डॉ. मंजु गुप्ता

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फूल की ज़िद

बाल हठ
राज हठ
त्रिया हठ
सारे संसार में प्रसिद्ध हैं
पर फूल की ज़िद की अभी तक अनदेखी है
इस ओर किसी की दृष्टि ही नहीं गई
हमने बच्चों को बात-बात पर ठुनकते देखा है
बाल गोपाल की ज़िद तो इतिहास में मशहूर है
राज-हठ पर भी अनेक जाने-माने अफ़साने हैं
और तिरिया हठ तो स्त्रियों की पुश्तैनी जागीर है
यदि विधाता ने दिया है पुरुषों को
मज़बूत चट्टानी शरीर
तो औरतों के नाजुक बदन में भी रख दी है
हठ की अनोखी शमशीर

लेकिन क्या आपने कभी गौर किया
कि नन्हे शहजादे-सा बेहद खूबसूरत
किसी नाजनीन-सा शोख और नाजुक बदन
यह फूल कितना जिद्दी है ?
जिस कचरे के ढेर से हम
दुर्गंध के कारण
हमेशा बचकर निकलते हैं
दूर-दूर रहते हैं
उसी कचरे के ढेर पर
मजे से बैठा यह नटखट मंद-मंद मुस्कुराता है
किसी भी कोने अंतरे में खिल जाता है
और हमें अंगूठा दिखा खिलखिला कर हँसता है
असह्य दुर्गंध के बीच
खुशबू की पिचकारी मार
यह नन्हा कन्हैया कैसा खिला-खिला
साफ़-सुथरा, निर्मल
किसी पहुँचे संत-सा अविचल, निर्विकार
शान से बैठा है
बैठा ही नहीं, खिला है
और खिला ही नहीं दिल खोलकर हँसता है
साथ ही हमें भी हँसने के लिए आमंत्रित करता है
दुर्गंध की बारूदी सुरंग में
सुगंध का यह बेज़ुबाँ विस्फोट
क्या ज़िद बिना संभव है ?

चलो छोड़ो, कूड़े-कचरे की बात
पर यह शैतान तो
कठोर चट्टान पर भी खिल जाता है
पर्वत शिला को भी चटकाता है
वृक्ष के शीर्ष पर आकाश कुसुम बन
इठलाता है, किलकारियाँ मारता है
जेठ की तपती दोपहरी में
गुलमोहर ,पलाश बन
दहकता, महकता है
अमलताश के स्वर्ण-पीत झूमर बन
हरे- हरे पत्तों बीच झूम-झूम चहकता है
और गर्मी ही क्यों भयंकर बरसात में
मोतिया, चमेली, बेला, रजनीगंधा बन
सारे झंझा-झकोर गर्जन के बावजूद
पुरवैया के हिंडोले पर बैठ
सुगंध गीत गाता है
कजरी, बिरहा, मेघ-मल्हार गा
बिरहिन को रिझाता है, खिजाता है
वज्रपात हो या आकाश से कहर बरसे
थमती नहीं, कभी रुकती नहीं
इसकी सुनहरी हँसी, दूधिया मुस्कान
इतना ही नहीं कि मात्र सर्दी- गर्मी
और मौसम से बेपरवाह हैं ये फूल
ये तो काँटों के बीच भी मुस्कुराते हैं
कैक्टस के नुकीले काँटों पर
नन्ही-नन्ही मासूम परियों-से खिलते हैं
अप्सरियों-से नाचते हैं
तितलियों- से झूमते हैं
लाल, पीले, नीले, जामुनी
गुलाबी या झकाझक श्वेत
तितली के पंखों-से भी अधिक सुंदर, सुकुमार
कैक्टस के झाड़ों में खिले
ये नाजुक नर्म फूल
काँटों के बीच सिर्फ़ खिलते ही नहीं
खिलखिलाते हैं, कहकहे लगाते हैं
पल भर को खिलकर अपना वजूद
अपना होना प्रमाणित कर जाते हैं

क्या बिना ज़िद, बिना हठ
भीष्म पितामह की तरह
कंटक शैया पर लेटे-लेटे
इस तरह मुस्कुराना संभव है?
खिलना-खिलाना संभव है?
यह फूल की ज़िद नहीं
तो और भला क्या है
कि खिलने का संकल्प करने के बाद
वह न दिन देखता है , न रात
न मौसम देखता है, न बरसात
न जगह देखता है, न देश-काल
बस खिल जाता है
खिलना ही है फूल की ज़िद
उसका संकल्प, उसका स्वभाव
उसका जीवन, उसका अस्तित्व

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