
इस सावन विशेषांक में अनीता वर्मा- संपादकीय; डॉ. शैलजा सक्सेना, कनाडा; अलका सिन्हा, दिल्ली; कात्यायनी, दिल्ली; डॉ शिप्रा शिल्पी, जर्मनी; नरेश शांडिल्य, दिल्ली; आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर; डॉ मंजु गुप्ता, दिल्ली; श्रीमती कल्पना लालजी, मॉरीशस; डॉ. नीति संधु, ब्रिटेन; निशा भार्गव, दिल्ली; आशा बर्मन, कनाडा; डॉ. नीलम वर्मा, दिल्ली; भुवनेश्वरी पांडे, कनाडा; डॉ वेद व्यथित, हरियाणा; ऋतु शर्मा ननंन पाँडे, नीदरलैंड; डॉ॰ अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’, उत्तर प्रदेश; सरस दरबारी, कनाडा; डॉ. दीप्ति अग्रवाल, दिल्ली; उषा बंसल, अमेरिका; पूनम माटिया, दिल्ली; दिव्यम प्रसाद, कनाडा; डॉ. राधिका सिंह, दिल्ली; सुमन माहेश्वरी, दिल्ली; शैली, उत्तर-प्रदेश; लीला तिवानी, दिल्ली; अरुणा गुप्ता, दिल्ली; अनुप मुखर्जी “सागर”, दिल्ली; पूनम सागर, दिल्ली; डेजी ग्रोवर, दिल्ली एवं नीरज सक्सेना की रचनाएँ संकलित हैं।
संपादकीय
अनीता वर्मा

सावन माह, बारिश की बूँदें, चाय पकौड़े, तीज, घेवर,झूले और हरित परिधान में सजी हुई धरती, वहीं कहीं बाढ़ में डूबते हुए शहर, दरकते पहाड़ और कहीं मन के भीतर उमस। ना जाने कितने मौसम इस मौसम में साथ-साथ चलते हैं।
नन्हें बच्चे की तरह कभी इन फुहारों में भीगने को मन चाहता है तो कभी दिल्ली के ट्रैफिक में फँसने पर बरसात पर ग़ुस्सा आता है। मुझे याद आती है मॉं की सुनाई हुई कहानी जब एक व्यक्ति की एक बेटी किसान के घर ब्याह दी गई और दूसरी कुम्हार के घर। पिता जब उनसे मिलने गया तो किसान के घर ब्याही बेटी ने कहा कि पिताजी ईश्वर से प्रार्थना करें कि बरसात अच्छी हो वहीं दूसरी बेटी ने कहा कि प्रार्थना करें कि बारिश ना हो ताकि जो भी बर्तन बनें हैं वो सूख जाएं। पिता बेचारा सोच में पड़ गया और अन्ततः सब कुछ ईश्वर पर छोड़ दिया। सच है ना जाने कितने मौसम हमारे भीतर चलते हैं जो हमें सुख-दुःख, मिलन- विरह, प्रेम – वियोग और ना जाने जीवन के कितने रंगों से परिचित करवाते हैं। पर ये भी सत्य है कि बारिश की बूँदों के पड़ते ही जैसे धरती तृप्त हो जाती है वैसे ही मन भी शीतल होता है। बरसात के झूलें, मेहंदी से सजे हाथ, श्रृंगार किए हुए स्त्रियां, भगवान शिव की आराधना में लीन मन, एक तरफ़ तप और दूसरी तरफ़ सांसारिक सुख। सब कुछ तो है इस भीगे हुए मौसम में। बारिश की बूँदों से भीगी हुई कविताएँ, आराध्य की आराधना में लीन होकर लिखे हुए ये आलेख व प्रसंग इस विशेषांक में आप सबके लिए। अपनी राय वेबसाइट पर साझा करें।
हर बरसात में
बारिश की बूँदों से भर लेती है ख़ुशबू अपने भीतर
भिगोती है अपना आँचल और मन
सहेजती है उन बूँदों को अपनी पलकों में
और फिर अपने भीतर बह रहे प्रेम से
पूरे घर को भिगो देती है
करती है चिन्ता नन्हें बेटे की
जो बारिश में कूदता- फाँदता
गीले कपड़ों में घर आता है
या फिर पति की जो छाते में खुद को समेटता
बचता बचाता सा सड़क पर बनी
बारिश की नदी में डूबने से बच जाता है
स्त्री भागकर रसोई में जाती है
अदरक इलायची की चाय के साथ
चिन्ता के सैलाब में डूबती- उतरती
पकौड़ो को बेसन में सानतीं
छन्न की आवाज में
बारिश की बूँदों को महसूस करती
और फिर अपनी अँजुरी में भर कर
चुपके से चुराई हुई बारिश की महक को
भर देती है पूरे घर में
मौसम अब मौसम नहीं रहता
बदल जाता है त्योहार में।
डॉ. शैलजा सक्सेना, कनाडा

सावन का लोकगीत
मैया, कैसा सावन, इस बार रे,
मन नहीं भीगा, न तन मोरा भीगा, विरहा लागी जोर आँच रे॥
आग जले मन, स्वेद बहे तन, नयन झरे आँसू आज,
पीड़ा बदरिया जियरा में घुमड़ें, साँस उसाँस डाले फाँस,
मैया, कैसा सावन इस बार रे॥
झूला झूले तन, दुख की पवन संग, सनसन बिरहा सताए,
पिया नहीं आए, गुन दिन रात गाए, व्यर्थ किया सिंगार,
मैया, कैसा सावन, इस बार रे॥
धान झूमें, खूब झूमें, बिरख, लतायें, मन मेरा पनप न पाए
छत चुवै रात भर, धरा कीच दिन भर, आँखों में धुँधलाया काँच,
मैया, कैसा सावन इस बार रे॥
अलका सिन्हा, दिल्ली

शहर में बारिश आई है
काली घनी घटाओं ने आवाज लगाई है
बहुत दिनों के बाद शहर में बारिश आई है।
रोज देखते आसमान में आशा से भर कर
रोज चली जाती थी बदली ऊपर से उड़ कर
मौसम ने लेकिन अब जैसे ली अंगड़ाई है।
छमछम करती दौड़ रही है गुड़िया आंगन में
रिम-झिम का संगीत बजा है हम सबके मन में
मिट्टी की सोंधी सुगंध तन-मन पर छाई है।
अबकी बरखा रानी तुमको अपना कर लेंगे
भूमि भीतर टैंक बनाकर उसमें भर लेंगे
अखबारों ने, टीवी ने यह राह सुझाई है।
*****
वर्षा गीत
वर्षा की नन्ही बूदों ने दस्तक दी जब द्वार ऊपर
मैंने भी खिड़कियां खोल दीं, इस मोहक मनुहार पर।
कब से तुझको बुला रही हूं, रिमझिम गाने सुना रही हूं
मुझ पर कविताएं रचती हो, भीग न जाऊं, पर डरती हो
हैरां हूं इस प्यार पर।
खिड़की छोड़ो बाहर आओ, मिलकर मेरे साथ में गाओ
ता-ता थैया, ता-ता थैया, कागज की छोटी-सी नैया
तैराएं तैयार कर।
फिर बचपन को दोहराएंगे, पानी की धुन पर गाएंगे
भीगेंगे हम दोनों मिलकर, छप-छप कर पानी के ऊपर
झूमें राग मल्हार पर।
याद आ गए बचपन के दिन, निकल पड़ी घर से छतरी बिन
भूलभाल कर उम्र की सीमा, वर्षा में मन जी भर भीगा
सावन के इसरार पर।
कात्यायनी, दिल्ली

सावन
कभी अपने पुराने दिनों की याद करते हैं तो ध्यान आता है कि कई रोज़ पहले से बाज़ारों में घेवर फेनी मिलने शुरू हो जाया करते थे। बेटियों के घर घेवर फेनी तथा दूसरी मिठाइयों के साथ वस्त्र और श्रृंगार की सामग्री लेकर भाई जाया करते थे जिसे “सिंधारा” कहा जाता था। बहू के मायके से आई मिठाइयाँ जान पहचान वालों के यहाँ “भाजी” के रूप में भिजवाई जाती थीं। और इसके पीछे भावना यही रहती थी कि अधिक से अधिक लोगों का आशीर्वाद तथा शुभकामनाएँ मिल सकें। यों तो सारा सावन ही घरों व बाग़ों में लगे आम और नीम आदि के पेड़ों पर झूले लटके रहते थे और लड़कियाँ गीत गा गाकर उन पर झूला करती थीं। पर तीज के दिन तो एक एक घर में सारे मुहल्ले की महिलाएँ और लड़कियाँ हाथों पैरों पर मेंहदी की फुलवारी खिलाए, हाथों में भरी भरी चूड़ियाँ पहने सज धज कर इकट्ठी हो जाया करती थीं दोपहर के खाने पीने के कामों से निबट कर और फिर शुरू होता था झोंटे देने का सिलसिला। दो महिलाएँ झूले पर बैठती थीं और बाक़ी महिलाएँ गीत गाती उन्हें झोटे देती जाती और झूला झूलने के साथ साथ चुहलबाज़ी भी चलती रहती। सावन के गीतों की वो झड़ी लगती कि समय का कुछ होश ही नहीं रहता। पुरुष भी कहाँ पीछे रह सकते थे, महिलाओं के साथ झूले पर ठिठोली करने का ऐसा “हरियाला” अवसर भला हाथ से कौन जाने देता…? वक़्त जैसे ठहर जाया करता था इस मादक दृश्य का गवाह बनने के लिये।
श्रावण मास में जब समस्त चराचर जगत वर्षा की रिमझिम फुहारों में सराबोर हो जाता है, इन्द्रदेव की कृपा से जब मेघराज मधु के समान जल का दान पृथिवी को देते हैं और उस अमृतजल का पान करके जब प्यासी धरती की प्यास बुझने लगती है और हरा घाघरा पहने धरती अपनी इस प्रसन्नता को वनस्पतियों के लहराते नृत्य द्वारा जब अभिव्यक्त करने लगती है, जिसे देख जन जन का मानस मस्ती में झूम झूम उठता है तब उस उल्लास का अभिनन्दन करने के लिये, उस मादकता की जो विचित्र सी अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति के लिये “हरियाली तीज” अथवा “मधुस्रवा तीज” का पर्व मनाया जाता है। “मधुस्रवा अथवा मधुश्रवा” शब्द का अर्थ ही है मधु अर्थात अमृत का स्राव यानी वर्षा करने वाला। अब गर्मी से बेहाल हो चुकी धरती के लिए भला जल से बढ़कर और कौन सा अमृत हो सकता है ? वैसे भी जल को अमृत ही तो कहा जाता है।
मान्यता है कि पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती ने जब सौ वर्ष की घोर तपस्या करके शिव को पति के रूप में प्राप्त कर लिया तो श्रावण शुक्ल तृतीया को ही शिव के घर में उनका पदार्पण हुआ था। सम्भवतः यही कारण है कि इस दिन सौभाग्यवती महिलाएँ अपने सौभाग्य अर्थात पति की दीर्घायु की कामना से तथा कुँआरी कन्याएँ अनुकूल वर प्राप्ति की कामना से इस पर्व को मनाती हैं। अर्थात श्रावण मास का, वर्षा ऋतु का, मानसून का अभिनन्दन करने के साथ साथ शिव पार्वती के मिलन को स्मरण करने के लिये भी इस हरियाली तीज को मनाया जाता है।
श्रावण मास में जब समस्त चराचर जगत वर्षा की रिमझिम फुहारों में सराबोर हो जाता है, इन्द्रदेव की कृपा से जब मेघराज मधु के समान जल का दान पृथिवी को देते हैं और उस अमृतजल का पान करके जब प्यासी धरती की प्यास बुझने लगती है और हरा घाघरा पहने धरती अपनी इस प्रसन्नता को वनस्पतियों के लहराते नृत्य द्वारा जब अभिव्यक्त करने लगती है, जिसे देख जन जन का मानस मस्ती में झूम झूम उठता है तब उस उल्लास का अभिनन्दन करने के लिये, उस मादकता की जो विचित्र सी अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति के लिये “हरियाली तीज” अथवा “मधुस्रवा तीज” का पर्व मनाया जाता है। “मधुस्रवा अथवा मधुश्रवा” शब्द का अर्थ ही है मधु अर्थात अमृत का स्राव यानी वर्षा करने वाला। अब गर्मी से बेहाल हो चुकी धरती के लिए भला जल से बढ़कर और कौन सा अमृत हो सकता है ? वैसे भी जल को अमृत ही तो कहा जाता है।
मधुस्रवा तीज का हरियाला मदमस्त करता हुआ पर्व निकट है, तो आइये हम सब भी मिलकर अभिनन्दन करें इस पर्व का तथा पर्व की मूलभूत भावनाओं का सम्मान करते हुए सावन की मस्ती में डूब जाएँ… क्योंकि जब सारी पृकृति ही मदमस्त हो जाती है वर्षा की रिमझिम बूँदों का मधुपान करके तो फिर मानव मन भला कैसे न झूम उठेगा… क्यों न उसका मन होगा हिंडोले पर बैठ ऊँची ऊँची पेंग बढ़ाने का… हम सब अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में ऊँची पेंग बढ़ाते आकाश छू लें… सभी को मधुस्रवा तीज की अग्रिम रूप से हार्दिक शुभकामनाएँ…
ये बरखा का मौसम सजीला रसीला,
घटाओं में मस्ती हवाओं में थिरकन।
वो बलखाती बूँदों का फूलों से मिलना,
वो शाख़ों का लहराके हर पल मचलना।|
नशे में है डूबी, क़दम लड़खड़ाती,
वो मेघों की टोली चली आ रही है।
कि बिजली के हाथों से ताधिन ताधिन्ता,
वो मादल बजाती बढ़ी आ रही है।|
पपीहा सदा ही पियू को पुकारे,
तो कोयल भी संग में है सुर को मिलाती।
जवानी की मस्ती में मतवाला भँवरा,
कली जिसपे अपना है सर्वस लुटाती।|
मौसम में ठण्डक, तपन बादलों में,
वो अम्बुवा की बौरों से झरता पसीना।
सावन की रिमझिम फुहारों के संग ही,
लो मन में भी अमृत की धारा बरसती।|
है पगलाई बौराई सारी ही धरती,
चढ़ा है नशा पत्ते पत्ते भे भारी।
कि बिखराके सुध बुध को तन मन थिरकता,
तो क्यों ना हरेक मन पे छाए जवानी।|
डॉ शिप्रा शिल्पी, जर्मनी

पूरब में प्रथा है सावन में नवविवाहिता अपने पीहर जाती है।
भाई आता है अपनी नवविवाहित बहन को विदा करवाने के लिए। नई प्रीत है, पीहर जाने पर सजन भी रूठ जाते है, पर पीहर भी तो जाना है। ये लोकगीत पिय को छोड़ कर जाने की कसक और पीहर जाने की ललक को संजोए है।
लोकगीत…
सखि कर लेओ सोलह सिंगार,कि आवा महिनवा सावन का।
पड़े भीनी भीनी फुहार, कि आवा महिनवा सावन का।
हिय का हाल कैसे बतइबे, लाज से अखियां झुक झुक जईहैं।
नैहर की मोहे याद सतावै, रूठे पिया जी कैसे मनइबे।
भइया आइहै अहा, भइया आईहै लेने मोहे आज।
कि आवा महिनवा सावन का…
मैया के हिय से जब लगिबे, पीर हिया की बिन कहे कहिबे।
दिदिया मोरा हाल समझिए, बाबुल मोरे नखरे उठहिए।
भैया भौजी अहा, भइया भौजी करिहै मोहे लाड़
कि आवा महिनवा सावन का…
पीहर में मन रम तो जैइहै, याद पिया की बहुत सतईहै।
न चिट्ठी न हाल पिया का, कैसे सुनाऊ, हाल जिया का।
करूँ कैसे अहा, करूं कैसे मै पी कि मनुहार।
कि आवा महिनवा सावन का….
घेवर फेनी जी ललचईहै, कजरी की धुन मन हर्षईए।
भू ने ओठी धानी चुनरिया, गोरी पे साजे हरी लहरिया।
झूला पड़ा अहा, झूला पड़ा अमवा की डार,
कि आवा महिनवा सावन का…
हंसी हंसी छेड़े सखियां सहेलियां, पी के नाम पे करें अठखेलियां ।
सखियां मोहे बहुत सतावै, पी की याद अगन लगावे ।
नहीं भावे अहा, नहीं भावे मोहे सोलह सिंगार।
कि आता महिनवा सावन का…..
हिय की हलचल कोई न जाने, जड़ से उखड़ी बसी बेगाने।
बेगानों को अपना माना, सावन में पीहर भी जाना।
हंसूँ रोऊं अहा, हंसूँ रोऊं मै दोनों में साथ साथ,
कि आवा महिनवा सावन का….
******
सावन
सावन!!
मात्र एक माह नहीं,
उत्स है सृष्टि के सर्वोत्कृष्ट प्रेम का।
शिव-शक्ति के मिलन, संबंधों की सात्विकता का।
सावन!!
पर्व है प्रेम में स्वेच्छा से,
संपूर्ण समर्पित होते हुए भी, अपने अस्तित्व के गौरव का।
सावन!!
उदघोष है,
प्रेम में वर्चस्व नहीं होने का।
प्रेम के अर्धनारीश्वर रूप का,समाहित किंतु पृथक।
आगे बढ़ने के लिए आज्ञा नहीं,
साथ बढ़कर साथ चलना का।
सावन!!
प्रेम है
शिव शक्ति का।
प्रकृति के आनंद का,
प्रेम के प्रवाह का।
भक्ति, प्रेम, समर्पण के,
अलौकिक आभास का।
सावन!!
प्रेम में आकंठ,
प्रकृति के हृदय का।
घुमड़ घुमड़ अश्रुबिंदु सा,
भावविभोर हो, झमाझम बरसने का।
सावन!!
भाव है,
शिव शक्ति के प्रेम में,
सराबोर हो जाने का।
झूम झूम कजरी, झूला, सावन गाने का।
सावन!!
बरसता है बन कर आशीष
और
हम समझते है
सावन की फुहार है।
नरेश शांडिल्य, दिल्ली

बरसात पर कुछ दोहे :
उमड़-घुमड़ भू पर उतर, बरस मूसलाधार।
नभ ने अपने प्यार का, ख़ूब किया इज़हार।।
घनन-घनन उतरा गगन, बरसाया यूँ नेह।
हरियाई फिर से धरा, गदराई फिर देह।।
रिमझिम-रिमझिम आसमां, छुए ज़मीं का गात।
मुझको रस-चुम्बन लगे, लोग कहें बरसात।।
सीले ख़त गीले नयन, भीगी-भीगी रात।
क्या उनके भी देस में, है यूँ ही बरसात।।
कड़कड़-कड़कड़ बीजुरी, रिमझिम-रिमझिम रैन।
धकधक-धकधक जीयरा, टपटप-टपटप नैन।।
महलों पर बारिश हुई, जागे सुर-लय-साज़।
छप्पर मगर ग़रीब का, झेले रह-रह गाज़।।
आराधना झा श्रीवास्तव, सिंगापुर

यह कैसा सावन?
न साजन याद आता है
न मनभावन याद आता है
सावन में पानी से भरा
घर-आँगन याद आता है ।
वह आँगन जिसमें भरता
कभी घुटनों भर पानी
व पानी जो सुनाता
बेबसी से भरी कहानी ।
वह कहानी याद आती है
यह एहसास दिलाती है
कि कोई रो रहा होगा
बोझा ढो रहा होगा ।
सोचा टोक दूँ मन को
यहीं पर रोक लूँ क्षण को ।
कुछ मीठा सोच लो तुम भी
देखो काले मेघ को जब भी
पर मेरी कल्पना नहीं उड़ती
सच की धरा पर ही अड़ती
उसे मीठी कल्पना नहीं
कड़वा सच ही भाता है ।
न साजन याद आता है
न मनभावन याद आता है
सावन में पानी से भरा
घर-आँगन याद आता है ।
बारिश में बेफ़िक्र भीगती बाला
मुझको भी भाती है
पर मन से उस मासूम बच्चे की
छवि न जाती है
जो चौकी पर बैठ घूरता
टापू बने घर को
भूख से तड़पता ताकता
चावल की देगची को
ज़िंदगी उलझी जलेबी सी
पर न मीठी रसीली सी
किसी ठंडे चूल्हे पर चढ़े
पुराने कुकर के जैसी
न जिसमें उबाल आता है
मन में सवाल आता है
यह सावन सहेज उसके लिए
यह कैसी सौग़ात लाता है?
न साजन याद आता है
न मनभावन याद आता है
सावन में पानी से भरा
घर-आँगन याद आता है ।
कहीं सजती हथेली पर
मेहंदी की हरियाली
कहीं खिंचती है माथे पर
लकीरें चिंताओं वाली
मैं चिंता छोड़
मेहंदी के रंग रंगना चाहती हूँ
आँखें मूँद
स्वप्निल सावन को जीना चाहती हूँ,
पर आँखें खोलते ही
बाढ़ पीड़ित नज़र आ जाता है
मेरा सावन बेचारा
हक़ीकत में वापस लौट आता है ।
उसका दु:ख, मेरी कल्पना पर
बाढ़ का पानी फेर जाता है ।
न साजन याद आता है
न मनभावन याद आता है
हर सावन में पानी भरा
घर-आँगन याद आता है ।
चाहत उसकी भी होगी
ले मानसून का मज़ा
अतिरेक से अभिशप्त
जो भोगता बाढ़ की सज़ा
उसे कब याद आते
पानी की बूँदों में भीगते ख़त
टकटकी लगा देखता
तेज़ बारिश से चूती छत
सीलन की तेज़ बदबू
नथुनों में समा जाती
दीवारों की उधड़ती चमड़ी
उसके घर को रुला जाती
लालटेन की पीली रोशनी में
उसका दु:ख पसर जाता है
दीवार पर टँगी तस्वीर में
मुस्कराता बबलू याद आता है
यह सावन उसकी आँखों में
आँसुओं का सैलाब लाता है ।
न साजन याद आता है
न मनभावन याद आता है
सावन में पानी से भरा
घर-आँगन याद आता है ।
डॉ मंजु गुप्ता, दिल्ली

मैं बूँद बनकर बरसना चाहती हूँ
मैं बूँद बनकर बरसना चाहती हूँ
झरना चाहती हूँ झर-झर
पत्तों की हरी हथेली पर
मोती बन थिरकना चाहती हूँ
आँखों में सूर्य किरन आँज
दमकना चाहती हूँ,जी भर
घास की जड़ों में गिर
अंकुरित होना चाहती हूँ
मैं बूँद बनकर बरसना चाहती हूँ झर-झर
बादल की तरह उमड़ना-घुमड़ना
और घिरना चाहती हूँ
आकाश के अनंत विस्तार में किल्लोल कर
अपने होने का अहसास
महसूस करना चाहती हूँ
आँख से टपक कर
बहुत कुछ कहना चाहती हूँ
दिल और दिमाग पर जड़े
ज़ंक लगे ताले खोलना चाहती हूँ
मैं बूँद बनकर बरसना चाहती हँ झर-झर
मैं बूँद बनकर,संतुष्टों में प्यास जगाना
और प्यासों की प्यास बुझाना चाहती हूँ
उदास तनहाई में टप-टप टपक कर
बेबसी की उमस बुझाना चाहती हूं
सुलगते आक्रोश और दहकते सीनों को
शांत करना चाहती हूँ
सीप में गिरकर
मोती बन चमकना चाहती हूं
ज़िंदगी की लड़ी में
अपना होना
दर्ज करना चाहती हूँ
सागर से मिल
मैं अस्तित्वहीन होना नहीं
बूँदपन खोना नहीं
सागर होना चाहती हूँ
अनंत विस्तार का एक धड़कता कण बन
सीमामुक्त होना चाहती हूँ
मैं बूँद बनकर बरसना चाहती हूँ झर-झर
*****
सांवली घटाएं
आयत नील नयनों में
काजल आँज
सांवली घटाएं
एक बार फिर आई हैं
सावन में
आकाश में लहराता उनका आँचल
नागिन वेणी
धुला-धुला-सा रूप
कितना सलोना है
बिजली की हंसुली
नीलाम्बरी काया पर
हीरे-सी दमकती है
चाँद का झूमर
झिलमिल झलकता है
श्रावणी घटाएं
नयनाभिराम षोडशी-सी
जब आकाश में घिरती हैं
मस्त पवन सीटियां बजाता
गलियों, चौराहों,बगीचों, खेतों में
बौराया फिरता है
श्रीमती कल्पना लालजी, मॉरीशस

सावन- (हाईकू)
1.
बूंदें टपकीं
लहरें भी गा उठीं
नदिया झूमी
2.
घिर के आयीं
घनघोर घटायें
नाचे मनवा
3.
आसमां नीला
हरियाली धरती
मन भावन
4.
सावन आया
है झूलों की बहार
सखी झूल न
5.
सावन आया
साजन क्यूँ न आये
निर्मोही पिया
6.
रंग बिरंगे
फूल खिले अंगना
महका मन
7.
बादल छाये
आसमान भीगा सा
टपकी बूंदें
8.
बताती नहीं
कब रूख मोड़ ले
बेदर्द हवा
9.
मेंहदी रची
हथेलियां ये मेरी
मन भावन
10.
बरस गया
सावन रिमझिम
मोरे अंगना
11.
झड़ते रहे
सारी रात सपने
अंगना मेरे
12.
बरसे नित
अंखियां रिमझिम
न आये पिया
डॉ. नीति संधु, ब्रिटेन

सावन के सुर
उमड़ घुमड़ सावन आया
संग मौसम मनभावन लाया
रिमझिम बूँदों की मालाएँ
सृष्टि को सजावन लाया
धरती ओढ़े धानी चूनर
फूलों से श्रृंगार सजाया
कोयल गाए मधुर तराने
बादल ने मल्हार बजाया
झूले पड़े अमराइयों में
सखियों ने मेला लगाया
पुर्वैया ने बांधी डोर
उमंगों का रेला बहाया
मोर ने पसारे पंख
अपना अद्भुत रूप दिखाया
झूमती इठलाती मोरनी को
मोहित कर खूब रिझाया
काग़ज़ की नाव बनाकर
नहर में जब तैराया
मस्ती की दौड़ी लहर
चंचल बचपन तब मुस्कुराया
भीगी हुई बयारों ने
प्रेम अगन को भड़काया
आशाओं के दीप जले
मन आँगन को जगमगाया
मालपुए की सुगंध ने
मन को बहुत लुभाया
साथ परोसी खीर ने
स्वाद भी बहुत बढ़ाया
उमड़ घुमड़ सावन आया
खुशियों का अम्बार लाया
नमन उस ईश्वर को
जिसने सुंदर संसार बनाया।
निशा भार्गव, दिल्ली

लातों के भूत
बादलों को भी ‘सिल्मिंग’ का चढ़ा है बुखार
सुबह हो या हो शाम
दोपहर हो या हो रात
टहलते हैं, घूमते हैं,
चहलकदमी करते हैं
बिगड़ते हैं, मचलते हैं
घुड़-घुड़ की ध्वनि के साथ
ब्रिस्क वॉक भी करते हैं
यही नहीं दौड़ते भागते हैं चलते हैं
आसमान की छाती पर मूँग दलते हैं
काले कलूटे बादल
आँधी के साथ मिलकर बरसात को छलते हैं
बदली के साथ मिलकर बदलते हैं
धोखा देकर हवा से बातें करते हैं
आसमान की ऊँचाई पाकर बादलों को
आ गया है गुरुर
इंसानों की तरह उन पर छा गया है
धोखाधड़ी का सुरूर
बरसने की आहट दे-देकर बिदक जाते हैं
न जाने कहाँ छू-मंतर हो जाते हैं
जिस दिन आकाश से धकेल दिए जाएँगे
सचमुच पसीने छूट जाएँगे
दिन में तारे नज़र आ जाएँगे।
उमड़ना, घुमड़ना भूलकर
ताबड़तोड़ बरस जाएँगे।
कुछ लोग प्यार की भाषा नहीं जाते
घुड़की, लताड़ व प्रहार के बिना नहीं मानते
सच है – लातों के भूत बातों से नहीं मानते।
*****
बारिश के नाम पाती
बारिश भी सीख गई है साज़िश
कभी लाती है सूखा
मारती है इंसानों को भूखा
कभी बरसती है तो थमती ही नहीं
जमकर टूटती है मूसलाधार
लेती है बाढ़ का आकार
कुचल डालती है फ़सल, और बिगाड़ती है पैदावार
कभी फुहार बनकर करती है रिमझिम
विरहिणी की आँखों के आँसू सी झिलमिल
कभी बरसती है आंधी और ओलों के संग
कभी खो जाती है बादलों की गरज के संग
करती है किसानों को तंग।
बारिश के कई स्वरूप हैं, कई रंग है
कुछ भले कुछ बदरंग हैं।
कभी लाती है मॉनसून की बारात
इन्द्रदेव को दुल्हा बनाकर
इन्द्रधनुषी छटा की दिखाती है करामात
तपिश को देती है मात।
जब बरसती है घटाटोप
तो छाते, बरसाती और निकलते हैं टोप
टपकते घर, सीलन, फिसलन, बीमारी
और मच्छरों से भरे घर
प्रार्थना करते हैं हाथ जोड़कर
कि बरखा रानी, मत करो मनमानी
सीखो कुछ नियम और क़ायदे
समय पर बरसो, समय पर थमो
तभी मिलेंगे जनता को फ़ायदे
मानाकि तुम
सड़कों को धुलवाती हो
पेड़ पत्तों को नहलाती हो
सावन के अंधों को हरा दिखाती हो
त्योहार ढेर से लाती हो
नदी नालों में प्रवाह पहुँचाती हो
गड्ढों में बस जाती हो
पर लोगों को बेघर कर जाती हो
धाराधार में बहा ले जाती हो
मौत का तांडव रच जाती हो
इन सब पर लगाओ रोक
स्वतन्त्रता अच्छी नहीं बेरोक टोक
शांति, सुकून, तरक्की व खुशियों की बाढ़
ले आओ इस क़दर
कि बन जाए एक विश्वव्यापी खबर।
आशा बर्मन, कनाडा

सावन
सावन तो प्रभु अब है आया
पर उससे पहले ही तूने
इतना जल है क्यों बरसाया?
शीत बरफ दोनों ने मिलकर
जाड़े भर था हमें सताया
बसंत की मीठी बयार ने
मन में आशा का दीप जलाया
सूर्यदेव की धूप गुलाबी
पलक बिछाए बैठे थे हम
पर इसके बदले हमने तो
इन्द्रदेव का कोप ही पाया
प्रभु इतना जल क्यों बरसाया?
घर में है छोटी ही बगिया
फूल पौधों से उसे सजाया
लाल लाल टमाटर होंगे
सोच जिया मेरा लहराया
धूप नहीं, बस रिमझिम पानी,
दुःख भी है और है हैरानी
इस गरमी में अबतक,एक
टमाटर लाल नहीं हो पाया
सावन तो प्रभु अब हैआया
पर उससे पहले ही तूने
इतना जल क्यों बरसाया?
पांच दिवस की भागदौड़ से
क्लांत हम सभी हो जाते हैं
शनी रवि की प्रतीक्षा में ही
अन्य दिवस बिता पाते हैं।
छुट्टी में भी बरसे पानी,
गरज गरज यह कैसा न्याय?
कहाँ जाएँ, क्या करें बरखा में?
समझ नहीं कुछ मेरे आया।
सावन तो प्रभु है अब आया
पर उससे पहले ही तूने
इतना जल क्यों बरसाया?
हफ्ते भर की छुट्टी मिली तो
काटेज में हमने किया बसेरा
जल बरसा तो शीत बढ़ी,
काँप काँप कर हुआ सवेरा
झील किनारे ही काटेज थी
पर पानी तक जाए कौन?
बरसा जल ,छत से टपका
काटेज में ही पानी बहुतेरा।
घर के बुद्धू घर को आये
यों हमने अवकाश बिताया
सावन तो प्रभु है अब आया
पर उससे पहले ही तूने
इतना जल क्यों बरसाया?
डॉ. नीलम वर्मा, दिल्ली

श्रावण – (हाइकु)
*
विष्णु करते
योगनिद्रा शयन
मूंद नयन
*
आन बिराजे
हिमाद्रि श्रृंग पर
शिव शंकर
*
जय भैरव
जय शक्ति भवानी
गुह्य हिमानी
*
सावन झूला
रिमझिम बुंदियाँ
झूलें गुइंयाँ
*
इन्द्रधनुष
चल छू कर आएँ
पीन्ग बढ़ाएँ
*
तीज त्यौहार
मेहंदी रचे हाथ
सखियाँ साथ
*
प्रिय ना आए,
मन हुआ अधीर
बढ़ती पीर
*
मेघों के संग
बरस कर हारे
नैन बेचारे
*
शाखा पल्लव
विहग विकंपित
नीड़ भंजित
*
धनुर्धारिणी
दामिनी प्रचंडिता
नभ खंडिता
*
विरहणी की
सिहर उठी गात
वज्रनिपात
*
अनायास ही
प्रिय सम्मुख आए
हिया हर्षाए
*
हंस प्रिय ने
उर लियो लगाए
प्रिया लजाए
*****
वर्षा ऋतु
(महाकवि कालिदास के ऋतुसंहार से)
प्रेमियों का प्यारा सावन सजधज कर आया,
नीर भरे मेघों के मस्त हाथी पर आया।
चमचम चमकती बिजली की पताका फहराता,
बादलों की मादक गर्जन का मृदंग बजाता,
अपना पूरा ठाठ- बाठ वैभव दिखलाता आया,
प्रेमियों का प्यारा सावन सजधज कर आया।
निरख घटा घनघोर गगन में, वन में मगन है मोर,
मनोज्ञ स्वर धारी, मधुरभाषी मचाते शोर।
पंख मनोहर फैलाए,थिरक रहे चितचोर,
प्रेमालिंगन पा मयूरी भी है भाव-विभोर।
लाल रंग की वीर बहूटियों से आभूषित है
प्रकृति की काया
प्रेमियों का प्यारा सावन सजधज कर आया।
ऊँचा गर्जन-तर्जन करते मेघ बारम्बार
इस अंधियारी रजनी में भी कर सोलह सिंगार,
अनुरागमयी अभिसारिणी जाती प्रिय के पास,
मार्ग दिखाता चंचला को चपला का उद्भास!
गम्भीर भयंकर नाद करें जब मेघ बिजुरिया चमके
शैया पर सोई रमणी का दिल धक् धक् धड़के
हो अधीर व्याकुल मन से, अपराधी प्रियतम को भी,
निरंतर अपने आलिंगन में, कस कर बाँधे रखतीं।
परदेस गये हैं प्रिय जिनके,
अश्रु ना थम पाते उनके
नहीं सुहाती कंठ माल, नहीं सुहाते आभूषण
लुभाते नहीं विरहणी के मन को कोई श्रृंगार प्रसाधन।
कमलनयन से आँसुओं की धारा बहती रहती,
नव कोपल से कोमल होंठों को सींचा करती।
वर्षा से संताप रहित हो, मुदित हैं सभी दिशाएँ,
मटका मटका हाथ नाचतीं, वृक्षों की शाखाएँ,
प्रेमी नायक सा सावन गूँथ रहा मालाएँ,
प्रेमिका के शीश पर जो नूतन शोभा पाएँ।
नव कदम्ब के कर्ण फूल से, वधु का रूप सजाया,
प्रेमियों का प्यारा सावन सज-धज कर आया।
जल राशि भार से झुके हुए जलधर अकुलाते हैं,
पर सहज सहारा जब विन्ध्याचल शिखरों का पाते हैं,
अनुग्रह से भरे हुए टूट कर जल बरसाते हैं,
पर्वत माला मर्म वेदना व्यथा मिटाते हैं,
ग्रीष्म ऋतु का भीष्म दावानल बुझाते हैं,
अगाध प्रेम से सृष्टि- सृजन का चक्र चलाते हैं।
बहुगुण से सम्पन्न है, रमणीय मनोहरी
वर्षा ऋतु तरु-विटप-लताओं की सखी प्यारी
इसकी मस्त फुहारें रोम-रोम सहराती हैं,
मुरझाई मानस कलियों को पुनः खिलाती हैं
हर प्राणी पाए इनसे, प्राणों का अधिकार
शुष्क क्षुब्ध जीवन ऑर बरसे, सरस प्रेम बौछार।
सुख सम्पदा ऐश्वर्य से भरा रहे संसार,
हों पूर्ण आपके मन की अभिलाषाएँ बारम्बार!
भुवनेश्वरी पांडे, कनाडा

जुलाई की बरसात
बहुत पुरानी बातें याद आ गई, अचानक। नहीं, अचानक नहीं, मन में कई बार सवाल होता है कि यहाँ हम लोग बाहर क्यों नहीं रातों में सोते? जब चाँद निकलता हुआ देख पाए, सप्तऋषि को पूरब से पश्चिम की ओर जाते देख पाए, तारों की कतारें पहचानें, और कौन सा तारा सबसे पहले दिखाई दिया, किसे दिखाई दिया? इस सब की होड़ लगा बैठे।
मई जून की गर्मियों की छुट्टियों में, हम लोग जब अपने घर की छत पर, सोना शुरू करते थे, तो कितना उत्साह होता था? कितनी शक्ति होती थी बार बार छत पर चढ़कर जाना, फिर कुछ भूल गए तो नीचे आना। छतों पर ही सबके बिस्तर, मौसम गर्म होते थे, तब पिताजी सरकारी नौकरी में थे, तो एक दो चपरासी मिले हुए थे, हम लोग चपरासी से कहते, की चारपाइयाँ छत पर ही लगेंगी। चारपाइयाँ दो तरह की थी। एक तो रस्सी वाली, दूसरी निवाड़ वाली। घर के छत पर भी दो कमरे थे। चारपाइयों को ठीक से कस कर तैयार कर लिया जाता था। यहाँ ये बताते चले कि जो रस्सी वाली (बुनाई की हुई) चारपाइयाँ होती थीं। उन पर यदि बरसात का पानी पड़ जाता था, तो वो टेडी हो जाती थी। बाद में उनको दुबारा कसा जाता था। रेडी हो जाने पर अम्मा कहती थी कि इन पर ज़ोर लगाकर बैठो तब सीधी होंगी। खैर ये तो बात की बात है।
हमारी छत पर दो तरफ बड़ी सुन्दर क्यारियाँ, पक्की सीमेंट लगाकर बनाई हुई थी। हमारे पिताजी को, फूलों का बहुत शौक था। तो गर्मियों में बेला, चमेली, तुलसी, गुलाब, गेंदा सब लगाए होते थे। और हाँ यहाँ की तरह पेड़ों पर हिमपात तो होता नहीं था, तो खूब अच्छे से काफी दिनों तक फूलते बढ़ते रहते थे। हमारे घर के नीचे से जो, घर पर आने की सीढ़ियां थी, उनके पास बड़ी क्यारी में एक सदा सुहाग ल की बेल लगी थी। हमें लगता है उसका दूसरा नाम मालती था। वो पूरे साल फूलती थी। गर्मियों में तो इतने फूलों के गुच्छे होते थे कि छत पर, और घर सब सुगंधित हो जाता था। उसके फूल होते तो पहले हल्के गुलाबी थे। फिर दो चार दिनों में हल्के और बाद में सफेद पड़ जाते थे, यही उनका क्रम था। एक ही गुच्छे में तीनों रंग साथ ही रहते थे। माँ तो कभी कभी पूरा गुच्छा बालों में लगा लेती थी।
छत तो बड़ी थी इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि, छे आठ चारपाइयां लगने के बाद भी बहुत खुली जगह रहती थी। अम्मा, पापा की निवाड़ वाली दो चारपाइयाँ एक कोने की लगती थी। हम सब की इस तरह को, जहाँ से नीचे जाने की सीढियां थी। तो चारपाइयों पर हल्के गद्दे, दरी, चादर, तकिया, इतना तो हो ता ही था। सबको एक एक करके गोल लपेट देते थे और कमरे पर बनी जगहों पर रख देते थे। गजेटेड ऑफिसर थे, पिताजी, वे उत्तर प्रदेश के चीफ टाउन प्लानर थे। उस समय हमारे घर पर दो या तीन चपरासी होते ही थे। जिनको उस समय अर्दली भी कहते थे। एक को खाना बनाने के लिए, दूसरा घर के दूसरे कामों के लिए, तीसरा, केवल पापा के कामों के लिए, जैसे उनके जूतों में पॉलिश करना, उनकी फाइल को उठाना रखना, जीप में उनके साथ ही रहना, और अगर दौरे पर जाते हैं, टुअर पर उनके साथ ही जाता था।
तो हम लोगों के छोटे मोटे कामों में शाम को, बिस्तर वगैरह लगाना उनका काम था। हम लोग ज्यादा गर्मी होती थी तो, जिसदिन, तो घड़े में पानी ले जाकर चादरों के ऊपर छिड़क देते, और दिन भर की तपिशको शांत करने के लिए, छत पर खूब पानी की सिंचाई करते। जिससे बड़ी ही सौंधी सुगंध आती, फिर शाम से ही फूलों की खिलने की घड़ी होने के कारण, छत पर खड़े रहना। बिस्तर पर पड़े रहना, लेटे रहना, छत से दूर जाती सड़क पर आने जाने वालों को देखना, यही सब काम थे गर्मियों के। कभी कभी माँ नीचे किसी काम के लिए आवाज देतीं, इनमें से कोई जाना नहीं चाहता था।
खैर। मज़ा तो तब आता था जब आधीरात को कुछ पानी पानी की बड़ी बड़ी बूँदें, बिस्तरों पर पड़ने लगी। जब तक पता चले कि बरसात ज़ोर से होगी या यूं ही बूंदाबांदी होकर चली जाएगी। जिसे भीगने का ज्यादा डर होता- वो बिस्तर लपेट कर नीचे भागता, और जिसे लगता, बस लगता बुंदिया कर चला जाएगा, वो पड़े रहते, बस हल्का सा गीला होकर। लेकिन कभी कभी तो ऐसा भी हुआ, सोचने समझने का वक्त ही नहीं देते थे इन्द्रदेव, जो इतनी तेजी से गिरते कि बिस्तर लपेटते लपेटते, सराबोर हो जाते। नीचे भाग कर आते। पंखे चलाए जाते। नीचे बरामदे में बढ़ी उमस लगती। बरामदे बहुत बड़े थे उन्हीं में सब जैसे तैसे उनींदे से सो जाते। उन दिनों यह चिंता नहीं रहती थी कि कपड़े गीले हो गए हैं या चादर गीली पर लेटे हैं। दरअसल गर्मी भी तो बहुत होती थी। बस ज़रा पंखे की हवा लगी और सब सूख जाता था।
ज्यादा गर्मी और उमस लगने पर कभी कभी वर्षा के रुक जाने पर, और सुबह होने में देर होने के कारण, छत पर चले जाते। खाट तब तक ऐंठ चुकी होती, उसी को खींच -खाँच के सीधा कर के बिना दरी चादर बिछाए बस सो जाते। सो जाते है घोड़े बेचकर।
हमारे घर के सामने रेसिडैन्सी थी, जो बड़ी ही सुंदर फुलवाड़ी और बड़े बड़े पेड़ों से भरी हुई थी। घर तो था थोड़ी ऊँचाई पर, तो वहाँ जो लोग सुबह टहलने आते। उनको देखना, और अनेक पक्षियों की चहचहाहट से, उनकी गूंज से, नींद खुल जाती। था तो वहाँ अंग्रेजों का एक छोटा सा कब्रिस्तान भी, परन्तु वहाँ किसी मुसलमान की मजार भी थी। जिसपर देर रात तक, दिया जलाकर लोग, कव्वाली गाते थे, लगता है कुछ और कहते हो। लोग ऊंची आवाज में गाते थे। जो बड़ा अच्छा लगता था। पेड़ों की ठंडी हवा और संगीत सब मिलाकर रात नींद आने में देर नहीं लगती थी।
कॉलोनी के दूसरे ओर छोटा सिटी स्टेशन भी था। जो कि चारबाग वाले प्रसिद्ध रेलवे स्टेशन से विपरीत था। छोटी लाइन की रेल पटरियों, वहाँ से ही आती जाती थी, तो रेल की सीटियों की भी आदत पड़ी हुई थीं। बचपन से ही। लखनऊ बादशाहों मुगल शासकों द्वारा बसाया शहर है, तो आज तक, 65 70 साल पहले बगीचे बहुत थे। सड़कें काफी चौड़ी और बड़ी थी। कैसरबाग, लालबाग बड़ाइमाम बाड़ा, चौक, डालीगंज। हजरतगंज, विद्यालय भातखंडे, मस्जिदे और भी बड़ी आलीशान इमारतें। लेकिन हम अभी उन पर कोई चर्चा न करते हुए। ये बताते चलें, कि मस्जिदे काफी थी और लाउड स्पीकर पर नमाजें पढ़ना, उस वक्त, पांच वक्त की नमाज़, उस पर, कोई पाबंदी नहीं थी।
एक तरह से जीवन में जानों आजान को सुनते हुए ही उठना आदत सी थी। फिर अगर आप छत पर गर्मियों के मौसम में सोए है, तो?ये सब खूब साफ सुनाई देता था। प्रार्थनाओ की, शब्दों की बंदिश नहीं होती। जो आवाज दुआ की लिए निकलती है, ये सब कहती जाती है।
तब तो हम सब बच्चे ही थे। अपने को उठाना, बिस्तर लपेटना, खटिया को कमरे में ठीक से जमकर लगाना, छोटी बड़ी चारपाइयों के अनुसार, ये सब करने में बड़ी तकलीफ होती, आपस में झगड़ा भी हो जाता। कभी कभी एक दूसरे की करतूतों पर हँसीं भी आ जाती। अगर वर्षा रात के पहले पहर में हो गई तो, सामने पूरी रात बाकी होती, तो लुढ़कते हुए कमरों में, बरामदे, में जाकर सो ही जाते। लेकिन अगर भोर के पहर के पास बरसा पानी, तो जागकर आपस में ही कुछ बातें करते और दिनचर्या आरंभ हो जाती। माँ को तो, अभी सुबह से ही काम रहता। ताया जी आये हुए होते तो उन दिनों की तो दिनचर्या ही बनाने में लग जाते। अगर मामा जी आये हो?तो उनके बच्चों के साथ, झगड़ते खेलते दिन निकल जाते। बहुत कुछ होता था, सोचने को, करने को, देर रात तक बाते करते, अपनी मासूम बातें। जीवन कितना सरल था?
अगर दिन में खूब मूसलाधार बारिश हो जाती, तो भागकर हम बहनें छत पर भीगने पहुँच जाते। बड़ा मज़ाआता, छत पर छत दोनो तरफ से, पेड़ों से घिरी थी, तो किसी को कोई फिक्र नहीं थी, खूब भीगते, खूब नाचते। फिर अम्मा थोड़ा डाँटते हुए सा बुलाती, और सूखे तौलिए पकड़ा देते। सीधे सरल जीवन की गर्मियों की वो बरसाते हैं। वो भागा भागी। भाई बहनों का छोटा झगड़ा, मनाना। अम्मा का थोड़ा डांटना। फिर गर्म दूध पिलाना। बरसाते। वे जुलाई की बरसात है।
डॉ वेद व्यथित, हरियाणा

नव गीतिका
1.
ध्यान से निकला करो मौसम सुहाना है
कब बरस जाए यह बादल दीवाना है।
चौंक मत जाना कभी बिजली की गहरी कौंध से
इस तरह ही देखता सब को जमाना है।
पींग धीरे से बढ़ाना संग में मल्हार के
देख ये कब से रहा बरगद पुराना है।
बैठ लो कुछ देर सुस्ता लें जरा इस छाँव में
हाल अपना आप का सुनना सुनाना है।
रास्ता भटके तो क्या चल तो रहे ही है
आप हैं जब साथ रस्ता मिल ही जाना है।
झिम- झिमा- झिम -झिम पड़े जब मेह की बूंदे
सम्भल कर चलना नहीं दिल टूट जाना है।
समझ कर भी समझ न आये तो समझना किसे
बने रहना अन्समझ ये तो बहाना है।
बात न करना कभी इठला के मुंह को फेरना
क्या बताएं शौक ये उन का निराला है।
बीच जुल्फों के कभी नजरें उठा कर देखना
क्या अदा है देख कर पर्दा गिराना है।
ख़्वाब फिर फिर देखना इस में बुरा क्या है
सहारे उम्मीद के ही ये जमाना है।
हाथ लकुटी,कमरिया और अपने पास क्या
मन किया जब बिछा ली वो ही ठिकाना है।
सहन कर लो वेद ये बेदर्द दुनिया है
क्यों किसी को व्यथा का किस्सा सुनना है।
2.
आज ये मौसम जरा भीगा हुआ सा है
आप जब से आये हैं कुछ खुशनुमा सा है।
बारिश में झूम झूम कर जाता रहा पवन
जब से छुआ है आप को बदला हुआ सा है।
फूलों से खुशबू मांगकर के ले गया पवन
खुशबू है उस के पास सब भूला हुआ सा है।
तितलियों के रंग भी फीके उसे लगे
जब रंग गया है तेरे रंग तो खुद रंगा सा है।
इस को लगा हैं रंग तेरे रंग का ऐसा
भूला है सारे रंग वो अब खुशरंगा सा है।
वो दिन गए बहार के सावन के मेघ थे
सूरज है आज सामने कुहासा छटा सा है।
ऋतु शर्मा ननंन पाँडे, नीदरलैंड


तीज पर बेटी की पाती माँ के नाम
सावन फिर से आ गया माँ,
इस बार भी तुमसे दूर होने परदेस में होने का अहसास करा गया।
यहाँ न पेड़ हैं, न झूले।
न वो चौक की मेहंदी है, न आँगन में सजी पूजा की थाली।
न तुम्हारी आवाज़
जो हर तीज की सुबह कानों में पड़ती थी:
“उठ जा बेटी, आज तीज है, कुछ सज सँवर जा …”
माँ, याद है, कैसे हम सब बहनें मिलकर
तेरे और पापा हाथों से झूला बाँधवाते थे।
तू हल्के हाथों से कहती थी,
“धीरे झूलना बेटा, कहीं गिर मत जाना।”
और पापा पीछे से हमें धीरे धीरे झुलाते थे।
और हम —
हँसी में डूबे, झूलते जाते,
झूले के साथ-साथ तुम्हारी ममता भी झूलती थी हमारे चारों ओर।
यहाँ, इस परदेस में,
बड़ी-बड़ी सड़कों पर सावन का कोई गीत नहीं बजता,
कोई सहेली नहीं पूछती — “कितनी मेहंदी लगाई?”
न कोई भाई पीले रुमाल में चूड़ियाँ छुपा कर लाता है।
मेरे कमरे की खिड़की पर
बारिश की कुछ बूँदें आती हैं,
तो लगता है — तुम भेज रही हो
मेरे लिए अपने आँचल से नमी।
हवा का झोंका जब सर के ऊपर से जाता है, तो लगता है
पापा ने धीरे से मुझको सहलाया है।
पर्दे जब हिलते हैं तो लगता है
भाई फिर से रूमाल में छुपा कर मेरे लिए चूड़ियाँ लाया है
माँ, इस बार तीज पर मैंने व्रत रखा है,
तुम्हारी तरह बिना कुछ खाए
पर मन ही मन में तुमसे मिलने की आशा को छुपाए।
मैंने अपने आप ही अपनी कलाई पर
आड़ी तिरछी खींच कर
मेंहदी लगाई है।
कई बार पोंछा और कई बार मिटाई है।
मुझे पता है माँ,पापा
आपकी छत खाली होगी,
आपकी आँखें दरवाज़े की तरफ लगी होंगी —
कि शायद इस बार…
कोई बेटी बिना बताये आ जाए।
दूरी और मजबूरी मैं नहीं आ सकी,
पर मेरी तीज का सिंधारा
और मेरी हरी चूड़ियाँ
मेंहदी, घेवर, फैनी और अंदरसा सब सँभाल कर
रखना।
और सबके साथ तीज मनाना।
यहाँ मैंने भी आँगन में आपकी यादों के झूले में
ख़ुद को झुला लिया है
और मन को यूँ ही बहला लिया
है, हर बार की तरह।
माँ, तुमसे दूर हूँ,
पर मन तुम्हारे आँगन में बैठा है
जहाँ अब भी सावन की हर बूँद
तेरे पाँव पखारती होगी।
डॉ॰ अर्जुन गुप्ता ‘गुंजन’, उत्तर प्रदेश

सावन बड़ा लुभावना
(अवतार छंद)
सावन बड़ा लुभावना,
बादल गरज रहे।
चम-चम चमक रही तड़ित,
शीतल पवन बहे॥
मौसम बड़ा सुहावना,
पंछी चहक रहे।
डोले मरंद पर भ्रमर,
चातक बहक रहे॥
हर्षित कृषक हुआ अधिक,
बरसात देख कर।
मनमोर नाचने लगा,
नवगीत लेख पर॥
कलियाँ बहक-बहक हुईं,
मादक मृदुल बिखर।
पल्लव नवीन झूमते,
नूतन नवल निखर॥
शुचि पुंडरीक नाचता,
मधु है बिखेरता।
चातक पुकारता सदा,
मधु राग छेड़ता॥
तितली सदैव डोलती,
वन में यहाँ-वहाँ।
कोयल सुना रही मधुर,
वाणी जहाँ-तहाँ॥
दादुर पुकारता सदा,
नित टेर मारता।
झींगुर सदैव नाचता,
ध्वनि को उभारता॥
विरहिन कहे पुकारके,
चले आ साजना।
आँगन में नित ढूँढ़ती,
करती उपासना॥
सरस दरबारी, कनाडा

सावन के झूले
बचपन की स्मृतियाँ
ख़ुशी के हिंडोले
मायके से न्योता
कस्तूरी के झोंके
चुलबुली खुशियाँ
जिनका न ओर छोर
वह रूठना मनाना
लड़ाईयाँ घनघोर
बचपन के खेलों से
इक दिन निकलना
एहसासों की पींगों
संग गिरना उबरना
उस रंगों की दुनिया
का हर सुख सुहाना
लगे जैसे मुट्ठी में
सारा ज़माना
ब्याहकर फिर इक दिन
कहीं और जाना
वह खुशियाँ वह पल छिन
न फिर भूल पाना
वह सावन की हूकों को
फिर फिर दबाना
वह सीने को मल
हर आँसू छिपाना
वह राखी का बंधन
भैया का बुलाना
वह डालों पर झूलों का
लौटे ज़माना
बचपन की सखियों
संग बेबात हँसना
सहेली के काँधे पर
चुप चुप सुबकना
उगते बुढ़ापे में
यादों की दस्तक
लौट आये मिल सब
दबे थे जो अब तक
सूखी सी आँखों में
रिमझिम फुहारें
वह ऊँची सी पीगों
की लम्बी कतारें
वह यादें वह मौसम
वह गुज़रा ज़माना
है लौट आया फिरसे
वह बचपन सुहाना
डॉ. दीप्ति अग्रवाल, दिल्ली

‘सावन मन भावन’ का पावन माह चल रहा है। झमाझम बारिश हो रही है। मैंने कहीं पढ़ा कि बारिश की बूंदों को अगर माइक्रोस्कोप में देखें तो वो मुस्कुराती सी जान पड़ती हैं। इस बात में तो नहीं पता कितना असाच है लेकिन ये पक्का सच है कि बारिश की बूँदें मेरे चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट ला देती हैं। आज फिर बारिश हो रही है। मैं भारत से बहुत दूर अमेरिका के न्यू जर्सी में अपने बचपन की यादों के बुगचे को खोल कर बैठी हूँ। बुगचे में मेरे बचपन का झूला निकला, वीरबहूटी के मखमली शरीर का स्पर्श ने छुआ, कच्चे नीम की निंबोली, सावन जल्दी आइयों रे, बाबा दूर मत बिहाइयों, दादी नहीं बुलाने की वाला गीत गुनगुना उठा, बारिश के पानी भरी बोतल जिससे मुहँ धोते थे, जगजीत सिंह की कागज की कश्ती, तीजों की मेहंदी, सिन्धारे के दादी के दिए 10 रुपये, बारिश में भीगने पर माँ जो सिर में लगाती थी गरम तेल उसकी शीशी, सासु माँ की दी हुई मोती की चूड़ी और भी बहुत कुछ बुगचे में से निकल आए। बचपन में बारिश में भीगा तन आज मन को सीला कर गया। कितना आगे आ गए हम सब लोग, लेकिन कितना कुछ खो कर, यही जिंदगी का सच है। खैर शिव-पार्वती सबके जीवन में सावन की फुहार बरसाते रहे और इंद्रधनुषी रंगों से सबका जीवन सजा रहे यही कामना है। सावन में आये इन्द्रधनुष या धनक पर एक कविता:
धनक
धनक के रंग जीवन में उगाने के लिए
जरूरी नहीं है सातों रंगों का होना
एक रंग से भी शुरू करके
बन जाएँगे सातों रंग,
गर मन में उत्साह हो तो
लाल रंग तो खड़ा ही है दहलीज पर,
गर साफ शफ़्फ़ाक दिल हो तो
नीला आकाश दे ही देगा नीलाभ अपनी
गर माँगोगे दिल से
प्रेम ऊर्जा से भरी झोली में
नारंगी फूल ही तो खिलते है
और तुम्हें पता है जहां मिले सहजता और उत्साह
तो बन जाता है पीला रंग
बचा हरा रंग, तो वो ले लेंगे प्रकृति
की चूनर से उधार, हाथ जोड़कर
देखो, मेरे पास तो केवल एक था रंग उनाबी
मेरे सपनों का रंग
पर उसने बना दिया पूरा इंद्र्धनुष
और उसके सातों रंग से बना सफ़ेद रंग
शांति का प्रतीक
जो गर छा जाये पूरे विश्व में तो
पूरा विश्व बन जाये एक बड़ा धनक।
उषा बंसल, अमेरिका

सावन की फुहार
सावन की फुहारों ने गाया रिम झिम का गीत नया
नन्हीं नन्हीं बुंदिया लगी नाचने- छप छप, छिप छिप, छपाक् छपाक्
सजी घटायें नीली काली, गरजे बादल – चमके बिजली
पवन चले पंख लगाये, पुरवाई अलमस्त बहे
घिरे घन घनघोर चहुँओर – चहुँओर।
सारंग का मन मयूर हर्षाया, थिरकने लगीं मोर की पाँखें,
पपीहे ने गाया पीउ पीउ का मीठा गान –
वन उपवन भीगा सारा,
सावन की फुहारों ने गाया रिम झिम का गीत नया।
हरित घास का आचंल भीगा, पुष्पों का आनन भी भीगा,
भींजीं कलियाँ, भींजीं डालियाँ, भीगा पनघट, भीगी बगिया
भीगा मन, भीगा तन, सावन की रस धारों से।
सावन की फुहारों ने गाया रिम झिम का गीत नया
आम, कदम्ब की डाली सज गईं, रेशमी डोरी के झूलों से
झूम उठी अल्हड़ बालाऐं, मिल कर लगीं झूलने झूला
पेंग बढ़ायें होड़ लगाकर
गायें गीत सावन के,
गूंजा आँगन, गूजां आसमाँ,
सावन की फुहारों से,
झूला झूलने बरखा आई, पहन घाघरा धानी,
रिम झिम का तराना सुन हर्षाई ओ मुस्काई,
बिरहन के मन में सावन ने देखो! कैसी आग लगाई,
थिरकीं सावन की बूँदें, नाची छन छन छूम छनन्
सावन की फुहारों ने गाया गीत नया।
*****
सावन की छटा
सावन की फुहार, रिमझिम संगीत, घनघोर घटाएँ
उतर आया मानों, आसमाँ रंग भरा धरा पर।
माटी की सोंधी महक, फुहारों की मल्हार
मानों गुनगुना रही धरती जीवन – राग।
धीमी धीमी झरती सुर लहरी सी बरखा,
हुलसा देती रग रग में नव बहार।
धुली – पुछी सी हरियाली,
खिल आया मन मानों , पात – पात का।
हरषाए मयूरा भी तो गाए दादुर भी।
धुन में अपनी अपनी, मानों करते अभिवादन
नियंता का, उस रचयिता का।
अरे देखो तो उधर, पड़ गए झूले सावन के।
गूँजे गीत पिया – मिलन के, बिरहिन की पीर के,
राधा – कन्हाई के, सखी संग रास के।
कण कण में छाया उछाह,
आए हैं तीज – त्योहार
मेंहदी रचे हाथ, भाई बहिन का दुलार।
फिर फिर आई सखी सहेली की याद।
बिखर गए सतरंग, धरती औ आकाश,
रंग बिरंगी पतंगों की भी, छाई है बहार।
आओ मिल मनाएँ, सभी पर्व- त्योहार॥
पूनम माटिया, दिल्ली

गीत
आकर तुम मत जाना साजन
आ कर तुम मत जाना साजन,
आकर तुम मत जाना ………
जब आँगन में मेघ निरंतर झर-झर बरस रहे हों,
ऐसे में दो विकल हृदय मिलने को तरस रहे हों।
जब जल-थल सब एक हुए हों, धरती-अंबर एकम,
शोर मचाता पवन चले जब छेड़छेड़ कर हरदम
ऐसे में तुम आना प्रियतम! ऐसे में तुम आना।
आ कर तुम मत जाना साजन, आकर तुम मत जाना
कम्पित हो जब देह, नेह की आशा लेकर आना,
प्रेम-मेह की एक नवल परिभाषा लेकर आना।
लहरों से अठखेली करता चाँद कभी देखा है?
या आतुर लहरों का उठता नाद कभी देखा है?
चंदा बनकर आना साजन, चंदा बनकर आना।
आकर तुम मत जाना साजन, आकर तुम मत जाना
पल-प्रतिपल आकुल-व्याकुल मन राह निहारे हारा,
तुम आये न पत्र मिला, न कोई पता तुम्हारा।
फाल्गुन बीता, बीत गया आषाढ़ कि आया सावन ,
कब आओगे? कब आओगे? कब आओगे साजन?
आकर तुम मत जाना साजन, आकर तुम मत जाना
सावन में अब की बार
कर लो रे मनुहार थोड़ी, कर लो रे मनुहार
सावन में अब की बार सइयां दिलवइयो उपहार
लहंगा-चोली भरे पड़ें हैं
कड़े-पाटले घने धरे हैं
चाहूँ थारा प्यार
दे दो इक इतवार…… सावन में अब की बार…
बैठे-बैठे थक चुकी हूँ
मैं भी सइयां अक चुकी हूँ
‘लॉन्ग डिराइव’ मुझे ले चलो
अपनी ही है कार……. सावन में अब की बार…
हलवा-पूरी खिला चुकी हूँ
बैंगुन-गुइयाँ पका चुकी हूँ
होटल में अब तुम खिलवाओ
ओ! मेरे भरतार …..
सावन में अब की बार सइयां दिलवइयो उपहार
कर लो रे मनुहार थोड़ी, कर लो रे मनुहार
दिव्यम प्रसाद, कनाडा

वर्षा
धम धम धम झम झम झम कैसा उन्माद है
यह मेघों का नाद है या स्वयं मेघनाद है
चम चम चमकती है चपला चहुँ ओर से
जल है इस छोर पे और जल है उस छोर पे
कौंधती है घनप्रिया आज हुये प्रसन्न देवराज हैं
जलधर चिंघाड़ते हैं मानो प्रत्यक्ष गजराज हैं
जलमग्न हैं वृक्ष बह रहे हैं किसलय
टूटती चट्टानें देख वृक्षों को है विस्मय
छूटे हैं पर्ण सारे तरुवर के राज से
ये वज्र के प्रहार हैं मानो यमराज से
काल के कपाल से अंकुर है फूट पड़ा
मृत्यु की श्य्या से जीवन हुआ है खड़ा
विनाश के उपरान्त सृष्टि का यह गाण है
वर्षा का आगमन बस इसी का प्रमाण है!
डॉ. राधिका सिंह, दिल्ली

मिलन
उड़ते बादलों के रूप और
सरसराती हवाओं के सरगम से
एक अद्भुत समा बांध जाता है,
उनकी लय और ताल पर पूरी प्रकृति झूमने सी लगती है।
हवा के झोंकों के साथ इधर-उधर लहराते बादल
कभी हल्के, कभी घने
फिर खूब घने होते
पहाड़ों -पेड़ों को भी अपने
अंधकार की चादर में
ढंक लेते।
फिर निराकार हो जाता है पर्वतीय अंचल।
धीरे-धीरे बादल बिखरने लगते हैं तब
आंखमिचौली खेलते-से
सुनहरी आभार लिए
पेड़ -पौधे
चुपके-से झांकने लगते हैं।
प्रकृति -पुरुष का क्षणिक सुन्दर मिलन
साकार हो उठता है। धीरे-धीरे अंगड़ाई लेती
अलसाई प्रकृति सजग हो
उठती है पल में।
वर्षा -गीत
चंचल लहरों सी लहराती
झरनों के संग बहती हूं
लय पर बूंदों की नर्तन
और हवा से बातें करती हूं।
कोमल किसलय की
छुअन
सिहरन भरती हैं तन-मन में
कलियों की मादकता लेकर
मन झूम झूम उठता पल में।
सुन कोयल के मधुर गीत
झंकृत होते हैं मन के तार
मधु गंध भरे मादक फूलों से
सज उठते हैं सुन्दर हार।
सावन के उड़ते बादल जब
छा जाते वन-उपवन में
धरती पर फैली हरियाली
सुख भर जाती नयनों में।
रस-रूप मधुर नव भाव लिए
मैं गीत तुम्हारे गाती हूं
यह चंदन सुरभित हृदय लिए
मैं पास तुम्हारे आती हूं।
जीवन का सुख सार तुम्हीं प्रिय
मेरा कुछ भी कहीं नहीं,
जो कुछ पाया तुमको देकर
छुप जाऊं बस यहीं कहीं।
सुमन माहेश्वरी, दिल्ली

मनभावन सावन का आध्यात्मिक महत्व
सावन तो मनभावन है, यह समय बहुत ही पावन है, भक्तों को हर्षाता है, सबके मन को भाता है, क्योंकि इसी समय स्वयं सावन शिव जी को जल चढ़ाने आता है। सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित होता है। भक्त अपने त्याग और भक्ति से भगवान शिव को प्रसन्न करने और उनका आशीर्वाद पाने के लिए बड़ी श्रद्धा से व्रत उपवास करते हैं। मान्यता है की माता पार्वती ने सावन में ही भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तप किया था। यह भी मान्यता है कि सावन में ही समुद्र मंथन हुआ था जिसमें भगवान शिव ने संसार की रक्षा के लिए विष पीया था। सावन महीने में कांवड़िए बड़े उत्साह और भक्ति भाव से कावड़ यात्रा करते हैं। हरिद्वार, गंगोत्री या गोमुख जैसे पवित्र स्थानों से जल भरकर लाते हैं और अपने-अपने क्षेत्र के शिव मंदिरों में शिवलिंग का जलाभिषेक करते हैं। इस समय कई धार्मिक त्योहार भी मनाए जाते हैं। भक्तों को त्याग में सुख और शांति की अनुभूति होती है और विश्वास होता है कि ईश्वर उनकी सब मनोकामनाएं पूर्ण कर उन्हें समृद्ध करेंगे।
भावनात्मक व धार्मिक महत्व के साथ सावन से जुड़ा है आध्यात्मिक महत्व। आध्यात्मिकता के प्रति समर्पित होने से एकाग्रता बढ़ती है और हम अपने लक्ष्य को पाने में सफल होते हैं। सावन के महीने में आध्यात्मिक उन्नति द्वारा आप अपनी उर्जा बढ़ाकर अपना कल्याण कर सकते हैं आईए देखते हैं कैसे :
व्रत उपवास
सावन में सोमवार के व्रत जैसे अनुष्ठानों से पाचन का स्वास्थ्य बेहतर होता है, इस शारीरिक लाभ के बारे में तो हम सब जानते हैं। साथ ही व्रत उपवास से हम अपनी इंद्रियों पर संयम रखते हैं। जब हम अपनी सभी कर्मेंद्रियों को वश में रखते हैं तो मन, वाणी, कर्म पर नियंत्रण रहता है। हमें व्रत लेना है कि किसी को अपनी वजह से, अपने कटु बोल से दुख नहीं पहुंचाना है। कर्म श्रेष्ठ करने हैं। मन शुद्ध व पावन रखना है। सबको सुख पहुंचाना है।
जलाभिषेक
सावन में शिवजी पर जल चढ़ाते हैं यानी अपने सभी अवगुण उन्हें अर्पित कर जल की तरह निर्मल हो जाइए। हमारे विकार विशेष कर अहंकार हमें ऊंचा उठने नहीं देता। त्याग करना है तो त्याग दीजिए लोभ, मोह , ईर्ष्या, द्वेश जैसे विकारों को। समर्पण भाव,शिव भगवान को प्रसन्न करने का सहज सरल तरीका है।
हरियाली तीज
सावन का प्रमुख त्यौहार है हरियाली तीज। यह भगवान शिव और देवी पार्वती के प्रेम व अटूट समर्पण का प्रतीक है। महिलाएं साज श्रृंगार करती हैं, गीत गाती हैं, झूला झूलती हैं, मेहंदी लगाती हैं और खुशियां मनाती हैं। यानी जीवन में सबके साथ मिलकर आनंद मनाइए, खुशी के झूले में उत्साह उमंग के ऊंची पेंग लगाइए, समर्पण के भाव से जीवन को उज्जवल बनाइए।
हरा रंग
हरा रंग प्रकृति, हरियाली और जीवन का प्रतीक है। साथ ही बहुआयामी प्रतीक है स्थिरता, संतुलन, सामंजस्य, प्रतिष्ठा, विकास और ताज़गी का। हरा रंग हमें प्रकृति के करीब होने का एहसास दिलाता है। जितना हम प्रकृति से जुड़े रहेंगे, उसकी सकारात्मक ऊर्जा को धारण करते रहेंगे उतना ही जीवन सकारात्मकता और ऊर्जा से हरा भरा रहेगा। लोगों को और प्रकृति को शुभ भावना, शुभ प्रकंपन दीजिए।
बारिश
सावन के महीने में बहुत बारिश होती है। तपती गर्मी के बाद वर्षा की फुहार शीतलता लाती है, बहुत ठंडक पहुंचाती है। हरे भरे पेड़ों पर जमा हुई धूल मिट्टी बरसात के पानी से धुल जाती है। प्रकृति का सौंदर्य निखर उठता है। आज संसार में दुख की भरमार है। सबको आवश्यकता है सुकून की, शांति की।तो हम अपने व्यवहार से, वाणी से, दुखी जनों को सुख पहुंचाएं। स्नेह की बारिश सब पर बरसा कर ताज़गी दें। सच्चे निस्वार्थ स्नेह और प्यार की बारिश के लिए आज सब तरस रहे हैं।सावन में अपनेपन की फुहार से प्रेम बरसाइए।
सावन का महीना आत्म जागरूकता, आध्यात्मिक जागृति व उन्नति, ज्ञान प्राप्ति और परमात्मा से जुड़ने का महत्वपूर्ण समय है। ईश्वर के वरदानों और शक्तियों से झोली भरने का समय है। अंतर्मुखी बन अपनी कमियों को दूर कर,विकारों पर विजय पाकर एक बेहतर इंसान बनने का समय है। तो क्यों ना इस समय का भरपूर लाभ उठाया जाए।
और सावन के आध्यात्मिक रंग में स्वयं को रंगा जाए।
शैली, उत्तर-प्रदेश

सावन में, करगिल स्मृति
करगिल के जो थे बलिदानी,
उनकी भी थी प्रेम कहानी
उनके सीनों में भी दिल था
चढ़ता यौवन, मस्त जवानी
कुछ वे जिनका ब्याह हुआ था
कुछ की केवल हुई सगाई
कुछ की घर में बात चली थी
कुछ बाँकों की आँख लड़ी थी
कुछ ऐसे थे जिनके घर में
पत्नी और छोटे बच्चे थे
प्यार सभी के दिल में सच्चा
फूलों में सुगन्ध के जैसा
प्रेम संजोए अपने दिल में
वे सीमा पर खड़े हुए थे
प्रत्युत्तर देने दुश्मन को
चट्टानें वह खड़ी चढ़े थे
रणचंडी की बलि वेदी पर
चौरासी दिन यज्ञ हुआ था
घृत आहुति से नहीं
सैनिकों के प्राणों से यज्ञ हुआ था
जीता था भारत इस रण में
विजय पताका लहरायी थी
पर यह विजय, सैनिकों के
प्राणों के बदले में आयी थी
कितने हुए हताहत कितनी
ज़ख्मी होकर घर लौटे थे
कितने बन्दी और गुमशुदा
हम जिनको ना गिन सकते थे
इन सबके जो तार जुड़े थे
परिजन और परिवार जुड़े थे
पुत्र, पिता, प्रेमी, पति, भाई
विजय ज्योति पर भस्म हुए थे
उनकी पत्नी बिलख रही थीं
बहिनों की थाली की राखी
शून्य दिशा में धूर रही थीं
पत्थर सी माँओं की आँखें
आँसू के बिन सूख गयी थीं
माथे के सिन्दूर मिटे थे
कहीं चूड़ियाँ टूट रही थीं
बिलख रहे थे, बच्चे छोटे
माँयें बेसुध पड़ी हुयी थीं
सावन बरस रहा था झर-झर
सूने झूले वहाँ पड़े थे
मेंहदी के रंगों से रीती
प्रिया हथेली देख रही थी
पड़ी हुई थीं सूनी राहें
जहाँ अभी तक आँख बिछी थी
व्यग्र-प्रतीक्षा की घड़ियों की
हृदय-गती अवरुद्ध हुई थी
शोक मग्न आकाश हुआ था
सावन भी रोता था जैसे
बादल के आँखों के आँसू
रुधिर धरा का धोते जैसे
बीत गया वह युद्घ पुराना
यादें क्षीण हुईं मानस से
पर जिनके प्रियवर सोये थे
आँखों के तारे खोये थे
बसर-दर-बरस यह बरसातें
उनके घाव हरे करती है
झूला, मेंहदी, कजरी, राखी
यादों से विह्वल करती हैं
सावन आये या ना आये
इनकी आँखें नम रहती हैं
पतझड़, शीत, शरद, गर्मी में
भी वर्षा होती रहती है…
हर सावन, आँखे रोती हैं
हर सावन, बरखा रोती है…
*****
शिव, अनंग, सावन
स्वागत है शिव शंकर, अइये विराजिये
मन में कुछ शंका है, उनको निवारिये
अर्धनारीश्वर हैं, प्रकृति-शक्ति युग्मक ज्यों
योगिराज आपने, कंदर्प को जलाया क्यों?
शाश्वत अर्धांगी है, शक्ति-सती आपकी
मिलन हेतु तप रत थी, शैलसुता पार्वती
अपर्णा को देख कर विह्वल हो आया था
एतदर्थ काम ने, ध्यान से जगाया था
देवों के कार्य हेतु, पंचशर चलाया था
आप स्वयं काल हैं, त्रिकाल आप जानते हैं
देवासुर युद्ध की, हार आप जानते हैं
सेनापति आपका, पुत्र बन सकता था
शक्ति की कोख से, स्कन्द जन्म सकता था
शर-विद्ध होने पर क्रोध क्यों आया था?
मन्मथ को आपने, क्रोधाग्नि में जलाया था
योगीश्वर, बैद्यनाथ आप निष्काम हैं
अर्धनारीश्वर क्यों आपकी पहचान है?
ब्याहा था गौरा को कार्तिकेय जन्मे थे
फिर भी क्यों कामदेव आग में झुलसे थे?
रति के विलाप पर आपने ने जिलाया था
मानव मन-मानस में मनसिज बनाया था
क्या न्याय संगत था काम दहन करना?
रति को वैधव्य का दारुण दुःख देना?
प्रश्न यही मानस को बार-बार मथता है
सावन में शिव के संग मन्मथ ना दिखता है
दूत-धर्म मनसिज ने प्राण दे निभाया था
त्रिपुरारी आपने निर्दोष को जलाया था…
लेकर वसंत जब कामदेव आया था
कामविद्घ करने को पञ्चशर चलाया था
शिव के त्रिनेत्र की, अग्नि-ज्वाल ज्ञात थी
संहारक-शक्ति, त्रिपुरारि की विख्यात थी
प्राणों का संकट, सहर्ष जब उठाया था
देव कार्य साधने को, पुष्प-धनु चलाया था
उत्सर्ग मन्मथ का वन्दनीय- श्लाघ्य है
देव और मानव पर, उसका उपकार है
सावन में शिव शंकर गंगाजल सिंचित है
रतिपति अनंग क्यों, वंदन से वंचित है?
लीला तिवानी, दिल्ली

सावन झूमता आया है
रिमझिम-रिमझिम करते सावन के दिन आए,
मन में उमंगें, तन में तरंगें, कारे बदरा लाए,
पिया-मिलन की ऋतु अलबेली, झूम रहा मन बावरा,
बाट निहारूं कब काली कोयलिया पी का संदेशा लाए!
दादुर-मोर-पपीहा बोले, कजरी की छिड़ गई तान,
खनक चूड़ियों की गूंजे, घन में तड़ित दिखाए शान,
नेह निराला प्रीतम का, पायल की रुनझुन बोले,
आएंगे मेरे साजन इस सावन, पूरे हों सब अरमान।
हरियाली का गीत सुनाता सावन सजीला आया है,
खुशहाली की बीन बजाता सावन सुहाना आया है,
उमड़-घुमड़ कर मेघा बरसे, दम-दम दामिनी दमके,
पड़ गए हैं उपवन में झूले, सावन झूमता आया है।
*****
बारिश की बूँदें
बारिश की बूँदें बरस रही हैं,
मन हुआ मदमस्त,
आनंद की छाई घटा,
हर्षित सृष्टि समस्त!
हर्षित हुए अन्नदाता किसान,
बच्चों की महकी फुलवारी,
तैर रहीं कागज की कश्तियां,
छतरियों की आई है बहारी।
रिमझिम बूँदों की वृष्टि से,
आनंदित हुए नर-नारी,
दादुर-मोर-पपीहा बोलें,
कूक रही कोयलिया कारी।
हरी चुनरिया ओढ़ धरा ने,
सबके मन को मोह लिया,
तृषित पखेरू तृप्त हो गए,
यादों की खिड़की को खोल दिया!
अरुणा गुप्ता, दिल्ली

सावन की छटा
सावन की फुहार, रिमझिम संगीत, घनघोर घटाएँ
उतर आया मानों, आसमाँ रंग भरा धरा पर।
माटी की सोंधी महक, फुहारों की मल्हार
मानों गुनगुना रही धरती जीवन – राग।
धीमी धीमी झरती सुर लहरी सी बरखा,
हुलसा देती रग रग में नव बहार।
धुली – पुछी सी हरियाली,
खिल आया मन मानों , पात – पात का।
हरषाए मयूरा भी तो गाए दादुर भी ।
धुन में अपनी अपनी, मानों करते अभिवादन
नियंता का, उस रचयिता का।
अरे देखो तो उधर, पड़ गए झूले सावन के।
गूँजे गीत पिया – मिलन के, बिरहिन की पीर के,
राधा – कन्हाई के, सखी संग रास के।
कण कण में छाया उछाह,
आए हैं तीज – त्योहार
मेंहदी रचे हाथ, भाई बहिन का दुलार।
फिर फिर आई सखी सहेली की याद।
बिखर गए सतरंग, धरती औ आकाश,
रंग बिरंगी पतंगों की भी, छाई है बहार।
आओ मिल मनाएँ, सभी पर्व- त्योहार ॥
अनुप मुखर्जी “सागर”, दिल्ली

वर्षा
गर्मी, शीत, शरद, हेमंत, पतझड़, वर्षा
फुहार, सावन, बौछार, बारिश, वर्षा।
इतना पानी कहां से लाती हो वर्षा,
सागर, झील, नदी से पानी चुराती,
भाप बनाकर ले जाती जाने कहां,
क्या तुम वापस लाती,
चोरी से सारा पानी?
खुश होता किसान तुझे पाकर,
खेत सींचता, बीज लगाता,
स्वप्न देखता, आगामी स्वर्णिम दिन,
पसीना? खून बहता, हर पल, हर दिन।
प्यासी धरती, प्यास बुझाती वर्षा की बूंदे,
समाहित तुम, जोहड़, तालाब, नदी, सागर में,
एक ढूंढता छत, एक राहत, बचता तुमसे,
एक नाचता मदहोश, भीगता तुम्हारे बूंदों में।
एक कवि लिखता श्रृंगार पद्म, सावन माह में,
एक कवि, अकेला, शांत चलता, उन्हीं बूंदों में,
एक प्यास, खींचती, पुकारती साजन को, वर्षा में,
एक अनबुझी प्यास, आंखों से बहती, बूंदों से मिलने।
रूप भी कितने तुम्हारे प्यारी वर्षा, प्यास बुझती,
नम्रता, शीतलता, जग में युग युग से फैलाती,
कदाचित हमारा अत्याचार सहन नहीं होता,
तभी कहीं बादल फटता, प्रलय ढाती वर्षा, तुम?
तुम्हें ताकते, निहारते, मानव, पशु पक्षी सब,
जल ही जीवन, कहते हम, दान वही देती तुम।
आती रहो, आती रहो, अपने नियम से वर्षा,
स्वार्थी मानव को पर, दिखाओ सही दिशा।
प्रकृति का अंश हो तुम,
तुम्हें पूजते हम, वर्षा।
पूनम सागर, दिल्ली

मेघ बरसे
उमस के दिन आए तो ऊसर सी भूमि खिल गई।
सूखे हर बीज के अंतस की खिड़की खुल गई।।
नव रंग नव ढंग से नव प्रबंध से सृष्टि चले,
विष्णु जी के कार्य को शिव जी संभालने लगे,
अतृप्त धरती तारने गंगा मचल मचल गई।
मेघ बरसे बह गए वायु के सब कण विषैले,
आम सब मीठे हुए पक गए जामुन कसैले,
किसान के खेत से सूखे की नौबत टल गई।
जल चढ़े शिवरात्रि व्रत और तीज नाग पंचमी,
कृष्ण जन्म के बाद फिर मनाएं राधा अष्टमी,
भक्तिभाव की चौमास में दिव्य ज्योति जल गई।
उड़ते थे वायुयान अपनी छत से उसकी छत,
जाते संदेश भेजे पंखों के नीचे लिखित,
अब नए जल मार्ग पर कागज़ की नाव चल गई।
घेर रखा शाम से श्याम बादलों ने चांद था,
रात देर बिखर ही गया धवल शुद्ध प्रकाश सा,
बचते बचाते चांदनी फिर छत पर टहल गई।
दिल की बातें झूलों की पींगों पर सखियों से,
बूंदों में कुछ वृद्धि हो गई नीर भरी अंखियों से,
मायके में रहकर कुछ दिन तबियत संभल गई।
डेजी ग्रोवर, दिल्ली

सखी री सावन आयो रे
मन में उठे उमंग
धरती पे जल तरंग
‘पी ‘ हर पल मेरे
चित में समायो रे
सखी री सावन आयो रे
मस्ती में झूमू ऐसे
छत पे मयूर जैसे
बूंदो की थाप जैसे
ताल दे के जायो रे
सखी री सावन आयो रे
बेवजह मैं खुश हूं
अपनी ही दुनिया में
भीतर बाहर हर ओर
हरियाली ही छायो रे
सखी री सावन आयो रे
मंदिर की घंटी में
शंख की ध्वनि में
लागे शिव इस
धरती पे आयो रे
सखी री सावन आयो रे
मस्त हवाओं में बावली
हुई है धान
देख देख फूला न समाए किसान
हर पल की मेहनत
आज रंग लायो रे
सखी री….
याद पिया की नववधू को
सतायो रे
कब आएंगे लिवाने (पीहर से)
दृष्टि द्वार पे ही जायो रे
सखी री सावन आयो रे
भक्ति में डूबी गोपी
प्रेम धन पायो रे
कृष्ण, भोली राधा संग
रास रचायो रे
सखी री सावन आयो रे
नीरज सक्सेना
सावन
मौसम में मौसम नगीना
सावन का आया महीना
रिमझिम की बूँदें पड़े है,
माटी में मोती जड़े हैं।
फूलों से सज गई डाली,
चारों तरफ हरियाली।
पेड़ों ने ओढ़ी हैं चूनर
बांधे फुहारें भी घूंघर
कोयलिया कुहकुह गाये
भवरें भी गीत सुनाए
कलकल बहती नदियाँ
धरती बनी है दुल्हनिया
बिजुरी ने पायल बजाई।
मेघों की बारात आई,
खेतीयर की दूर हताशा
खेतों में लहराए आशा,
अंकुर में होती है हलचल
फूटे हरे हरे कोपल
सपनों की बगिया महके
बूँदों की माया से चहके
नन्हा सा मन हो हर्षाये
छप-छप का खेल सुहाए
कागज़ की नाव चलाए
हर दिल ये मौसम भाए,
खुश्क डेरा बचा कहीं ना
सावन का आया महीना
मौसम में मौसम नगीना
सावन का आया महीना
*****
ऋतु सावन की
जब से सजी है सांझ, मनभावन बरसात की,
पलकों पे बरसती रही, बूंदें सावन की।
कच्चे पक्के रास्तों पे, छमछम हैं रिमझिम की
धीमे-धीमे रोमांच, जगाती ऋतु सावन की।
पीपल की छाँव में, बैठा था मन भीगा-भीगा,
बाँसुरी सी घुल गयी, कानों में ताल रिमझिम की
मधुर संदेश लिए, कुहकुह कोयलिया की
मन भीतर गुंजाती रही रागनी सावन की
नाचे हैं अमराइयों में, मोर सावन के,
बरसती हैं बूंदें, पायल की छनकार लिए।
खुशबू बन रात भर, खिड़कियों से टपकती
किसी याद में भिगोती, बूंदें सावन की।
डगर नगर चौपालों में, बसी गूंज सुहानी,
गीतों में झलकने लगी, अल्लड़ सी जवानी।
भीगे दुपट्टों में, अंगडाई शरारत की
आँखों ही आंखों में, कहती प्रेम कहानी
ताल तलैयों में, लगायी निशाकर ने डुबकी,
कागज़ की नावों में, बचपन की थपकी।
पीपल की टहनी पे, बाढ़ झूलन की
दिलों में दस्तक, दे गई ऋतु सावन की।
भीनी भीनी हवाओं में, लहराया मधुमास तो
महक उठी मिट्टी, जैसे कोई साथ हो
बारिश की बूंदे बनी, औषध संताप की,
नवजीवन बन आयी, ऋतु सावन की।
रोम रोम भीगा, रिमझिम फुहार से,
आंनद बन छाये गयी, बूंदें सावन की।
जब से सजी है सांझ, मनभावन बरसात की,
रूह में समायी गयी, ऋतु सावन की।