प्राची मिश्रा

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ये आँखें

ये आँखें
बस उतनी ही छलकनी चाहिए
जितने में न डूबे ये संसार
ये धरती और ये मन
चीर कर दुःख का सीना
जब पिघलती हैं ये आँखें
पत्थर कर देती हैं
समय के हर
एक पल को

एक खारी बूंद
होती है बहुत भारी
आँख की कोर से बहकर
कपोल तक आने से पहले
ज़रूरी है उसको रोकना
कोमल स्पर्श से
उस पीड़ा को समेटना
और संजो लेना
छाती की गर्माहट में
जैसे तपते मरूथल में
मिल जाय
थोड़ी सी छाया

जितनी बार बेबस होकर
धरती पर
गिरा ये लावा
कांप गया कलेजा धरती का
नहीं चाहिए उसे
एक और “महाभारत”

★★★

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