
दिनांक 11.10.2025 को नई दिल्ली के राजघाट स्थित गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा के सभागार में काकासाहेब कालेलकर एवं विष्णु प्रभाकर की स्मृति को समर्पित ‘सन्निधि संगोष्ठी’ के तत्वावधान में “मां” को समर्पित रचनाओं के काव्यपाठ का भव्य आयोजन किया गया।
सुविख्यात वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सविता चडढा तथा वर्ल्ड रिकॉर्ड धारक एवं पत्रकार डॉ शंभू पंवार जैसी गणमान्य विभूतियों ने मंच का दायित्व संभाला। संचालन का कार्यभार वरिष्ठ समाजसेवी, साहित्यकार एवं कुशल संचालक श्री प्रसून लतांत के सशक्त हाथों में रहा।
कार्यक्रम का आरंभ श्री प्रसून लतांत द्वारा मंचासीन विभूतियों एवं सभागार में विराजमान जनसमुदाय को मंच पर “मां” के प्रतीक स्वरुप रखी गई प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर की सहधर्मिणी एवं श्री अतुल विष्णु प्रभाकर की माताजी श्रीमती सुशीला प्रभाकर एवं गद्य-लेखक श्री कुमार सुबोध की माताजी श्रीमती सत्यवती शर्मा (जो हाल ही में स्वर्गवासी हुई हैं) के चित्रों पर सभी को अपनी माताओं को मन में स्मरण करते हुए पुष्पांजलि अर्पित करने हेतु आमंत्रित किया।

सभी विद्वतजनों द्वारा श्रृद्धा-सुमन अर्पण के दौरान व्याप्त सामयिक ममतामयी शांत वातावरण के प्रवाह को गतिशील बनाए रखने हेतु निरंतरता से अपने उदबोधन के माध्यम से श्री प्रसून लतांत ने कुछ चुनिंदा हस्ताक्षरों के नामों सहित उनकी कृतियों का उल्लेख भी किया, जिन्होंने ‘मां’ पर केंद्रित रचनाओं का सृजन किया है। गत 50 वर्षों में यह सृजन निरंतर होता आ रहा है और आज भी जारी है। मुझे लगता है कि मां पर साहित्य रचने और आज तक के समय का जो अंतराल है, वह समाप्त हो रहा है, यह फासला खत्म हो रहा है। वह ऐसे, जब हम आज के इस कार्यक्रम में मां के प्रति अपनी श्रद्धांजलि भी अर्पित कर रहे हैं और उनकी महत्ता को जागृत करने के लिए कविताओं का भी पाठ करने जा रहे हैं। उन्होंने मां को सम्मान दिए जाने को व्याख्यायित करने के साथ कहा कि हम अपने देश को भी भारत माता कहते हैं, किन्तु वहीं अफसोस की बात है कि गालियां भी मां के नाम से दी जाती हैं। आज यह आयोजन सही मायने में तभी सफल माना जाएगा, जब हम यहां से बाहर निकलकर यह अभ्यास करें कि मां के नाम से कोई गालियां ना दी जाएं, तो वह बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। हमारे लिए गर्व का विषय है कि भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी मां के सम्मानित दर्जे को स्वीकारते हुए सभी अदालतों और पुलिस प्रशासन को हिदायतें दी हैं कि मां, मां होती है, चाहे वह ब्याहता हो, अथवा कुंवारी। इस आदेश के माध्यम से उसने किसी भी तरह से मां को अपमानित किए जाने पर पूर्ण विराम लगाया है। हम सभी लोग आज की इस गोष्ठी में मां के बारे में बहुत सारी चीजों को समझेंगे और समझ-समझकर कुछ हम लोग भी नया-नया आविष्कार करेंगे, जिनको जीवन में उपयोग करके उसकी सार्थकता हो फलीभूत किया जा सके।
तत्पश्चात्, आयोजन को गतिशीलता प्रदान करते हुए उन्होंने अपनी आरंभिक रूपरेखा से ज्ञानार्जन किया कि “सन्निधि संगोष्ठी” की स्थापना गांधी जी द्वारा मुंबई में की गई थी, जिसे समय के अंतराल में काकासाहेब कालेलकर इसे दिल्ली यहां ले आए थे, जहां आज हम सब मिलकर उपस्थित हैं। साथ ही, उन्होंने इससे संबंधित ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से उदृधत कुछ पहलुओं और तथ्यों के माध्यम से श्रोताओं का ज्ञानवर्धन किया। अगली क्रम में श्री अतुल विष्णु प्रभाकर, श्रीमती अनुराधा अतुल प्रभाकर एवं श्री कुमार सुबोध के कर-कमलों द्वारा मंचासीन विभूतियों को अंगवस्त्र ओढ़ाने सहित भेंट स्वरूप उपहार प्रदान करके सम्मानित किया गया।

इसी बीच गांधी विचारधारा के प्रवर्तक श्री प्रसून लतांत ने सभागार को अवगत कराया कि “रिपोर्ताज” शीर्षक से श्री कुमार सुबोध ने अपनी एक नवीन पुस्तक का सृजन किया है, जिसका लोकार्पण वह अपनी माताजी के समक्ष रहते हुए उन्हीं के हाथों से कराना चाहते थे, किन्तु परिस्थितियों वश वह हो ना सका। सौभाग्यवश, हर्ष का विषय है कि इसका लोकार्पण अभी आप सभी के समक्ष होने जा रहा है। तदोपरांत, डॉ सविता चडढा, डॉ शंभू पंवार, श्री अतुल विष्णु प्रभाकर, डॉ कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’, समाजसेवी श्री प्रसून लतांत, स्वयं लेखक श्री कुमार सुबोध एवं उनके अग्रज भ्राता एवं अधिवक्ता श्री प्रदीप शर्मा के कर-कमलों द्वारा ‘रिपोर्ताज’ का विधिवत् लोकार्पण किया गया।
कार्यक्रम को गति प्रदान करते हुए तत्परता से संचालक महोदय ने इस पुनीत अवसर पर श्री कुमार सुबोध को अपनी नवीनतम कृति ‘रिपोर्ताज’ की सृजनात्मकता के विषयपरक तथा माताजी के प्रति समर्पण मनोभावों को व्यक्त करने के लिए आमंत्रित किया।
श्री कुमार सुबोध ने अपने उदबोधन में अवगत कराया कि किस प्रकार वह दिल्ली एनसीआर में आयोजित कार्यक्रमों में समय रहते गत कई वर्षों से सम्मिलित होते रहते हैं और उनकी रिपोर्ट पत्रिकाओं एवं अपने फेसबुक पेज पर प्रेषित कर दिया करते हैं। महादेवी वर्मा की शिष्या एवं दोहे, छंद, मुक्तक, ग़ज़ल और गीतों की प्रतिष्ठित वरिष्ठ हस्ताक्षर मेरी अग्रजा दीदी श्रीमती प्रमिला भारती, प्रतिष्ठित वरिष्ठ साहित्यकार डॉ सविता चडढा तथा मेरे गुरु एवं प्रणेता व्यंग्यऋषि डॉ हरीश नवल, इन तीनों की समवेत प्रेरणा ने मुझे अपनी इस साहित्यिक पिपासा को एक पुस्तक का रूप प्रदान करने के लिए प्रेरित किया था। उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा कि आज इनका वही आशीर्वाद फलीभूत हुआ है। उन्होंने बताया कि इसमें सवा साल की साहित्यिक, सांस्कृतिक, संगीत एवं नृत्य तथा अन्य आयोजनों से संबंधित नाम सहित संपूर्ण जानकारी उपलब्ध है।
तत्पश्चात्, अपने मनोभावों के माध्यम से अपनी माताजी के जीवन पर दृष्टिगोचर प्रस्तुत करते हुए अवगत कराया कि “माताजी की जिंदगी में संघर्ष और जीवन एक-दूसरे के पर्याय थे। चार वर्ष की आयु में उनकी माताजी चल बसी थी। पिता ने दूसरा विवाह कर लिया था। घर में कलह के चलते कुछ वर्ष बीमार रही थी। इस बीच दादाजी भी चल बसे थे। इन दोनों बहनों को दादी ने पाला था। पढ़ाई का कोई ठिकाना नहीं रहा था। फिर भी, माताजी ने अपनी लग्न से हिन्दी विषय में रत्न, प्रभाकर और साहित्य भूषण की डिग्रियां हासिल कर ली थी।
16 वर्ष की आयु में विवाह पश्चात् दो पुत्रों की माता बन गई थी। हमारे पिताजी बैंगलोर से इंजीनियरिंग करके उत्तर रेलवे में गैजेटेड पद पर आसीन थे। उन्हें घर पर सहायतार्थ चार कर्मचारी मिले हुए थे, जो घर के सभी कार्यों की देखभाल करते थे। माताजी का कार्य सिर्फ पिताजी का समयानुसार टिफिन तैयार करना और हमारी देखभाल का था।
वर्ष 1964 में एक्सीडेंट में पिताजी के देहांत हो जाने पर 25 वर्ष की आयु में विधवा हो गईं थी और गृहस्थी बीच चौराहे पर आ खड़ी हुई थी। प्राप्त डिग्रियों में अंग्रेजी विषय ना होने की वजह से पिताजी की जगह LDC की नौकरी स्वीकार करनी पड़ी थी। ससुराल वालों ने भी मुंह मोड़ लिया था। बच्चों, नौकरी और घर-बाजार के सभी कार्यों का भार स्वयं के कन्धों पर था। अनायास इन जिम्मेदारियों और वैधव्य के ग़म में तपेदिक जैसी बीमारी से ग्रस्त होने पर सालभर बिना तनख्वाह के नौकर रखकर काम चलाना पड़ा था।
उन्हें खुद को दया का पात्र समझा जाना कभी स्वीकार्य नहीं था। इसीलिए उन्होंने स्कूल-कालेज में हमारी कभी फीस माफ नहीं करवाई थी। स्वाभिमान और ईमानदारी के साथ अपनी मेहनत से जीवन-यापन करने पर पूर्ण भरोसा था। हमें शिक्षित कराने के साथ-साथ स्वयं अंग्रेज़ी विषय के साथ मैट्रिक, इन्टर और बीए तक की पढ़ाई की थी। हमारे नजदीक रहने के चक्कर में अपनी सीनियोरिटी को दरकिनार करते हुए मुयुचुअल ट्रांसफर लिया था और पदोन्नति भी छूट गई थी। समय रहते अपने मकान को बनाने के बहुत-से प्रयास किए थे, किन्तु सफलता हाथ नहीं लगी थी। ढ़ाई महीने के भीतर बिना दहेज की मांग के दोनों पुत्रों का विवाह सम्पन्न किया था। भाई निजी संस्थान में और मैं बैंक में कार्यरत हो गए थे। भाई द्वारा अपनी प्रैक्टिस की इच्छा जताने पर उसके लिए दिल्ली के करोलबाग में अपना आफिस खरीद लिया था।
नौकरी की जिम्मेदारी सहित अपने आफिस की वेलफेयर सोसायटी की 10 वर्षों तक अध्यक्षा रही थी। लोकसभा चुनाव में पीठासीन अधिकारी के दायित्व का निर्वहन किया था। साथ ही, नौकरी के दौरान अतिरिक्त समय का सदुपयोग करते हुए संगीत की शिक्षा, नैचुरोपैथी और होम्योपैथी चिकित्सा का ज्ञान तथा भारतीय योग संस्थान की शाखा में प्रथम महिला योग साधिका के तौर पर योगाभ्यास किया था। तबसे जीवन के अंतिम डेढ़ वर्ष पूर्व तक निरंतर योग क्रियाएं करती रही थी।
वर्ष 1997 के दौरान उत्तर रेलवे से अन्ततः सुपरिटेंडेंट के पद से सेवानिवृत्त हुई थी। तत्पश्चात्, अपने को स्वस्थ और व्यस्त रखने तथा समाजसेवा हेतु रोहिणी में एक क्लीनिक खोल लिया था। साथ ही, रेकी मास्टर की डिग्री प्राप्त की थी। गत 21 वर्षों तक प्रतिदिन आटो और मेट्रो के द्वारा घर से 10-15 किलोमीटर की यात्रा करके अपने दायित्व का नियमित रूप से निर्वहन किया था। आटो और ई-रिक्शा चालकों तथा मेट्रो के सुरक्षाकर्मी एवं सफाईकर्मियों को नासाज़ देखकर उन्हें सलाह और दवाईयां बताकर संतोष का अनुभव करती थी। जीवन में किसी भी कार्य को मन मारकर नहीं किया था।
12 वर्षों में मेरे गुजरात के विभिन्न शहरों में प्रवास के दौरान प्रत्येक वर्ष हमें संभालने आती थी। जहां एक ओर, गुजरात में वर्ष 2001 में आए भूकंप की त्रासदी के समय उनकी मौजूदगी ने हमें संबल प्रदान किया था। वहीं दूसरी ओर, गोधरा नरसंहार की भीषण और विकट परिस्थितियों में हमें संरक्षण प्रदान किया था। भूकंप के तुरंत बाद मेरा तबादला भुज कर दिया गया था। तब भी, उन्होंने ही मुझे ढांढस बंधाते हुए वहां जाकर कार्य करने को हौसला बढ़ाया था।
86 वर्ष की आयु तक जीवन को संघर्षमय और चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों में कभी हार ना मानने के दृढ़संकल्प सहित जिया था। समय के बदलते परिवेश में अब उनकी पहले वाली दिनचर्या में शिथिलता आ गई थी। आटो, मेट्रो से आना-जाना और कहीं बाहर जाना कम हो गया था। घर पर रहकर ही दैनिक योगाभ्यास किया करती थी। कोरोना महामारी से पूर्णतया स्वस्थ हो गई थी। किन्तु पता ही नहीं चला था कि कब वह कैंसर से पीड़ित हो गई थी? चौथी स्टेज के दौरान पता लगने पर अस्पताल में भर्ती कराया था। अच्छा स्वास्थ्य लाभ हो रहा था, किन्तु अकस्मात् फिर से समय ने करवट बदली थी। इतनी जल्दी हमारे सिर पर से उनका वरदहस्त हट जाएगा, यह उम्मीद नहीं थी। लेकिन काल से कौन जीत पाया है साहब? आज वो हम सब के लिए इतिहास बन गई है, जो हमारे जीवन की धारा के साथ-साथ प्रेरणास्रोत थी।
अपनी अभिव्यक्ति के दौरान डॉ सविता चडढा ने श्री कुमार सुबोध को ‘रिपोर्ताज’ के सृजन हेतु हार्दिक बधाई एवं मंगल शुभकामनाएं देते हुए अवगत कराया कि “मैंने भी पत्रकारिता पर 12 पुस्तकें लिखी हैं, लेकिन मेरी कोई भी पुस्तक रिपोर्ताज नाम से नहीं है और ना ही मैंने किसी अन्य लेखक की देखी है। यह दिल्ली एनसीआर के सभी कार्यक्रमों में निस्वार्थ भाव से, बिना किसी स्वार्थ के सम्मिलित होते हैं और उसकी विस्तृत रिपोर्टिंग बनाकर पत्रिकाओं और फेसबुक पर निरंतर वर्षों से डालते आ रहे हैं। इनके अंतर्मन में भी कभी उन सभी रिपोर्टों की पुस्तक बनाने का विचार नहीं आया होगा। लेकिन, आज इनकी यह ‘रिपोर्ताज’ हम सभी के समक्ष है। यह पुस्तक पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में सम्मिलित किए जाने योग्य है और इस क्षेत्र में बहुत आगे तक जाने वाली है। यह विद्यार्थियों तथा शोधार्थियों के लिए बहुत उपयोगी साबित होगी, ऐसा मेरा दृढ़विश्वास है। कुमार सुबोध इस पुस्तक का लोकार्पण माताजी के सामने रहते करना चाहते थे, किन्तु सभी कुछ सोचा जीवन में हो जाए, तो बात ही क्या है? ‘मां’ की स्मृति में आयोजित आज के इस कार्यक्रम से बढ़िया अवसर हो नहीं सकता था।
तत्पश्चात्, मां शब्द का उच्चारण करते ही भावुकता से भरे मन से उन्होंने कुमार सुबोध द्वारा अपनी माताजी के संघर्षपूर्ण जीवन पर दिए दृष्टिगोचर के संदर्भ का उल्लेख करते हुए कहा कि मां जैसी महत्ता किसी की नहीं हो सकती और ना ही कोई समझ सकता है। मां शीर्षक से रचित अपनी श्रेष्ठतम मौलिक रचना के काव्यपाठ पश्चात् मंच पर अपना स्थान ग्रहण किया।”
बीच-बीच में गांधीवादी विचारधारा के प्रवर्तक एवं वाकपटुता से परिपूर्ण कुशल संचालक श्री प्रसून लतांत ने समाजसेवी श्रीमती हेमलता महिस्के एवं सिंधु ताई के जीवन से जुड़े ऐतिहासिक पहलुओं तथा उनके द्वारा संघर्षमय सामाजिक परिवेश में अर्जित उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए सभागार में उपस्थित गणमान्य विभूतियों एवं जनसमुदाय को “मां” के प्रति समर्पित अपनी रचनाओं के काव्यपाठ हेतु क्रमबद्ध तरीके से आमंत्रित किया। सभी विद्वतजनों ने अपनी श्रेष्ठतम मौलिक रचनाओं के काव्यपाठ से सभागार में उपस्थित जनसमुदाय को भाव-विभोर करते हुए वातावरण को ममतामई भावनाओं की भाव-भंगिमा से ओतप्रोत तो किया ही, साथ ही, श्रोता स्वरूप अपने ही साहित्यिक सदस्यों को अपनी प्रस्तुतियों पर वाह-वाही के उदघोषकों संग गड़गड़ाती करतल-ध्वनि से सभागार के वातावरण को ममतामई महक सहित गुंजायमान कर दिया।
अंतरराष्ट्रीय लेखक डॉ शंभू पंवार ने कहा कि “मां जन्म देती है, संस्कार देती है और जीवन का अर्थ सिखाती है। दो माताओं के प्रतीक स्वरुप आज का यह आयोजन उन सभी माताओं के जीवन को समर्पित है, जिनकी ममता हमारे अंतर्मन की सांसों में रची-बसी है। यह इसलिए भी विशेष है कि यह इनके प्रति स्मरण ही नहीं, बल्कि संवेदनाओं और संस्कारों का संचार है, जो हमें याद दिलाता है कि मां केवल एक व्यक्ति ही नहीं, संस्था है, आदर्श है, जो समय और मृत्यु के प्रभाव से परे है। आइए, हम सब मिलकर इन सभी माताओं को नमन करें, जिन्होंने अपने त्याग, प्रेम और करूणा से हमारे जीवन को अर्थ दिया है। मां को भूलना असंभव है, क्योंकि मां हमें जन्म ही नहीं देती, बल्कि मानव बनाती है। उन्होंने अपने गद्य-लेख के माध्यम से मां के प्रति अपनी भावनात्मक अभिव्यक्ति तथा श्री कुमार सुबोध को उनकी नवीनतम कृति के सृजन हेतु हार्दिक बधाई एवं मंगल शुभकामनाएं अर्पित करते हुए अपनी वाणी को विराम दिया।”
स्वयं वरिष्ठ साहित्यकार, समाजसेवी तथा प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विष्णु प्रभाकर एवं श्रीमती सुशीला प्रभाकर के सुपुत्र श्री अतुल विष्णु प्रभाकर ने अपने माता-पिता की विस्मृतियों से उकेरकर कुछ महत्वपूर्ण पक्षों को प्रकट करते हुए अवगत कराया कि “यह संबंध कभी भी हमारे जीवन से विस्मृत नहीं होते हैं। यह सदैव साथ रहते हैं। माता-पिता के विवाह का प्रकरण उदृधत करते हुए अवगत कराया कि जब माताजी का पिताजी से रिश्ता तय हो गया था, तो उनकी सहेलियों ने उनसे मज़ाक किया था कि तेरा होने वाला पति तो क्लर्क है और मात्र ₹40/- कमाता है। इस पर माताजी ने प्रत्युत्तर में कहा था कि वह क्लर्क के साथ-साथ लेखक भी है। पति-पत्नी के साथ-साथ वह दोनों प्रेमी-प्रेमिका युगल भी थे, जिसके प्रमाण स्वरूप उनके पत्र धरोहर के तौर पर मेरे पास सुरक्षित हैं, जिन्हें एक संकलन के माध्यम से जल्द ही आप सभी के बीच में आऊंगा। माताजी का देहांत वर्ष 1980 में हो गया था। पिताजी को बहुचर्चित उपन्यास ‘आवारा मसीहा’ के लिए सम्मानित किया गया था। उस समय उन्होंने कहा था कि इस सम्मान की असली हकदार मेरी अर्धांगिनी थी, जो आज मेरे साथ नहीं है।
‘माताएं सदैव अपने परिवार के साथ रहती हैं’ इस तथ्य को मूर्तरूप में होते मैंने स्वयं अनुभव किया है। श्री अतुल विष्णु प्रभाकर ने एक जीवंत प्रकरण को उदृधत करते हुए अभिव्यक्त किया कि उनके पिताजी ने एक मकान बनाया था और उसे किराए पर दे दिया था। जालसाजी के तहत किराएदार ने उसे अपने नाम भी करा लिया था। यह मामला कई वर्षों तक न्यायालय के समक्ष चला था। मैं और पिताजी इन सब चक्करों की वजह से बहुत परेशान थे। न्यायालय का फैसला हमारे पक्ष में ना आकर किराएदार के हित में आ गया था। उन विकट परिस्थितियों में माताजी ने मुझे स्वप्न में दर्शन दिए थे और मेरे सिरहाने बैठकर मुझे आशीर्वाद दिया था कि ‘चिंता मत कर। सब ठीक हो जाएगा। यह मकान तेरे पास ही रहेगा।’ माताजी का आशीर्वाद सदैव फलीभूत होता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि वर्ष 1980 में माताजी के स्वर्गवासी होने के पश्चात् 19 वर्षों की जद्दोजहद के बाद वर्ष 1999 से आज यह मकान हमारे पास है। मां के इस प्रकरण का वर्णन करते हुए अतुल जी भावुकता से भर गए थे और कुछ क्षणों के लिए उनका गला रूंध गया था। उदबोधन पर विराम देने से पूर्व उन्होंने मां को समर्पित अपनी श्रेष्ठतम मौलिक रचना का वाचन करके श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया।”
सभागार की श्रोता-दीर्घा को शोभायमान बनाने में देश के विभिन्न शहरों से पधारे जिन विद्वतजनों एवं आगंतुकों ने सहारा और संबल प्रदान किया, उनमें डॉ सविता चडढा, डॉ शंभू पंवार, श्री अतुल विष्णु प्रभाकर, श्री अतुल विष्णु प्रभाकर की पत्नी श्रीमती अनुराधा अतुल प्रभाकर, छोटी बहन श्रीमती अर्चना प्रभाकर, श्री प्रसून लतांत (संचालक), श्री कुमार सुबोध के अग्रज भ्राता श्री प्रदीप शर्मा, भाभी श्रीमती कुसुम शर्मा, पत्नी श्रीमती सुनीता शर्मा, पुत्री सुश्री मीरा वशिष्ठ, पुत्र श्री गौतम वशिष्ठ, माताजी की छोटी बहन एवं कुमार सुबोध की मौसी श्रीमती उर्मिला भारद्वाज, मेरी बहन श्रीमती पूनम शर्मा, डॉ कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’, डॉ कविता मल्होत्रा, डॉ संदीप तोमर, श्री सुरेन्द्र अरोड़ा, श्रीमती गीतांजलि अरोड़ा ‘गीत’, डॉ जितेन्द्र कुमार शर्मा, डॉ अंजू खरबंदा, श्री प्रेम बरेलवी, श्री प्रेम शर्मा ‘प्रेम’, सुश्री शिवानी, सुश्री बाल कीर्ति, श्री इब्राहिम अंजुम, सुश्री पुष्पा शर्मा, श्री पन्नालाल, श्रीमती अश्विनी देशपांडे, डॉ पूरनसिंह, श्री केदारनाथ ‘मसीहा’, श्री इरफान राठी, श्री सुरेन्द्र पासवान, श्री फिरोज़ सैफी, प्रकाशक के प्रतिनिधि श्री रोहित आनंद एवं सहकर्मी श्री दूबे प्रमुख रहे।
समापन की ओर अग्रसर कार्यक्रम में अंतिम पड़ाव पर श्री अतुल विष्णु प्रभाकर ने देश के विभिन्न शहरों से पधारे सभी विद्वतजनों एवं आगंतुकों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए धन्यवाद और आभार ज्ञापित करने के पश्चात् यह भव्य आयोजन सम्पन्न हुआ।
— कुमार सुबोध, ग्रेटर नोएडा वेस्ट।
