

इश्क़ मिज़ाजी से इश्क़ हक़ीक़ी तक

अनीता वर्मा
जिंदगी की रसीदी टिकट पर हस्ताक्षर करने वाली पंजाबी व हिंदी की लेखिका अमृता प्रीतम के जन्मदिन पर उनसे जुड़ी पुरानी यादें आज जैसे उनकी तरह ही कवितामय हो रही हैं। उनसे मेरी मुलाक़ात 1990में हुई जब अपनी पहली पुस्तक “मैं साक्षी रहूँगी“ के आवरण पृष्ठ के लिए इमरोज से मिलने K-25, हौज़ ख़ास स्थित उनके निवास स्थान पर गई हालाँकि इसे मुलाक़ात ना कहकर मात्र एक झलक देखना ही कह सकते हैं।
सीढ़ियों से चढ़कर पहली मंज़िल पर लॉबी के बीच में एक मेज़ और कुर्सी पर मैं और इमरोज़ आमने सामने बैठे थे। इमरोज़ ने मुझे अपनी पाण्डुलिपि में से कविता पढ़ने को कहा। मैं कविता पढ़ रही थी कि शायद मेरी आवाज़ सुनकर अमृता जी मुस्कराती हुई पीछे की तरफ़ अपने कमरे में चली गईं और मैं अपनी महबूब शायरा की एक झलक देखकर ही दीवानी सी हो गई। तभी इमरोज़ ने मुझे कहा कि तुम्हारी कविताओं में इश्क़ हक़ीक़ी और इश्क़ मिज़ाजी दोनों ही है। हालाँकि तब तक इसका मतलब भी मुझे नहीं पता था। अमृता प्रीतम की कविताओं में जहाँ एक ओर प्रेम का बहता हुआ ऐसा प्रवाह था जो किसी भी बंधन से मुक्त हो कर समाज के सभी नियमों, वर्जनाओं से मुक्त होकर सिर्फ अपने प्रेमी से संवाद करना चाहता था। मेरी उम्र की सब लड़कियां जो उस समय कविताएं लिखती थीं उनके लेखन से प्रभावित थी। मुझ पर और मेरी रचनाओं पर भी उनका प्रभाव था।
इमरोज़ से जब दोबारा मिलने गई तो मैंने उन्हें अपनी कविता सुनाते हुए अपने मन की बात कही। उन्होंने कहा कि तुम जो भी लिखो अपने इश्क़ में डूब कर लिखो हालाँकि मैंने जब उनसे अमृता जी से मिलने की बात कही तो उन्होंने कहा कि इसके लिए तुम्हें उनसे अलग समय लेकर आना होगा जो बाद में संभव हुआ भी। बाद में जब उनसे मिली तो सिर्फ दस मिनट की मुलाक़ात हुई। तब तक उनकी आत्मकथा “रसीदी टिकट“ आ चुकी थी।

वो पल भी बहुत अलग तरह के थे। इस मुलाक़ात में बस मैं ही बोलती जा रही थी। उनके लेखन के बारे में, उनकी कविताओं को उद्धृत करते हुए कब दस मिनट निकल गए सचमुच आभास ही नहीं हुआ। वो सारा समय मुस्कुराती रहीं। सिर्फ दो शब्द कहे- तुम्हारी आवाज़ में सच्चाई है, यूँ ही जैसी हो वैसी ही रहो और वैसा ही लिखो। कमरे से बाहर निकल कर सोचने लगी कि क्या ये वहीं निर्भीक लेखिका हैं जो अपनी आत्मकथा में इमरोज़ की पीठ पर साहिर का नाम लिखती हैं। या फिर अपनी कलम से “अज आखां वारिस शाह नूं, किते कबरां विच्चों बोल, ते फेर किताबे इश्क दा कोई अगला वरका खोल” लिखती हैं।
रूहानी इश्क़ में डूबी हुई उनकी वो कलम अपने जीवन के अन्तिम दिनों ईश्वरीय सत्ता में डूब कर बाद में सांसारिक प्रेम से इतर अध्यात्मवाद की तरफ़ मुड़ गई थी और तब मुझे इश्क़ हक़ीक़ी का अर्थ समझ आया।
मुझे याद है कि जब एक बार साहिर दिल्ली आए तो दिल्ली में बैनर लगे “दिल्ली दिल से आपका स्वागत करती है।” बाद में दिल्ली के कॉफी हाऊस में यह चर्चा आम थी कि ये बैनर अमृता ने लगवाए थे क्योंकि वो खुलकर सामने नहीं आना चाहती थीं। मेरा मन तब भी इस बात की गवाही नहीं देता था और आज भी नहीं। स्त्री के होने और ना होने के बीच के सफ़र की यात्रा में बिना कोई समझौता किए स्वयं को ना केवल समाज की वर्जनाओं से मुक्त करके जीवन जीना और फिर बड़ी निर्ममता से बिना किसी लागलपेट के पाठकों के सामने स्वयं के जीवन को रखने वाली स्त्री क्या खुलकर साहिर लुधियानवी के आने पर ख़ुशी का इज़हार नहीं कर सकती थी। इश्क़ मिज़ाजी से इश्क़ हक़ीक़ी के इस सफ़र को ज़िंदादिली और बिंदास अंदाज़ में जीने वाली लेखिका को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए मैं स्वयं को उसी दौर में देख रही हूँ जब रेडियो पर, मंचों पर पूरे भारत में उनकी कविताओं को लोग सुनते और पढ़ते थे और उनके जीवन की तमाम विसंगतियों के बीच भी उनके लेखन के प्रति दीवानगी की हद तक पहुँच जाते थे।