
बहुत याद आएंगें, विभूति जी!

दिनेश कुमार माली, ओड़िशा
हर दिन की तरह आज सुबह भी मैंने लिंगराज एमटी हॉस्टल के चारों परिक्रमा करते हुए मैंने फोन किया, “कैसी तबीयत है, सर जी?”
“आज ठीक नहीं लग रहा है।” उधर से फोन पर उत्तर मिला।
“तीन दिन हो गए हैं। कम से कम किसी डॉक्टर को दिखा देते। आपके बिना यहां सारा शोध कार्य रुका हुआ है।” कहते हुए मैंने अपनी व्यग्रता दिखाई।
“आज डॉक्टर को दिखाता हूँ। कमजोरी कुछ ज्यादा लग रही है।” उधर से धीमे स्वर में उत्तर सुनाई पड़ा।
मैंने मन-ही-मन भगवान से उनके जल्दी से जल्दी ठीक होने की प्रार्थना की। ऐसे तो वे बहुत जिद्दी प्रवृत्ति के आदमी है। डॉक्टर को दिखलाने से बहुत परहेज रखते हैं। आज कम से कम डॉक्टर को दिखाने की बात तो कही है।
मगर यह क्या अचानक !
पाँच बजे के आस-पास ‘शहीद बिका नाएक’ व्हाट्सएप ग्रुप पर बाजी राऊत छात्रावास के अध्यक्ष श्री धनेश्वर साहू जी का ओड़िया भाषा में मैसेज पोस्ट हुआ कि तालचेर के प्रसिद्ध गवेषक एवं साऊथ बलन्डा के अध्यक्ष विभूति भूषण साहू जी का अंगुल के किसी अस्पताल में निधन हो गया।
यह पढ़ते ही मुझे ऐसा लगा जैसे पानी का बुलबुला फट गया।
दुखी मन से मैंने इस मैसेज को अपने खास दोस्तों को फॉरवर्ड किया। तुरंत ही लिंगराज हॉस्टल की ओर चला गया और उस सोफे पर जाकर बैठा, जहां तीन दिन पूर्व विभूति जी बैठकर मुझे तालचेर और ओडिशा के इतिहास की जानकारी देते थे।
जिंदगी में इतनी आकस्मिकताएँ होगी, यह मालूम न था।
तभी बीएमएस के मेरे मित्र सुदर्शन मोहंती वहाँ पहुंचकर कहने लगे, “ सर ! आपका फॉरवर्ड मैसेज पढ़ने के बाद मुझे बहुत दुख हुआ। कई महीनों से हम तीनों सुबह-शाम यहां बैठकर तरह-तरह के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक ,धार्मिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर चर्चा करते थे। मैं सहज अनुमान लगा सकता हूं कि आपकी अंतरात्मा को कितनी पीड़ा हो रही होगी ! मुझे लगता है कि उनके चले जाने से आपको सर्वाधिक व्यक्तिगत क्षति हुई है, क्योंकि वे आपको हर विषय पर अपडेट करते रहते थे।”
“सच कह रहे हो, मोहंती जी। चलिए, उनके घर चलते हैं। अंगुल से उनकी बॉडी तालचेर लाने में एकाध घंटा तो लगेगा ही। नहीं तो, कम से कम अरुण गडनायक या सौभाग्य प्रधान जी से फोन पर बातचीत कर उनके अंत्येष्टि-कर्म के बारे में पूछ लीजिए। क्योंकि हमें उनके अंत्येष्टि कर्म में अवश्य जाना चाहिए।” मैंने बहुत पीड़ा के साथ सुदर्शन मोहंती से कहा।
कुछ समय नीरव रहकर उसने प्रत्युत्तर में कहा, “सर, कोई फोन नहीं उठा रहा है। मैं अपनी बाइक में तेल भरवा कर आता हूं। आते समय उनके घर का चक्कर काट लूंगा।”
“यह ठीक रहेगा। जल्दी जाओ, मन बहुत उदास है।” यह कहकर मैं उसी सोफे पर मूर्तिवत बैठा रहा और मेरे सामने ही बाहर निकलकर सुदर्शन मोहंती ने अपनी बाइक स्टार्ट की और पेट्रोल पंप की ओर रवाना हो गया। पंद्रह-बीस मिनट बाद वह फिर लौट आया और जल्दी-जल्दी हाँफते हुए कहने लगा, “सर, चलिए उनकी अर्थी उठ चुकी है। चार-पांच लोग कंधा देकर सड़क पर ले जा रहे हैं। उसमें एक कंधा देने वाला मेरी जान-पहचान का है। मैंने उससे पूछा तो उसने बताया कि यह विभूति जी की अर्थी है और आप यहाँ बैठे हुए है।”
मेरी आंखों से आंसू छलक पड़े। बिना कुछ कहे मैं उसकी बाइक पर बैठ गया। मगर रास्ते में हमें कोई अर्थी नजर नहीं आई तो सुदर्शन मोहंती ने डेरा गांव के घर के बाहर बैठे लोगों से पूछा, “ साऊथ बलन्डा गाँव वालों की श्मशान किधर है?”
“डेरा गाँव के अंतिम छोर पर”, एक महिला ने आगे की ओर हाथ दिखाते हुए उत्तर दिया।
सुदर्शन मोहंती समझ गया कि वह जगह कौनसी है और हम सीधे उस जगह पर पहुँच गए। वहां एक टेंपो से लकड़ी और कोयला उतारा जा रहा था और दो-तीन आदमी मिलकर पास में चिता बना रहे थे। मगर उस जगह पर कोई अर्थी नहीं थी और नहीं लोगों का कोई जमघट, तो फिर सुदर्शन मोहंती ने चिता बनाने वाले आदमी से पूछा, “यह किसके लिए चिता बना रहे हो ?”
“विभूति भाई के लिए। बड़े लापरवाह थे अपनी तबीयत के बारे में। शुगर बढ़ गया था पाँच सौ-छह सौ तक।” लकड़ी जमाते हुए उस आदमी ने बिना हमारी तरफ देखते हुए उत्तर दिया।
“लेकिन रास्ते में तो कोई अर्थी हमें दिखाई नहीं पड़ी। लिंगराज टाउनशिप के आगे से कुछ लोग कंधे पर अर्थी ले जा रहे थे। क्या वे कहीं और चले गए?” सुदर्शन मोहंती ने अचरज भरी निगाहों से उसकी ओर देखते हुए पूछा।
“अर्थी तो ‘महाप्रयाण’ में आ रही होगी।” उस व्यक्ति ने उत्तर दिया
“महाप्रयाण- शववाहक गाड़ी का नाम है?”
“हाँ”
तभी एक एंबुलेंस जैसी गाड़ी वहां आकर रुकी और उसके पीछे की सीट से विभूति जी की अर्थी को नीचे उतारा गया। मैं उस अर्थी के नजदीक गया और देखा कि यह वही विभूति जी है, जो विगत छह-सात महीने से सुबह-शाम मुझे पढ़ाने के लिए लिंगराज एमटी हॉस्टल आया करते थे। क्या वे यही है? आज उनकी नाक और मुंह में रुई भरी हुई है। ऐसा लग रहा था, जैसे कि वे कह रहे हो कि ‘मेरे मुँह और नाक से रुई निकाल दो’ और फिर से वह हमारे साथ चले जाएंगे, मगर कभी क्या ऐसा संभव हो सका है? वे श्मशान के फूल की तरह नजर आ रहे थे। वे हमारे साथ और कभी नहीं जा पाएंगे।
देखते-देखते चंद्रमा की रोशनी में धीरे-धीरे वहां कुछ लोग इकट्ठे होने लगे। बिजली के खंभों पर बल्ब नहीं थे। पंद्रह-बीस लोग इकट्ठे हुए होंगे। उस समय तक लकड़ी की चिता बन चुकी थी और मालभाइयों ने अपने कंधें पर उनकी लाश को उठाकर उस चिता पर रख दिया और कुछ ही पल में उनके बेटे ने मुखाग्नि दी। धूँ-धूँ कर उनका पार्थिव शरीर जलने लगा। मैंने भी पास में पड़ी एक सूखी लकड़ी के टुकड़े को उठाकर चितारूपी नरमेध की होमाग्नि में फेंक दिया। कुछ ही क्षणों में उनका शरीर लकड़ी और कोयले के अंगारों के बीच राख हो चुका था।
अब मेरे पास रह गई थी उनकी कुछ चिरकाल स्मृतियां। यद्यपि मैंने उन स्मृतियों को कुछ दिन पूर्व ही साउथ बलन्डा में आयोजित एक शोक सभा में उजागर किया था, मगर आज उन अविस्मरणीय संस्मरणों को लिखकर मैं अपने अतीत से पलायन करना चाहता हूँ, यह जानते हुए भी कि यह असंभव है, मगर इसके सिवाय हमारे पास कोई विकल्प भी तो नहीं है। समय चक्र चलता रहेगा। कल हमारा शरीर भी इसी तरह चिता पर चलकर भस्म हो जाएगा। कबीर का दोहा याद आ गया:-
माली आवत देखकरी कलियाँ करी पुकार
फूल-फूल तो चुन लिए कल ही हमारी बार
अभी भी मुझे इस बात पर विश्वास नहीं हो रहा है कि विभूति जी नहीं रहे। यह कैसे हो सकता है? कुछ दिन पूर्व उन्हें हल्का-सा बुखार था, मगर क्रूर काल हमसे उन्हें इस तरह छीन कर ले जाएगा – यह सोचने मात्र से शरीर में सिहरन उठती है। विगत दशक की स्मृतियों को खंगालने से विभूतिजी न केवल इतिहासकार, गवेषक, लेखक, अनुवादक या श्रमिक नेता के रूप में सामने आते हैं, बल्कि बड़े भाई की तरह उनका प्यार, उनका सान्निध्य वाले क्षण भी आंखों के सामने तैरने लगते है। मैंने भले ही अपने पिता की अंतिम चेहरा नहीं देखा, मगर बारह साल पहले रेल दुर्घटना से परलोक सिधारे प्रसिद्ध ओड़िया लेखक जगदीश मोहंती या फिर 2 अगस्त 2025 के शाम को एमसीएल की अनंत खुली खदान के परियोजना अधिकारी के कार्यालय वाली सड़क के थोड़ी दूर स्थित डेरा गांव के अंतिम छोर पर स्थित श्मशान घाट की चिता पर रखी विभूतिजी के अंतिम दर्शन किए थे। क्या-क्या सपने देखे थे हमने ?
‘पवित्र मोहन प्रधान’, ‘वीर सुरेंद्र सहाय’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यास लिखना क्या अब हमारा अधूरा कार्य रह जाएगा? अब हमें ओडिशा के इतिहास की जानकारी कौन देगा? लिंगराज एमटी हॉस्टल में हर सुबह पर जो बौद्धिक चर्चा होती थी, उसका सूत्रधार कौन बनेगा ? क्या आप भूल गए कि मेरे उपन्यास ‘रश्मिलोचन’ के आपके द्वारा किए गए ओड़िया अनुवाद ने हमें कितना नजदीक लाया था अंतर्मन से, वैचारिक दृष्टिकोण से, अब यह निर्वात् कौन भरेगा ? जिस मित्रता के बंधन ने हमें तालचेर के ऐतिहासिक स्थलों पश्चिमेश्वर महादेव मंदिर, सारंग का अष्टशंभू मंदिर, वज्रकोट, नालम, पोईपाल,माल्यगिरी का भ्रमण करवाया, वही लगाव हमें भीम भोई पर आधारित साक्ष्य खोजने के लिए खलिआपाली, जोरुन्दा जैसे अन्य धार्मिक विप्लव वाले स्थलों की ओर खींच कर ले गया था। हमारा सफर अनवरत जारी था, मगर अब इस सफर में आगे कौन सहयात्री बनेगा ?
कितने भावुक थे विभूति जी! अपने आंसुओं को अपने हृदय के भीतर छुपा लेते थे। जब उनका अनूदित ओड़िया उपन्यास ‘रश्मिलोचन’ प्रकाशित हुआ था, तब तक उनकी जीवन संगिनी परलोक सिधार चुकी थी। उनके एकदशाह के दिन बड़े भावुक स्वर में गंभीरता से विभूति जी ने कहा था “सर, इस किताब पर आप मेरे लिए दो शब्द लिखकर मेरी स्वर्गीय पत्नी की तस्वीर के सामने भेंट कर देंगे तो उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।”
जब मैंने वह पुस्तक उनकी स्वर्गीय अर्धांगिनी की तस्वीर के सामने रखी गई तो विभूतिजी के आंखों की चमक किसी से छुपी नहीं रही। ऐसा लग रहा था जैसे वे किसी दूसरी दुनिया में खो गए हो। शायद वे अपनी पत्नी की दिवंगत आत्मा से बातें कर रहे हो। उनके भीतर एक साहित्यकार छुपा हुआ था, जो बाहर निकलने की प्रतीक्षा कर रहा था- वह मैं पहले से जानता था।
साहित्य,इतिहास, धर्म, विज्ञान और आध्यात्मिक पुस्तकें पढ़ने का और नई-नई चीजों को खोजने का शौक तो उन्हें बचपन से ही था। यह ही नहीं, मेरा अद्यतन उपन्यास ‘शहीद बिका नाएक की खोज’ तालचेर के इतिहास पर आधारित उनकी गवेषणात्मक पुस्तक ‘तालचेर गणसंग्राम’ का ही परिणाम था। वह पल कैसे भूलूँ, जब वे मुझे सिंघडा नदी कूल दिखाने के लिए कणिहा अंचल के चंद्रबिल गांव लेकर गए थे और वह स्थान दिखाया था, जहाँ बिका नाएक पुलिस की गोली से शहीद हुआ था। यही नहीं, मुझे तालेचर जेल की वह दीवार भी दिखाई थी, जहां से कूदकर स्वंतत्रता संग्रामी पवित्र मोहन प्रधान ने हाटतोटा की ओर मुड़े और आगे जाकर ब्राह्मणी नदी तैरते हुए ढेंकानाल चले गए। मुझे यह जेल दिखाने के लिए अपनी बाइक पर बिठाकर ले गए थे, ताकि रेल्वे लाइन के पास वाले रास्ते को मैं अच्छी तरह से देख सकूँ। यही नहीं, एक बार मुझे उन्होंने लिंगराज एमटी हॉस्टल में अपने साथ लाया ग्रेफाइट अयस्क का टुकड़ा दिखाया – जो उनके पुश्तैनी गांव की जमीन पर प्रचुरता के साथ पाया जाता है। तालचेर कोयलांचल पर शोध आलेखों के साथ –साथ तालचेर में बुद्ध कीर्ति के भग्नावशेषों की जानकारी देते हुए वे अक्सर यह बताते थे कि कोणार्क में पाए जाने वाली लोहे की लंबी बीमें तत्कालीन तोषल यानि वर्तमान के तालचेर की लोह खदानों से तैयार किए गए है। साथ-ही-साथ यह भी बताते थे कि पश्चिमेश्वर महादेव मंदिर के आस-पास किस तरह बुद्ध के ध्यानावस्थित मूर्ति को शिव प्रतिमा में बदल दिया गया| यही नहीं, तालचेर कोयलांचल के कोयले की सीमों की गहराई, भौगर्भिक व्यवधान जैसे फॉल्ट, फॉल्ड, ज्वालामुखी फूटने से बनने वाले क्रेटर वाली जगह आदि, बहुत सारी भौगोलिक और ऐतिहासिक जानकारियाँ उन्होंने प्रदान की थी| उनकी सारी जानकारियां साक्ष्यों पर आधारित होती थी। उनके लिए उनके घर में रखे हुए संदूको में भरी पुराने-पुराने डिस्ट्रिक्ट गजेटियर तथा बड़ी-बड़ी अलमरियों में रखी हुई ढेर सारी पुस्तकों के संग्रह पर आधारित होती थी| वह अन्य किसी शोधार्थी की बहुत मदद करते थे, मुझे भी भीम भोई पर पीएचडी करने के लिए प्रेरित किया। उसके लिए मैंने जीवन के उत्तरार्ध में पांडिचेरी यूनिवर्सिटी की लिखित परीक्षा पास की और उस विषय का चयन भी हुआ| लेकिन अब मेरी स्थिति किसी भँवरजाल में फँस जाने जैसी है। उनके बिना यह जग सूना लग रहा है।
“ओड़िया बिभव” और “इंटरनेट अर्काइव” जैसे वेबसाइटों से उन्होंने मुझे बीस-बीस पीएचडी थीसिस डाउनलोड करके दी, जिसका मैंने प्रिंट आऊट निकाला| मुझे भीम भोई ग्रंथावली के सारे अध्याय जैसे ‘स्तुतिचिंतामणि’, ‘आदि-अंत गीता’, ‘श्रुति निषेध गीता’ सभी पढ़कर समझाया| उससे बड़ा निस्वार्थ भाव वाला गुरु अब कहां मिल पाएगा ?
भगवान ने विभूतिजी को मेरे लिए इस धरती पर भेजा था, मगर इतना जल्दी वापिस ले लेंगे- यह पता नहीं था| हर सुबह उन्हें फोन करके लिंगराज हॉस्टल बुलाना मेरी आदत बन गई थी। हमारी मुलाकात के अंतिम चार-पांच दिन उन्हें हल्का बुखार था| कह रहे थे, शरीर का फोड़ा फूट गया है, इसलिए संक्रमण हो गया। लेकिन यह संक्रमण कब डॉयबिटीज में रूपांतरित होकर उनके देह के साथ अतिक्रमण कर जाएगा- यह सोच से परे था। विभूति जी, भले ही, दूर चले गए हो, मगर बहुत याद आएंगें। मैं उन्हें हर पल ओड़िया-हिंदी शब्दों में तलाशता रहूंगा, चाहे वाचिक हो या लिखित। शब्द ब्रह्म है, शब्द ‘अक्षर’ है, जिसका कभी क्षरण नहीं होता। जब तक उनका अनूदित “रश्मिलोचन” इस धरा पर रहेगा और जब तक मैं जीवित रहूँगा, तब तक उनके ओड़िया शब्द मेरे कानों में गूँजते रहेंगे और कालांतर में, ओड़िया पाठको के हृदय में अपना स्थान भी बनाते रहेंगे। इस प्रपंच युक्त कोलाहलभरी जटिल-कुटिल दुनिया से वे बहुत दूर जा चुके हैं। बहुत जल्द ही मैं भी उनके पास जाने के लिए उतावला हूँ। फिर दूसरी दुनिया में हम एक साथ बैठेंगे और बड़े-बड़े महापुरुषों, राजनेताओं, साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, श्रमिक संघों के दिग्गज नेताओं के जीवनी पर विचार-विमर्श करेंगे।
जब तक मैं इस धरा पर जीवित हूँ, “शहीद बिका नाएक की खोज”—आपको समर्पित मेरा उपन्यास आपकी सश्रद्धा उपस्थिति मेरे हृदय में दर्ज करवाता रहेगा। कैसे भूल सकता हूँ, यह पुस्तक भले ही, मैंने हिंदी में लिखी थी, मगर उसकी सारी पृष्ठभूमि तो आपने तैयार की थी, काल-पात्र-स्थान आदि के बारे में गहन जानकारी देते हुए!
कलम रुकने का नाम नहीं ले रही है। लिखने को तो बहुत कुछ शेष है, लेकिन स्मारिका की संपादक मंडली ने अनुरोध किया था, दो चार पृष्ठों में उनके साथ मेरी अनुभूतियों और अनुभवों को साझा करने के लिए, पत्रिका के सीमित पृष्ठों की बाधकता के कारण, अन्यथा विभूति जी जैसे असीम व्यक्तित्व और उनके विपुल कृतित्व को दो-चार पन्नों में समेटना असम्भव है।
अंत में, “महिमा अलेख” को याद करते हुए विभूति जी की दिवंगत आत्मा की सद्गति, परम शांति और परम शून्य के साथ सायुज्य समाधि की प्रार्थना करता हूँ। उनके जीवन का एक ही उद्देश्य था :-
”प्राणीकं आर्त दुख अपरिमित, देखू देखूँ केवा सहूँ
मो जन्म पछे नरके पडिथाऊ, जगत उद्धार हेऊ”
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