अनुपम मिश्र की उपस्थिति

जयशंकर

इसी बरस के अपने दिल्ली प्रवास के मार्च के शुरुआती दिनों की बात है। दिल्ली में बसंत के दिन। मैं राजघाट के करीब गांधी स्मारक निधि के गेस्ट हाउस में ठहरा हुआ हूं। गेस्ट हाउस के करीब ही वह मकान खड़ा हुआ है, जहां कभी अनुपम मिश्र रहा करते थे। उनसे अपनी पहचान के बत्तीस – तैंतीस वर्षों में उनके इसी घर में उनसे तीन-चार बार जरूर मिलना हुआ है।

इस घर की एक याद उस दोपहर की भी है, जब उनकी मां जीवित थीं । बूढ़ी हो रही थीं और मैं दीवान पर बैठी हुई उनकी मां से, भवानी जी से अपनी मुलाकातों का जिक्र करता रहा था। अपनी बाइस बरस की उम्र में विदिशा में भवानी जी से मुलाकातें होती रही थीं। वहीं एक-दो बार उनका कविता पाठ सुना था। उनसे ही पहली बार अनुपम मिश्र का नाम सुना था।

इसी घर की एक दूसरी याद उनके इस संसार को छोड़ने के साल के अक्टूबर महीने की शुरुआत की है। वह अपने कैंसर के इलाज के बाद एम्स से अपने घर लौटे ही थे। मैं संपादक और पत्रकार अच्युतानंद मिश्र के साथ उनसे मिलने इसी घर में आया था।

उन्नीस सौ तिरासी से उनके न रहने के बरस तक की उनकी न जाने कितनी – सारी स्मृतियां मेरे साथ हैं! दिल्ली, भोपाल, होशंगाबाद, इटारसी, नागपुर और वर्धा में होती रही उनसे मुलाकातों को याद करने बैठ जाऊं तो न जाने कितना कुछ याद आता चला जाएगा! लेकिन मैं यहां बहुत संक्षिप्त में हमारे संबंधों और संवादों के कुछ छोटे से अंशों पर ही खुद को केंद्रित करना चाहूंगा।

अनुपम जी के संसार के उन कुछ दिनों को जिनमें मैंने उनकी उत्सुक निगाहें, जिज्ञासु मन और ग्रेसफुल व्यक्तित्व को जाना पहचाना था। कितना कुछ सीखा समझा था उनसे! कितना सारा स्नेह मिला था उनसे! दूसरों के लिए उनके मन में रह रही जगह के बारे में सोचता हूं, तब उनका बड़प्पन याद आता है और अपना छोटापन, अपना ओछापन।

कितनी गहरी विनयशीलता रची-बसी थी उनमें! अपनी बड़ी से बड़ी उपलब्धि को वह कितनी सहजता के साथ स्वीकार करते रहे थे! उनके यहां न मैंने अहंकार को जाना था और न ही आत्ममुग्धता को।

अब कुछ और अच्छी तरह से समझ पाता हूं कि अनुपम जी की भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर गहरी निष्ठा और आस्था रही थी। उनका भारतीय परंपराओं, भारतीय इतिहास से संवादों का सिलसिला बना ही रहा था। उनका भारतीय पुरखों पर, इधर के मामूली लोगों पर, इन मामूली, अधपढ़े, अनपढ़ लोगों की समावेशी विवेकशीलता, संवेदनशीलता और सजगता पर भरोसा बढ़ता गया था।

वे बार-बार मुझसे हमारे देश और समाज के साधारण लोगों की सहज और सरल ईमानदारी, कर्मठता और करुणा ली हुई अंतर्दृष्टि की बात करते आए थे, तारीफ करते आए थे।

इस देश के, दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में बसे हुए लोगों को जानने समझने की उनकी पवित्र, निश्चल और सतत जिज्ञासा को मैं उनके भीतर हमेशा से ही देखता आया था। हमारी आखरी मुलाकातों में भी पांडिचेरी में कभी रही अपनी चाची के समर्पण और कर्मठता के अपने संस्मरण को सुनाते हुए रोते हुए नजर आए थे। मैंने कितनी ही बार उनको मामूली लोगों के जीवन की मानवीयता मार्मिकता और कविता में आवेगमय लगाव लिए हुए देखा था!

हमारी मुलाकातों की उस अंतिम दोपहर में भी पांडिचेरी के अरविंद आश्रम में कभी रह रही अपनी चाची के बारे में बताते हुए अनुपम जी को देखकर मैं सोचता रहा था कि भले ही कैंसर ने उनकी देह को थका दिया था लेकिन उनके मन की उज्जवलता उनकी गहरी संवेदनशीलता और जागरुकता अक्षुण्ण बनी हुई थी।

उनसे पहचान के बाद के वर्षों में मेरा शायद ही कोई दिल्ली प्रवास रहा होगा जब मैं उनसे मिला नहीं होऊंगा। ‘गांधी शांति प्रतिष्ठान’ में रुकने का एक कारण यह भी रहता था कि बीच-बीच में इस परिसर में स्थित उनके दफ्तर में कम से कम दो बार जाना हो सके। उसी दफ्तर से, बाद के बरसों में वे “गांधी मार्ग” का संपादन संभालने लगे थे।

हमारे डूबते हुए देश और दुनिया के अंतर्विरोधों, विरोधाभासों और विडंबनाओ के बीच भी अनुपम जी की बातें तसल्ली और उम्मीद देती हुई बातचीत जान पड़ती थीं । उनकी बातों में हमारे समय के ज्यादातर बौद्धिकों का सनकीपन, कुंठा और नैराश्य नजर नहीं आता था।

देश भर में जल, जंगल, मिट्टी, हवा और पानी के कामों से जुड़े हुए लोगों से उनका मिलना-जुलना होता रहा था। “गांधी मार्ग” में रचनात्मक कामों से जुड़े हुए लोगों के लिखे हुए को वह प्रकाशित करते रहे थे। इस तरह की रचनात्मक सोच लिए हुए लोगों में देश-विदेश के लेखक, चिंतक शामिल रहते और एकदम इधर किसी इलाके में रचनात्मक काम करता हुआ एकदम युवा आदमी भी। उनके संपादन में आ रही “गांधी मार्ग” से ही मैंने गांधी, विनोबा, जयप्रकाश नारायण, काका साहेब कालेलकर, इवान इलिच जैसे चिंतनशील दिमागों के बारे में कितना कुछ जाना था!

“गांधी मार्ग” के संपादन के वर्षों में उनके भीतर के लेखक और पत्रकार को कुछ और ज्यादा जानने समझने के अवसर मिलते रहे थे। एक-एक लेख पर उनके परिश्रम को, उस लेख को प्रासंगिक और पठनीय बनाने के लिए उनके प्रयत्नों को महसूस करता रहा था। अपनी सुबह की मुलाकात में उन्हें जिस लेख का संपादन शुरू करते हुए देखता था, वही लेख शाम के वक्त की अपनी मुलाकात में उनकी मेज पर पड़ा रहता था।

दो हज़ार चार के नवंबर के शुरुआती दिनों की बात है तब मैं चार-पांच दिनों तक दिल्ली में रहा था। उन दिनों निर्मल वर्मा दिल्ली के शांति मुकुंद अस्पताल में एडमिट रहे थे। एक सुबह गांधी शांति प्रतिष्ठान की नियमित प्रार्थना में शामिल होने के बाद अनुपम जी मेरे साथ अस्पताल गए थे। उस दिन शाम तक का समय अनुपम जी के साथ अस्पताली गलियारों में बीता था।

निर्मल जी अचेत अवस्था में अपने वार्ड की पलंग पर थे। उनके रिश्तेदार, मित्र उनके लिए आते-जाते रहे थे। इनमें हमारा भी कोई परिचित रहता और हम उनसे बात करने लगते थे।

याद आ रहा है कि उस दिन ऐसा पहली बार संभव हो सका था कि अनुपम जी को इतनी देर तक अपनी चिंताओं के बारे में, अपने सरोकारों और स्वप्न के बारे में, कहते-समझाते हुए देखा था।

हम दोनों के बीच बरसों से पत्र-व्यवहार रहा था। उनसे फोन पर भी बातचीत होती रही थी। इन सब से भी मैं अपनी उनकी यात्राओं, उन यात्राओं में उनकी अपनी भूमिकाएं,”गांधी मार्ग” में आ रही रचनाओं, उनकी आने वाली किताबों को लेकर जानता रहता था। मुझे उनकी प्राथमिकताओं, उनकी प्रतिबद्धताओं की थोड़ी-बहुत जानकारी रहती और मैं उनके समय को लेकर सचेत बने रहता था। अपने मन मुताबिक उनका समय लेने से बचता रहता था।

लेकिन नवंबर के उस दिन उन्होंने अपना पूरा ही दिन निर्मल जी के लिए, मेरे और वहां आ रहे हमारे एक और मित्र के लिए छोड़ रखा था। हमारे उस मित्र ने भी उस दिन मेरे साथ ही अनुपम जी के भीतर रची- बसी सहृदयता और सहजता को गहराई से महसूस किया था।

अनुपम जी इस बात को महसूस करते रहे थे कि हमारी सरकारें हों या हमारी ज्यादातर स्वयं-सेवी संस्थाएं, पृथ्वी और पर्यावरण को लेकर उनके सरोकारों में सच्चाई और गहराई का अभाव बना रहा है। इन लोगों की दृष्टि में पेड़ों, पहाड़ों, जंगलों और नदियों को बचाने के कार्यक्रमों का मतलब इन सब का प्रायोजित विज्ञापन किया जाना,इन सबको सेमिनारों तक सीमित करते रहना रहा है। वे इस तरह की औपचारिक और खोखली उत्सवधर्मिता से अपनी असहमतियाँ जताते आए थे।

उनके अपने सच्चे अनुभवों में, देश भर में, दुनिया भर में जारी रचनात्मक कामों की गहरी उपस्थितियां रहती आई थीं। पृथ्वी और पर्यावरण को बचाने की दिशा में काम करने वाले ऐसे लोगों से, ऐसे साधारण और असाधारण लोगों से, उनका संबंध बनता गया था। संवाद जारी हो चुका था जिनके लिए सिर्फ मनुष्य ही सृष्टि के केंद्र में नहीं था।

अनुपम जी भी खुद को ऐसे लोगों में ही शामिल समझते रहे थे जिनके लिए हर पेड़ और पौधा, हर पशु और पक्षी इस तरह की सृष्टि की समूची रचनाएं उसके केंद्र में रही थी। इस तरह सृष्टि सिर्फ मनुष्य को ही नहीं गिलहरी और मछली को, जामुन और नारियल को, पीपल और नीम को, एक साथ गहरी शिद्दत से सदियों से प्रेम करती रही थी।

मुझे लगता है कि अनुपम जी के चिंतन-मनन पर उनके कर्म, कर्मठता और किताबों पर बहुत कुछ आना है। आता रहेगा। यह सब वे लोग और अच्छी तरह से कर सकेंगे, जिन्होंने पानी, हवा, पेड़, पहाड़, नदी, बांध और जंगल जैसी चीजों को लेकर गहरा और गंभीर चिंतन मनन किया है। मैं ऐसे लोगों में नहीं आता हूं।

अपनी समझ की सीमाओं को जानते हुए इतना ज़रूर महसूस करता रहा हूं कि उनका लेखन उनका काम हमारे समय की एक दुर्लभ धरोहर रही है। हमारे वक्त का एक जरूरी और महत्वपूर्ण दस्तावेज इतना जरूर कह सकता हूं कि मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में पृथ्वी और पर्यावरण को बनाए, बचाए रखने की कोशिशें से जुड़े जिस एकमात्र व्यक्ति को जाना है, वह अनुपम मिश्र रहे हैं। उनको जानना, नजदीक से जानना रहा है। उनको जानना, बरसों का जानना रहा है।

उनकी उपस्थिति मेरे अपने जीवन की एक महत्वपूर्ण, अर्थपूर्ण और प्रेरणादायी उपस्थिति रहती आयी है। उनके यहां मैं सोचने-विचारने और जीने के बीच के अंतर और अंतराल को कम किए जाने की कोशिशें को देखता रहा हूं। मैं उनके अपने सीधे-सादे, साफ-सुथरे जीवन को देखता रहा था।

उनके व्यक्तित्व को जानते हुए, उनकी जिंदगी को पढ़ते हुए मैंने उनको हमेशा ही जीवन के लालित्य, सौंदर्य और अर्थ का विकास और विस्तार करने की कोशिशों से जुड़ा हुआ देखा था।

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