रयोजन है। प्रसाद के नाटकों में उनकी राष्ट्रीयता की चेतना रेखांकित हुई है। ऐतिहासिक घटनाओं के माध्यम से प्रसाद ने देशप्रेम और विदेशी शासकों से स्वतंत्रता का आह्वान किया।
जयशंकर प्रसाद के प्रसिद्ध नाटक ‘चंद्रगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’ ‘स्कंदगुप्त’ में उनकी राष्ट्रीयता की भावना का उत्कर्ष देखने को मिलता है। उस समय पराधीन भारत की स्थिति के प्रति साहित्यकारों में जागरूकता की भावना प्रबल हो रही थी। स्कंदगुप्त नाटक की रचना का उद्देश्य ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर सोई हुई राष्ट्रीयता की भावना जागृत करना था। उन्होंने अतीत के माध्यम से समसामयिक समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उसका समाधान प्रस्तुत किया है। “स्कंदगुप्त’ नाटक देशभक्त, वीर, साहसी, प्रेमी स्कंदगुप्त विक्रमादित्य के जीवन पर आधारित ऐतिहासिक नाट्य कृति है।
नाट्य रचना के प्रयोजन के संबंध में प्रसाद जी ने लिखा है,
‘इतिहास का अनुशीलन किसी भी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है। मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराना है, जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति बनाने का प्रयत्न किया है।’
अर्थात ऐतिहासिक नाटक लिखते समय प्रसाद का उद्देश्य अपने समय की समस्याओं के लिए समाधान खोजना रहा। नाटक का उद्देश्य बाहरी शत्रुओं से लड़ने के पश्चात विजयी होने पर सांस्कृतिक विजय और इसके द्वारा अंग्रेज़ों के अधीन तत्कालीन समाज को एक रास्ता दिखाना था। नाटक में राष्ट्रीयता की भावना के साथ विश्वप्रेम, लोककल्याण, सहिष्णुता तथा क्षमाशीलता की उदात्त भावनाएँ सम्मिलित हैं।
यह भारतीय इतिहास के एक महत्वपूर्ण कालखण्ड , गुप्त साम्राज्य की ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है। यह इतिहास के उस काल का है जब बर्बर हूणों के आक्रमण और आंतरिक षड़यंत्रों के कारण गुप्त साम्राज्य जर्जर हो रहा था। स्कंदगुप्त के सामने दो समस्याएँ थीं: पहली अनंत देवी और भटार्क के कारण आंतरिक संघर्ष और दूसरी बाहरी आक्रमण से देश की रक्षा करने की। सौराष्ट्र म्लेच्छों से आक्रांत था और मालव पर गहरे संकट थे। स्कंदगुप्त का जीवन राष्ट्रप्रेम को समर्पित है। वह कहता है, ‘यदि कोई साथी न मिला तो साम्राज्य के लिए, जन्मभूमि के उद्धार के लिए मैं अकेला ही युद्ध करूँगा।’नाटक के अंत में उसके समस्त प्रयास सफल होते हैं। आर्यावर्त के गौरव की रक्षा होती है। स्कंदगुप्त, भटार्क, चक्रपालित, पर्णदत्त, मातृगुप्त, भीमवर्मा आदि राष्ट्र प्रेम से गौरवांवित होकर संकल्प करते हैं:
‘जियें तो सदा उसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष।
निछावर करदें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष।
नाटक में देश भक्ति की अंतर्धारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है। चाहे वह देवसेना के गीत के संदेश से हो:
‘देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे
हारते ही रहे, न है कुछ अब
दाँव पर आपको न हारोगे।’
या स्कंदगुप्त की देश की स्वतंत्रता के लिए की गई प्रार्थना हो :
‘बजा दो वेणु मनमोहन बजा दो
हमारे सुप्त जीवन को जगा दो
विमल स्वातंत्र्य का बस मंत्र फूँको
हमें सब भीति बंधन से छुड़ा दो।’
प्रो० वासुदेव के शब्दों में ‘प्रसाद जी ने भारतीय इतिहास के इन गौरवपूर्ण पृष्ठों को नाटक का रूप केवल इसलिए नहीं दिया कि वह इसके माध्यम से अतीत कालीन भारतीय संस्कृति का गुणगान करना चाहते थे, अपितु उन्होंने अतीत के माध्यम से वर्तमान का अध्ययन किया है। समसामयिक समस्याओं को उठाया है और उसका समाधान प्रस्तुत किया है तथा अनागत के लिए सन्देश भी दिया है।’
आधुनिक युग के वीर रस के कवियों की चर्चा श्याम नारायण पांडेय की कविताओं को उद्धृत किए बिना अधूरी ही रहेगी। उनके प्रसिद्ध प्रबंध काव्य ‘हल्दीघाटी’ में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के जीवन का आख्यान हैं। हल्दीघाटी के नाम से विख्यात राजस्थान की इस ऐतिहासिक वीर भूमि के लोकप्रिय नाम पर लिखे गये प्रबंध काव्य ‘हल्दीघाटी’ पर उनको उस समय का सर्वश्रेष्ठ सम्मान देव पुरस्कार प्राप्त हुआ था। अपनी ओजस्वी वाणी के कारण आप कवि सम्मेलन के मंचों पर अत्यधिक लोकप्रिय हुए। उनकी आवाज मरते दम तक चौरासी वर्ष की आयु में भी वैसी ही कड़कदार और प्रभावशाली बनी रही जैसी युवावस्था में थी। हल्दीघाटी श्यामनारायण पांडेय की वह ऐतिहासिक कविता है जो राष्ट्रीयता की भावना से हर भारतीय का मन रोमांचित कर देती है। राणा प्रताप ने सम्राट अकबर के साथ हल्दीघाटी में युद्ध लेकर अपने लिए मुसीबत खड़ी कर ली लेकिन इसी युद्ध ने इतिहास में राणा को महान तेजस्वी क्षत्रिय का दर्जा दिया।
‘कुम्भल गढ़ से चलकर राणा
हल्दीघाटी पर ठहर गया।
गिरि अरावली की चोटी पर
केसरिया–झंडा फहर गया॥9॥
तुम तरजो–तरजो वीर¸ रखो
अपना गौरव अभिमान यहीं।
तुम गरजो–गरजो सिंह¸ करो
रण–चण्डी का आह्वान यहीं॥29॥
राणा प्रताप की जय बोले
अपने नरेश की जय बोले।
भारत–माता की जय बोले
मेवाड़–देश की जय बोले॥33॥
जय एकलिंग¸ जय एकलिंग¸
जय प्रलयंकर शंकर हर–हर।
जय हर–हर गिरि का बोल उठा
कंकड़–कंकड़¸ पत्थर–पत्थर॥34॥…
स्वतन्त्रता की प्रथम शर्त कुर्बानी व समर्पण को काव्य का विषय बना क्रान्ति व ध्वंस के स्वर से मुखरित दिनकर की कविताएँ नौजवानों के शरीर में उत्साह भर उष्ण रक्त का संचार करती है। दिनकर ने साम्राज्यवादी सभ्यता और ब्रिटिश राज्य के प्रति अपनी प्रखर ध्वंसात्मक दृष्टि का परिचय देते हुए क्रान्ति के स्वरों का आह्वान किया है। पराधीनता के प्रति प्रबल विद्रोह के साथ इसमें पौरूष अपनी भीषणता और भंयकरता के साथ गरजा है। कुरुक्षेत्र महाकाव्य पूर्णरूपेण राष्ट्रीय है।
‘उठो- उठो कुरीतियों की राह तुम रोक दो
बढो-बढो कि आग में गुलामियों को झोंक दो।
जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त, सीमापति! तूने की पुकार
पददलित उसे करना पीछे, पहले ले मेरा सीस उतार।’
दिनकर जी ने यह स्वीकार किया है कि राष्ट्रीयता ने उन्हें बाहर से आक्रांत किया है फिर भी राष्ट्रीयता उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन गई है। उनकी कविताओं में खुलकर क्रांति का शंखनाद सुनाई देता है। वह नव युग का स्वागत करते हुए कहता है:
‘जय हो, युग के देव पधारो! विकट, रुद्र हे अभिमानी
मुक्त केशिनी खड़ी द्वार पर कब से भावों की रानी।’
‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में दिनकर प्रतिशोध शक्ति की प्रशंसा करते हैं। दिनकर की राष्ट्रीयता भाववादी राष्ट्रीयता है। उसमें चिंतन के संगीत की अपेक्षा आवेग और आवेश की प्रधानता है। गुलामी के वातावरण में अंग्रेज़ों के शोषण और अत्याचारों की प्रतिक्रिया का शक्तिशाली रूप उनकी कविता में मुखर है। उसमें उत्साह, उमंग, प्रेरणा और आस्था है। उनकी राष्ट्रीयता अंतरराष्ट्रीयता या मानवतावाद में परिणित होने का प्रयास करती है। वे उस पुनरुत्थानवादी धारा के राष्ट्रीय कवि हैं जो भारतेंदु से आरम्भ होकर द्विवेदी युग से होती हुई छायावादी काव्य में व्यक्त हुई है।
परशुराम की प्रतीक्षा में दिनकर की राष्ट्रीयता आपद धर्म के रूप में व्यक्त हुई है। यह युद्धकाल की राष्ट्रीयता है। इसके अंतर्गत शक्ति, तलवार एवं क्रांति का महत्व सहज ही मान्य हो जाता है। भारत पर चीन का आक्रमण हुआ। सारे देश में आक्रोश उमड़ पड़ा। परशुराम की प्रतीक्षा के परशुराम भारतीय जनता के सामूहिक आक्रोश और शक्ति के प्रतीक हैं । वे चीन के आक्रमण के लिए भारतीय राजतंत्र और विचार दर्शन को उत्तरदायी मानते हैं:
‘जो सत्य जानकर भी न सत्य कहता है,
किसी लोभ के विवश मूक रहता है
उस कुटिल राजतंत्री कदर्य को धिक है,
मूक सत्यहंता कम नहीं वधिक है।’
चीन के आक्रमण की घटना ने दिनकर की इस आस्था को दृढ़ कर दिया कि भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिए हमें सैन्य शक्ति का सहारा लेना पड़ेगा। यह है दिनकर के काव्य में राष्ट्रीयता का नवीन रूप।
इस प्रकार हम देखते है कि स्वतन्त्रता आंदोलन के उत्तरोत्तर विकास के साथ हिन्दी कविता और कवियों के राष्ट्रीय रिश्ते मजबूत हुए। राजनीतिक घटनाक्रम में कवियों के तेवर बदलते रहे और कविता की धार भी तेज होती गई। आंदोलन के प्रारम्भ से लेकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक हिन्दी काव्य संघर्षों से जूझता रहा। स्वाधीनता के पश्चात राष्ट्रीय कविता के इतिहास का एक नया युग प्रारम्भ हुआ। नये निर्माण के स्वर और भविष्य के प्रति मंगलमय कल्पना उनके काव्य का विषय बन गया। फिर भी स्वतन्त्रता यज्ञ में उनके इस अवदान और बलिदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। भारत का ऐतिहासिक क्षितिज उनकी कीर्ति किरण से सदा आलोकित रहेगा और उनकी कविताएँ राष्ट्रीय आस्मिता की धरोहर बनकर नयी पीढ़ी को अपने गौरव गीत के ओजस्वी स्वर सुनाती रहेगीं।

अलका सिन्हा, दिल्ली
सीमाप्रहरियों की कलाइयों पर बंधे रेशमी धागे
सावन की रिमझिमी फुहार में जब बहनें अपने भाइयों की लंबी उम्र के गीत गाती रेशमी धागों की मोहक राखियां बनाती हैं तब लगता है जैसे मौसम भी दुआएं भर-भर बरसाता है। तब हम स्कूल प्रोजेक्ट के तौर पर राखियां बनाया करते थे और अगले दिन उन राखियों को स्कूल में सभी के बीच सजाया जाता था। उन दिनों भाइयों को अपने हाथ से बनी राखियां पहनाने का चलन था। बाजारवाद की दौड़ में आजकल यह चलन थोड़ा बदल गया है। अब दुकानें सुंदर-सुंदर राखियों से सजी होती हैं और बहनें उनमें से भाई के लिए राखी पसंद कर खरीद लाती हैं। खुद भी भर-भर हाथ मेहंदी रचवाती हैं और नए कपड़े पहन कर भाई के माथे पर चंदन-रोली का तिलक कर कलाई पर राखी बांधती हैं।
बदले हुए इस परिवेश में भी मुझे स्कूल के दिनों की याद उल्लसित कर जाती है। याद आता है एक दृश्य करगिल युद्ध के समय का। उस दौरान ‘दैनिक जागरण समूह’ ने एक अभियान छेड़ा था जिसके तहत देश की बहनों ने सीमा पर लड़ रहे हमारे फौजी भाइयों के लिए अपने हाथों से राखियां बनाई थीं। हाथ से बनी इन राखियों को इकठ्ठा कर, जागरण समूह भेजने वालों में मैं भी शामिल थी। उन दिनों मैं पालम, नई दिल्ली में रहती थी और वहां का माहौल थोड़ा कम शहरी था। मैंने बहुत उत्साह से अपने घर के आसपास भी इसका प्रचार किया। वहां की बच्चियां मेरे इस अनुरोध पर हुलस कर आगे आईं और उन्होंने तरह-तरह की राखियां बनाकर मेरे आगे रख दीं। सभी के चेहरे पर गजब का उत्साह था। वे ऐसे चहक रही थीं जैसे वे भी सरहद पर लड़ाई लड़ने जा रही हैं। एक साधारण सा उपक्रम कितनी सादगी और मुस्तैदी के साथ हमें अपने अनदेखे, अनाम भाइयों के साथ गहरे संबंध से जोड़ रहा था, यह अहसास अद्भुत था। हाथ से बनी राखियों में पिरोया हर रेशमी धागा हमारे फौजी भाइयों के लंबे और यशस्वी जीवन की कामना से दिपदिपाता उनका रक्षा कवच बन गया था। किसी की कलाई पर बंधा एक कोमल तार कैसे किसी के भीतर अटूट जिजीविषा का संचार करता है, यह देखने लायक था।
भाई-बहन के बीच का यह संबंध रेशमी धागों में निखर उठता है। अक्षत-रोली का मंगल टीका लगाते हुए बहनें भाइयों की लंबी उम्र की कामना करती हैं और भाई उनकी रक्षा का वचन देता है। हमारे सैनिक पूरे देश की रक्षा का वचन देते हैं, फिर रक्षाबंधन के पावन अवसर पर देश अपने फौजी भाइयों को कैसे भूल सकता है। इसलिए सावन के मौसम में जब दुकानें स्वादिष्ट घेवर और रंगीन राखियों से सजी होती हैं तब देश की बहनें रेशमी धागों से शुभकामना गीत रचती हैं और भाई भी जिसे पाकर वज्र की तरह अदम्य साहस और शौर्य से भर उठते हैं। स्कूल की नन्हीं बच्चियां रंगबिरंगे धागों में अपनी अनगढ़ कविताएं पिरोती हैं। सुंदर राखियां बनाते हुए कहीं न कहीं हम भी देश भक्ति के उस जज्बे से जुड़ जाते हैं जो इन फौजी भाइयों की रगों में बहता है। हमारे भीतर यह विश्वास और भी प्रगाढ़ हो जाता है कि ये कोमल धागे हमारे फौजी भाइयों की हर हाल में रक्षा करेंगे, दुश्मन की निर्मम गोली इन कोमल भावनाओं से परास्त होकर लौट जाएगी और देश में अमन-चैन बहाल होगा। स्कूली बच्चे, बहनें, मांएं इन जवानों पर नाज करती हैं और इनकी रक्षा के लिए मंगलदीप जलाती हैं। सियाचिन के ग्लेशियर हों या लेह-लद्दाख की बर्फीली पहाड़ियां, सरहद पर तैनात जवानों की सूनी कलाइयों पर सजी राखियां हमारे सैनिकों के भीतर फौलादी जज्बा भरती हैं। सगे-संबंधियों से दूर निर्जन वन में, रेतीले रेगिस्तान में, बर्फीली चट्टानों के बीच तोप और मशीनगन संभाले, अपलक ड्यूटी निभाते इन फौजियों के पास जब ये कोमल राखियां पहुंचती हैं तब इनकी ताकत कई गुना बढ़ जाती है। भावों का यह कोमल इजहार उनके भीतर अदम्य साहस और उत्साह का संचार करता है। वे महसूस करते हैं कि उनका यह एकांतवास उन्हें पूरे देश से जोड़ रहा है। देशवासी उनके लिए प्रार्थनाएं कर रहे हैं, उनका संबंध किसी एक परिवार या गांव से नहीं, देश भर से है। गुमनाम जगहों पर तैनात होने के बावजूद देशवासियों का भेजा रक्षा सूत्र जब वहां पहुंचता है जहां कोई चिड़िया भी नहीं चहकती तब राखी के ये धागे उनके अकेलेपन में भावनाओं की रंगोली सजाने लगते हैं।
इन सैनिकों की पहचान देशभक्ति की फिल्मों में अभिनय करने वाले हीरो की तरह भले ही न बनती हो मगर ये असल हीरो हैं। सरहद पर लोहा लेते इन जवानों को हम चेहरे या नाम से नहीं बल्कि उनकी वर्दी से पहचानते हैं। जब देश उत्साह से होली-दिवाली का त्योहार मना रहा होता है तब ये सैनिक अपने परिजनों से दूर किसी बियाबान में अपनी ड्यूटी निभा रहे होते हैं। उनकी इस निष्ठा की बदौलत ही देश चैन और सुकून से अपने त्योहार मना पाता है। किसी देशवासी के हाथ का लिखा एक खत इन्हें कितनी खुशी से भर देता है, इसका जिक्र ये जवान अक्सर ही किया करते हैं। हमारे भीतर अपने इन भाइयों के प्रति जो स्नेह है वह धर्म या जाति से परे है और सही अर्थों में देश को परिवार की ऊष्मा से भरता है। प्रेम और आस्था के इस अनमोल रिश्ते को इन रेशमी धागों से बेहतर और कौन व्यक्त कर सकता है?
क्या ही अच्छा हो कि हम उन्हें यह भरोसा दिला सकें कि ये रिश्ता किसी त्योहार को मनाने का एक उपक्रम भर नहीं है बल्कि हम सही मायने में तुम्हारे परिजनों के देखभाल की जिम्मेदारी लेते हैं। तुम सीमाओं पर मुस्तैदी से डटे रहो, यहां तुम्हारे गांव-घर की सेवा में हम कहीं पीछे नहीं रहेंगे।
रोली अक्षत से सजी थाली लेकर बहनें गा रही हैं कि मेरे भाई के सिर पर सदा विजय का ताज सजता रहे और भाभी की मांग का सिंदूर झिलमिलाता रहे…

हरिहर झा, मेलबॉर्न
वीरों की धमनी में
माटी में
जिसकी महक रहा,
त्याग और बलिदान
नमन उस देश के आयुध को,
तुझ पर है अभिमान।
तेरे सीने में,
भुजबल में
दिखे कईं हिमालय;
गंगा बही हृदय से
संगम, जन सागर में तय;
पार हुई
दुर्गम घाटी की ऊँचाई, ढलान।
वेश रिपु का
कितना भौंके, अपनी बेगुनाही;
कौधी विद्युत, वीरों की तो
फैलेगी तबाही;
ज्यादा चादर फैलाने के,
नहीं चलेंगे प्लान।
सोचा, क्या?
गलवान छेड लो
तो होंगे हम पस्त;
ईटों का उत्तर पत्थर से,
देकर कर दें त्रस्त;
देश बचाना धर्म हमारा,
क्यों ना रिपु को भान।
केवल गाँधी,
बुद्ध समझ कर,
मत टपकाओ लार
अजगर दुम दबा कर भागे,
ऐसा होगा वार
वीरों की धमनी में
बहती विद्युत का ऐलान।

आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर
जयतु जय जननी हमारी
देश बहता है रगों में
देह में है प्राण बन के,
इस जहां में, हम जहाँ भी,
इक अमिट पहचान बन के ।
बह रही है भावगंगा
मन की माटी भीगती है
जननी की अनुपम है ममता
संतति को खींचती है ।
अंक में भरने को आतुर
मातृभूमि भारती है
भर कलश में नेह अमृत
आस की लिए आरती है।
साधकों की देवभूमि
त्याग, तप, श्रम से है सिंचित
ईश अवतारे यहीं पर
पूर्वजों का पुण्य अर्जित ।
केसरी चंदन लगाये
इक तपस्वी हिम खड़ा है
हरित धन से कोष भरती
कर्मवीरों की धरा है।
एक ध्वज है, एक सीमा
एक ही इतिहास सबका
साझे हैं संकल्प सबके
साझा ही विश्वास मन का।
राग साझी संस्कृति का
सभ्यताओं का विलय है
जन के मन की कह रहा है
कोटि स्वर औ’ एक लय है।
एक दीपक, एक बाती
कोटि उर करता उजाला
विविध कुसुमों से सुगंधित
एकता की राष्ट्रमाला।
एक भारत, श्रेष्ठ भारत
हर हृदय की आस है ये
अनगिनत पलकों तले
इक स्वप्न का उल्लास है ये ।
फाग का एक राग कोमल
और पलाश के आग जैसी,
क्रान्ति की लाली से दहकी
और कमल के पराग जैसी ।
तुम ही शारदे और लक्ष्मी
तुम क्षमा और तुम ही काली
जयतु जय जननी हमारी
संप्रभु और शक्तिशाली ।
भाल उन्नत भारती का
शौर्य का कुमकुम दमकता
शांति करुणा धारिणी माँ
प्रेम वसुधा पर बरसता।
इस जहां में, हो जहाँ भी,
संतति का मन हरषता।
जयतु जय जननी हमारी
प्रेम प्रतिपल संग रहता।

डॉ. मंजु गुप्ता, दिल्ली
यह मेरा हिंदुस्तान है…
यह पूरी धरती मेरी है, यह पूरा अंबर मेरा
पेड़- पौधे और हरियाली से भरा यह उपवन मेरा.
सागर, नदियाँ, झरने, पोखर, ताल- तलैया मेरे
गंगा,यमुना, व्यास, नर्मदा, कावेरी-तट मेरे.
मैं इनका हिस्सा हूँ, इनके भीतर मैं जीवित हूँ
ये मेरे महबूब और दिलवर, संगी- साथी मेरे.
षड्ऋतुओं की ओढ़ चुनरिया देश मेरा मुस्काता
नाचे छम छम, बुंदियों के संग, पवन हिंडोला झुलाता.
यह महान इसलिए नहीं कि विश्वविजेता है यह
यह महान इसलिए कि यह हर याचक को अपनाता.
सभी धर्मों की शरणस्थली, वेदों का उद्गाता
उपनिषदों का परम तत्व यह सबको पथ दिखलाता.
अनेक भाषा और बोलियों का यह झुरमुट अति प्यारा
विविध वेशभूषा और संस्कृति का महासंगम यह न्यारा.
भाँति-भाँति की विविधताओं का यह अद्भुत गुलदस्ता
सबको साथ लेकर चलना ही मानव धर्म सिखलाता.
धरती बहुत बड़ी है लेकिन मेरा देश अप्रतिम है
सौ जन्मों के पुण्यस्वरूप ही इसमें जन्म मिला है.
हिंदुस्तान है जननी हमारी, हम इसकी संतति हैं
मातु- पिता और बंधु ,सखा सम यह हमको अति प्रिय है.
सौ- सौ जन्म न्यौछावर इस पर, देह की क्या गिनती है
इसकी खुशबू से मन पुलकित, यह मेरा हिंदुस्तान है.
शक्तिसंपन्न होकर भी सबको शांतिपाठ पढ़ाता
विश्वशांति का अग्रदूत यह शांतिदूत कहलाता.
भारत कहो या हिंदुस्तान यह ऋषियों की भूमि है
राम, कृष्ण और बुद्ध, महावीर , गांधी की जन्मस्थली है.
उत्तर से धुर दक्षिण तक पूरा भारत मेरा है
पूरब से पश्चिम तक विस्तृत भारत अलबेला है.
देवोपम यह भारत भूमि, सबका हितचिंतन करती
वसुधैवकुटुम्बकं का महाभाव यह कण-कण में है भरती…
*****
देश है धरती….
देश है धरती, देश है अंबर
देश भाई, बंधु, परिजन
साँसों में जो गुंथा हमारी वही देश है
अपनेपन की परिधि जहाँ तक वही देश है
स्व अस्तित्व की स्वीकृति ही तो अपना देश है.
देश हमारी परंपरा है, देश विरासत
देश संस्कृति, नैतिकता, अध्यात्म देश है
सदियां बनी इतिहास जहाँ यह वही देश है
अणु- अणु में जो बसा प्राण बन, वही देश है.
तन का दीपक, मन की बाती, इस पर अर्पित
साँसों की लड़ियाँ हर पल इस पर न्यौछावर
देश बचा तो, बचेगा घर, आँगन, चौबारा
देशभक्ति ही, प्रभु को सच्चा नमन हमारा…..

डॉ. शिप्रा शिल्पी सक्सेना, कोलोन, जर्मनी
हमें तो गर्व है
हमें तो मान है, जन्मे है देश भारत में,
विश्व गुरु भारत में, देव भूमि भारत में।
हम अपने देश से कुछ ऐसे प्यार करते हैं,
विदेशी रंग में तिरंगा रंग भरते हैं।
हमारी भाषा पे, संस्कृति पे, गर्व है हमको,
हमेशा देश की ख़ातिर ही जीते-मरते हैं ।
हमे तो गर्व है, जन्मे है आर्य भूमि में,
देवों की भूमि में, वेदों की धूनी में।
प्रेम है हिंदी से, हिंदी ही अपनी भाषा है,
हरेक भारतीय मन की यही आशा है।
कि पूरे विश्व में परचम इसी का लहराए,
हमारे दिल की यही एक अभिलाषा है ।
हमें तो मान है, जन्मे है देश भारत में,
विश्व गुरु भारत में, देव भूमि भारत में।
कबीर, सूर की, तुलसी की प्राण हिंदी है,
प्रसाद पंत निराला की जान हिंदी है।
हरेक देश भक्त भारतीय कहता है,
हमारी आन बान शान मान हिंदी है।
हमें तो मान है, जन्मे है देश भारत में,
विश्व गुरु भारत में, देव भूमि भारत में।
हमारी बोली हिन्दी वेश हिन्दुतानी है,
धड़कते दिल में देश प्रेम की रवानी है।
किसी भी देश में दुनिया जाके बस जायें ,
मगर हमारे दिल की हिन्द राजधानी है।
हमें तो मान है, जन्मे है देश भारत में,
विश्व गुरु भारत में, देव भूमि भारत में।

डॉ. ऋतु शर्मा ननंन पाँडे, नीदरलैंड
मेरा भारत
ऐ मेरी ज़मी सासों में अपनी
ले के तुझे मैं अपने साथ चली
मैं भारत हूँ भारत मुझसे
परदेस मैं तेरी पहचान बनी
खोये नहीं संस्कार तेरे
भाषा तेरी मेरी पहचान बनी
तेरे वीर सपूतों की गाथा
हमारे सिर का ताज बनी
गाँधी के अहिंसा आदर्शों के
आगे गोरों की एक न चली
भगत सिंह,राजगुरू, सुखदेव की
दुल्हन फाँसी का फंदा बनी
इश्क़ वतन से इनको था
आहुति अपने प्राणो की दी
परणाकरें हम इन शहीदों को
जिनसे देश में अमन की गंगा बही
आओ याद करें हम उनको
जिनके हिस्से ये मुक़ाम आया
नसीबों वाला है वो रक्त
जो रक्त देश के काम आया
परदेस में रह कर करती हूँ
मैं याद तुझे हर पल ऐ मेरी ज़मी
रूक जाते हैं कदम मेरे
जहाँ बात कभी तेरी हो चली
चूम लेती हूँ उन कदमों को
जो तेरी मिट्टी छू कर चले
मेरी साँसों में तेरी ख़ुशबू है
इस ख़ुशबू को लेकर मैं साथ चली
आये न कभी संकट तुझ पर
तु यूँ ही सदा फूले और फले
नाम हो रोशन जग में तेरा
तिंरगा मेरा सदा ऊँचा ही रहे।
पूछो न पहचान मेरी
पहचान मेरी बस इतनी है
भारत की मैं बेटी हूँ
और धर्म से हिन्दुस्तानी हूँ।

संगीता चौबे पंखुड़ी, कुवैत
मस्तक पर हिमगिरि मुकुट, उर में बहती गंगा धारा है,
विश्व पटल का शिरोमणि, भारत देश हमारा प्यारा है।
भिन्न भिन्न भाषाओं, विभिन्न गणवेशों का संगम,
कहीं पठार, कहीं उतुंग पहाड़ों का दृश्य विहंगम,
कल कल बहती कावेरी यमुना गोदावरी सतलज,
गहन घाटी में खिले फूलों, पर मुस्कुराती शबनम।
खनिज और प्राकृतिक संपदाओं से पूर्ण देश न्यारा है।
विश्व पटल का शिरोमणि, भारत देश हमारा प्यारा है।।
वीरों ने अपना लहू देकर मान सम्मान तेरा बढ़ाया,
तीन रंगों के बाग की महक सा तिरंगा तेरा लहराया,
खदेड़ दिया दुश्मनों को उनकी सब चाल उलट कर,
सीने पर गोली खाकर भारत मां का कर्ज चुकाया।
वीरों के कंठ से गूंजता सर्वत्र जय हिन्द का नारा है।
विश्व पटल का शिरोमणि, भारत देश हमारा प्यारा है ।
अनुच्छेद 370 की जंजीरों से, कश्मीर ने आज़ादी पाई,
संशोधन बिल ने, शरणार्थियों को नागरिकता दिलाई,
तीन तलाक़ कानून से मुस्लिम स्त्रियों को मिला सुकून,
राफेल विमान के सौदे ने देश की आयुध शक्ति बढ़ाई।
राममंदिर शिलान्यास कर,रामराज्य धरा पर उतारा है।
विश्व पटल का शिरोमणि, भारत देश हमारा प्यारा है।।

डॉ महादेव एस कोलूर, कर्नाटक
विश्व में भारत का बदलता परिदृश्य
विश्व में भारत का बदलता परिदृश्य एक ऐसा विषय है जो वर्तमान समय में अत्यधिक प्रासंगिक है। भारत की बढ़ती आर्थिक शक्ति, वैश्विक नेतृत्व और सांस्कृतिक प्रभाव ने इसे विश्व मंच पर एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बना दिया है। इस आलेख में, हम भारत के बदलते परिदृश्य के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे और इसके भविष्य के संभावनाओं का विश्लेषण करेंगे।
भारत की आर्थिक शक्ति
भारत की आर्थिक शक्ति में वृद्धि एक महत्वपूर्ण कारक है जिसने इसे विश्व मंच पर एक शक्तिशाली देश बनाया है। भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ रही है, और यह जल्द ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की संभावना है। भारत की आर्थिक शक्ति ने इसे वैश्विक व्यापार और निवेश में एक महत्वपूर्ण भागीदार बनाया है।
वैश्विक नेतृत्व
भारत ने वैश्विक नेतृत्व में भी अपनी भूमिका निभाई है। भारत ने जी20 की अध्यक्षता की और इसमें अपनी कूटनीतिक ताकत का प्रदर्शन किया। भारत ने जलवायु परिवर्तन, आतंकवाद और आर्थिक विकास जैसे वैश्विक मुद्दों पर भी अपनी आवाज उठाई है। भारत की वैश्विक नेतृत्व भूमिका ने इसे विश्व मंच पर एक जिम्मेदार और प्रभावशाली देश के रूप में स्थापित किया है।
सांस्कृतिक प्रभाव
भारत की सांस्कृतिक प्रभाव भी विश्वभर में बढ़ रही है। भारतीय संस्कृति, विशेष रूप से योग, आयुर्वेद और संगीत, ने विश्वभर में अपनी जगह बनाई है। विश्व के अनेकानेक देशों में इस्कॉन मंदिर बनाएं गए हैं। भारत की सांस्कृतिक प्रभाव ने इसे एक सॉफ्ट पावर के रूप में स्थापित किया है, जो विश्वभर में इसके प्रभाव को बढ़ावा देती है।
भविष्य की संभावनाएं
भारत के भविष्य की संभावनाएं उज्ज्वल हैं। भारत की आर्थिक शक्ति, वैश्विक नेतृत्व और सांस्कृतिक प्रभाव ने इसे विश्व मंच पर एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाया है। भारत की बढ़ती जनसंख्या, विशेष रूप से युवा आबादी, ने इसे एक महत्वपूर्ण मानव संसाधन के रूप में स्थापित किया है। भारत की भविष्य की संभावनाएं इसके नवाचार, उद्यमशीलता और वैश्विक सहयोग पर निर्भर करेंगी।
चुनौतियां
हालांकि, भारत को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। आर्थिक असमानता, बेरोजगारी और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों ने भारत की प्रगति को प्रभावित किया है। भारत को इन चुनौतियों का सामना करने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक समग्र और सतत दृष्टिकोण की आवश्यकता है । हाल ही के दिनों में, अमेरिका द्वारा भारत पर 50% टैरिफ लगाने के फैसले पर भारत सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया दी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वे देश के किसानों के हित के लिए ज्यादा कीमत चुकाने के लिए तैयार हैं। और भारत सरकार ने अमेरिकी टैरिफ को अनुचित, अकारण और तर्कहीन बताया है और अपनी ऊर्जा खरीद नीतियों के बारे में स्पष्ट कर चुका है और राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठाएगा।
निष्कर्ष
विश्व में भारत का बदलता परिदृश्य एक महत्वपूर्ण विषय है जो वर्तमान समय में अत्यधिक प्रासंगिक है। भारत की आर्थिक शक्ति, वैश्विक नेतृत्व और सांस्कृतिक प्रभाव ने इसे विश्व मंच पर एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी बनाया है। भारत की भविष्य की संभावनाएं उज्ज्वल हैं और विश्वगुरु बनने की अपनी लक्ष्य की पकड़ को मजबूत कर रही है लेकिन इसके लिए इसे कई चुनौतियों का सामना करना होगा। भारत को अपनी आर्थिक शक्ति, वैश्विक नेतृत्व और सांस्कृतिक प्रभाव को बनाए रखने और आगे बढ़ाने के लिए एक समग्र और सतत दृष्टिकोण की आवश्यकता है ।

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा उरतृप्त, महाराष्ट्र
स्वतंत्रता का बोझ
उस साल गाँव के आसमान का रंग भी कुछ अलग था। न जाने क्यों, बूढ़े करमचंद की आँखों में उस दिन का सूरज नहीं, बल्कि कुछ और ही चमक रहा था। वह दिन, जब तिरंगा पहली बार गाँव की चौपाल पर फहराया गया था। करमचंद उस समय एक जवान लड़का था, जिसने अपने दोस्तों के साथ मिलकर “इंकलाब जिंदाबाद” के नारे लगाए थे, मानो उनकी आवाज़ में ही आज़ादी की गूँज हो।
आज, 15 अगस्त की सुबह, वह अपनी खाट पर बैठा था। उसका शरीर, जो कभी किसानों के साथ मिलकर हल चलाता था, अब एक सूखे पेड़ की तरह था, जिसकी टहनियाँ टूट चुकी हों। उसके चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ नहीं थीं, बल्कि आज़ादी के बाद के 75 सालों की कहानियाँ थीं, जो हर झुर्री में कैद थीं। वह आज़ादी के दिन का इंतज़ार नहीं कर रहा था, बल्कि उस दिन से डर रहा था। क्योंकि हर साल यह दिन उसे उस झूठ की याद दिलाता था, जिसे हम “स्वतंत्रता” कहते हैं।
गाँव का नाम रामगढ़ था, और कहने को तो यहाँ सब कुछ था। पक्की सड़कें, बिजली के खंभे, स्कूल, और अस्पताल की इमारत, जो सालों से बंद पड़ी थी। लेकिन करमचंद जानता था कि इन सब के पीछे एक ऐसा अँधेरा छिपा है, जिसे कोई देख नहीं पाता। उसका बेटा मोहन, जो शहर में नौकरी करता था, उसे हर साल फोन करके पूछता, “बापू, इस बार 15 अगस्त पर क्या हो रहा है?” और करमचंद हर बार यही जवाब देता, “वही, बेटा… वही सब जो हर साल होता है।”
इस साल भी गाँव की सरपंच, शांतिदेवी, ने एक शानदार कार्यक्रम की घोषणा की थी। गाँव के चौक को तिरंगे के रंगों से सजाया गया था। लाउडस्पीकर पर देशभक्ति के गाने बज रहे थे, जिनकी धुन में वह दर्द छिपा था, जो करमचंद महसूस कर रहा था। सरपंच के पति, धर्मपाल, जो गाँव के सबसे बड़े ठेकेदार थे, उन्होंने गाँव के चारों तरफ़ तिरंगे के झंडे लगाए थे। हर झंडा एक वादा था, जो कभी पूरा नहीं हुआ।
करमचंद की यादों में 1947 का वह दिन लौट आया। जब उसके गाँव के लोगों ने मिलकर एक कुआँ खोदा था, ताकि सब एक ही जगह से पानी ले सकें, बिना किसी भेदभाव के। उस दिन उनके चेहरे पर खुशी थी, क्योंकि उन्हें लगा था कि अब वे सच में एक हो गए हैं। लेकिन आज गाँव में पानी की टंकी थी, जिसमें पानी आता ही नहीं था, और पानी के लिए भी लोगों को सरपंच के घर के पास जाना पड़ता था।
वह याद कर रहा था अपने दोस्त अब्दुल को, जिसे उसने बचपन में ही खो दिया था। अब्दुल का सपना था कि वह बड़ा होकर एक डॉक्टर बनेगा और गाँव के लोगों का इलाज करेगा। लेकिन 1947 के बाद की हिंसा ने उसके सपनों को एक झटके में तोड़ दिया। आज, गाँव में अस्पताल की इमारत थी, लेकिन वहाँ कोई डॉक्टर नहीं था। बीमार लोग झाड़-फूँक करने वालों के पास जाते थे, और करमचंद को लगता था कि अब्दुल का सपना आज भी अधूरा है।
शाम को गाँव के लोग सरपंच के घर के पास इकट्ठा हुए। वहाँ एक बड़ा सा पंडाल लगा था, जहाँ सरपंच शांतिदेवी भाषण देने वाली थीं। करमचंद भी धीरे-धीरे चलकर वहाँ पहुँचा। उसकी आँखों में एक अजीब सी उदासी थी, मानो वह जानता हो कि आगे क्या होने वाला है।
सरपंच ने भाषण शुरू किया। उन्होंने कहा, “आज का दिन हमारे लिए गर्व का दिन है। हमारे पूर्वजों ने हमें आज़ादी दिलाई, और हमने इस आज़ादी को संभाला।” उन्होंने गाँव में हुए “विकास” की बात की। उन्होंने बताया कि गाँव में बिजली के खंभे लग चुके हैं, भले ही उनमें बिजली आती हो या न आती हो। उन्होंने पक्की सड़कों की बात की, जो बारिश में कीचड़ में बदल जाती थीं। उन्होंने स्कूल की बात की, जहाँ बच्चों के पास किताबें नहीं थीं।
यह सब सुनकर करमचंद को हँसी आ रही थी, और साथ ही रोना भी। उसकी आँखों से एक आँसू टपक गया, जो उसकी झुर्रियों में खो गया। उसे लगा कि सरपंच का भाषण एक शानदार कहानी है, जो सिर्फ़ सुनने में अच्छी लगती है। लेकिन सच्चाई तो वह है, जो वह हर दिन देखता है।
जब भाषण ख़त्म हुआ, तो सरपंच ने ऐलान किया, “इस बार हम आज़ादी के 75 साल मना रहे हैं, इसलिए हमने एक विशेष समारोह का आयोजन किया है। गाँव के सबसे बुजुर्ग व्यक्ति, जिन्होंने आज़ादी को देखा है, उन्हें सम्मानित किया जाएगा।”
भीड़ में से कुछ लोगों ने करमचंद का नाम लिया, और सरपंच ने उसे मंच पर बुलाया। करमचंद धीरे-धीरे मंच पर पहुँचा। उसके कपड़ों पर मिट्टी लगी थी, और उसका शरीर काँप रहा था। जब वह मंच पर पहुँचा, तो सरपंच ने उसे एक शॉल पहनाया और एक तिरंगा झंडा भेंट किया।
मंच पर खड़े होकर करमचंद ने चारों तरफ़ देखा। उसे गाँव के वो बच्चे नज़र आए, जो स्कूल नहीं जाते थे। उसे वे किसान नज़र आए, जिनकी फसलें बर्बाद हो चुकी थीं। उसे वे जवान नज़र आए, जो शहर में काम की तलाश में भटक रहे थे। उसे लगा कि यह तिरंगा झंडा उसके लिए एक सम्मान नहीं, बल्कि एक बोझ है। एक बोझ, जो उसे याद दिला रहा था कि हमने आज़ादी के साथ क्या किया।
उसने माइक हाथ में लिया और बोलने लगा, “आज का दिन… आज का दिन…” उसकी आवाज़ रुक गई। वह कुछ और कहना चाहता था, लेकिन शब्द उसके गले में अटक गए। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। उसने देखा कि सरपंच, धर्मपाल और अन्य लोग उसे चुप कराने की कोशिश कर रहे थे।
लेकिन करमचंद नहीं रुका। उसने कहा, “यह आज़ादी नहीं है… यह तो एक मज़ाक है!” उसकी बात सुनकर भीड़ में एक सन्नाटा छा गया। उसने तिरंगे को हाथ में लिया और उसे अपने सीने से लगा लिया। “हम आज़ाद तो हो गए, लेकिन हमने इस आज़ादी को खो दिया। हमने इसे अपनी स्वार्थपरता में, अपने लालच में, अपनी नफ़रत में डुबो दिया। यह तिरंगा हमें क्या याद दिलाता है? यह हमें उन शहीदों की याद दिलाता है, जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति दी, ताकि हम सब एक साथ रह सकें।”
“लेकिन हमने क्या किया? हमने गाँवों में पानी के लिए भी भेदभाव किया। हमने अपने बच्चों को शिक्षा से दूर रखा। हमने अपनी माटी को बेचा। हम आज़ाद तो हो गए, लेकिन हमारे दिल आज भी गुलामी में जी रहे हैं।”
करमचंद की बातें सुनकर भीड़ में कुछ लोगों की आँखों में आँसू आ गए। सरपंच ने माइक छीन लिया और कहा, “ये बूढ़े हो गए हैं। ये कुछ भी बोलते हैं।” लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। करमचंद की बात लोगों के दिलों तक पहुँच चुकी थी।
करमचंद धीरे-धीरे मंच से उतर गया। वह गाँव के बाहर की तरफ़ चलने लगा, जहाँ एक पीपल का पेड़ था। यह वही पेड़ था, जिसके नीचे बैठकर उसने और उसके दोस्तों ने आज़ादी के सपने देखे थे। वहाँ पहुँचकर वह ज़मीन पर बैठ गया और अपनी आँखों से बहते आँसुओं को पोंछने लगा।
उसे लगा कि आज़ादी एक ऐसी विरासत थी, जिसे हमने खो दिया। वह एक ऐसा सपना था, जो आज भी अधूरा है। और हर साल 15 अगस्त का दिन हमें उस अधूरे सपने की याद दिलाता रहेगा।
अगली सुबह, जब गाँव के लोग करमचंद को ढूँढ़ने गए, तो वह पीपल के पेड़ के नीचे बैठा मिला। उसके हाथ में वही तिरंगा था, जिसे सरपंच ने दिया था। उसकी आँखें बंद थीं, और उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी, मानो वह अब सच में आज़ाद हो गया हो।
गाँव वालों को लगा कि वह सो रहा है। लेकिन जब उन्होंने उसे हिलाया, तो उन्होंने महसूस किया कि वह अब इस दुनिया में नहीं था। करमचंद की मौत पर गाँव वालों को दुख नहीं हुआ, बल्कि उन्हें अपने-अपने घरों की दीवारों पर लगा हुआ झूठ का तिरंगा याद आया।
उस दिन के बाद, गाँव में आज़ादी का कोई जश्न नहीं मनाया गया। केवल एक बूढ़े आदमी की मौत पर रोते हुए आँसू थे। और वो आँसू, शायद, सच्ची आज़ादी की तलाश में थे।

निशा भार्गव, दिल्ली
रिश्तेदारी
आजादी
मेरी दादी है
नानी है
मौसी है
मामी है
महतारी है
इससे बहुत सारी रिश्तेदारी हैं
इसने ही दिलवाई तिरंगे को सलामी है।
आजादी
आसमान से परे उड़ान है
चुनौती है
हर शहीद की मनौती है
देश के लिए चुनौती है
आजादी में
जड़ों का मजबूत फैलाव है
तरक्की का सैलाब है
यह भारत है,
यंगिस्तान है
इसमें लोकतंत्र की लंबी तान है
सब्र का वृहद् बांध है।
आजादी
पूरणमासी का पूरा चांद है
संस्कृति का भरापूरा थाल है
विनम्रता-शालीनता की खान है
इस पर हमें अभिमान हैं
पर
देखते-देखते कब
देशप्रेम और आदर्शों पर जमा जाला
कब चला पैना आरा
कब विस्तृत विचारधारा पर लगा ताला
कब संकीर्णता ने पैर पसारे
कब सांप्रदायिकता को मिले सहारे
कब भ्रष्टाचार, स्वहित ने आजादी को पहनाई माला
देशभक्ति-देशप्रेम का निकाल दिया दिवाला
अब तो मीडिया और अदालत ही भगवान है
उसी के सहारे चल रहा हिन्दोस्तान है
क्या गलत क्या सही
इससे कर्णधार अनजान है
पर, जिस दिन जनता जागेगी
सोते कर्णधारों की नींद भागेगी
आजादी को मिलेगा सही अर्थ
वरना
शहीदों की कुर्बानी जाएगी व्यर्थ।
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स्वतन्त्रता दिवस
अगस्त पन्द्रह
है स्वतन्त्रता की सालगिरह
देश प्रेम भाव में होकर मग्न
इस दिन मनाते हैं जश्न
याद करते हैं वीरों की कुर्बानी
उन्हें देते हैं अश्कों की सलामी
देश की स्थिति का करना है मुआयना
अर्थव्यवस्था को दिखाना है आइना
प्रगति की राह पर बढ़े हैं हम
आगे ही आगे बढ़ाए हैं कदम
लेकिन कुछ कृत्य हो रहे हैं घिनौने
जिससे हम होते जा रहे हैं बौने
रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, बेईमानी
का है सैलाब
पर हमें तो देखना है देश की तरक्की
का ख्वाब
करोना जैसी बीमारी ने पैर पसारे हैं
परेशान हम सारे के सारे हैं
चीन, पाकिस्तान करते रहते हैं छेड़खानी
उन्हें मुँह की पड़ती है खानी
प्रगति के साथ समस्याएँ हैं अपार
लेकिन हमारे पास हैं संस्कृति और संस्कार
धमनियों में बहता है वीरता का रक्त
समस्याओं पर प्रहार करना है सशक्त
स्वतन्त्रता को बनाए रखना है,
बचाए रखना है
दूरदृष्टि से इसे परखना है
इसके महत्व को नहीं समझना कमतर
खत्म कर देने हैं जहरीले अजगर
स्वतन्त्रता नहीं मिली है आसानी से
बरकरार रखना है सतर्कता और सावधानी से
खून बहाकर, जेल जाकर, फांसी पर चढ़कर
देश प्रेम किया है बढ़चढ़कर
मुश्किलों से मिली है स्वतन्त्रता सयानी
आपसी बैर से न पड़ जाए गंवानी
स्वतन्त्रता की करनी है रक्षा
दुश्मनों से करनी है इसकी सुरक्षा
इसकी अस्मिता पर होना है कुर्बान
इसे बनाना है समृधि की खान
आओ करें स्वतन्त्रता का गुणगान और बखान
और याद करें शहीदों का योगदान
मुबारक हो स्वतन्त्रता की सालगिरह
हृदय से बोलो भारत माता की जय