रद्दी के टुकड़े

-अनु बाफना

‘पर ये अचानक ..क्या हुआ है तुमको केशवी ..?”

‘व्हाई आर यू बीइंग सो मैलोड्रामैटिक ?”- ओफ्फो…जस्ट कांट बेयर योर मूड स्विंग्स यार !-‘

इट्स जस्ट ए पीस ऑफ़ ट्रैश -रद्दी का टुकड़ा ही तो है …!- अश्विन की आवाज़ में अब क्रोध झलकने लगा था ।

‘हाँ मैं और मुझसे जुडी हर चीज़ तुम्हारे लिए पीस ऑफ़ ट्रैश ही तो रहा है, पच्चीस साल पहले जब शादी हो कर आयी थी तब मेरी डिग्रीज के फोल्डर को भी तो तुम लोगों ने रद्दी कह कर मज़ाक ही उड़ाया था !”

“आई वास् शॉकड टू सी यू लाफिंग विथ एवरीवन अश्विन…! मुझे लगा था कि शायद तुम तो  मेरा मान रखोगे पर डे वन से ही तुमने तो मानो मुझे मेरी औकात ही दिखा दी थी । तब मेरी मास्टर्स की डिग्री रद्दी का टुकड़ा थी आज मेरे वर्कशॉप का लेटर पीस ऑफ़ ट्रैश है ।’-केशवी बड़े ही सरकास्टिक अंदाज़ में मुस्कुराती हुई बोली। केशवी में यह कला थी कि कितनी ही परेशान करने वाली बात हो वो सदा मुस्कुरा कर ही बात करती थी …कटाक्ष भी बड़ा शालीन होता था।

अश्विन व केशवी की शादी को पच्चीस साल हो गए थे। बेटा व बेटी अपनी-अपनी ज़िन्दगियों में व्यस्त। २४ साल का  बेटा कनाडा में जॉब कर रहा था व २२ साल की बेटी न्यू यॉर्क में मास्टर्स कर रही थी। दोनों ही बच्चे केशवी को ज़्यादा कुछ समझते नहीं थे क्योंकि अश्विन और उसके माँ बाप ने केशवी को सदा दबा कर ही रखा। बच्चों ने शुरू से केशवी को घर में नौकरों के साथ बस ड्यूटी बजाते देखा था और पिता व  बाकी परिवारजनों की तरह धीरे-धीरे वे दोनों भी उस पर रौब झाड़ने लगे। यहां केशवी की बहुत बड़ी गलती रही कि उसने कभी किसी को भी पलट कर न जवाब दिया न ही अपने आत्मसम्मान की रक्षा की। पता नहीं कौन से मजबूरी के कुंए में गोते खा रही थी …किस बात का इतना डर था ? कोई देहाती दब्बू अनपढ़ तो नहीं थी – शहर में पढ़ी लिखी, अच्छी खासी मास्टर्स की डिग्री थी मगर शायद स्वभाव से बहुत ही अंतर्मुखी व डरपोक होने के कारण अपमान के घूँट पी कर चुप रह जाती थी। यों तो कहने को केशवी करोड़ों कमाने वाले अश्विन की खूबसूरत बीवी थी पर अश्विन ने कभी उसे वो बीवी वाला मान सम्मान दिया ही नहीं था।

अश्विन के बराबर पढ़ी- लिखी होने के बावजूद केशवी ने चुपचाप गृहस्थी ख़ुशी-ख़ुशी संभाली।

घर में दो नौकर हमेशा रहते थे और केशवी सदा उस घर की मैनेजर ही बनी रही।  बड़े मन से, सच्ची निष्ठा से वह सबका ध्यान रखती, सास- ससुर, ननद-देवर सबकी पसंद का पूरा जिम्मा संभाल लिया था उसने, उसे बस एक ही बात चुभती थी कि बाकी लोगों के साथ उसका पति भी कभी उसे रेस्पेक्ट नहीं करता था। यों तो पैसे रुपये की कोई कमी नहीं थी, सारे ऐशो आराम थे, पर इज़्ज़त धेले की भी नहीं थी।

बच्चे तो माँ से सिर्फ खाने में क्या बन रहा है से ज़्यादा कुछ और पूछते नहीं थे। केशवी सदा मुस्कुराती हर एक का ध्यान रखती।

पर थी तो आखिर वह भी इंसान ही। अश्विन कई बार अपने साथियों के सामने भी ऊट-पटांग सा मज़ाक कर बैठता और केशवी उसे भी मज़ाक स्वरुप मान कर साथ ही खुद पर हंस पड़ती… ताकि उसकी तल्खी बाहर वालों के सामने नहीं नज़र आये..अपनी जांघ उघाड़ने से होता क्या ?

अश्विन और उसके घरवाले शुरू से ही उसे हेय महसूस करवाते क्योंकि केशवी साधारण घर से थी, पर अश्विन यह भूल गया था कि केशवी की सुंदरता पर लट्टू हो कर पसंद तो उसने ही किया था।  उसे सदा यही लगता की केशवी को क्या तो आता होगा.. हाउसवाइफ बनी रहे बस बढ़िया है.. घर की सार-संभाल, माँ-बाप की देखभाल, बच्चों का पालन-पोषण सही से कर रही है, और क्या चाहिए?

केशवी ने कई बार काम करने की बात की पर किसी ने सपोर्ट नहीं किया। उसकी शादी के बाद से सास ने बीमार होने का ढोंग रच लिया, बाकी दुनिया जहां में घूम फिर सब जगह आती थी पर ज़िम्मेदारियाँ फूल सी २१ साल की केशवी पर थी। जब तक केशवी सब के सही रंग समझ पाती,  साल भर के अंदर ही बेटा उसकी गोद में आ गया था और डेढ़ साल बाद ही बेटी हो गयी थी ।

फिर तो गृहस्थी में सीधी-सादी केशवी ऐसी उलझी कि बस पूछो ही मत। केशवी अपनी बाकी सहेलियों या परिचतों की तरह शॉपिंग या किटी-पार्टी की शौक़ीन नहीं थी, वह कलात्मक चीज़ें करना पसंद करती थी और समाज सेवा भी। उम्र के साथ-साथ केशवी की सोच भी परिपक्व होने लगी,  पहले की  भांति चुप रहते हुए भी अब एक-एक बात केशवी को अंदर तक कचोटती …हर छोटी छोटी प्रताड़ना, बेमतलब के ताने-उलाहने रोष दिलाते। वह अपना ध्यान मैडिटेशन में लगाती और स्वयं को तनाव से मुक्त रखने के पूरे प्रयत्न करती और खुश रहती। आमतौर पर जहां स्त्रियां शाम को बड़ा थका सा या डिप्रेस्ड महसूस करती हैं या अकेलेपन का एहसास करती हैं वहीँ केशवी को शामें बेहद पसंद थीं। वह हर शाम बढ़िया से फ्रेश होकर तैयार होती, खुद के लिए क्योंकि इतने वर्षों ने इतना तो सीखा ही दिया था कि भरे- पूरे परिवार में अपना कहना को तो कोई भी नहीं है। उसे हर शाम में एक नयी सुबह की उम्मीद दिखती और एक अलग सी चहक उसे तरोताज़ा कर जाती।

अपने-आप में खुद को बहुत खुश रखती थी, अंदर भले ही सब चटक रहा होता था पर वह संयत रहती और खुद को हर दुखद-अपमानजनक परिस्थिति से खींच ही लाती। एक दिन जब खुद को गौर से आईने में निरखा तब पाया कि अब तो बालों में भी चांदी के कुछ तार उग आये थे। केशवी 41 की हो गयी थी। अश्विन प्रायः टूर्स पर या काम में ही व्यस्त रहते, देवर-ननद अपने अपने घर चले गए, सास- ससुर भगवान् के पास, बच्चे अपनी ज़िन्दगियों में मशरूफ, अब बच्चे दो-तीन  साल से बाहर रह रहे थे। तब केशवी ने खुद की ज़िन्दगी की कमान संभाली, अब रोकने टोकने वाला कोई नहीं था ।

उसने फिर से पढ़ाई शुरू की, खुद को अपडेट करना शुरू किया, मैनटैनेड व आकर्षक व्यक्तित्व की धनी तो वो पहले से थी ही पर अब मानसिक रूप से भी सशक्त होने लगी। और सबसे बड़ी बात थी उसमें ज़िन्दगी जीने का जज़्बा खूब था- she was not a quitter… go getter थी वो ।

पांच साल होते-होते उसने अपनी छोटी-सी फर्म शुरू की व वहां पेर्सनलिटी डेवलपमेंट की क्लासेज चलाने लगी। उसने इसी लाइन में डिग्री हासिल की थी, छोटा सा सेंटर था पर सफल होने लगा था और सबसे मज़े की बात घर में यह बात कोई नहीं जानता था क्योंकि उनके लिए केशवी की कोई वैल्यू ही नहीं थी।

वो क्या करती है, कहाँ जाती है -किसी को मतलब नहीं था और यहां केशवी पूरी जी जान से अपना सपना पूरा कर रही थी। केशवी के रिटर्न्स फाइल करने का काम उनका ऑडिटर ही सँभालता था पर अश्विन ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। उसे लगा की केशवी बाकी औरतों की तरह कोई टाइम पास कर रही होगी। अश्विन को उसके काम की कोई कद्र नहीं थी। वह जब तब घर पर मेहमान ले आता और केशवी को अपना  काम छोड़ कर इंतज़ामों में लगना पड़ता …! हद ही हो जाती जब अश्विन लंच टाइम में भी मेहमान बुला लेता और केशवी को ऑफिस छोड़ कर घर आकर वहां एक शो-पीस की तरह खड़ा होना पड़ता। पता नहीं कुछ औरतें किस मिट्टी की बनी होती हैं-लोहे से भी फौलाद, टूटती नहीं हैं, सब सह जाती हैंl

पांच साल बीतते-बीतते केशवी का वर्कशॉप रिक्रूटमेंट सेंटर भी बन गया था, केशवी खुद भी मेहनती थी और नयी तकनीक सीखने में तत्पर, साथ ही उसने यंग स्टाफ रखा था जो केशवी की कर्मठता से इतने प्रभावित थे कि वे भी काम में  पूरी जान लगा देते।

…और आज अश्विन ने उसके वर्कशॉप के एक ज़रूरी प्रोजेक्ट के लेटर को रद्दी कह कर फ़ेंक दिया था!

आज वो दिन था जब केशवी ने ठान लिया था कि बहुत हो गयी यह ज़िन्दगी… अब समय आ गया है खुल के जीने का … वह अपनी शादी की पूरी इज़्ज़त करती थी पर अब वह रद्दी का टुकड़ा बनकर जीने के लिए हरगिज़ तैयार नहीं थी।

“मिस्टर अश्विन आपको आपका घर और यह ऐशोआराम मुबारक … ! आय ऍम सेपरटिंग फ्रॉम यू, तलाक का नाम नहीं लूंगी क्योंकि कहीं न कहीं संस्कारों की ऐसी कंडीशनिंग है जो मेरे कदम रोक लेती।”

…और उस सुनहरी शाम केशवी ने अपने लैपटॉप बैग और पूरे स्वाभिमान के साथ घर छोड़ दिया क्योंकि वह रद्दी का टुकड़ा नहीं थी …कभी नहीं थी !

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