चायवाला
रोहित कुमार हैप्पी
गंगाधरन पहली बार भारत आया था। वैसे तो वह फीजी से था लेकिन अब कई वर्षों से न्यूज़ीलैंड में आ बसा था। यहाँ के बड़े उद्यमियों में उसका नाम था। भारतीय मूल का होने के कारण उसकी भारत में काफी दिलचस्पी थी। वह भारत के बारे में और अधिक जानने के इरादे से ही इस बार छुट्टियों में भारत आया था और देहली के एक पांच सितारा होटल में ठहरा था।
पांच सितारा होटल में हर बार आते-जाते वक्त दरबान उसे जोर से सल्यूट लगा कर “गुड मार्निंग सर / गुड इवनिंग सर” करता था और गंगाधरन पाश्चात्य तौर-तरीक़ों के मुताबिक दरबान को ‘टिप्प’ दे देता था। किसी रेस्तोरां में जाता तो वहां भी खाने के बाद वेटर को ‘टिप्प’ देना नहीं भूलता था। कहीं भी शोपिंग करता तो थोड़े बहुत बकाया की परवाह किए बिना ही उन्हें ‘कीप दा चेंज’ कहकर आगे बढ़ जाता।
देहली के पर्यटन-स्थल देखने के लिए उसकी गाड़ी ‘बुक’ थी, साथ में एक गाइड भी ले लिया था। देहली में अपरिचितों को बहुत मुश्किलें आती हैं, ऐसा उसके कई परिचित बता चुके थे।
ठीक सुबह नौ बजे गाइड होटल में उसका इंतज़ार कर रहा था। गंगाधरन भी समय का पाबंद था, पूरे नौ बजे नीचे उतरा तो रिसेप्शन के काउंटर पर उसे देखते ही पास खड़े गाइड को अटेंडेंट ने उसका परिचय दिया, “यह आपका गाइड सुनील है।“
“हैलो सर।“
“नमस्कार!” गंगाधरन ने सुनील से हाथ मिलाते हुए जवाब दिया, “चलें।“
“जी बिलकुल!” बाहर गाड़ी तैयार खड़ी थी।
“गुड मार्निंग सर।” ड्राईवर ने अभिवादन किया।
“नमस्ते-नमस्ते।” गंगाधरन ने पिछली सीट पर बैठते हुए उत्तर दिया।
दोनों के गाड़ी में बैठते ही ड्राईवर ने कार स्टार्ट करते हुए गाइड से पूछा, ‘किधर जाइएगा?’
“आज सर को चादनी चौंक, लाल किला, गालिब की हवेली और कुतुबमीनार दिखाते हैं।”
लाल किला, गालिब की हवेली और चादनी चौंक देखते-देखते ही शाम हो गई। शाम को चाँदनी चौंक की पराठोंवाली गली में भोजन का आनंद लिया। दुकानवाले ने उन्हें बताया कि पहली परांठे वाली दुकान पंडित गया प्रसाद परांठावाला ने 1872 में शुरु की थी। समय के साथ-साथ 1960 आते-आते यहाँ लगभग दो दर्जन दुकाने हो गई लेकिन सभी एक ही परिवार से थे। अब कुछ अन्य लोगों ने भी यहाँ परांठा की दुकानें खोल ली हैं। इन दुकानों में भारत के अनेक प्रधानमंत्रियों से लेकर बड़े-बड़े नेता-अभिनेता पराँठे खा चुके हैं। कई दुकानों में उनकी तस्वीरें लगी हैं।
“मज़ा आ गया। इतनी तरह के पराठें मैंने अपने जीवन में न कभी देखे, न सुने। धन्यवाद, सुनील।’ गंगाधरन आनंदित था।
“जी सर, थैंक यू।”
“अब होटल चलें? लाल किला कल देख लेंगे।” गंगाधरन आराम करना चाहते थे।
“जी, रास्ते में इंडिया गेट आता है, आप कहें तो वहाँ भी हो लें?”
“अच्छा, ठीक है।“ गंगाधरन ने मुसकुराते हुए हामी भर दी।
इंडिया गेट में लगभग एक घंटा घूमने के बाद गंगाधरन होटल लौट आए। गंगाधरन पैदल इतना घूमने के आदी न थे। कुछ थकान महसूस हो रही थी तो बस सीधे सो गए।
(2)
अगले दो-तीन दिन देहली में घूमना-फिरना चलता रहा। गाइड ने कुतुबमीनार, अक्षरधाम मंदिर, जंतर-मंतर, हुमायूँ का मकबरा, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, राजघाट सब दिखा दिए और उनका संक्षिप्त इतिहास व अन्य जानकारियाँ भी दी।
लोटस टेंपल देखकर तो गंगाधरन हैरान हो गए। ‘अरे! यह तो हूबहू ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में स्थित ‘ओपरा हाउस’ जैसा है!’ यूं तो गंगाधरन की इतिहास में अधिक रुचि नहीं, अभी तक गाइड उन्हें जो भी जानकारी देता रहा गंगाधरन बस ‘हूँ-हाँ’ करते रहे, एक भी सवाल नहीं किया। …लेकिन लोटस टेंपल देखकर वे अचानक इसके इतिहास में ख़ासी रुचि लेने लगे, “यह किस सन में बनाया गया था?”
“यह 1986 में बनकर तैयार हुआ था और इसपर 10 मिलियन डालर ख़र्च हुए थे।” गाइड ने जानकारी दी।
“अच्छा।” गंगाधरन के मन में बड़ा कौतूहल उठ रहा था कि कौनसी इमारत पहले बनी— इंडिया का लोटस टेंपल या ऑस्ट्रेलिया का ओपरा हाउस!” गंगाधरन अपने मोबाइल पर गूगल करने लगे।
गंगाधरन ने गाइड को मोबाइल पर ओपरा हाउस दिखाते हुए कहा, “यह देखिए, ऑस्ट्रेलिया का ओपरा हाउस! डिजाइन तो बिलकुल एक जैसा ही है।“
“कमाल है!” गाइड भौचक्का था।
“आपको इसका पहले नहीं पता था?” गंगाधरन ने गाइड सुनील को पूछा।
“नहीं सर। मुझे इसका ज्ञान नहीं था।“
“यह 1973 में बना था।”
गाइड भी तस्वीर देखकर हैरान हो गया था तो क्या लोटस टेंपल ऑस्ट्रेलिया के ओपरा हाउस से प्रभावित होकर डिजाइन किया गया है?
कुछ देर दोनों इधर-उधर की बातचीत करते रहे।
“पास ही इस्कॉन टेंपल भी है। देखना चाहेंगे?“
“इस्कॉन टेंपल तो मैंने बहुत देखें हुए हैं, हमारे यहाँ भी हैं लेकिन पास है तो चलते हैं।“
कुछ देर टेंपल में बिताकर होटल को जाने लगे तो गाइड ने एकबार फिर पूछा, “आपको मीठा खाना पसंद है?”
“कुछ खास है क्या?”
“हाँ सर, जामा मस्जिद के पास आपको ‘शाही टुकड़ा’ खिलाते हैं।“
“शाही टुकड़ा!”
“जी, शाही टुकड़ा एक मुगलई मिठाई है जो घी में तली हुई ब्रेड, काढ़े हुए दूध, केसर और मेवों से बनाई जाती है। शाही टुकड़ा एक प्रकार की ब्रेड पुडिंग है यह 1600 ई॰ में मुगल साम्राज्य के दौरान प्रचलित हुई थी। यह व्यंजन भारतीय रसोइयों ने शाही मुगल दरबारों में पेश करने के लिए बनाया था।” गाइड ने गंगाधरन को जानकारी दी।
“अरे वाह! फिर तो खाना ही पड़ेगा।”
“लेकिन थोड़ा पैदल चलना पड़ेगा क्योंकि वहाँ कार नहीं जा पाएगी। गलियां बड़ी तंग हैं।“
“कोई बात नहीं, चल लेंगे। इतनी खास मिठाई तो खानी बनती ही है।“
कार बाहर सड़क पर पार्क करके वे तंग गलियों के भीतर चल दिए। इतनी भीड़ कि एक दूसरे से सटकर ही चला जा सकता था।
“सर, आपके पास मेरा नंबर है न? कहीं इधर-उधर हो जाएँ तो मुझे काल कर लीजिएगा।”
“हाँ, ठीक है।“
इन गलियों का नज़ारा ही अलग था। कहीं कुछ मिल रहा था तो कहीं कुछ। दुकानवाले ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा रहे थे।
एक दुकान पर कुछ अजीब सा था। यह शायद कोई ढाबा था लेकिन यूं कतार में लोग क्यों बैठे हुए थे? दुकानवाला कुछ लोगों को लगातार खाना परोसता फिर रूक जाता और थोड़ी देर में फिर खाना परोसने लगता और फिर रूक जाता। यही क्रम जारी था। खाना पाने वाले आम ग्राहक न होकर कुछ दीन-हीन से दिखाई पड़ते थे और वे पंक्ति में बैठे अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे थे।
“सुनील, यह क्या है?”
“सर, ये गरीब लोगों को खाना परोसा जा रहा है लेकिन यह लंगर नहीं है। इसका कायदा कुछ अलग हटकर है।“
“मतलब?”
“सर, क्या है कि यहाँ आप जैसे कुछ दानी लोग आकर इस दुकानदार को पैसे देते हैं और दुकानदार उतने पैसे का खाना परोसता जाता है। वह राशि ख़त्म होने पर तब तक रूका रहता है, जब तक कि कोई दूसरा आकर पैसे न दे दे। फिर वह दुबारा परोसने लगता है।” गाइड ने बताया।
“ओह, अब समझा।” गंगाधर चलने को हुए तो एक बार फिर पंक्ति में बैठे लोगों की ओर देखा और वहीं बाहर कुर्सियों पर बैठे कुछ लोगों की ओर भी देखा। ये लोग एक गोल मेज़ के इर्द-गिर्द कुर्सियाँ बिछाएँ शायद पार्टी कर रहे थे। देखने में सब सम्पन्न लग रहे थे। कुर्सियों पर बैठे लोगों के मध्य में बैठा एक निहायत मोटा व्यक्ति शायद इस ढाबे का मालिक था। पंक्ति में बैठे कई जर्जर काया वाले दीन-हीन व्यक्तियों से गंगाधरन की आँखें मिली तो उसका हाथ सीधा अपनी जेब में गया। उसने पाँच-पाँच सौ के दस नौट निकालकर सुनील को देते हुए कहा, “सुनील भाई, ये इन्हें दे दो।“
“सर आप साथ आइए न। आप खुद अपने हाथों से दीजिए, मैं साथ चलता हूँ।“
गंगाधरन ने पाँच हजार मालिक के हाथ में दिए तो उसने गद्दी पर बैठे व्यक्ति को कहा, “पचास और चलने दो यानी पचास लोगों को और खिला दो।”
थोडी देर मालिक से बातचीत करने के बाद गंगाधरन ने विदा ली। गाइड सुनील और गंगाधरन ने तो मिठाई भी खा ली और एक जगह लज़ीज़ भोजन भी कर लिया। गंगाधरन ड्राईवर के लिए भोजन और मिठाई पैक करवाना भी नहीं भूले।
गंगाधरन को बार-बार पंक्ति में बैठ उन्हीं लोगों का ध्यान आ रहा था जो पंक्ति में बैठ-बैठे आगे खिसकते जाते थे और खाना पाकर दुआएं देते आगे निकल जाते थे।
‘ढाबे का वह मोटा मालिक यदि कुछ कम खाए तो शायद 5-7 व्यक्तियों को तो भोजन खिला ही सकता है।’ कार तक पहुँचते-पहुँचते गंगाधर को बार-बार ऐसे ही ख्याल आते रहे।
“आ गए सर?” कार सीट पर सुस्ताते ड्राईवर ने फटाफट उठते हुए पूछा।
“यह खाना व मिठाई आपके लिए।“ गंगाधर ने हाथ में पकड़े पैकेट ड्राईवर को देने चाहे।
“धन्यवाद सर, लेकिन मैं बाहर का कुछ नहीं खाता।“
“अरे!”
“सारी सर।” ड्राईवर को मना करते हुए थोड़ी हिचकिचाहट हुई लेकिन उसके भी शायद कुछ सिद्धांत थे या कोई और कारण रहा होगा!
होटल आ पहुंचे। गंगाधरन उस ‘टेकअवे’ पैक को साथ लेकर कार से उतरे।
“सुनील जी, कल मुझे कुछ छोटे-मोटे काम करने हैं तो कल आप मत आना केवल कार भेज देना। हम फिर परसों मिलते हैं।”
“जी, ठीक है।“
“गुड नाइट सर।“ गाइड और ड्राईवर ने एक साथ कहा तो गंगाधरन ने भी ‘गुड नाइट’ कहकर हाथ हिला दिया।
वहीं गेट के पास एक मांगने वाले को देख गंगाधरन ने हाथ में थामा खाना उस व्यक्ति को पकड़ा दिया।
“आपका भला हो। ईश्वर आपको लंबी उम्र दे।”
होटल पर खड़े दरबान ने सैल्यूट मारते हुए दरवाजा खोल दिया। गंगाधरन लिफ्ट लेकर अपने कमरे की ओर बढ़ गए।
(3)
सुबह अपने होटल की तीसरी मंजिल के अपने कमरे से बाहर झांका तो शानदार होटल के लॉन, स्विमिंग पुल इत्यादि के बाद उनकी नजर ठीक सामने वाली झोपड़पट्टी पर अटक गई।
‘यह बस्ती यहाँ नहीं होनी चाहिए, इससे ‘व्यू’ का मजा किरकरा हो जाता है।’ जब भी उसकी नज़र झोपड़-पट्टी पर पड़ती तो वह यही सोचता।
गंगाधरन अपनी छुट्टियों का पूरा मजा ले रहे थे। एक से एक बढ़िया रेस्टोरैंट में खाना खा रहे थे। पंडारा रोड मार्किट के रेस्तोरां गंगाधरन के प्रिय हो गए थे।
तैयार होकर गंगाधरन नीचे उतरे, बाहर ड्राईवर उनका इंतज़ार कर रहा था।
“गुड मार्निंग सर।”
“नमस्कार।” कार की पिछली सीट पर बैठते हुए गंगाधरन ने जवाब दिया।
“कहाँ चलें, सर।”
“मुझे आज फरीदाबाद जाना है।”
“ठीक है, सर।”
“मैंने आपका नाम नहीं पूछा।“
“जी, मेरा नाम परीक्षित चौबे है।“
“बहुत अच्छा, चौबे जी।”
वे देहली से फरीदाबाद को रवाना हो गए। आज जाने क्यों उसके दिल में आया कि कार रूकवाकर सड़क के किनारे के एक खोखे पर चाय पी जाये ‘यहाँ रोक लो तो चाय पी लें।’ उसने सड़क के किनारे वाले एक खोखे की ओर संकेत करते हुए ड्राइवर से कहा।
‘सर यहाँ?’ ड्राइवर ने आश्चर्य प्रकट किया।
‘हाँ यहीं।’
कार रूक गई। ‘दो चाय।’
‘नहीं, सरजी! आप लीजिए, मैं घर से पीकर आया हूँ।’
“साब के लिए एक अच्छी-सी चाय बनाओं, भाई।” कहकर ड्राइवर कार में जा बैठा।
ड्राइवर को शायद ऐसी जगह चाय पीने में थोड़ी हिचकिचाहट महसूस हो रही थी। वो कोई आम ड्राइवर तो था नहीं। वो ठहरा इंडिया टूर वालों का ड्राइवर। वो ‘मिनिरल वाटर’ पीने वाले विदेशियों को भारत घुमाया करता था और उनके साथ अच्छी जगहों पर चाय-पानी पीने का शौक रखता था। कल भी उसने इसलिए जामा मस्जिद की गलियों का खाना बहाना बनाकर नहीं लिया था।
चाय पीने के बाद गंगाधरन ने सौ का नोट दीन-हीन से दिखाई देने वाले उस खोखे वाले को थमा दिया। खोखेवाला जब तक बाकी पैसे लेकर आता उससे पहले ही वो, ‘कीप दा चेंज’ कहते हुए आगे बढ़ गया।
‘साब आपकी चेंज’ खोखे वाला लगभग उसके पीछे भागता हुआ जोर से उसे आवाज लगा रहा था।
उसने पीछे मुड़े बिना, अपना हाथ इस अंदाज में हिलाया कि इसे रख लो।
खोखे वाला भागता हुआ अचानक उसके आगे आ खड़ा हुआ, ‘सर आपकी चेंज।’
‘तुम रख लो।’
खोखे वाले ने बढ़कर उसके हाथ में बकाया रेज़गारी थमाते हुए कहा, “बेटा हम मेहनत करके पैसा कमाते हैं। यूँ रेज़गारी रखकर अपने को शर्मिंदा नहीं करते। रेज़गारी लेनी होती तो सड़क पर बैठ भीख मांग रहे होते, चाय न बनाते यहाँ!” …और चायवाला उसके हाथ में रेज़गारी tथमा, उसकी मुट्ठी बंद करके चला गया।
‘गो टू होटल’ उसने ड्राईवर से कहा और हक्का-बक्का अपनी कार में ‘धम्म’ से बैठ गया।
होटल आ गया था। दरबान ने गर्म जोशी से सलाम ठोका और ‘टिप्प’ पाने की अपेक्षा से उसकी ओर देखा। गंगाधरन को दरबान जैसे नज़र ही नहीं आया वह अब भी उस चायवाले के बारे में सोच रहा था।
(4)
अभी गंगाधरन को मथुरा-वृन्दावन और आगरा भी जाना है। उसे उस सबका प्लैन करना है लेकिन गंगाधरन असमंजस में था। होटल में सूटबूट वाले सम्पन्न दिखाई देने वाले लोग पाने की अपेक्षा रखते थे और फटीचर से दिखने वाले सड़क के किनारे छोटी सी दुकान चलाने वाले ‘टिप्प’ तक नहीं लेना चाहते। वे अपनी मेहनत, हालत और हालातों से संतुष्ट थे।
उसके मन में अनेक सवाल हिलोरे ले रहे थे। मन-मस्तिष्क पर वह चायवाला छाया हुआ था, “बेटा हम मेहनत करके पैसा कमाते हैं। यूँ रेज़गारी रखकर अपने को शर्मिंदा नहीं करते। रेज़गारी लेनी होती तो सड़क पर बैठ भीख मांग रहे होते, चाय न बनाते यहाँ!” उसका वही संवाद रह-रहकर मन में उठता।
होटल के कमरे से एक बार फिर बाहर झांका तो लॉन, स्विमिंग पुल इत्यादि के बाद वही झोपड़पट्टी दिखाई दी लेकिन आज ‘व्यू’ का मजा किरकरा न होकर सहज था।
उसके भीतर कहीं गहरे में कुछ बदल गया था। पहले वह शायद नज़रों से देखता था, अब उसे दृष्टि मिल चुकी थी।
उसे वही चायवाला फिर याद हो आया। उसके होठों पर मुस्कान फैल गई।
*****
