‘योगी बॉस’

– सूर्यबाला

चिल्ड, बियर की झाग भरी ग्लास के साथ, सामने काउच पर पालथी मारकर बैठा यह क्या बेटू ही है?

यानी पिछले ढाई महीनों में, बैठने-बोलने का ढंग तक बदल गया-

– ‘हां-हां, एकदम ऐसे ही पालथी मारकर, सॉरी ‘पद्मासन’ में बैठता है डैड! मेरी इस नयी कंपनी का ‘योगी बॉस…। बिलीव मी, मेरा इंटरव्यू लेते समय भी वह ठीक ऐसे ही बैठा था, पैंट-सूट के फॉरमल में नहीं, सैंफ्रन कुर्ते और जींस में… नहीं, यह मेरा दिया हुआ नाम है… उसका असली नाम तो जॉन मार्टिन है।-

-अब मेरी झुंझलाहट, साफ-साफ मेरी आवाज में उतर आती है- ‘एक डच कंपनी का मारकेर्टिंग डाइरेक्टर, पालथी मारकर गेरूए कुर्ते में (इंडियन लड़के का इंटरव्यू लेते हुए) इतनी बेतुकी गप्प सुनाने के लिए तुम्हें मैं और मम्मी ही मिले थे?

– ‘नो… ही इज़ राइट…’ सैंड्रा बड़ी समझदारी से अपनी नीली आंखें झपकाती है।

आश्वस्त हुआ बेटू अपनी रौ में बोलता जा रहा है- मैं खुद हैरान था उसके लिबास को लेकर, लेकिन बाद में पता चला वह तो बोर्ड-मीटिंग्स तक में सैफ्रन कुर्ता ही पहनता है। शुरू में लोगों ने आपत्ति जतायी तो उसने बड़ी शांति से ‘मैट्मा गांधी‘ की मिसाल दे दी थी कि वे राउंड टेबुल- कॉन्फरेंस तक में घुटनों तक ऊंची धोती ही पहनकर गए थे। अब मैट्मा गांधी के नाम से कौन सवाल उठाने की हिमाकत करता? तो सारी आपत्तियां दम के दम ठंडे बस्ते में चली गईं। और वैसे भी, यह कंपनी जॉन मार्टिन के किसी डिसीज़न पर उंगली नहीं उठा सकती क्योंकि एक तरह से उसी का दिया खा रही है। कहा यह जाता है कि पिछले ग्यारह महीनों की मंदी में, कंपनी का टर्न-ओवर, संभाल रखने की नब्बे प्रतिशत क्रेडिट उसी को जाती है। पिछले वर्ष की तुलना में ऑलमोस्ट सेम। वैसे भी कंपनी का स्टार-बॉस है वह….

गांधी, गेरूआ, गोलमेज… बियर की सिर्फ आधी खत्म हुई ग्लास बेटू को इस कदर खब्त भी कर सकती है क्या!…. जो मन आया बहके चला जा रहा है…. मैंने और मेधा ने एक दूसरे की ओर सवालिया निगाहों से देखा-

– ओह-हो अब भी नहीं मान रहे- मुझे सिनिक समझ रहे हैं ना आप लोग तो सैंड्रा से पूछ लीजिए-

सैंड्रा ने वापस आंखे झपकाई…. इया… मैं खुद नहीं बिलीव करती थी…. बट व्हाट ‘बिट्स’ (बेटू) सेज, इज, राइट… ही कैन टॉक इन हिंदी आलसो जबकि बिट्स गेट्स नर्वस….

– ‘अरे ये हिंदी बोलने की कहती है उसने तो जयपुर के हवामहल से लेकर ताजमहल तक की खाक् छान डाली है। फिर वाराणसी के अस्सी घाट पर एक कोठरी किराये पर लेकर पूरे सात महीने नियमित गंगा में डुबकी लगायी है…. अब तक के देखे सारे दृश्यों के ऊपर उसके लिए गंगा की आरती है… यानी आग और पानी की हारमनी की कल्पना… और-और सबसे बड़ी परेशानी, एम्बरैसमेंट तो मुझे तब होता है जब वह मुझसे ‘वुमन-इशु’ पर मनुसंहिता और महाभारत की द्रौपदी डिस्कस करने लगता है।

– ‘मनु संहिता?‘… मैं सातवें आसमान से चारो खास चित गिरा था- ये नाम तूने जाना कैसे?

– कर्ट्सी जॉन मर्टिन बनाम ‘योगी बॉस और कैसे….. एक दिन तो मैंने उसे हिचकते-हिचकते बता दिया कि सॉरी जॉन! अमेरिका में रहते-रहते मैं इन चीजों के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं रखता….

– ‘अरे….’ मेधा की घबराहट गले तक आ गई- ‘ऐसा नहीं करना था बेटू- सोचना था तुझे, इतनी मुश्किल से लगे जॉब पर कहीं बन आती तो… कि इंडियन होकर भी-

– बट, मां सुनो तो… ही एप्रीशियेटेड माय ऑनेस्टी…. बोला… दैट्स ओके… अपने अज्ञान को स्वीकार लेना, सबसे बड़ा ज्ञान है और तुम्हारे तो उपनिषदों में लिखा है – कुछ जाना तो यही जाना कि कुछ नहीं जाना….

क्याऽऽ! उसने उपनिषद् भी पढ़ रखे हैं?… मेधा आसमान से गिरी।

– और अष्टांग-योग की नियमित प्रैक्ट्सि करता है… तभी तो उसे सामने देखते ही मेरी सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती थी कि आज यह ‘अष्टांग-योग’, पद्मासन लगा कर मेरी कौन सी शामत बुलाने वाला है।… क्योंकि सॉफ्टवेयर और मार्केटिंग के सारे प्रॉब्लम्स डिस्कस हो जाने के बाद वह थोड़ी देर मेरे साथ ‘इंडिया’ जरूर डिस्कस करता है – जिसमें कभी एक फुलमून (पूर्णमासी) राखी के रक्षाबंधन पर, अस्सी घाट पर स्नान करके निकला तो दो दर्जन हंसती खिलखिलाती महिलाओं ने उसकी कलाई पर राखी बांध दी थी। कभी वह दशस्वमेध घाट पर सुनी बिसमिल्ला खान की शहनाई याद करता है और कभी सिर पर पूरी पांच मटकियों वाला कालबेलियां नृत्य।… यह सब वह हमेशा खुले में टहलते हुए डिस्कस करता है मुझसे।

कंपनी मैटर्स तो मैं आराम से सुनता हूं पर प्रॉब्लम तब होता है जब वह मुझ से ‘इंडियननेस’ डिस्कस करने लगता है।

…. फिर? फिर क्या?

 अपने सरवाइवल के लिए खातिर रास्ता तो निकालना ही था। तो लाइब्रेरी के इंडियन-सेक्शन से आसान माइथॉलोजी और ‘पंचतंत्रा’ उठा लाया… और अब ठाट से रट्टा मारता हूं। बट जैसा कि मार्टिन कहता है, क्वाइट ईंटरेस्टिंग डैड! और इन दिनों तो मुझसे ज्यादा सैंड्रा को मजा आ रहा है, उन किताबों में।

अरे एक बात तो बताना भूल ही गया था, जॉइन करने के दो हफ्ते बाद, अपनी टीम-मीटिंग के लंच में देखता क्या हूं कि बाकी सब तो छुरी कांटे से खा रहे हैं, सिर्फ वह अकेला हाथ से।

– जो भी हो, चल, तूने इम्प्रेस तो किया ही जॉन मार्टिन को।

– नो- नो ऐसा कुछ नहीं। दरअसल उसे इंडियन ही चाहिए था। मेरी जगह कोई दूसरा इंडियन इंटरव्यू के लिए आया होता तो शायद उसे ही सलेक्ट कर लेता।

– हो सकता है, अपने इंडिया प्रवास के दौरान कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आया हो जिन्होंने अपने रहन-सहन, बातचीत से उसे कुछ अच्छा महसूस कराया हो।

– बिलकुल – अरे एकदम अजूबा है पा! स्ट्रेंज। एक तरफ पुरानी इंडियन फिलॉसफी के ‘आ नो भद्रा…’ और ‘संतोषं परंम सुखम….’ कोट करता रहता है तो दूसरी तरफ, इंडियन-वे ऑफ ‘मगिंग’, इंडियन वे ऑफ लर्निंग से लेकर लिविंग तक विश्लेषित करते हुए कहता है- ‘नॉऊ इज द टाइम’ जब ‘वेस्ट’ को ईस्ट से जूझकर काम करना सीखना होगा। सारा का सारा अच्छा, और इफीशियेंट वर्क फोर्स हमें इंडिया से ही तो मिलता है। धुन कर काम करते हैं, इंडियन्स। देख लो, इलेक्ट्रॉनिक से लेकर हेल्थ, हाइजीन, इंश्योरेंस और बैंकिंग तक, दुनिया की पांच सौ बड़ी कंपनियों में टॉप अमेरिकनों के बाद इंडियन्स का ही बोलबाला हैं। एक तरह से इंडिया का सबसे बड़ा क्वालिटी एक्सपोर्ट इंडियन टैलेंट्स ही हैं। तभी तो प्रेसीडेंट ओबामा जैसों को ललकारना पड़ता है अमेरिकन युवाओं को कि अपने प्रतिस्पर्द्धी (इंडियन्स) से स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा के लिए तैयार रहना है उन्हें’। टाइम्स मैग्जीन ने ठीक लिखा है कि- ‘इस कांटीनेंट (इंडिया) को ’ ग्लोबल बॉसेस तैयार करने का ट्रेनिंग-सेंटर कहा जा सकता है। यानी प्रतिभाओं का कारखाना… सिर्फ लोगों को चलाना नहीं आता… हा…. हा….।

और तो और मार्टिन योगी के हिसाब से बचपन में ही बच्चों से रट्टा मरवाने वाली इंडियन टेकनीक, यूं ही मखौल में उड़ा देने वाली चीज़ नहीं है। वाराणसी के मारवाड़ियों के गादी वालों ने उसे बताया था कि हमारी पिछली पीढ़ियां सिर्फ दो-चार के टेबुल्स (पहाड़े) नहीं, अद्धा, पौना तक रट्टा मार कर बड़ी होती थीं। नतीजा, कैलकुलेटर से ज्यादा तेज़ दिमाग चलता था उनका। आज की तरह नहीं कि फोर, थ्री, नाइन, भी जोड़ना हुआ तो कैलकुलेटर तलाशने लगे। पांच मिनट भी नहीं मिला तो चेहरे पर हवाई उड़ने लगती है। और सबसे बढ़ कर, बचपन की रटी रटाई चीजें कभी भूलती नहीं बल्कि धीरे-धीरे जीवन में उतरती चली जाती हैं। पहाड़ों से परंपराओं तक।

– अचानक बेट कुछ लम्हों को रूका। फिर थोड़े नाटकीय अंदाज में अपने को तैयार करता हुआ सा बोला-

– और सुनिए मॉम-पॉ! मार्टिन की बातों का मतलब साफ हुआ, इस हफ्ते की शुरूआत में। बाकायदे अपने केबिन में बुला कर उसने मुझे बताया कि यह कंपनी, अपने एफ.एम.सी.जी. (फास्ट मूविंग कंज्यूमर गुड्स) का ब्रांच ऑफिस खोलने के लिये सबसे प्रॉमिसिंग कंट्री इंडिया को पा रही है और शुरूआती स्पीड-वर्क के साथ पूरा प्लान वर्क आउट करने के लिए जो टीम वहां भेजी जा रही है, उसके रिप्रेजेंटेटिव के रूप में मर्टिन की पहली चॉयस मैं हूं। क्या समझे!

मैं और मेधा खुले मुंह, विस्फरित आंखों से बौड़म की तरह बेटू की तरफ देखे जा रहे थे और बेटू अपनी रौ में चालू था –

असल में अमेरिकन लड़के अव्वल तो जाएंगे नहीं, उनकी बीवियां और गर्लफ्रेंड हर्गिज तैयार नहीं होगीं। कोई देश घूमना अलग बात है, वहां रहकर काम करना अलग।

लेकिन अगर संभव हो भी, तो भी मार्टिन के अनुसार किसी देश के साथ व्यापारिक संबंध बनाने से पहले, उसकी वर्ककल्चर, सोचने और काम करने के ढंग, लोगों के चरित्र की पूरी समझ और जानकारी जरूरी है। इसे समझे बिना हम उनकी ऊर्जा और योग्यता का सही और सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल नहीं कर पायेंगे।…. और यह काम कोई इंडियन ही कर सकता है।

‘क्याऽऽ! तू और इंडियन?’ मेरे होठ व्यंग्य से तिरछे हो आए- ‘मार्टिन ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए तुम्हारे जैसे इंडियन को ही छांटा?’ मन को एक बचकाने ओछेपन में मजा आ रहा था कि देख लें, तू लाख प्रचारित करता रहा अपने आप को अमेरिकन लेकिन मार्टिन जैसों की नजर में तू ठहरा इंडियन ही।

– बेटू शांत रहा बिलकुल ठीक कहते हैं आप, मैंने खुद मार्टिन से यही कहा ‘आप मुझे लेकर किसी (इंडियन के) भ्रम में मत पड़िए। कोई चांस भी मत लीजिए। अच्छा हो, एक सच का इंडियन तलाशिए- इस महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट के लिए। क्योंकि मैं तो, गलत या सही, अपने आपको अमेरिकन ही मानता रहा हूं। सच में क्या हूं, नहीं जानता। मार्टिन हंसा, डच है न, खुला, साफ बोलता है – यह स्वीकारोक्ति भी तुम्हारे ब्लड में प्रवाहित ‘हिंदुस्तानियत की पुष्टि करती है। और सबसे बड़ा प्लस पॉईंट, इंडिया जाने के लिए सैंड्रा तुम से ज्यादा उतावली है। तुम उसे फोर्स नहीं कर रहे हो। तो तुम रिलैक्स होकर काम कर सकोगे। …. मुझे मालुम है, अपनी पिछली कंपनी के प्रोजेक्ट में तुमने बहुत मेहनत की थी। इसलिए मुझे तुम पर विश्वास है और तुम्हारे लिए भी यही कहूंगा, यू शुड नॉट मिस दिस ऑपरचुनिटी….।

कन्दीलें

अभी-अभी बेटू और सैंड्रा की कार मेरे घर के ड्राइव-वे से निकल गई है।

मैंने और मेधा ने लिविंग रूम में टीवी का रिमोट ऑन कर दिया है। सामने ‘सारेगामा’ के भजन राउंड में एक लड़की गा रही है – ं

सिर धरे मटुकिया डोले रे

कोई श्याम मनोहर ले-ले

बहुत सुरीला कंठ है उसका।

कैसा संयोग… बीस साल पहले अंधेरी रात को चीरता जब इंडिया में मेरा हवाई जहाज उड़ा था तो भी मां के ट्रॉजिस्टर में धन्नू लाल मिश्र, राग भैरवी का यही भजन गा रहे थे।…

तो अब! और क्या कहूं मां मैं! सिवा इसके कि पिछले आंगन के अमरूद और सीताफल के पेड़ों के चारों तरफ थाले बंधवा कर, अच्छे से खाद पानी देना शुरू कर दो… शायद बेटू और सैंड्रा-बहू के पहुंचने तक उनमें फल आ जायें।…. यहां सैंड्रा ने अपने फ्लैट की खिड़की पर गमलों में लाल स्टॉबरीज लगाई थी।

नहीं, मैं कोई गलतफहमी नहीं पाल रहा। तुम भी मत पालना कि बेटू, सैंड्रा वहां रहने, बसने जा रहे हैं या वे पलक झपकते बदल कर इंडिया को पसंद करने लगे हैं। मुझे तो सिर्फ एक धुंधुले अहसास का आभास भर हो रहा है…. जैसे बर्फ बारी से ढंके मुंदे रास्तों की बर्फ थोड़ी ही सही पिघली हो और उस पर रोशनी की नर्म किरणें पड़ रही हों। …. बस इतना काफी है।

तो यह खुशी मैं तुमसे बांट रहा हूं मां! बहुत छोटी ही सही… पर इस खुशी में मैं और मेधा बराबर से शरीक हैं।

तुम्हीं ने तो सिखाया है, किसी एक पल का भी साथ, किसी एक पल की भी खुशी, नगण्य नहीं हुआ करती। कभी-कभी तो ये उम्र भर उजाला किये रहती है। हमारे मन की दुनियां आलोकित रहती है, इन कंदीलों से।

तो बस इतना काफी है। बाकी न कोई उम्मीद न तैयारी, न कोशिश ही करनी है उन्हें बांधे रखने या लुभाने, बहलाने की भी।

इस पूरे विश्व में हम कहीं रहें, किसी जाति, धर्म, वर्ण के नाम से…. क्या फर्क पड़ता है, सिवा इसके कि हम कितने मनुष्य बने रह पाये हैं!…

(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास का एक अंश)

-सूर्यबाला

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