पौ फटते ही चिड़ियों की चहचहाट शुरू हो गई। मेरी खिड़की के एक कोने में चिड़िया ने अपना घोंसला बना रखा था। छोटे-छोटे बच्चे चूँ-चूँ कर रहे थे। थोड़ी देर में मैंने देखा किएक चिड़ा कहीं से उड़ कर आया और कुछ देर के लिए चूँ चूँ की आवाज़ बंद हो गई। लगा जैसे बच्चों को खाना मिल गया हो और वे शांत हो गए थे।

मेरे मस्तिष्क में कई दशक पुरानी एक घटना घूम गई .. जब मैं लगभग सात या आठ वर्ष की थी। एक बार अपनी दादी के साथ उनके मायके में किसी लड़की की शादी में गई थी। विवाह के उत्सव में बहुत से सगे-संबंधी आये हुए थे। दादी ने सभी से मेरा परिचय कराया। मेरे साथ की एक लड़की मिल गई बस मैंने उसके साथ दोस्ती कर ली, उसका नाम इंदु था। विवाह में अनेकों रीति –रिवाज़ हो रहे थे। हम दोनों को तो अपने खेलने में ही आनंद आ रहा था। सभी आपस में हँसी मज़ाक करते इधर से उधर घूम रहे थे। हर घंटे कुछ न कुछ खाने के लिए आ जाता था। मेहमानों का तांता लगा था। ख़ूब चहल-पहल हो रही थी।

घर के बाहर कच्ची सड़क पर पानी का छिड़काव हो रहा था। उस मिट्टी की सौंधी-सौंधी ख़ुशबू से मन प्रसन्न हो रहा था। कुछ बुज़ुर्ग घर के बाहर कुर्सियाँ डाल कर बैठ गए और बातें कर रहे थे। कोई किसी की लड़की बड़ी हो गई है उसके लिए लड़का ढूँढ़ने की बात करता तो कोई लड़के के लिए कोई लड़की बताओ कहता दिखाई दे रहा था। बीच-बीच में कभी-कभी हँसी का ज़ोरदार ठहाका लग जाता था। पूरी गली को रंग बिरंगी झंडियों से सजाया गया था।

धीरे धीरे शाम हुई और बारात आने की तैयारी शुरू हो गई। एक कमरे में लड़की जिसका नाम सुमन था दुल्हन बनी बैठी थी। तभी बारात के बैंड बाजे की आवाज़ें आने लगीं। मैं और इंदु भाग कर बाहर गए और बारात का इंतज़ार करने लगे। बारात आ गई–बारात आ गई, कहते सभी ख़ुश थे। दूल्हे की आरती उतारी गई। जयमाला का कार्यक्रम हुआ। सभी मिठाइयों का आनंद ले रहे थे। फेरों का समय आते-आते मैं सो गई। सुमन जिसे मैं बुआ जी कहती थी उसकी विदाई सुबह को होनी थी। सुबह होते ही मैंने देखा कि कुछ बच्चे सुमन के साथ उनके ससुराल जाने की तैयारी में लगे थे। मेरे साथ खेलने वाली इंदु भी तैयार हो गई थी क्योंकि अगले दिन सभी बच्चे सुमन के साथ वापिस आनेवाले थे। मैंने भी सुमन बुआ के साथ जाने की ज़िद की। दादी के बहुत मना करने पर भी मैं नहीं मानी और रोने लगी। तब सभी ने कहा कि ठीक है इसे भी भेज दो। इस तरह मैं भी सुमन बुआ के साथ उनके ससुराल चली गई। क़रीब दो घंटे तक मैं और इंदु बस का आनंद उठाते रहे पीछे छूटे पेड़ों को गिनते रहे। रास्ते का भरपूर आनंद उठाने के बाद हम बुआ की ससुराल पहुँच गए।

सुमन बुआ की ससुराल में उसकी सास ने सबकी ख़ूब ख़ातिर की। हम सभी ने पकवानों का जी भर आनंद उठाया। अगले दिन सुमन की सास ने सुमन के साथ उसके घरवालों के लिए बहुत सा सामान दिया जिसमें इंदु के लिए एक गुड़िया और मेरे लिए कोई और खिलौना भी दिया। परन्तु मुझे तो इंदु की गुड़िया ही पसंद आयी और मैं रोने लगी। तब कुछ लोगों ने समझाया कि घर जाकर ले लेना। बस मैं घर पहुँचने का इंतज़ार करने लगी। किसी तरह घर पहुँचे तो मैंने अपनी दादी से कहा कि मुझे तो वह गुड़िया ही चाहिए। इंदु भी अपनी ज़िद पर अटल थी कि यह गुड़िया तो मेरी है, मैं नहीं दूँगी। दादी ने बहुत समझाया और किसी तरह मुझे अनेकों लालच देकर वापिस घर ले आयी और मेरे पिताजी से कहा कि यह गुड़िया के लिए बहुत रो रही थी। घर आकर भी मैंने गुड़िया की ज़िद नहीं छोड़ी। क़रीब चार दिन बाद मैंने देखा कि पिताजी अपने हाथ में कुछ लेकर आये हैं और उन्होंने मुझे एक कमरे में बुलाकर कहा कि आँखें बंद करो– देखो मेरी प्यारी बिटिया के लिए परी ने क्या भेजा है। बचपन में दादी से परियों की कहानी सुन रखी थीं तो विश्वास हो गया कि सच में परी ने कुछ भेजा है। पिताजी ने पूछा, बोलो क्या चाहिए तुम्हें? मेरे दिमाग़ में तो गुड़िया का भूत ही सवार था इसलिए मैंने कहा, मुझे तो गुड़िया चाहिए। पिताजी ने कहा, आँखें खोलो। मैंने आँखें खोलीं तो देखा सुनहरे बालों वाली गुलाबी कपड़े पहने बड़ी सी एक गुड़िया मेरे हाथों में थी। मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा और मैं झट से पिताजी से लिपट गई। आज भी वह घटना याद आती है तो आँखें नम हुए बिना नहीं रहतीं। क्या पिता का प्यार ऐसा ही होता है?

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सविता अग्रवाल सवि’

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