‘रिश्तों के सिलेबस में…’
– सूर्यबाला
‘हेलो… वेणु… बेटे!‘
पहली बार मां की आवाज जैसे बहुत दूर से आती लगी… और थकी हारी भी। कुछ ऐसे जैसे कभी का देखा, कोई बहुत अपना, क्रमशः दूर होता चला गया हो और अब उससे कैसे पेश आया जाये, एकबारगी समझ में नहीं आ रहा हो। या शायद यह… या शायद – उफ कुछ नहीं, भ्रम है मेरा… मां की आवाज सचमुच दूर से तो आ ही रही है। और क्या…
(अच्छा! अमेरिका, भारत से पिछले दिनों ज्यादा दूर हो गया है क्या!…)
‘हांऽऽ मां! बोलो…‘
क्या बोलूं… हां, तू बता, कैसा है तू… तुम लोग… मेधा कैसी है? अचानक लगने लगा है जैसे बहुत दूर चला गया है तू… तुम लोग…
पहली बार लगा है जैसे मां, बोलते हुए, शब्दों की लगातार काट-छांट करती जा रही है। क्या बोलना है, कैसे बोलना है, क्या नहीं बोलना है… सब सोचते-समझते हुए।‘
‘ठीक हूं… ठीक हैं, हम दोनों…‘ कहते कहते मैं भी ठिठक गया हूं… यानी, काट-छांट मैं भी कर रहा हूं – ‘हम दोनों ठीक हैं मां… तुम बताओ कैसे हो तुम सब?… पापा के टखने वाला प्लास्टर तो अभी नहीं खुला होगा न! – अच्छा! खुल गया? इधर मुझे फोन करने में देर हो गयी – वसु, वृंदा, विशाखा दीदी की क्या खबर है?‘…
‘ठीक हैं सब बेटे… वसु अपने जन्मदिन पर होस्टल से आई थी, बहुत याद कर रही थी तुम्हें… और मेधा को। पूछ रही थी, दादा का फोन आया था क्या… मैंने समझा दिया उसे कि दादा को समय नहीं मिल पाया होगा – वरना दादा कैसे भूल सकता है – तेरा जनमदिन… पगली है न! जल्दी समझती नहीं। वृंदा और विशाखा भी पूछती रहती हैं… मैं सब जानती हूं – कभी-कभी फोन नहीं भी तो लग पाता… और तुम दोनों कितने बिजी रहते होगे, घर का सारा काम मेधा को अकेले करना पड़ता होगा। अपने मम्मी-पापा के घर में इतने नौकरों-चाकरों के बीच पली-बढ़ी है वह। और तू तो ठहरा तीन बहनों के बीच का लाडला – चाय, नाश्ता, पकौड़े बहनें दौड़-दौड़ कर तेरी मेज पर पहुंचाती रहती थीं – तेरा काम सिर्फ ‘थैंक्यू‘ के नाम पर वसु की चोटियां खींच देना होता था…. वहां मेधा बेचारी अकेली ही खटती होगी… कहां है मेधा, बुलाओ…‘
‘हां-हां – ये क्या रही… मेधा! लो, बात करो मां से… ‘नमस्ते मम्मी जी!… हां-हां, हम दोनों बिल्कुल ठीक हैं…. पापा जी का प्लास्टर खुल गया?… हां-हां, फोन लगाया था न वसु के हॉस्टल में… दो-तीन बार, उनकी बर्थ-डे पर भी… नहीं लगा – बहुत ज्यादा बार कर भी नहीं सकते न… वेणु ने कभी बताया नहीं आप लोगों को, तीन-चार डॉलर लग जाते हैं, हर बार फोन करने के फिर भी हम लगाते ही हैं।
मैं मेधा की झूठ और वाक-चातुरी पर हैरान था। कितने सलीके से वह वे सारी बातें करती चली जा रही है जिसे कहने से पहले मैं कितनी बार सोचता था कि कहना ठीक होगा या नहीं… और अंतिम निर्णय ‘नहीं’, पर ही गिरता था।
मां सचमुच मना कर रही थी -‘नहीं नहीं बेटे… तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो। वेणु ज्यादा ही संकोची है। तुम हमें सब कुछ बताया करो। हमें पन्द्रह दिनों में फोन करने के बदले एक-एक महीने में किया करो। बस बीच में एक बार वृंदा, एक बार विशाखा को। वसु को मैं समझा लिया करूंगी। या किसी इतवार को पहले से तय कर घर बुलवा लिया करूंगी।
मैं मेधा के हाथ से रिसीवर लेकर खिझलाया -‘अरे ऐसा कुछ नहीं है मां… बस टाइम नहीं मिल पाया। थोड़ा रात, दिन वाला प्रॉब्लम हो जाता है न! सुबह आठ बजे तक ऑफिस निकलने की जल्दबाजी रहती है… लौटकर थकान और रात में करो तो इंडिया में लोगों की सुबह की भागदौड़ – (कहते हुए मैं खुद से कतराया, यह सारी समस्या पहले नहीं हुआ करती थी क्या! – इधर कोई नया अमेरिका और इंडिया किसी नये कोलंबस, वास्कोडिगामा ने ढूंढ़ा है क्या!… तत्क्षण मैंने खुद को दुत्कारा) – फिर भी, अगले हफ्ते वृंदा और विशाखा दीदी दोनों को फोन करूंगा।… और…. वहां सब लोग कैसे हैं – सुभाष मामा… ताऊजी… रघुवीर चाचा… (पूछ तो बेशक रहा हूं मैं लेकिन मेरा मकसद उनकी चिंता न होकर मां को संतुष्ट करना है।… या धोखा देना…) मां को सचमुच बड़ी राहत मिली – ‘सब लोग ठीक हैं बेटे… तुझे बहुत याद करते हैं… सुभाष मामा को इधर मैलेरिया हो गया था। बहुत कमजोर हो गए और ताऊ जी-जाने दे, तेरा बिल बढ़ रहा होगा। (मां कातर हो आई।) मैं सबसे कह दूंगी वेणु उन्हें याद कर रहा था, प्रणाम भेजा है उसने… लो, पापा से बात कर लो…
(हां, मैं बेशक याद करता हूं उन्हें… उन सभी लोगों को… लेकिन यह सच है कि उन स्मृतियों को अब ओढ़ता, बिछाता नहीं… मेरे ओढ़ने और बिछावन बदल गए हैं अब… )
हलो पापा!… कैसा है पैर अब… (यानी पूरे पापा की जगह सिर्फ ‘पैर‘ की खैरियत…!) हां, तकलीफ तो हुए ही होगी।… डॉक्टर से पूछ लीजिएगा… बिल्कुल। फ्रैक्चर को प्लास्टर खुलने के बाद इक्सरसाइज तो करनी पड़ेगी… पैर वाली बात है न! ऊपर से कंपाउंड फ्रैक्चर… क्या? वृंदा की ननद की शादी?… नहीं आप कैसे जायेंगे?… मैं क्या करूं… पास होता तो पहुंचता ही- अच्छा, निखिल और अंकल पूछ रहे थे? नाइस ऑफ देम… मेरी तरफ से ऑपोलोजाइस कर लीजिएगा… क्या? कितने रुपये? मैं क्या बताऊं – जो भी आप और मां ठीक समझें…। क्या? पीछे वाले कमरे की भी?… ठीक है, करवा लीजिए। मैं कोशिश करूंगा।… आप चिंता मत करिएगा।… सब हो जाएगा। और हां, अगले एक महीने तक बस से नहीं, ऑटोरिक्शा लेकर ऑफिस जाया करिएगा। … हां-हां हम लोग बिल्कुल ठीक हैं – मेधा भी। ओ.के. रखता हूं…।
-×-×-×-×-×-
-‘संजना लौट आई इंडिया से‘-
ऑफिस से लौट कर मैंने अभी-अभी जैकेट क्लॉजेट में डाले ही थे कि मेधा ने बला की फुर्ती से कॉफी के दो झागदार मग हमारे छोटे से गोल टेबिल पर ला रखे। और अब चहकते हुए बता रही थी –
‘संजना लौट आई इंडिया से‘-
-‘अच्छा! कब?
-‘कल ही खूब घूमी, बैगलोर, मदुराई, सीलोन‘-
-‘वेरी गुड!… लंका में रावण की समाधि पर दो मिनट का मौन रखा कि नहीं?‘
-‘वह तो तुम्हीं पूछना, मसखरों वाली बातें… हमारे इन्टरेस्ट और-और थे… बता रही थी खूब, घूमे वे लोग… और ढेर सारी शॉपिंग की –
-‘ओह्होह! तब तो संदीप को फोन कर के हमदर्दी जतानी होगी!… पुअर गाइ।‘…
– संदीप तुम्हारी तरह उदासी नहीं… वह संजना की शॉपिंग में इन्टरेस्ट भी लेता है, च्वॉयस में मदद भी करता है। अभी मदुराई से लाई एक शोपीस के लिये ‘हुक और बेस‘ खरीदने गए हें दोनों। यहीं से होते गए। उसने न, कुछ सेमी प्रीशियस, अनकट जेम्स खरीदे हैं, रूबी, एमेरैल्ड, कोरल‘ –
-‘सच! मैंने तो कभी देखे भी नहीं‘-
-‘सबके बीच अनाउंस करने की जरूरत नहीं – वैसे तुम चाहो तो देख सकते हो।‘
-‘मतलब?‘
‘संजना डिब्बी यहीं छोड़ गई है।‘
-‘लाई ही क्यों थी?‘
-‘मुझे दिखाने के लिए‘-
-‘क्या तुमने भी नहीं देखे थे असली नीलम, पुखराज?‘
-‘रूबी, ऐमेरैल्ड, नीलम, पुखराज नहीं होते, माणिक और पन्ने को कहते हैं। नीलम सफायर और पुखराज टोपैज़ होता है समझे।
अचानक मेरे अंदर का प्रहरी सजग हो आया -‘ओ, तो ये बात थी लेकिन तुम इस तरह खुश दिख रही थी, जैसे अभी-अभी तुम्हें पता चला हो कि तुम मां बनने वाली हो।‘
मेधा मेरे जोक पर इस कामचलाऊ ढंग से मुस्कुराई जैसे मैं कोई बच्चा होऊं और वह मेरा मन रख रही हो फिर तुरंत बोली -‘ला कर दिखाऊ?‘
मैं हड़बड़ाया ‘नहीं-नहीं‘ पहले कॉफी तो खतम कर लें फिर इत्मीनान से देखते रहेंगे–
लेकिन मेधा सब्र न कर पाई। सामने ही ‘काउंटर‘ पर रखी डिब्बी उठा लाई।
-‘सबसे अच्छी बात यह कि संजना कह रही थी, इसमें धोखे की गुंजाइश जीरो परसेंट भी नहीं। इंटरनेशनल मार्केट में डील करते हैं ‘रत्नमाला‘ वाले। कृतिका और पल्लवी ने भी मंगवाये थे।‘–
मैं किसी तरह नहीं कह सकता था कि अरे तुमने क्यों नहीं मंगवा लिए? जबकि मैं जानता था, मेधा कितनी व्यग्र थी, मेरे मुंह से यह सुन पाने के लिए।
मेधा ने तन्मय भाव से डिब्बी खोली। रूई की बारीक पर्तो के बीच, पीली, हरी, गुलाबी, नीली, रत्नमणियां झलमला उठीं। मेधा सोत्साह बताने लगी, ये सारे जेम्स एकदम टॉप क्वालिटी के तो नहीं है लेकिन हैं असली ही, इनकी तराश भी बहुत हुनरमंद कलाकारों द्वारा हुई है। ये देखो, स्फायर, नीलम, ये एमरैल्ड यानी पन्ना -रूबी के लिये कह रही थी कि मीडियम से बेहतर है।
-‘कॉफी बढ़िया है… थैंक्स‘-
-‘और जेम्स?‘-
‘ये भी‘-
‘तो कौन ले लूं?‘
मैं एकदम चकबका आया -‘तुम-तुम्हें लेने की क्या जरूरत है?‘…
-‘क्यों पल्लवी और कृतिका को लेने की क्या जरूरत थी?-
-‘उनकी जरूरत मैं कैसे समझ सकता हूं‘-
-तो यही समझ लो, जो जरूरत उन्हें थी, वही जरूरत मेरी भी है।‘
मैं लगातार स्थिति को बिगड़ने से बचाने या कहूं संभालने की कोशिश कर रहा था। समझाने के से अंदाज में बोला –
-‘मेधा! मैंने सुना है कि ये असली रत्न, बिना किसी सही ज्योतिषी की सलाह लिये हर्गिज नहीं पहनने चाहिये।‘-
मेधा ने सयानी मुस्कुराहट के साथ कहा -‘संजना के पास वह बुकलेट भी है जिसमें पूरे राशि लक्षणों के साथ यह साफ-साफ लिखा होता है कि किस राशि वाले को कौन-कौन से रत्न धारण करने चाहिये, कौन से नहीं‘-
-‘शाब्बाश! आइ लाइक्ड दैट‘ – मैंने अपनी हड़बड़ाहट पर काबू करने की कोशिश में उसकी ओर अतिरिक्त प्यार दर्शाती बाहें बढ़ाई थीं लेकिन मेधा बड़े करीने से मेरी गिरफ्त के बाहर होती हुई बोली -‘तो संजना को फोन कर दूं, कल ऑफिस जाते समय बुकलेट मेरे पास छोड़ती जाये?‘
-‘भई, ये इतनी अफड़ातफड़ी सी क्यों मची है?…सारी की सारी महिलाएं अचानक नवरत्नों पर इतनी मेहरवान कैसे हो आईं? मान गया, संजना को… बाय-द-वे, यह साइड बिजनेस उसने कब से‘-
– ‘संजना ने कोई नया बिजनेस नहीं शुरू किया है। सीलोन में ‘रत्नमाला‘ वालों की नई ब्रांच खुली है, वे सेकेन्ड कजिन होते हैं संजना के। अपना जेम कलेक्शन लेकर यू.एस. 4-5 ट्रिप पर भी आने वाले हैं। उन्होंने ही संजना को नमून के तौर पर दिये हैं, ये देखने के लिये कि यहां इन दिनों लेडीज की लेटेस्ट क्रेज और पसंद क्या है। शुरुआत में कस्टमर्स का अट्रैक्ट करने के लिये पूरे बीस प्रतिशत की छूट भी दे रहे हैं… और… नकली का तो कोई सवाल ही नहीं… और अगर हम अभी पसंद कर के ऑर्डर बुक कर दे ंतो सोने की कारीगरी पर भी पच्चीस प्रतिशत छूट मिलेगी।
-‘सब सेल बढ़ाने की कारगुजारियां हैं-‘
-बिल्कुल, लेकिन अपना तो फायदा बनता है न… यही जेम्स अगर हम सीलोन में या कहीं भी डाइरेक्ट शॉप से लेंगे तो सोचो, तीस प्रतिशत ज्यादा देने पड़ेंगे… और इस तरह पचास हजार का टॉप्स और पेन्डेंट सिर्फ चालीस हजार में – सोचो, पूरे दस हजार का फायदा –
-‘दस हजार का ही क्यों – अगर हम एक लाख का लें तो पूरे बीस हजार का फायदा –
-‘ठीक है, एक लाख वाला प्रेजेंट मुझे देना चाहते हो तो वही सही… मुझे भला क्यों इन्कार…. नेकी और पूछ-पूछ-‘
-‘लेकिन उसके लिए डार्लिंग मुझे पहले लॉटरी का टिकट खरीदना होगा – मेरे कुलींग मिस्टर वायमेन का एक दोस्त नियमित खरीदता है… वह तो कसीना-क्लब भी जाता है। हजारों डॉलर का वारा न्यारा रोज करता है। वायमेन बता रहे थे, वह ब्लैक जैक भी खेलता है। कभी घर भर जाता है, तो कभी लुट भी जाता है… पर उसे लत है… वायमेन बता रहे थे, उसके तो बैंकरप्ट हो जाने तक के भी‘-
-मेधा की आंखों में अचानक जैसे मिर्चें भभक पड़ीं-
-‘इनफ वेणु! बहुत कहानियां गढ़ चुके। मेरे रूबी के एक पेन्डेंट और इयररिंग खरीद लेने से तुम्हारा घर लुटा जाता है?‘ बैंकरप्ट हुए जा रहे हो तुम-
-‘मेरा नहीं, हमारा घर मेघा‘-
-‘प्लीऽऽज! हिप्पोक्रेसी छोड़ो। मेरा घर भला यह कैसे हो सकता है?… होता तो मेरा कुछ तो हक बनता। इस घर के पैसों पर…‘
-‘घर हवा में नहीं बना करते मेधा। और न ‘हक‘ को हठ में बदला जा सकता है। …‘घर‘ और ‘हक‘ इतने छोटे शब्द नहीं हैं। बहुत गहरे शब्द हैं। और ‘घर न, सिर्फ हक की लड़ाई के जोर पर नहीं चलाये जा सकते, हक छोड़ने की पहल और समझदारी पर चला करते हैं। मुझे गलत मत समझो। हमारी इनकम की सीमाएं हैं। तुम्हारी इस तरह हर चीज को देख कर लालायित होने की, पा लेने की लालसा मुझे आतंकित करती है… राजा मीडास की तरह जैसे वह चाहता था, जिस चीज पर वह हाथ रखे वह सोना हो जाये… तुम चाहती हो, जिस चीज की तुम इच्छा करो, वह तुम्हारी हो जाये… सिर्फ इस लिए तुम्हें याद दिला रहा था बस लेकिन अगर मैंने तुम्हे ‘हर्ट’ किया तो सॉरी… मेरा इरादा दिल दुखाने का बिलकुल नहीं था।
– ‘यह जान कर खुशी हुई वेणु… पर कितना अजीब है न, जो तुम नहीं चाहते, वही कर बैठते हो हमेशा।’
– ‘कर बैठता हूं तो सिर्फ इसलिए कि हमें अपने दूसरे खर्चों और जिम्मेदारियों का भी ध्यान रखना होता है। पैसों से ज्यादा अहमियत आदमी की, रिश्तों की होती है। ऐसे अनेक रिश्ते मिलकर एक घर, एक जीवन बुनते हैं। जीवन के ताने बाने में इन रिश्तों की अपनी चमक, अपनी खुशबू होती है।’
– कहते हुए मैंने मेधा की तरफ थोड़ी उम्मीद, थोड़े अनिश्चय से देखा था लेकिन मेरा डर सच साबित हुआ। मेधा गुस्से और अपमान से जल रही थी –
-‘भाषण मत दो वेणु! मैं संजना को अभी फोन किये देती हूं – खुश?‘
मैंने हिम्मत नहीं हारी। आवाज में और ज्यादा नरमी ला कर बोला –
-‘नहीं, मैं खुश नहीं हूं मेधा। मैं खुश तब होऊंगा जब तुम मेरी बात समझ जाओगी!‘
-इसमें समझना क्या है वेणु!… पैसे, ‘वसु’ के एडमीशन के डोनेशन के लिए रखे हैं न!
डंक खाया सा मैं छटपटा उठा। मन में एक कसैला ख्याल आया – तो क्या इसीलिए मेधा तुम भी रूबी के पेडेंट के लिए अड़ी बैठी थी! लेकिन नहीं, मेधा अपनी बात के लिये कभी बैसाखियों का इस्तेमाल नहीं करती। हमेशा खुद अपने सहारे खउ़ी होती है, आमने-सामने दो-टूक – अच्छा ही हुआ जो उसने मुझे भी सीधे, सामने आने के लिए ललकार दिया –
– पैसे ‘बेशक रखे हैं। लेकिन न रखे होते तब भी, पचास हजार का रूबी का पेडेंट खरीदने से पहले मैं तुम्हें रूक कर सोचने की सलाह देता। इस नितांत पराये देश में रहते हुए, हमारी सबसे बड़ा सहारा हमार बचत ही है मेधा… हम बिना आगा-पीछा सोचे अनाप-शनाप खर्च नहीं कर सकते। … और जहां तक वसु के इंजीनियरिंग कॉलेज के डोनेशन की बात है, वह मां-पापा या वसु ने नहीं मांगा। मेरे माता पिता ने कभी नहीं कहा कि तुम लोग अपने शौक मत पूरे करो। यह मेरा अपना निर्णय था, जिसे मैंने सबसे पहले तुमसे ही शेयर किया था‘-
-‘मांगा क्या सीधे-सीधे दानपात्र या कटोरे में ही जाता है इमोशनल ब्लैकमेलिंग के न जाने कितने डाइरेक्ट, इनडायरेक्ट तरीके, प्रेशर डालने की तरकीबें, आजमाते हैं लोग‘- दरअसल तुम्हें अभी शादी करनी ही नहीं थी। वसु की करनी थी। लेकिन पैसे नहीं थे तुम लोगों के पास। और तुम्हारी शादी से तो उल्टे-’
– ‘पता नहीं मैं क्रोधित ज्यादा था या क्षुब्ध… आवाज ऊंची कर बोलना मेरे स्वभाव में… नहीं था – दिस इज अन फेयर मेधा। ‘तुम लिमिट क्रॉस कर रही हो, कम से कम इतने उटपटांग शब्दों की उम्मीद नहीं थी मुझे तुम से… फिर तो कल को हमारे रिलेशन्स, हमारी फीलिंग्स को भी तुम ब्लैकमेलिंग के खाते में डाल दोगी।‘
– तैंश खाने की जरूरत नहीं। इतनी नादान नहीं हूं मैं। सच तो यह है कि तुम्हारे घर वालों ने तुम्हें वह खूंटी बना दिया है जिस पर वे जब चाहें, अपनी जरूरतों, इच्छाओं, लालसाओं को लबादे टांग सकते हैं। वे जानते हैं, यह खूंटी पूरी दिलेरी से सब कुछ लाद लेगी अपने ऊपर। सच कभी-कभी जरूरत से ज्यादा कड़वा महसूस होने लगता है वेणु!… अगर तुम तल्ख हो सकते हो तो मैं क्यों नहीं हो सकती! अपनी फैमिली को मेरे हक का भी प्यार और सम्मान दोनों तो मैं कहां तक बर्दाश्त करूंगी! अपना हक दूसरों द्वारा हड़प लिया जाना किसी को भी स्वीकार नहीं होता‘-
– रब्बिश, क्या तुमसे शादी होते ही उन लोगों को हक समाप्त हो जाता है मेधा? यही बात वे लोग भी तो कह सकते हैं।‘ लेकिन सुन लो और विश्वास करो। मैंने तुम्हें मना किया तो सिर्फ अपने अधिकार और स्वभाववश… लेकिन परिवार की जिम्मेदारियां से इंकार नहीं कर सकता मैं। मोह और चिंता छोड़ भी दूं तो मनुष्यता के नाते-’
– ‘तुम्हारी मनुष्यता की परिभाषा ढोते-ढोते मैं पस्त हो गई हूं वेणु। इस अनुष्ठान की हवन-सामग्री जुटाते में मेरी सारी खुशियां स्वाहा हुई जा रही हैं। मुझे इस पचड़े में नहीं पड़ना… सीधी सी बात है मैंने तुमसे शादी की है तो मुझे कुछ अधिकार भी चाहिये। मेरी भी कुछ पसंद नापसंद और शौक हैं, उन्हें पूरा करने की आजादी भी। अगर यह मेरा घर है तो इतने सारे रेस्ट्रिक्शन मुझ पर ही नहीं लगाये जा सकते… मुझ पर तो इतनी पाबंदी और तुम्हारे परिवार वालों का आतंक उतनी दूर से भी हमेशा हावी रहता है तुम पर।
-‘मेरी सेन्टीमेंट्स और फीलिंग्स, मां-पापा और बहनों के प्रति मेरी चिंता को तुम आतंक का नाम दे रही हो?
– सच को बरदाश्त करने की आदत डालो, वेणु!… और सच यह है कि मां-बाप कुछ कम जुल्म नहीं ढाते औलादों पर। पुत्र जन्म की बधाई इसीलिए धड़ाके से बजती है न कि बेटे अपनी परिभाषा लेंगे, मां-बाप पर भी। जब देखो लाड़ और ममता की चाशनी में डुबो-डुबो कर ढेर सारी प्रॉब्लम्स डिस्कस किये जाएंगे… बड़ी बहन के बच्चे का नामकरण, छोटी की शादी का हवाला। खर्च-बर्च में हमेशा तंगी की बातें होंगी तो सुनने वाले पर प्रेशर पड़ेगा ही।
-‘कमाल करती हो मेधा। अब मैं घर से इतनी दूर हूं, तो मां-पापा अपने सारे प्रॉब्लम्स मुझसे नहीं डिस्कस करेंगे तो किससे करेंगे? मुझसे यानी हमसे। यह हमारे ऊपर है कि हम उसे प्रेशर मानते हैं या अपनी जिम्मेदारी, अपने फर्ज का तकाजा। यह जिम्मेदारी तुम्हारी भी है। मेरी तरह तुम्हें भी उसे महसूस करना होगा। और यह कोई कड़वा सच नहीं है… बेहद ईमानदार सच है… परिवार में किसी एक की समस्या हर किसी की समस्या होती है, उसे शेयर करने में गलत क्या है? खास कर तब, जब उसकी वजह से हमारे रोजमर्रा के खाने-पहनने, घूमने फिरने में और खरीद-फरोख्त में भी, ज्यादा अंतर नहीं पड़ रहा है। यह कोई ज्यादा आइडियालिस्टक बात मैं नहीं कह रहा। सिर्फ अपने शौक और इच्छओं को थोड़ा नियंत्रित कर, घर वालों की जरूरतों के साथ एक संतुलन बनाये रखने की बात कर रहा हूं
-जैसे तुम ने बनाया है न कि जैसे ही डिपार्टमेंटल स्टोरों या मॉलों में किसी चीज पर हाथ रखती हूं तुम्हें अपनी बढ़ी हुई जिम्मेदारियां याद आ जाती हैं।‘
-‘वसु ने इंजीनियरिंग कॉलेज की फीस, डोनेशन, पापा के घुटनों का ट्रांसप्लांट या मां की प्लूरिसी क्या हमारी तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं बनती मेधा? तुमने कभी सोचा कि ऐन इग्जाम के समय मां की बीमारी और पापा के पैरों की वजह से वसु की पढ़ाई कितनी डिस्टर्ब हुई? मैं नहीं जा सका। सारी जिम्मेदारी उसी ने निभाई, बगैर किसी शिकायत के वरना उसका एडमीशन डोनेशन वाले कॉलेज में नहीं कराना पड़ता। मां ने बताया, अपने रिजल्ट वाले दिन बहुत रोई थी वसु।…
… मैं जानता हूं, हद की स्वाभिमानी है वह। हमेशा स्कॉलरशिप पाती आई है। तो उसे संभालना क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं बनती? यहां पैसों से ज्यादा अहमियत, हमारे महसूस करने की है मेधा। जो रिश्ता वसु का मां-पापा से है, वही मेरा भी तो उनसे है। जाना तो हमें चाहिये था उन लोगों के पास लेकिन मैं तो पहुंच भी नहीं पाया। वसु ने दोनों की खातिर अपना करिअर दांव पर लगा दिया।… और मैं उसके लिये इतना भी नहीं कर सकता? फिर तो किसी रिश्ते का कोई मतलब ही नहीं न! मैंने इन रिश्तों की खुशबू बचपन से महसूस की है… सच कहूं तो कभी-कभी यहां बहुत मिस भी करता हूं-‘
-‘और मेरा सच यह है वेणु! कि कुल जमा ग्यारह दिन, वीसा पासपोर्ट की भागदौड़ के बीच जो मैं ‘तुम्हारे घर‘ रही तो उसके नाम पर मैं तुम्हारे मां-बाप से ‘पेरेन्ट्स‘ वाला रिश्ता नहीं जोड़ सकती। हां ‘तुम्हारे पेरेन्ट्स‘ होने के हवाले से ‘जरूरी एटीकेट्स’ जरूर निभा सकती हूं।… और जो तुम ‘रिश्तों‘ की बात करते हो तो ये बताओ, मेरा भी तुमसे कोई रिश्ता बनता है या नहीं‘ वेणु?… अगर बनता है तो इस रिश्ते के लिये भी तुम्हारी कोई जिम्मेदारी या क्या फर्ज होता है या नहीं? मैंने ते तुम्हें अब तक सिर्फ उन्हीं लोगों के दुःख सुख के साथ जीते मरते देखा है। और चाहते हो कि जादू की छड़ी घुमा कर मुझसे भी उन लोगों के लिये वही नजदीकी और अहसास पैदा कर लो।… तो यह नहीं हो सकता वेणु? इमपॉसिबुल।‘
– पता नहीं मेरे पापा के पास वह जादू की छड़ी थी या नहीं मेधा… लेकिन मैंने अपनी मां को अपनी बुआओं, चाचाओं के सारे दुःख-सुखों में शामिल होते और उनकी समस्याओं के हल ढूढने के लिये परेशान होते देखा है बल्कि पापा से भी ज्यादा।… बचपन से अब तक, परिवार की, रिश्तों की गुत्थम गुत्थ की जो खट्टी मीठी यादें मेरे अंदर हैं। उन्हीं की रोशनी में तो रख कर देखूंगा… किसी की बड़ी से बड़ी या छोटी से छोटी हारी-बीमारी से लेकर मरने-जीने तक की मुसीबत किसी पर आई हो, एकजुट होकर उसे ठेलते, सबको साथ-साथ ही देखा है – पापा के परिवार से जुड़ी चीजें मैंने हमेशा मां को ही हैन्डल करते देखा है। पापा तो बस ऑफिस, खाने, नाश्ते भर के ही होते थे। इसलिये कहता हूं कि ‘मां-पापा या बहनों से जो भी रिश्ता है, वह सिर्फ मेरा अकेले का नहीं है, हम दोनों का है। मैं चाहता हूं हम दोनों उनकी समस्याएं शेयर करें, बल्कि मुझसे ज्यादा तुम।‘
-‘और मेरे मम्मी-पापा का? तो क्या मैं एक्सपेक्ट करूं कि’
-‘ईश्वर न करे, कभी उनको कोई प्रॉब्लम हुआ तो मैं सबसे पहले पहुंचूंगा। लेकिन एक बात तुम नहीं जानती, अगर मैंने पहुंच कर जरा भी अपनी तरफ से ज्यादा मुस्तैदी, फुर्ती दिखाई न तो तुम्हारे मिलिंद भाई को बिल्कुल पसंद नहीं आयेगा। बल्कि अंदर से नागवार ही गुजरेगा। मेरे ताऊ जी के दामाद शिवेन्द्र जीजा जी जब भी किसी आयोजन में ‘घर की तरह‘ पार्टीसिपेट करने की कोशिश करते हैं, रंजन भइया को बिल्कुल पसंद नहीं आता। वे चाहते हैं ये मेहमान की तरह ही आयें और जायें। उनके घरेलू मामलों में बिल्कुल दखलंदाजी न करें। ताऊ जी, ताई जी भी, यदि उनके ज्यादा क्लोज हुए तो रंजन भइया कटाक्ष करने से बाज नहीं आते।
– हुंह… मिलिंद भाई, मोना भाभी जी को खुद को फिक्र रहती नहीं… दूसरा कोई करेगा तो उन्हें क्या हक है रोकने का‘ –
– खैर वह सब छोड़ो। मुझे याद है, एक बार मां ने पापा के उखड़ जाने पर उन्हें समझाते हुए कहा था, नाते-रिश्तों के धागों को उलझते देर नहीं लगती – हर रिश्ते को बड़े यत्न से सहेजना पड़ता है… वरना जीवन भर नादानियों की रस्सा कशी चलाती रहती है – मैंने जिंदगी की इसी किताब का -’
– इस किताब के सत्तर प्रतिशत श्लोक तो मातृ वंदना से ही भरे होंगे। … इतना तो मैं बिना पढ़े भी बता सकती हूं। (अब तक के सुने के आधार पर…) खैर… लेकिन मैं तो अपने तुम्हारे रिश्ते की बात कर रही थी। इस रिश्ते वाली किताब शायद तुम्हारे सिलेबस में है ही नहीं।‘
– अब समझ में आया, अपने घर को प्यार और सम्मान देता हुआ मैं तुम्हें क्यों नहीं स्वीकार हो पाता। घोर प्रेज्यूडिस्ड, दकियानूस पत्नियों की तरह बात कर रही हो मेधा तुम, जो इसी शक में धुली जाती हैं कि अपने मां-बाप को चाहने और उनकी कद्र करने वाला आदमी अपनी पत्नी की कद्र नहीं करता, अपने कुटुंब के प्रति लगाव, व्यक्ति को उसकी पत्नी से दूर करता है। मां-बाप, भाई-बहन, पत्नी और बच्चों के रिश्तों के खाने एकदम अलग-अलग होते हैं। एक की कमी से दूसरे की भरपाई नहीं हो सकती। सबके अपने प्राप्य। कोई जुड़ाव एक दूसरे के रास्ते में बाधा नहीं बनता। हमारे तुम्हारे रिश्ते के बीच किसी तीसरे रिश्ते की दखलंदाजी का कोई सवाल ही नहीं।
हां तुम मां के नाम से इरीटेट होती हो न! (मुझे मालूम है) लेकिन जरा सोचो, उस घर से मां का नाम हट जाये या इस घर से तुम्हारा – तो कल्पना करो क्या बचा रह जाएगा?
-ठीक है, फिर मेरे रिश्ते वाली किताब तुम्हारे सिलेबस में कब तक लगेगी वेणु!-
-यह किताब तो हमें तुम्हें लिखनी है मेधा। इसी की प्रस्तावना का मजमून तो मैं तुम्हें बता रहा था। क्योंकि मैं तो सिर्फ जिल्दसाज हूं। इबारत तुम्हें ही लिखनी है। हमारा रिश्ता बहुत मूल्यवान है। मेरे और तुम्हारे दोनों के लिए। जीवन में अब तक के सारे रिश्तों, अनुभवों, अनुभूतियों से अलग है यह अहसास। लेकिन इस रिश्ते की सजावट के लिए मैं नीलम-पुखराज की कुंद्रनकारी नहीं करवा पाऊंगा मेधा। सामान्य घर का हूं तो अपने घर की नींव भी रोड़ी ईंटों पर ही खड़ी करना चाहूंगा। …. मां बताती है, दादी ने अपना घर बनवाते समय लखावरी ईंटों की नींव डलवाई थी। उनकी देखा-देखी मां ने भी। अब हमें भी ढुढ़वानी होगी मेधा अपने घर के लिए वैसी ईंटें‘….
प्यार, रिश्ते, परिवार और घर की इस चलती परिभाषा के बीच, मेधा कमरे में जाकर संजना को फोन कर आई थी।
और अब लौट कर उसकी भाव भंगिमा बता रही थी…
रूबी के पेंडेंट का ऑर्डर मैंने कैन्सिल कर दिया है।
लखावरी ईंटों का ऑर्डर तुम अपने हिसाब से देते रह सकते हो!….
(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास का एक अंश)
– सूर्यबाला