उस साल अपना पर्यटक-दल कश्मीर-लद्दाख की यात्रा में ले गया था… भारतीय मित्र तक मना कर रहे थे। दल में थीं मेरी पांच छात्राएँ, मेरी एक मौसेरी बहन, एक छात्रा की माँ, एक के पिता, बस… लौटकर जब दिल्ली वापस आए तो जिस मकान में रुके थे उसके स्वामी चौंक गए, “इतनी लड़कियों को लेकर कहाँ गए थे अकेले! इधर तो बिना आवश्यकता के लड़की को घर से भी नहीं निकलने देते…!”
सब प्रसन्न थे, अद्भुत स्थानों का जोखिमवाला भ्रमण सफलतापूर्वक पूरा करके उत्सव मना रहे थे। मैं छत पर गया संध्या में… पासवाली छत पर कुछ बच्चियाँ खेल रही थीं। अचानक समझ गया कि मेरे पर्यटकों के सुखद अनुभव मेरे अनुभव से भिन्न हैं। मेरे लिए भी यह हिमालय की पहली यात्रा थी, महान चोटियों एवं बौद्ध मठों के प्रति मेरी भी गहरी श्रद्धा थी। किंतु…
उधर जाना पंजाब से होकर हुआ था। अमृतसर में रुककर वाघा बोर्डर पर सैनिक कार्यक्रम भी देखने गए थे। कार्यक्रम के पश्चात बस के पास जाते हुए भारतीयों की भीड़ से मिलकर चल रहे थे। भारतीय लड़कों का विदेशी लड़कियों को ताड़ना आम बात है। पर इस बार कुछ और भी था। आगे चलती हुई हमारी लड़कियों के पीछे एक लड़का और दो लड़कियाँ चल रहे थे जो साथ आए थे। लड़का थोड़ा आगे निकलकर फ़िरंगिनियों को देख रहा था तो उसकी मित्र नाटकीय ढंग से बोल रही थी, “बस इन्हीं को देख रहे हो! कभी हमें भी देखा करो न!”
मज़ाक में छुपी सच्चाई को मैंने भांप लिया था… उस लड़की के पास से गुज़रते हुए मुस्कुराकर हिंदी में बोला, “हम हैं न आपको देखनेवाले!”
लड़की रुक गई, उसकी आँखें बड़ी हो गई, हाथेली मुंह पर रखा। चौंकी भी, हँसी भी, शरमाई भी…
मेरे मित्रों के लिए यह यात्रा निश्चय स्मरणीय रहेगी, प्राकृतिक सुंदरता व सांस्कृतिक मौलिकता के कारण। पर मुझसे कोई इस यात्रा का सब से अविस्मरणीय क्षण पूछता तो कहता कि वह क्षण जब एक सुंदर से चेहरे पर आत्मविश्वास की एक अलग सी आनंदमय गरिमा खिल उठी थी…